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Sunday, March 19, 2017

गीता में कृष्ण का जोर समर्पण, भक्ति, श्रद्धा पर है, लेकिन आज की विश्व स्थिति में लोग बुद्धि केंद्रित और संकल्प केंद्रित हैं। इस स्थिति में गीता का मार्ग किस प्रकार मौज बैठता है?





इसलिए ही मौजूं बैठता है।


लोग जब अति बुद्धि—केंद्रित होते हैं, तब बुद्धि एक घाव की तरह हो जाती है। बुद्धि का उपयोग तो उचित है, लेकिन बुद्धि के द्वारा संचालित होना उचित नहीं है। बुद्धि उपकरण रहे, उपयोगी है, बुद्धि मालिक बन जाए, घातक है।


चूंकि युग बुद्धि—केंद्रित है, बुद्धि एक घाव बन गयी है। उससे न तो जीवन में आनंद फलित होता, न शांति का आविर्भाव होता, न जीवन में प्रसाद बरसता। जीवन केवल चिंताओं, और चिंताओं से भर जाता है। विचार, और विचारों की विक्षिप्त तरंगें व्यक्ति को घेर लेती हैं।


बुद्धि अगर मालिक हो जाए, तो विक्षिप्तता तार्किक परिणाम है। बुद्धि अगर सेवक हो, तो अनूठी है। उसके ही सहारे तो सत्य की खोज होती है। फर्क यही ध्यान रखना कि बुद्धि तुम्हारी मालिक न हो; मालिक हुई, कि बुद्धि उपाधि हो गयी।


इसीलिए कृष्ण का उपयोग है। उनकी समर्पण की दृष्टि औषधि बन सकती है।


एक तरफ ढल गया है जगत, बुद्धि की तरफ। अगर थोड़ा भक्ति, थोड़ी श्रद्धा का संगीत भी पैदा हो, तो बुद्धि से जो असंतुलन पैदा हुआ है, वह संतुलित हो जाए; यह जो एकागीपन पैदा हुआ है, एकांत पैदा हुआ है, वह छूट जाए; जीवन ज्यादा संगीतपूर्ण हो, ज्यादा लयबद्ध हो।


हृदय और बुद्धि अगर दोनों तालमेल से चलने लगें, तो तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।


ऐसा ही समझो कि कोई आदमी यात्रा पर निकला हो; बायां पैर कहीं जाता हो, दायां कहीं जाता हो; वह कैसे पहुंचेगा मंजिल तक? हृदय कुछ कहता हो, बुद्धि कुछ कहती हो, दोनों में तालमेल न हो, तो तुम कैसे पहुंच पाओगे? बुद्धि ले जाएगी व्यर्थ के विचारों में, व्यर्थ के ऊहापोह में, कुतूहल में; हृदय तड़पेगा प्रेम के लिए, प्यासा होगा श्रद्धा के लिए। दोनों दो दिशाओं में खींचते रहेंगे; तुम न घर के रह जाओगे, न घाट के।


ऐसी ही दशा मनुष्य की हुई है।


समर्पण का यह अर्थ नहीं है कि बुद्धि को तुम नष्ट कर दो। समर्पण का इतना ही अर्थ है कि बुद्धि अपने से महत्तर की सेवा में संलग्न हो जाए।


अभी श्रेष्ठ को अश्रेष्ठ चला रहा है; यही तुम्हारी पीड़ा है।


श्रेष्ठ अश्रेष्ठ को चलाने लगे, यही तुम्हारा आनंद हो जाएगा। अभी तुम सिर के बल खड़े हो; जीवन में पीड़ा ही पीड़ा है, नर्क ही नर्क है। तुम पैर के बल खड़े हो जाओ। अभी तुम उलटे हो।


बुद्धि कीमती है, इसे ध्यान रखना। लेकिन बुद्धि घातक है, अगर अकेली ही कब्जा करके बैठ जाए। और बुद्धि की वृत्ति है मोनोपोली की, एकाधिकार की। बुद्धि बड़ी ईर्ष्यालु है। जब बुद्धि कब्जा करती है, तो फिर किसी को मौका नहीं देती। जब विचार तुम्हें पकड़ लेते हैं, तो फिर निर्विचार के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते। अगर दो विचारों के बीच निर्विचार भी तिरता रहे, तो विचारों से कुछ बिगड़ता नहीं, तुम उनका भी उपयोग कर लोगे।


जो होशियार हैं, जो कुशल हैं, वे जीवन में किसी चीज का इनकार नहीं करते, वे सभी चीज का उपयोग कर लेते हैं। जो कुशल कारीगर है, वह किसी पत्थर को फेंकता नहीं; वह मंदिर के किसी न किसी कोने में उसका उपयोग कर लेता है। और कभी—कभी तो ऐसा हुआ है कि जो पत्थर किसी भी काम का न था और फेंक दिया गया था, आखिर में वही शिखर बना।


जीवन में कुछ भी फेंकने योग्य नहीं है, क्योंकि परमात्मा व्यर्थ तो देगा ही नहीं। अगर तुम्हें फेंकने जैसा लगता हो, तो तुम्हारी नासमझी होगी। जीवन में सभी कुछ सम्यकरूपेण उपयोग कर लेने जैसा है। आज मनुष्य ज्यादा बुद्धि की तरफ झुक गया है। वह पक्षपात ज्यादा हो गया; संतुलन टूट गया है। आदमी गिरा—गिरा ऐसी अवस्था में है; नाव डूबी—डूबी ऐसी अवस्था में है, एक तरफ झुक गयी है। कृष्ण की बात इसीलिए मौजूं है।


गीता दर्शन 

ओशो

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