बुद्ध
का एक शिष्य था। वह नया-नया दीक्षित हुआ था, उसने संन्यास लिया था। और बुद्ध को उसने
कहा, मैं आज कहां भिक्षा मांगने जाऊं?
उन्होंने
कहा, मेरी एक श्राविका है, वहां चले जाना।
वह
वहां गया। वह जब भोजन करने को बैठा, तो बहुत हैरान हुआ, रास्ते में इसी भोजन का उसे
खयाल आया था। यह भोजन उसे प्रिय था। पर उसने सोचा था कि कौन मुझे देगा? आज कौन मुझे
मेरे प्रिय भोजन को देगा? वह कल तक राजकुमार था और जो उसे पसंद था, वह खाता था। लेकिन
उस श्राविका के घर वही भोजन देख कर वह बहुत हैरान हो गया। सोचा, संयोग की बात है, वही
आज बना होगा। जब वह भोजन कर रहा है, उसे अचानक खयाल आया, भोजन के बाद तो मैं विश्राम
करता था रोज। लेकिन आज तो मैं भिखारी हूं। भोजन के बाद वापस जाना होगा। दोत्तीन मील
का फासला फिर धूप में तय करना है।
वह
श्राविका पंखा करती थी, उसने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम कर लेंगे
तो मुझ पर बहुत अनुग्रह होगा।
भिक्षु
फिर थोड़ा हैरान हुआ कि क्या मेरी बात किसी भांति पहुंच गई! फिर उसने सोचा, संयोग की
ही बात होगी कि मैंने भी सोचा और उसने भी उसी वक्त पूछ लिया। चटाई डाल दी गई। वह विश्राम
करने लेटा ही था कि उसे खयाल आया, आज न तो अपनी कोई शय्या है, न अपना कोई साया है;
अपने पास कुछ भी नहीं।
वह
श्राविका जाती थी, लौट कर रुक गई, उसने कहा, भंते, शय्या भी किसी की नहीं है, साया
भी किसी का नहीं है। चिंता न करें।
अब
संयोग मान लेना कठिन था। वह उठ कर बैठ गया। उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं! क्या मेरे
भाव पढ़ लिए जाते हैं?
वह
श्राविका हंसने लगी। उसने कहा, बहुत दिन ध्यान का प्रयोग करने से चित्त शांत हो गया।
दूसरे के भाव भी थोड़े-बहुत अनुभव में आ जाते हैं।
वह
एकदम उठ कर खड़ा हो गया। वह एकदम घबड़ा गया और कंपने लगा। उस श्राविका ने कहा, आप घबड़ाते
क्यों हैं? कंपते क्यों हैं? क्या हो गया? विश्राम करिए। अभी तो लेटे ही थे।
उसने
कहा, मुझे जाने दें, आज्ञा दें। उसने आंखें नीचे झुका लीं और वह चोरों की तरह वहां
से भागा।
श्राविका
ने कहा, क्या बात है? क्यों परेशान हैं?
फिर
उसने लौट कर भी नहीं देखा। उसने बुद्ध को जाकर कहा, उस द्वार पर अब कभी न जाऊंगा।
बुद्ध
ने कहा, क्या हो गया? भोजन ठीक नहीं था? सम्मान नहीं मिला? कोई भूल-चूक हुई?
उसने
कहा, भोजन भी मेरे लिए प्रीतिकर जो है, वही था। सम्मान भी बहुत मिला, प्रेम और आदर
भी था। लेकिन वहां नहीं जाऊंगा। कृपा करें! वहां जाने की आज्ञा न दें।
बुद्ध
ने कहा, इतने घबड़ाए क्यों हो? इतने परेशान क्यों हो?
उसने
कहा, वह श्राविका दूसरे के विचार पढ़ लेती है। और जब मैं आज भोजन कर रहा था, उस सुंदर
युवती को देख कर मेरे मन में तो विकार भी उठे थे। वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह
से वहां जाऊं? मैं तो आंखें नीची करके वहां से भागा हूं। वह मुझे भंते कह रही थी, मुझे
भिक्षु कह रही थी, मुझे आदर दे रही थी। मेरे प्राण कंप गए। मेरे मन में क्या उठा? और
उसने पढ़ लिया होगा। फिर भी मुझे भिक्षु और भंते कह कर आदर दे रही थी! उसने कहा, मुझे
क्षमा करें। वहां मैं नहीं जाऊंगा।
बुद्ध
ने कहा, तुम्हें वहां जान कर भेजा है। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। वहीं जाना पड़ेगा।
रोज वहीं जाना पड़ेगा। जब तक मैं न कहूं या जब तक तुम आकर मुझसे न कहो कि अब मैं वहां
जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा। जब तक तुम मुझसे आकर यह न कहो कि अब मैं रोज वहां
जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा। वह तुम्हारी साधना का हिस्सा है।
उसने
कहा, लेकिन मैं कैसे जाऊंगा? किस मुंह को लेकर जाऊंगा? और कल अगर फिर वही विचार उठे
तो मैं क्या करूंगा?
बुद्ध
ने कहा, तुम एक ही काम करना, एक छोटा सा काम करना, और कुछ मत करना, जो भी विचार उठे,
उसे देखते हुए जाना। विकार उठे, उसे भी देखना। कोई भाव मन में आए, काम आए, क्रोध आए,
कुछ भी आए, उसे देखना, और कुछ मत करना। तुम सचेत रहना भीतर। जैसे कोई अंधकारपूर्ण गृह
में एक दीये को जला दे और उस घर की सब चीजें दिखाई पड़ने लगें, ऐसे ही तुम अपने भीतर
अपने बोध को जगाए रखना कि तुम्हारे भीतर जो भी चले, वह दिखाई पड़े। वह स्पष्ट दिखाई
पड़ता रहे। बस तुम ऐसे जाना।
वह
भिक्षु गया। उसे जाना पड़ा। भय था, पता नहीं क्या होगा? लेकिन वह अभय होकर लौटा। वह
नाचता हुआ लौटा। कल डरा हुआ आया था, आज नाचता हुआ आया। कल आंखें नीचे झुकी थीं, आज
आंखें आकाश को देखती थीं। आज उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, जब वह लौटा। और बुद्ध
के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि धन्य! क्या हुआ यह? जब मैं सजग था, तो मैंने पाया
वहां तो सन्नाटा है। जब मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ा, तो मुझे अपनी श्वास भी मालूम पड़ रही
थी कि भीतर जा रही है, बाहर जा रही है। मुझे हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगी थी। इतना
सन्नाटा था मेरे भीतर। कोई विचार सरकता तो मुझे दिखता। लेकिन कोई सरक नहीं रहा था।
मैं एकदम शांत उसकी सीढ़ियां चढ़ा। मेरे पैर उठे तो मुझे मालूम था कि मैंने बायां पैर
उठाया और दायां रखा। और मैं भीतर गया और मैं भोजन करने बैठा। यह जीवन में पहली दफा
हुआ कि मैं भोजन कर रहा था तो मुझे कौर भी दिखाई पड़ता था। मेरा हाथ का कंपन भी मालूम
होता था। श्वास का कंपन भी मुझे स्पर्श और अनुभव हो रहा था। और तब मैं बड़ा हैरान हो
गया, मेरे भीतर कुछ भी नहीं था, वहां एकदम सन्नाटा था। वहां कोई विचार नहीं था, कोई
विकार नहीं था।
बुद्ध
ने कहा, जो भीतर सचेत है, जो भीतर जागा हुआ है, जो भीतर होश में है, विकार उसके द्वार
पर आने वैसे ही बंद हो जाते हैं, जैसे किसी घर में प्रकाश हो तो उस घर में चोर नहीं
आते। जिस घर में प्रकाश हो तो उससे चोर दूर से ही निकल जाते हैं। वैसे ही जिसके मन
में बोध हो, जागरण हो, अमूर्च्छा हो, अवेयरनेस हो, उस चित्त के द्वार पर विकार आने
बंद हो जाते हैं। वे शून्य हो जाते हैं।
अमृत की दशा
ओशो
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