मैं अपने गांव जाता हूं। मेरे एक वृद्ध
शिक्षक हैं। उनके यहां मैं हमेशा जाता था। पीछे एक बार सात-आठ दिन गांव पर रुका, तो उनके घर रोज गया।
सुबह-सुबह उनके घर जाता। दूसरे दिन उन्होंने खबर भेजी कि मैं उनके घर न आऊं। मैंने
उनके लड़के को पूछा कि उन्होंने ऐसी खबर क्यों भेजी है? तो
उसने कहा, उन्होंने एक चिट्ठी भी दी है। उस चिट्ठी पर
लिखा था कि मेरे घर आते हो तो मुझे बहुत खुशी होती है, मेरे
आनंद का ठिकाना नहीं होता। लेकिन मैं चाहता हूं, मेरे घर
मत आओ। क्योंकि कल मैं पूजा करने बैठा, और तुम्हारी बातों
का यह परिणाम हुआ, कि मैं जब पूजा करने बैठा तो मुझे यह
शक होने लगा कि पता नहीं, यह सब मूर्खता तो नहीं है यह जो
मैं कर रहा हूं? यह सब आरती उतारना, सब यह बालपन तो नहीं है? और जो पत्थर की
मूर्ति सामने रखी है, सच में वह पत्थर ही तो नहीं है?
और मैं तीस-चालीस वर्षों से पूजा कर रहा हूं और मेरे मन में
संदेह आ गया; मैं डर गया। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूं
कि मेरे घर दुबारा मत आना।
मैंने उनको पत्र लिखा कि मैं अब आऊं या न
आऊं, जो होना
था वह हो गया। और मैं आपसे यह भी प्रार्थना करता हूं कि संदेह मैंने पैदा नहीं
किया है। वह निरंतर चालीस वर्ष आपने पूजा की है, लेकिन
पूजा के पीछे वह संदेह खड़ा ही रहा है।
श्रद्धा करने से कहीं संदेह नष्ट हुआ है? श्रद्धा ऊपर से थोप
लेंगे, संदेह भीतर खड़ा रहेगा। प्रेम करने से कहीं घृणा
नष्ट हुई है? प्रेम ऊपर से दिखाएंगे, भीतर घृणा मौजूद रहेगी। आदर देने से कहीं अनादर का भाव नष्ट हुआ है?
आदर ऊपर से थोप लेंगे, भीतर अनादर बना
रहेगा और आप जटिल होते चले जाएंगे।
इसलिए मैं उस श्रद्धा को कहता हूं कि छोड़
दें जिसके पीछे संदेह मौजूद है। जिस दिन संदेह विलीन हो जाता है, उस दिन जो शेष रह जाती
है, उसका नाम श्रद्धा है। इसलिए मैं उस प्रेम को व्यर्थ
कहता हूं जिसके भीतर घृणा छिपी है। जिस दिन घृणा विसर्जित हो जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वह प्रेम है। इसलिए उस
मित्रता का कोई अर्थ नहीं है जिसके भीतर शत्रु होने की संभावना है।
जिस दिन शत्रुता का भाव गिर जाता है, उस दिन जो शेष रह जाता
है, वह मैत्री की भावना है। इसलिए उस सुख का कोई मूल्य
नहीं है जिसके पीछे दुख बैठा हुआ है। जिस दिन दुख विलीन हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। लेकिन हम
तो निरंतर विरोध से भरे हैं। जो विरोध से भरा है, उसका
चित्त जटिल होगा, कांप्लेक्स होगा। जो विरोध से भरा है,
उसका चित्त निरंतर कांफ्लिक्ट में और द्वंद्व में होगा।
और बड़े समझ लेने की बात है, जो चित्त निरंतर द्वंद्व
करता है, उस चित्त की ज्ञान की क्षमता क्षीण होती जाती
है। क्योंकि जो निरंतर द्वंद्व में लगा है, उसकी संचेतना,
उसकी कांशसनेस, उसका बोध निरंतर धीमा और
फीका होता जाता है। जो निरंतर लड़ाई में लगा है, वह
दिन-रात लड़ते-लड़ते धीरे-धीरे बोथला हो जाता है। उसकी संवेदनशीलता, उसकी सेंसिटिविटी कम हो जाती है। जो निरंतर द्वंद्व में है, वह धीरे-धीरे मंदबुद्धि होता चला जाता है। उसका विवेक विकसित तो नहीं
होता, क्षीण होता चला जाता है।
अमृत की दशा
ओशो
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