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Tuesday, March 7, 2017

मृत्यु का पहला अनुभव



छोटा था, तो जिनके पास मैं बड़ा हुआ, दुर्भाग्य से या सौभाग्य से वे बहुत जल्दी दुनिया से विदा हो गए। मैं सात ही वर्ष का था तब उनकी मृत्यु आ गई। और मैंने उन्हें धीरे-धीरे मरते देखा। वे एकदम से नहीं मरे; पहले उनकी वाणी खो गई, फिर उनकी आंखें बंद हो गईं, फिर वे बेहोश हो गए और चौबीस घंटे बेहोश रहे। और फिर उसी बेहोशी में धीरे-धीरे, जैसे कोई दीये का तेल चुकता जाए, चुकता जाए और धीमी लौ होती जाए, ऐसे धीरे-धीरे वे डूबे और खो गए। उनको ही मैंने चाहा और प्रेम किया था। उनके पास ही बड़ा हुआ था। उस क्षण तो ऐसा ही लगा था--बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हुआ।

लेकिन पता नहीं, दुर्भाग्य बहुत बार सौभाग्य भी बन जाते हैं। मेरे लिए मृत्यु की वह पहली घटना थी। और जिसे मैंने चाहा था, उसके विदा हो जाने की भी पहली घटना थी। सारा घर तो रोने लगा, दुखी और पीड़ित होने लगा। पर मुझे निरंतर एक ही बात मन में लगने लगी कि अगर वे नहीं रहे हैं तो अब मेरे रहने की भी क्या जरूरत है? और जिसे मैंने प्रेम किया वही नहीं है, तो अब मैं भी न रहूं। मुझे रोना भी न सूझा। अब आज मुझे समझ में आता है कि रोकर हम दुख प्रकट तो करते हैं, शायद दुख को बहाने की कोशिश करते हैं। अब मैं समझ पाता हूं कि रो-धो कर, चीख-चिल्ला कर, वह जो पीड़ा हम पर उतरी है, उससे हम छुटकारा पा लेते हैं, उसकी रिलीज हो जाती है, वह निकल जाती है।

मैं नहीं रो सका, क्योंकि मुझे लगा कि अगर कोई जिसे मैंने चाहा है, समाप्त हो गया है, तो अब मैं भी समाप्त हो जाऊं, अब मुझे भी जीने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें लोग मरघट ले गए, मुझे लोग घर में बंद कर गए छोटा बच्चा सोच कर--कि मैं मरघट जाऊं, पता नहीं मरघट को देखूं, कैसा मन पर आघात लगे; फिर उन्हें मैं प्रेम करता था, उन्हें जलते देखूं। लेकिन जब घर के लोग चले गए तो मैं भी चुपचाप पीछे के रास्ते से मरघट पहुंच गया। मुझे कुछ पक्का पता न था वहां क्या होने को है। डर था कि घर के लोग नाराज होंगे, छिप कर, वृक्ष पर बैठ कर ही मैंने उन्हें जलते देखा। लौट आया। उस रात मैं एक ही प्रार्थना लेकर सो गया कि मैं भी मर जाऊं! भगवान, ऐसा कर कि मैं भी मर जाऊं! जब तक मुझे रात नींद नहीं लगी, एक ही बात मेरे मन में गूंजती रही कि मैं भी मर जाऊं, मुझे भी समाप्त हो जाना है। कब मुझे नींद लग गई, पता नहीं है, लेकिन नींद में भी मेरे मन में यही स्वर दौड़ता रहा, दौड़ता रहा कि मैं मर जाऊं, मैं मर जाऊं, मैं मर जाऊं।

कोई रात के दो या तीन बजे अचानक मेरी नींद टूटी और मुझे लगा कि वह जिसे मैं कह रहा था कि मर जाऊं, मर गया है। सब मर गया है। हाथ हिला नहीं सकता हूं, आंख खोल नहीं सकता हूं, श्वास का कोई पता नहीं मालूम पड़ता है, शरीर है भी या नहीं, उसका भी कुछ पता नहीं पड़ता है। सब मर गया है। लेकिन एक और आश्चर्य कि सब मर गया है, फिर भी मैं हूं--चूंकि मुझे पता चल रहा है कि सब मर गया है। दोनों बातें एक साथ--सब मर गया है और फिर भी मैं हूं। यह भी पता चल रहा है कि मैं हूं। क्योंकि अगर मैं नहीं हूं तो किसे मालूम हो रहा है कि सब मर गया है?

छोटी ही उम्र थी, लेकिन उसी दिन से मृत्यु मेरे लिए समाप्त हो गई। उस दिन के बाद बहुत प्रियजन मरे, लेकिन फिर मेरे लिए कोई नहीं मरा। दूसरे दिन सुबह मैं जितनी शांति और आनंद से भरा था, वैसी शांति उस दिन तक मैंने कभी न जानी थी, वैसा आनंद भी न जाना था। एक अनुभव से होकर गुजरा था। अब लौट कर कह सकता हूं--उस दिन तो पता नहीं था, लेकिन अब लौट कर कह सकता हूं--समाधि के द्वार पर वह पहला, पहला झांकना था।


समाधि के द्वार पर जिसे झांकना है उसे जीते जी मरने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। लेकिन हम सब तो मरने से बहुत डरे हुए लोग हैं। हम तो जीवन भर इस कोशिश में रहते हैं कि कहीं मर न जाएं। हमारा सारा प्रयास एक ही बात के लिए है कि मर न जाएं। हमारे दर्शन, हमारे धर्म, हमारी फिलासफीज, हमारे गुरु एक ही बात के लिए इंतजाम दे रहे हैं कि घबड़ाओ मत, घबड़ाओ मत। और अगर हम आत्मा की अमरता की बात भी मानते हैं, तो इसलिए नहीं कि हमें पता है कि आत्मा अमर है,  बल्कि इसलिए कि इससे मरने का भय कम होता है। 



समाधि के द्वार पर 

ओशो 

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