वनवास के दिनों में एक सुबह युधिष्ठिर अपने
झोपड़े पर बैठे हैं और एक भिखारी ने भिक्षापात्र उनके सामने फैलाया है। युधिष्ठिर
ने कहा, कल!
कल ले लेना, कल आ जाना, कल दे
दूंगा!
भीम बैठा हुआ सुनता था, वह जोर से हंसने लगा!
पास में पड़े हुए घंटे को उठाकर वह बजाने लगा और गांव की तरफ भागने लगा!
युधिष्ठिर ने पूछा, क्या हुआ है तुझे,
पागल हो गया?
भीम के कहा, पागल नहीं हुआ हूं। यह जानकर बहुत खुश हुआ
हूं कि मेरे भाई ने कल कुछ करने का वायदा किया है। जाऊं गांव में खबर कर आऊं कि
मेरे भाई ने समय को जीत लिया है, क्योंकि मैंने आज तक
सुना नहीं है कि कल कोई भी कुछ कर सका हो। तुमने कहा है, कल
देंगे! जाऊं खबर कर आऊं गांव में, क्योंकि इतिहास में ऐसी
घटना नहीं घटी है।
बहुत मजे की बात है। कल तो कुछ भी नहीं किया
जा सकता। जो भी किया जा सकता है--अभी और यहां; आज, इसी क्षण।
जिस कल की हम बात करते हैं, वह कल्पना के अतिरिक्त
और कहीं भी नहीं रहेगा। वह कभी नहीं रहेगा। कल कभी नहीं आता। जो आता है, वह आज है, अभी है।
लेकिन हमारा मन जीता है कल में! जो अभी हो
सकता है, उसे
कल पर छोड़ते हैं! और कल कभी नहीं होगा। फिर यह कल की लंबी धारा, आने वाले कलों की लंबी कल्पना मन पर बैठती चली जाती है, मन को खींचती चली जाती है। इसका बोझ बहुत ज्यादा है, वह हमें पता नहीं! हमें उन्हीं बोझों का पता चलता है, जिनके हम आदी नहीं होते। और भविष्य के बोझ के हम पैदा होने के क्षण के
साथ आदी हो जाते हैं! वह हमें पता नहीं चलता!
गागरिन जब पहली दफा अंतरिक्ष में गया तो
उसने लिखा कि पहली बार मुझे पता चला कि पृथ्वी पर कितना बोझ था! लेकिन हमें कुछ
पता नहीं चलता!
गागरिन जब लौटकर पृथ्वी पर आया तो लोगों ने
उससे पूछा कि सबसे नया अनुभव क्या हुआ?
उसने कहा, सबसे नया अनुभव हुआ गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो
जाने का। शरीर निर्भार हो गया! समझ में नहीं पड़ा कि यही मेरा शरीर है! और यह भी
समझ में नहीं पड़ा कि इतना बोझ इस शरीर पर पृथ्वी पर था, इतना
खिंचाव इस शरीर पर था! शरीर हल्का रुई की तरह हो गया--जैसे शरीर है ही नहीं,
ऐसा अनुभव हुआ! हवा में जैसे ऊपर तैरने लगा शरीर। यान की छत से
लग गया जाकर। कोई वजन नहीं रहा। हाथ उठायें तो मालूम नहीं पड़े कि उठाया कि नहीं
उठाया। सारा शरीर निर्भार हो गया!
लेकिन हमारे शरीर पर कितना बोझ है, वह हमें पता नहीं चलता,
क्योंकि जमीन पर ही हम पैदा होते हैं, जमीन
पर ही हम बड़े होते हैं, जमीन पर ही मर जाते हैं। वह जिसको
हम शरीर का वजन कहते हैं, शरीर का वजन नहीं है। अगर दो सौ
पौंड शरीर का वजन है तो शरीर का कोई वजन नहीं होता। वह जमीन खींच रही है इतनी ताकत
से कि शरीर पर दो सौ पौंड का भार पड़ रहा है। लेकिन हम उसमें जीते हैं। हमें इसका
कोई पता नहीं है, क्योंकि हम उसमें ही जन्मते हैं,
उसमें ही आदत बन जाती है।
ऐसे ही भविष्य का--न मालूम और कितना बड़ा बोझ
है, कितनी
कशिश है। जमीन से भी ज्यादा, लेकिन हमें पता नहीं चलता!
हम बचपन से ही कल में जीते हैं--आगे! आगे और आगे!
नेति नेति (सत्य की खोज)
ओशो
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