स्वामी आनंद वैराग्य! यही घड़ी है, शुभ घड़ी! जिसकी प्रत्येक
व्यक्ति प्रतीक्षा कर रहा है। जब कह सके : अब दुल्हन हूं अपने पिया की! जब अपने को
समर्पित कर सके। जब उस प्यारे के पैर पकड़ ले।
और प्यार हो तो ही उसके पैर दिखाई पड़ सकते हैं, क्योंकि वे पैर स्थूल नहीं
हैं। चमड़े की आंखों से दिखाई नहीं पड़ते हैं; प्रेम की सूक्ष्म
आंखें चाहिए तो ही दिखाई पड़ते हैं। प्यारा तो सामने ही खड़ा है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है; दिखाई पड़ जाए तो
धन्य घड़ी आ गई। और तब सिवाय इसके क्या बचता है, कि हम नाचें
मगन होकर!
अब दुल्हन हूं अपने पिया की!
एक ही पुरुष है इस जगत् में --परमात्मा ; शेष सब गोपियां हैं। ऐसा
भक्ति का शास्त्र। ऐसा भक्ति का अपूर्व सूत्र!
मीरां गई वृंदावन। तो वृंदावन में एक मंदिर था, बड़ा मंदिर, सबसे बड़ा मंदिर, कृष्ण का मंदिर। उस मंदिर का जो
पुजारी था, उसने स्त्रियों को न देखने का व्रत ले रखा था।
कोई स्त्री मंदिर में अंदर नहीं जा सकती थी। जब पुजारी ने स्त्री न देखने का व्रत ले
रखा हो तो कोई स्त्री मंदिर के भीतर प्रवेश नहीं कर सकती थी। कोई स्त्री कभी प्रवेश
नहीं की थी। मीरां तो नाचती हुई मंदिर में चली गई। द्वारपाल खड़े भी थे, मगर मीरां का नाच ऐसा था कि द्वारपाल नाच में भूल ही गए। वे मीरां के स्वर
ऐसे थे कि मगन हो गए, द्वारपाल भी नाचने लगे! पहली बार कृष्ण
का मंदिर, कृष्ण का मंदिर हुआ : नाच आया, गीत आया, मीरां आई! मीरा के बिना मंदिर खाली ही
रहा होगा, मंदिर का देवता भी वहां नहीं रहा होगा, दुल्हन ही न हो तो दूल्हा भी वहां क्या करे? आज
दुल्हन आई, मंदिर सप्राण हुआ, सजीव
हुआ।
द्वारपाल भूल गए रोकना कि स्त्री को भीतर जाने
की मनाही है। और मीरां तो ऐसी मस्ती में थी कि कोई रोकता तो रुकनेवाली थी भी नहीं।
ऐसे लोग किसी को रुकनेवाले थोड़े ही होते हैं। वह तो भीतर पहुंच गई, पूजा चलती थी। पुजारी के
हाथ से थाल गिर गया, स्त्री दिखाई पड़ गई! नारज हो गया पुजारी।
चिल्लायाः बदतमीज स्त्री! भीतर कैसे आयी?
और मीरां हंसने लगी, और ऐसी हंसी कि जैसे फूल
झर जाएं वृक्षों से और कहने लगी कि मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष
नहीं है। तो तुम भी एक पुरुष हो? तो दुनिया में दो पुरुष हुए--एक
कृष्ण और एक तुम। मैं तो सोचती थी उसके भक्त सभी उसकी गोपियां हैं। तुम क्या पूजा करते
थे? तुम किसकी पूजा करते थे? अभी
तुम्हारा पुरुष भी नहीं गया! पुरुष का अर्थ होता है : अकड़। पुरुष का अर्थ होता है
: अहंकार। अभी तुम्हारा पुरुष भी नहीं गया, तुम किसकी पूजा
करते थे? यह थाल तुम्हारे हाथ से नहीं गिरा; तुम्हारे सारे जीवन की पूजा अकारथ थी, यह सिद्ध
हुआ।
कहते हैं पुजारी तो सकते में आ गया। बात तो सच
थी। जैसे बिजली कौंध गई! गिर पड़ा चरणों में मीरां के। जिसने कभी स्त्री न देखी थी उसने
स्त्री के पैर पकड़ लिए। जिसने कभी स्त्री छुई न थी, वर्षों बीत गए थे। सोचता था मैं ब्रह्मचारी हूं।
आज उसे पता चला कि उसे भक्ति के शास्त्र का क, ख, ग भी मालूम नहीं है।
एक ही पुरुष है, परमात्मा ! आनंद वैराग्य,
ठीक भाव उठा : अब दुल्हन हूं अपने पिया की! मेरे पूरे आशीर्वाद तुम्हारे
साथ हैं। इसी कोशिश में तो लगा हूं कि सभी यहां दुल्हन की तरह सज जाएं। सभी ऐसे नाचें,
सभी के मन ऐसी उमंग से भरें, जैसे दुल्हन
के भरे होते हैं, जो चल पड़ी है पिया से मिलने!
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
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