एक पुरानी कथा है। एक वेदांत के अनुयायी ने, एक फकीर ने घोषणा की कि
सारा संसार असत्य है। यह वेदांत की वास्तविक घोषणा नहीं है, भूल-चूक भरी है। वेदांत यह नहीं कहता कि सारा संसार असत्य है। वेदांत
इतना ही कहता हैः संसार माया है। माया और असत्य पर्यायवाची नहीं है।
लेकिन उस वेदांती ने घोषणा कर दीः जगत्
असत्य है। ऐसा अनेक वेदांती कर रहे हैं। वेदांत का कुछ पता नहीं। उन्हें वेदांत का
क, ख,
ग भी नहीं आता। लेकिन तार्किक व्यक्ति था, सिद्ध तो कर सकता था। और यह बड़ा सरल सिद्धांत है सिद्ध करना कि सब
असत्य है। क्योंकि किसी भी चीज को सत्य सिद्ध करना बहुत असंभव है।
निषेध आसान है। मन की सारी कला ही निषेध की
है। "नहीं', संदेह, शक--मन उसमें बड़ा कुशल है। "हां'
मन की भाषा नहीं है। श्रद्धा, किसी
वस्तु में स्वीकार, वह मन का मार्ग नहीं है।
उस आदमी ने सिद्ध कर दिया कि सारा जगत्
असत्य है। राजा झक्की था गांव का। उसने कहाः अच्छा, ठीक है। उसके पास एक पागल हाथी था। उसने
कहाः छोड़ो पागल हाथी इसके पीछे, उससे प्रमाणित हो जाएगा
कि जगत् सत्य है कि असत्य। वेदांती थोड़ा डरा। विवाद उसने बहुत किए थे। झंडा लेकर
घूम रहा था। जो मिलता था उसको हराता था। दिग्विजय पर निकला था। सिर्फ मूढ़ ही
दिग्विजय पर निकलते हैं। ज्ञानियों को क्या पड़ी है? किसकी
विजय, कैसी विजय? उसी की जीत है,
उसी की हार है! वही इस तरफ है, वही उस
तरफ है।
वेदांती थोड़ा घबड़ाया, पैर कंपे। और जब पागल
हाथी देखा तो होश खो दिए। हाथी बिल्कुल पागल था। अब हाथी वेदांत इत्यादि थोड़े ही
मानते हैं, तर्क इत्यादि थोड़े ही मानते हैं। तुम लाख कहो
कि संसार असत्य है, हाथी थोड़े ही सुनेगा। हाथी ने तो उठाई
सूंड, चिंघाड़ा और भागा वेदांती के पीछे। बहुत दिन से
उत्सुक था किसी को पकड़ने के लिए। जंजीरों में कसा था, मौका
मिलता नहीं था, बहुत दिन की वासना, बहुत दिन की आकांक्षा इकट्ठी हो गयी थी। बड़े दमित भाव से भरा था। खूब
उपवास कर लिया था उसने, खूब ब्रह्मचर्य साध लिया था! आज
मौका पा गया, टूट पड़ा एकदम। वेदांती भी भागा, चिल्लाया जोर सेः "बचाओ मुझे! बचाओ मुझे!' हाथी ने पकड़ा और पटकने ही जा रहा था कि राजा ने उसे बचाया। उसकी
चीख-पुकार ही इतनी थी, दया भी आ गयी और कहाः बात भी सिद्ध
हो गई है!
हाथी चला गया। वेदांती थोड़ा शांत हुआ, पसीना सूखा, सांस वापिस लौटी, होश वापिस ठहरा। राजा ने
पूछाः अब क्या विचार है? वेदांती ने कहाः सब असत्य है
महाराज! संसार माया है। उस राजा ने कहाः और अभी यह हाथी? और
यह हाथी का तुम्हें पकड़ना और सूंड में मरोड़ना? और
तुम्हारा यह चिल्लाना?
उस वेदांती ने कहाः सब माया है महाराज! मेरा
चिल्लाना, हाथी
का आना, शोरगुल मचाना, आपका
बचाना--सब माया है। लेकिन मैं कहे देता हूं, हाथी को फिर
मत बुलाना! यह सिद्धांत की चर्चा है, इसमें हाथी को बीच
में कहां लाते हो?
जीवन को बांटो मत। जीवन की अद्वैतता को देखो
और जियो।
मन बड़ा कुशल है, हर चीज को भ्रम सिद्ध करने
में। आनंद की पुलक उठती है तो मन पूछता है कि कहीं भ्रम तो नहीं? और तुमने इस मन की तरकीब देखी है? जब दुःख आता
है तब मन कभी नहीं पूछता कि यह मन का भ्रम तो नहीं। जब सुख आता है, तब जरूर उठाता है प्रश्न। जब दुःख आता है तब बिल्कुल तल्लीन हो जाता है
दुःख में। जब क्रोध उठता है तो संदेह नहीं उठता और जब करुणा आती है तो कहता हैः ठहरो,
यह दया-ममता, यह करुणा का भाव कहीं सिर्फ
क्षण की तरंग न हो? कुछ दे-दा मत बैठना। रुको ज़रा,
सोचो-विचारो। शुभ करने की घड़ी में कहता हैः सोचो-विचारो। अशुभ की
घड़ी में कहता है कि बस कर गुजरो, अभी देर करने की जरूरत नहीं
है।
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
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