अकसर ऐसा मैंने देखा है कि पापी उससे करीब
और पुण्यात्मा उससे दूर; और अज्ञानी उसके करीब, और ज्ञानी उससे दूर;
और भोगी उसके करीब, और त्यागी उससे दूर।
ऐसा मेरा हजारों व्यक्तियों के जीवन में देखने का परिणाम है, निष्कर्ष है। क्योंकि अज्ञानी को तो अकड़ नहीं होती। अज्ञानी तो कहता है:
"मैं अज्ञानी, मैं कहां जान सकूंगा? मैं कैसे जान सकूंगा? बड़े बड़े ज्ञानी पड़े हैं, वे नहीं जान पाते, मेरी क्या बिसात! बस इसी में उसकी बिसात है। इसी में उसका बल है। पापी
तो रोता है। उसके पास तो आंसुओं के अतिरिक्त और कोई संपदा नहीं है। प्रार्थना कर
सकता है, लेकिन पुण्य का कोई दावा नहीं है।'
और प्रार्थना रुदन के अतिरिक्त और है क्या? प्रार्थना व्यवस्थित ढंग
से रोना ही तो है। अज्ञात के चरणों में अपने आंसू गिराना ही तो है! लेकिन दावा
नहीं हो सकता।
इसलिए अकसर पापी उसके करीब होता है, पुण्यात्मा से।
पुण्यात्मा दावेदार होता है--इतना मैंने किया है! उसके खाते-बही में हिसाब-किताब
है। उसके पास गणित है। झुकने की उसकी तैयारी नहीं है। हकदार की तरह मांग करने आया
है।
इसलिए जीसस ने ठीक ही कहा है: जो अंतिम हैं
वे प्रथम हो जाएंगे और जो प्रथम हैं वे अंतिम रह जाएंगे!
बेबूझ-सा लगनेवाला यह वचन बड़ा अर्थपूर्ण है।
पापी उसके करीब हो जाते हैं, पुण्यात्मा उससे दूर हो जाते हैं।
और ध्यान रखना, मैं तुमसे यह नहीं कह
रहा हूं कि तुम पाप करो। मैं तुमसे कह रहा हूं: पुण्य करो, लेकिन पुण्य का दावा न हो। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि अज्ञानी
रहो। मैं तुमसे कह रहा हूं: जानो, लेकिन जानने को दावा
मत बनने दो। जानना तुम्हारे निर्दोषपन को विकृत न कर पाए। ज्ञान तुम्हारी छाती पर
बोझ की तरह होकर न बैठ जाए। ज्ञान तुम्हें अकड़ाए न।
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
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