हरि वेदांत! वे ठीक ही कह रहे हैं। उन्हें कहना
ही पड़ेगा। वे तुम्हारे संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं, वे सिर्फ अपनी आत्मरक्षा
कर रहे हैं। अगर तुम सही हो तो वे गलत हैं। अगर तुम गलत हो तो ही वे अपने सहीपन की
रक्षा कर सकते हैं।
तो उनसे नाराज मत हो जाना। उनका भाव समझो। वे
तुमसे डर गए हैं। वे तुमसे भयभीत हो गए हैं। तुम्हारा आनंद उनके लिए संकट हो गया है, एक चुनौती हो गयी है। अगर
तुम सच में आनंदित हो तो फिर उन्हें अपनी जिंदगी को बदलना पड़ेगा। वे भी आनंद की तलाश
कर रहे हैं और उन्हें नहीं मिला। वे भी ऐसे ही मस्त होना चाहते हैं। उनने भी चाहत की
है कि नाचें। सब लोकलाज छोड़कर आनंद के गीत गाएं--ऐसा भाव किसके मन में नहीं है,
किसकी अभीप्सा का अंग नहीं है? लेकिन जो
जिंदगी उन्होंने बनाई है, वह बड़ी नारकीय हो गई है। सब सूत्र
उलझ गए हैं। कुछ सूझ नहीं पड़ता। अचानक एक दिन उन्हीं जैसा एक आदमी नाचने लगा। कल तक
तुम भी उन जैसे ही उलझे थे-- उसी बाजार में, उसी भीड़ में,
उन्हीं उपद्रवों में। आज अचानक तुम नाच उठे! भीड़ कैसे स्वीकार कर
ले कि ऐसे कहीं रूपांतरण होता है, क्षण में?
उन्हें पता नहीं कि पारस छू जाए तो लोहा क्षण
में स्वर्ण हो जाता है। कोई जन्म-जन्म थोड़े ही लगते हैं। फिर तुमने जो नरक बनाया है, वह तुम्हारे अपने हाथ की
बनावट है। जिस क्षण छोड़ना चाहो उसी क्षण छूट जाता है। स्वभावतः उन्हें शक होगा कि ढौंगी
दिखता है। यह हंसी झूठ होनी चाहिए। यह हंसी सच कैसे हो सकती है? क्योंकि उन्होंने तो कांटे ही कांटे जाने हैं; ये फूल सच कैसे हो सकते हैं? बाजार से खरीद लाया
होगा। प्लास्टिक के होंगे, नकली होंगे, कागजी होंगे। यह हंसी ओंठो पर होगी। यह किसी धोखे में पड़ गया है या धोखा
दे रहा है। दो में से एक ही बात हो सकती है--या तो खुद धोखा खा गया है या धोखा दे रहा
है।
यह तीसरी बात स्वीकार करना तो बड़ी कष्टपूर्ण
है, कि जो हुआ
है वह सच में ही हुआ है। क्योंकि फिर हमारा क्या, फिर हम अपनी
जिंदगी का क्या करें? फिर से गिराएं पुराना सारा बनाया हुआ,
फिर से बनाएं नया? इतना साहस कम लोगों में
होता है। फिर से शुरू करें क ख ग से? फिर से यात्रा शुरू करें
पहले पाठ से? तो ये जो पचास साल गए, पानी में गए? इतना साहस बहुत थोड़े-से हिम्मतवर
लोगों में होता है।
इसलिए जिनमें हिम्मत है वे स्वीकार करेंगे और
जिनमें हिम्मत नहीं है वे स्वीकार नहीं करेंगे।
तुम कहते होः आपके चरणों में अपने का समर्पित
कर निर्भार और मस्त हो जाने को लोग ढौंग कह रहे हैं।
लोगों की मजबूरी समझो। वे बेचारे ठीक ही कह रहे
हैं। वे अपनी आत्मरक्षा का उपाय कर रहे हैं। ढौंग कहकर तुम्हें, वे कवच ओढ़ रहे हैं। तुम्हें
जब वे कह रहे हैं कि ढौंग है, तब उन्होंने एक ढाल अपने पर
कर ली है। वे अपने को बचा रहे हैं, कि नहीं, यह नहीं हुआ है। चिंता में मत पड़ो, तुम जैसे चलते
हो चले जाओ। तुम ठीक ही चल रहे हो। और भीड़ तुम्हारे साथ है। और ऐसा इक्का-दुक्का आदमी
या तो पागल हो गया है, या सम्मोहित हो गया है, या धोखा देने में लगा हुआ है।
तो एक तो यह कारण, फिर दूसरा कारण है। इसलिए
मैं कहता हूं, वे ठीक कहते हैं क्योंकि हजारों साल से साधुओं
के नाम पर इतना धोखा दिया गया है कि लोग आनंद की बातें ही करते रहे हैं और सोचने लगे
हैं कि आनंद की बातें करने से ही आनंद हो जाता है!
तुम जाकर अपने साधु-संन्यासियों को देखो। सच्चिदानंद
की चर्चा चलती है, मगर आनंद की कहीं कोई झलक नहीं है। जीवन बिल्कुल रूखा-सूखा रेगिस्तान मालूम
होता है और फूलों की बातें होती हैं।
अकसर ऐसा हो जाता है, जो हमारे जीवन में नहीं होता,
उसे हम बातचीत से पूरा कर लेते हैं। वह परिपूरक है। बातचीत चलाकर
हम ढांक लेते हैं अपने को। आदमी अपनी नग्नता को प्रकट नहीं करना चाहता।
इसलिए एक बहुत अनूठी बात मनोविज्ञान ने खोजी
है कि लोग जो बाहर से दिखलाते हैं,
अकसर भीतर उससे उल्टे होते हैं। जैसे कमजोर आदमी अपने को बड़ा बहादुर
दिखलाता है। उसे डर है अपनी कमजोरी का। वह भीतर कंप रहा है। वह बड़ा भयभीत है। वह इतना
डर रहा है कि वह यह तो कह नहीं सकता है कि मैं डर रहा हूं। अगर वह यह भी कह दे कि मैं
डर रहा हूं तो समझना हिम्मतवर आदमी है! डर के जाने का क्षण आ गया। लेकिन इतनी हिम्मत
भी नहीं जुटा पाता कि कह दे कि मैं डरा हुआ हूं। अपने को ढांक-ढूंक कर, सिद्धांतों इत्यादि, शास्त्रों की आड़ में,
वह कहता हैः मैं और डर? कभी नहीं,
मैंने डर जाना ही नहीं।
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
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