.. सीमित से असीम के बीच, क्षुद्र से विराट के बीच
पड़ाव है। सद्गुरु मंजिल नहीं है, वहां रुक नहीं जाना है।
वहां से छलांग लेनी है। सद्गुरु सीढ़ी है। उपयोग कर लेना है, धन्यवाद दे देना है और आगे बढ़ जाना है।
सद्गुरु की सीढ़ी का अर्थ होता हैः कुछ-कुछ
सीमित, कुछ-कुछ
असीम। एक हाथ सीमित, एक हाथ असीम। दिखाई पड़ता है सीमित और
जो नहीं दिखाई पड़ता है वह असीम। हमारी भांति देह में और परमात्मा की भांति
देह-हीन। मनुष्य और परमात्मा के बीच एक कड़ी है। चलता है, उठता
है, बैठता है, सोता है, खाता है, बस ठीक हम जैसा है। इसलिए उसका हाथ
पकड़ा जा सकता है। उसके चरणों में सिर रखा जा सकता है। उसके हृदय के पास कान लाए जा
सकते हैं और उसकी धड़कन सुनी जा सकती है। उसका गीत हमारी ही भाषा में गाया जा रहा
है।
कभी-कभी कठिन भी हो समझना, फिर भी असंभव तो नहीं।
शांत मन से, शून्य मन से समझा तो कुछ न कुछ बूंद तो पड़ ही
जाती है। न भरे घड़ा, पर बूंद भी पड़ जाए जल की, तो भी भरेपन की यात्रा शुरू हो गई। घड़े में एक बूंद भी गिरे तो घड़ा अब
उतना खाली नहीं रहा जितना पहले खाली था। और बूंद-बूंद मिलकर तो सागर बन जाते हैं।
सागर भर जाते हैं बूंद-बूंद होकर, तो गागर न भर जाएगी?
सद्गुरु हम जैसा है और हम जैसा नहीं भी। दूर
से देखोगे तो बिल्कुल हम जैसा और जैसे-जैसे पास आने लगोगे, वैसे-वैसे सद्गुरु एक
खिड़की बन जाता है और उससे अनंत का आकाश झांकने लगता है। जितने समीप आओगे उतना ही
पाओगे कि जो हम जैसा दिखता था, बिल्कुल हम जैसा नहीं है।
इसलिए जो सद्गुरु के करीब आए, उन्होंने गुरु को भगवान्
कहा। जो दूर रहे, वे सदा हैरान हुए, चौंके, परेशान हुए, तर्क-विचार
में पड़े, विवाद उठाया। उनका विवाद उठाना भी संगत है,
क्यांकि वे कहते हैं: कैसा यह भगवान्!
बुद्ध के शिष्य बुद्ध को भगवान् कहते थे। जो
नहीं पास आए बुद्ध के, जिन्होंने, बहुत दूर-दूर से देखा, उन्हें बुद्ध का अंतर्तम कैसे दिखाई पड़े? उन्हें
बुद्ध का भीतर कैसे अनुभव में आए? उन्हें बुद्ध के हृदय
की धड़कन कैसे सुनाई पड़े? उन्हें बुद्ध के शून्य का स्वाद
कैसे लगे? उन्होंने तो दूर से देखी बुद्ध की दशा, तो देह ही दिखाई पड़ी। और तब उन्होंने वे सब बातें देखीं जो आदमी में
होती हैं, सब आदमियों में होती हैं। बुद्ध कभी बीमार पड़ते
हैं, तो सोचा उन्होंनेः कैसा भगवान्! बुद्ध बूढ़े हुए,
तो सोचा उन्होंनेः कैसा भगवान्! भगवान् कभी बूढ़ा होता है?
भगवान कभी बीमार पड़ता है? बुद्ध को भूख
लगती है, भगवान को कभी भूख लगती है? और फिर एक दिन बुद्ध तिरोहित हो गए इस देह से, जैसे सब तिरोहित हो जाता है, तो बुद्ध की भी
मृत्यु घटित हुई। तो जो दूर थे, उन्होंने कहाः देखा! हम
पहले ही कहते थे, भगवान् कभी मरता है?
और उनकी बातों में संगति है और उनकी बातों
में भी सचाई है। मगर उन्होंने बुद्ध का आधा रूप ही देखा। उन्होंने बुद्ध का वर्तुल
देखा, लेकिन
केंद्र चूक गया। वे बुद्ध के मंदिर के बाहर-बाहर घूमे, मंदिर
की दीवार बाहर से देखी, मंदिर का देवता अपरिचित रह गया।
उन्होंने वीणा तो देखी बुद्ध की, लेकिन वीणा से उठता
संगीत नहीं देखा। वे इतने पास आए ही नहीं कि संगीत सुन सकते। उन्होंने फूल तो देखा
बुद्ध का, लेकिन फूल से उठती सुवास उनके नासापुटों में न
भरी। वे इतने दूर-दूर रहे, अपने को ऐसा बचाए रहे, कवच ओढ़े रहे, ढालों में अपने को छिपाए रहे,
कि बुद्ध की गंध उनके नासापुटों तक पहुंचे भी तो कैसे? सो वे भी ठीक ही कहते हैं कि क्यों एक मनुष्य को भगवान् कहते हो?
मगर जो पास आए, जिन्होंने हिम्मत जुटाई
. . . और पास आना हिम्मत की बात है, बड़ी हिम्मत की बात
है! बड़ी-से-बड़ी हिम्मत एक ही है इस जगत् में --सद्गुरु के पास आना। क्योंकि उसके
पास आने का अर्थ मिटना ही होता है। जैसे कोई नमक की डली सागर में उतर जाए, ऐसा है सद्गुरु में उतरना। नमक की डली गलेगी और खो जाएगी। खोने की
जिनमें तत्परता है, जिन्होंने जीवन देखा और जीवन की
व्यर्थता देखी, जिन्होंने जीवन पहचाना और जीवन की असारता
पहचानी, जिन्होंने जीवन को सब तरफ से टटोला और खाली और
रिक्त और खोखा पाया, वे ही तैयार होते हैं कि ठीक है,
जीवन में तो कुछ भी नहीं है, अब इस
यात्रा पर भी निकल कर देखें! अब यह अभीप्सा और। और सब यात्राएं कर चुके, दसों दिशाओं की यात्रा कर चुके, अब इस
ग्यारहवीं दिशा की यात्रा और। यह भी क्यों चूकें? कौन
जाने जो कहीं और नहीं मिला यहां मिले!
जो पास गए हैं उन्होंने सदा कहाः मिला है।
कौन जाने, ठीक
ही कहते हों! तो जो पास आने की हिम्मत किए हैं, जैसे-जैसे
पास आए, देह तिरोहित होती गई। जैसे-जैसे पास आए, देह के भीतर जो विराजमान चैतन्य था, वह स्पष्ट
होने लगा। भगवत्ता आविर्भूत होने लगी। सुगंध आने लगी। संगीत सुनाई पड़ने लगा। और जब
संगीत सुनाई पड़ जाए तो वीणा गौण हो जाती है। वीणा का प्रयोजन तो संगीत सुनाई पड़
जाए, बस उतने तक है। निमित्त है।
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
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