एक घटना मुझे बहुत प्रीतिकर है। एक बहुत बड़ा मेला लगा हुआ है। और उस मेले के पास ही एक कुएं में एक आदमी गिर
पड़ा है और वह चिल्ला रहा है--कि मुझे निकाल लो, मुझे बाहर निकाल लो। मैं डूब रहा हूं, मैं
डूबा जा रहा हूं।
वह किसी तरह ईंटों को पकड़े हुए है, किसी तरह संभले हुए
है। कुंआ गहरा है, और वह आदमी तैरना नहीं जानता है।
लेकिन मेले में बहुत शोरगुल है, किसको सुनायी
पड़े। लेकिन एक बौद्ध भिक्षु उस कुएं के
पास से निकला है, पानी पीने को झुका है। नीचे से आवाज आ रही है। उसके झुककर नीचे देखा। वह आदमी चिल्लाने लगा, कि भिक्षुजी मुझे बाहर निकाल लें।
मैं मरा जा रहा हूं। कोई उपाय
करें। अब मेरे हाथ भी छूटे जा रहे हैं।
उस भिक्षु ने कहा, क्यों व्यर्थ परेशान हो
रहे हो निकलने के लिए। जीवन एक दुख
है। भगवान ने कहा है, जीवन दुख है। बुद्ध ने कहा है,
जीवन दुख है। जीवन तो एक
पीड़ा है। निकलकर भी क्या करोगे? सब तरफ दुख ही दुख है। फिर
भगवान ने यह भी कहा है कि जीवन में जो भी होता है, वह पिछले
जन्मों के कर्म-फल के कारण होता है। तुमने
किसी को किसी जन्म में गिराया होगा कुएं में।
इसलिए तुम भी गिरे हो। अपना फल
भोगना ही पड़ता है। फल को भोग लो तो कर्म
के जाल से मुक्त हो जाओगे। अब व्यर्थ
निकलने की कोशिश मत करो। वह भिक्षु तो
पानी पीकर आगे बढ़ गया!
उस भिक्षु ने गलत बातें नहीं कहीं। जो शास्त्रों में लिखा है, वही कहा। वह जानता था।
वह सामने मरता हुआ आदमी उसे दिखायी नहीं पड़ा, क्योंकि
बीच में उसके जाने हुए शास्त्र आ गये! वह आदमी डूब रहा है, वह उसे दिखायी नहीं पड़ रहा है।
उसे कर्म का सिद्धांत दिखायी पड़ रहा है! उसे जीवन की असारता दिखायी पड़ रही
है! वह उस आदमी को उपदेश देकर आगे बढ़ गया! उपदेशक से ज्यादा कठोर कोई भी नहीं
होता।
वह आगे जा भी नहीं पाया है कि पीछे से एक
कनफ्यूशियन मांक, एक कनफ्यूशियस को मानने वाला संन्यासी आ गया। उसने भी आवाज सुनी। उसने भी झांककर देखा है।
उसने कहा, "मेरे मित्र, कनफ्यूशियस
ने अपनी किताब में लिखा हुआ है कि हर कुएं के ऊपर घाट होना चाहिए, पाट होना चाहिए; दीवाल होनी चाहिए, ताकि कोई गिर न सके। इस कुएं
पर दीवाल नहीं है, इसलिए तुम गिर गये। हम तो कितने दिन से समझाते फिरते हैं गांव-गांव
कि जो कनफ्यूशियस ने कहा है, वही होना चाहिए। तुम घबराओ मत, मैं
जाकर आंदोलन करूंगा। मैं लोगों को
समझाऊंगा। हम राजा के पास जायेंगे। हम
कहेंगे कि कनफ्यूशियस ने कहा है कि हर कुएं पर दीवाल होनी चाहिए, ताकि कोई गिर न सके। तुम्हारे
राज्य में दीवालें नहीं हैं, लोग गिर रहे हैं। '
उसने कहा कि "वह सब ठीक है। लेकिन तब तक मैं मर जाऊंगा। पहले मुझे निकाल लो। '
उस आदमी ने कहा, "तुम्हारा सवाल
नहीं है। यह तो जनता-जनार्दन का सवाल
है। एक आदमी के मरने-जीने से कोई फर्क
नहीं पड़ता। सबके लिए सवाल है। तुम अपने को धन्य समझो कि तुमने आंदोलन की
शुरुआत करवा दी! तुम शहीद हो!'
वह आदमी डूबता रहा, वह आदमी चिल्लाता रहा और
वह कनफ्यूशियस को मानने वाला भिक्षु जाकर मंच पर खड़ा हो गया। उसने मेले में हजारों लोग इकट्ठे कर लिए और
उसने कहा कि देखो, जब तक कुओं पर पाट नहीं बनता, तब तक मनुष्य-जाति को बहुत दुख झेलने पड़ेंगे। हर कुएं पर पाट होना चाहिए। अच्छे राज्य का यह लक्षण है। कनफ्यूशियस ने किताब में लिखा हुआ है। वह अपनी किताब खोलकर लोगों को दिखा रहा है!
वह आदमी चिल्ला ही रहा है। लेकिन उस मेले में कौन सुने? एक ईसाई पादरी वहां से
गुजरा है। नीचे से आवाज उसने सुनी है,
उसने जल्दी से अपने कपड़े उतारे! अपनी झोले में से रस्सी निकाली!
वह अपने झोले में रस्सी रखे हुए था! उसने रस्सी नीचे फेंकी, वह कूदा कुएं में, उस आदमी को निकालकर बाहर
लाया।
उस आदमी ने कहा, "तुम ही एक आदमी
मुझे दिखायी पड़े। एक बौद्ध भिक्षु निकल
गया उपदेश देता हुआ, एक कनफ्यूशियस को मानने वाला भिक्षु
निकल गया! "आंदोलन चलाने चला गया है! वह देखो मंच पर खड़ा हुआ, आंदोलन चला रहा है! तुम्हारी बड़ी कृपा है, तुमने
बहुत अच्छा किया। '
वह ईसाई मिशनरी हंसने लगा। उसने कहा,
"कृपा मेरी तुम पर नहीं, तुम्हारी
मुझ पर है। तुम कुएं में न गिरते तो मैं
पुण्य से वंचित रहता। जीसस क्राइस्ट ने
कहा है पता नहीं? सर्विस--सेवा ही परमात्मा तक पहुंचने का
मार्ग है, मैं परमात्मा को खोज रहा हूं। मैं इसी तलाश में रहता हूं कि कहीं कोई कुएं
में गिर पड़े तो मैं कूद जाऊं। कहीं कोई
बीमार हो जाये तो मैं सेवा करूं, कहीं किसी की आंखें फूट
जायें तो मैं दवा ले आऊं, कहीं कोई कोढ़ी हो जायें तो मैं
इलाज करूं। मैं तो इसी कोशिश में
घूमता-फिरता हूं, इसलिए रस्सी हमेशा अपने पास रखता हूं कि
कहीं कोई कुएं में गिर जाये! तुमने मुझ पर कृपा की है, क्योंकि
बिना सेवा के मोक्ष पाने का कोई उपाय नहीं है।
हमेशा ऐसी ही कृपा बनाये रखना, ताकि हम मोक्ष जा
सकें। हमारी किताब में लिखा हुआ है। '
उस आदमी ने सोचा होगा कि शायद इसने मुझ पर
दया की है तो वह गलती में था। इस आदमी से
किसी को भी मतलब नहीं है! यह आदमी किसी को दिखायी नहीं पड़ता! सबकी अपनी किताबें
हैं, अपने
सिद्धांत हैं। सबका अपना ज्ञान है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच ज्ञान की दीवालें
हैं! मनुष्य और वृक्षों के बीच ज्ञान की दीवालें हैं! मनुष्य और समुद्रों के बीच
ज्ञान की दीवालें हैं! मनुष्य और परमात्मा के बीच ज्ञान की दीवालें हैं!
साधक को ज्ञान की दीवाल बड़ी बेरहमी से तोड़
देनी चाहिए, गिरा
देनी चाहिए। एक-एक इट गिरा देनी चाहिए
जानने की और ऐसे खड़े हो जाना चाहिए, जैसे मैं कुछ भी नहीं
जानता हूं। तो तो जीवन से संबंध हो सकता
है, अन्यथा नहीं।
तो तो हम जुड़ सकते हैं, तो तो इसी क्षण संवाद हो
सकता है। इसी क्षण संबंध हो सकता है--इसी
क्षण। कौन रोकता है फिर, फिर कौन बाधा देने को है?
नेति नेति (सत्य की खोज)
ओशो
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