जान कर भी क्या होगा? अगर अनंत-अनंत पृथ्वियों
पर भी लोग हों तो क्या होगा? पड़ोसी से तो प्रेम नहीं हो
पा रहा है। शामून अली! मुसलमान हिंदू को प्रेम नहीं कर पा रहा है, जैन मुसलमान को प्रेम नहीं कर पा रहा है। भारतीय चीनी को प्रेम नहीं कर
पा रहा है। पड़ोसी से प्रेम नहीं हो पा रहा है। दूर तारों पर अगर लोग बसे भी होंगे
तो क्या करोगे? अभी पड़ोसी से तो संबंध नहीं जुड़े हमारे।
अभी पति तो पत्नी से प्रेम नहीं कर पा रहा है, पत्नी तो
पति से प्रेम नहीं कर पा रही है। अभी तो प्रेम के नाम पर न मालूम कितने ढंग की
राजनीतियां चल रही हैं! अभी तो प्रेम के नाम पर एक-दूसरे पर कब्जे की कोशिश की जा
रही है। अभी तो भाई भाई का दुश्मन है, अभी तो आदमी आदमी
की हत्या के पीछे संलग्न है। अभी तो इस पृथ्वी से युद्ध अंत नहीं हुए, घृणा अंत नहीं हुई। अभी इस पृथ्वी पर भाईचारा, प्रेम, अभी मैत्री का सूरज यहां नहीं उगा। अगर
होंगे भी दूर कहीं चांदत्तारों के पास किन्हीं ग्रह-उपग्रहों पर लोग तो क्या करोगे?
मान लो कि हैं, फिर? या मान लो कि नहीं हैं. . .।
इस तरह के परिकाल्पनिक प्रश्नों में उलझ कर
समय व्यय न करो। क्योंकि यही समय यही ऊर्जा प्रार्थना बन सकती है। क्यों बना है
अस्तित्व, इसका
कभी कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि जो भी उत्तर दिए जाएंगे उन्हीं उत्तरों
पर यह प्रश्न पुनः पूछा जा सकता है। कोई कहे ईश्वर ने बनाया है तो पूछा जा सकता है,
क्यों? और कोई कहे ईश्वर ने अपनी मौज से
बनाया है तो पूछा जा सकता है, इसके बनाने के पहले उसे मौज
न थी? दुःखी था ? कोई कहे कि
लीला कर रहा है, तो अकेला ही है, लीला किसके सामने हो रही है? तो क्या कोई छोटा
बच्चा है जो भटक गया है--जो रात के अंधेरे में अपने को ही ढाढस बंधाने को सीटी बजा
रहा है?
ईश्वर ने जगत् क्यों बनाया? यह प्रश्न वैसे का वैसा
ही रहेगा। और अगर कोई उत्तर भी मिल जाए तो सवाल उठेगा, ईश्वर
क्यों है? ईश्वर को किसने बनाया? क्या प्रयोजन होंगे? इन प्रश्नों का कोई अंत न
होगा। एक प्रश्न और हजार प्रश्नों को अपने साथ ले आता है।
धार्मिक व्यक्ति को यह बात बहुत गहराई से
समझ लेनी चाहिए कि प्रश्न गिरेंगे तो प्रार्थना जन्मेगी। अगर प्रश्न बने रहे तो
प्रार्थना कभी जग नहीं सकती।
प्रेम रंग रास ओढ़ चदरिया
ओशो
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