नाभि का केंद्र फियर और भय का केंद्र है।
जैसे जननेंद्रिय का केंद्र सेक्स का केंद्र है, वैसे नाभि का केंद्र भय का केंद्र है। यह
शायद आपको खयाल में आया होगा कि जब भी आप भयभीत होंगे, नाभि
डांवाडोल हो जाएगी और परेशान हो जाएगी।
अगर आप कार चला रहे हैं और एकदम से
एक्सीडेंट हो, तो आपके शरीर में जो झटका पहुंचेगा वह नाभि पर पहुंचेगा, और कहीं नहीं। अगर कोई आदमी एकदम से आपकी छाती पर छुरा लेकर चढ़ जाए,
तो सबसे बड़ा झटका नाभि पर पहुंचेगा। नाभि भय का केंद्र है।
इसीलिए बहुत भय की अवस्था में किसी का मल-मूत्र भी छूट सकता है। उसके छूटने का और
कोई कारण नहीं है। नाभि इतनी सक्रिय हो जाती है कि पेट को खाली करना जरूरी हो जाता
है, अन्यथा नाभि सक्रिय नहीं हो सकती।
नाभि भय का केंद्र है। जिन लोगों का भय का
केंद्र बहुत सक्रिय है, उनको थोड़ा नाभि पर ध्यान देना अत्यंत जरूरी है। इसलिए बहुत-बहुत
प्राचीन समय से, जिन लोगों को युद्ध की शिक्षा दी जाती,
उनके नाभि केंद्र को ही सबल करने की कोशिश की जाती है। भय वहीं
पकड़ता है। भय और कहीं भी नहीं पकड़ता। कभी आपको भय खोपड़ी में नहीं पकड़ेगा। जब भी भय
पकड़ेगा तब पेट में पकड़ेगा। और स्त्रियां ज्यादा भयभीत होती हैं, उसका कुल कारण इतना है कि स्त्री को पेट में गर्भ रखना पड़ता है और उसका
नाभि केंद्र निरंतर निर्बल और कमजोर होता चला जाता है।
स्त्री और पुरुष के बीच भय का और कोई भेद
नहीं है। और इसलिए पश्चिम में जैसे-जैसे स्त्रियां बच्चों को पैदा करने से इनकार
कर रही हैं, उनका
भय समाप्त होता चला जा रहा है। अगर स्त्रियां कुछ समय तक बच्चे देना बंद कर दें,
तो वे करीब-करीब पुरुषों जैसी हालत में खड़ी हो जाएंगी। इसलिए
दुनिया की जिन कौमों में भी स्त्रियां पुरुषों जैसी होने की कोशिश कर रही हैं,
वहां वे मां बनने से इनकार करना शुरू कर देंगी। क्योंकि पुरुष
नहीं बना जा सकता जब तक कि मां बनने की प्रक्रिया जारी है। क्योंकि वह जो मां बनने
की स्थिति है, वही सारे व्यक्तित्व को भय से भर देती है।
वह जो नाभि केंद्र है वह भय का केंद्र है।
जब आप भयभीत होंगे तब आपका पाचन एकदम खराब हो जाएगा। चिंतित होंगे, पाचन खराब हो जाएगा।
इसीलिए चिंता और भय के कारण...दुनिया में आज बहुत भय है और बहुत चिंता है। अल्सर
की बीमारी का और कोई कारण नहीं होता। जितना भयभीत और चिंतित आदमी होगा, पेट की सारी की सारी व्यवस्था धीरे-धीरे विकृत और खराब होती चली जाएगी।
यह ध्यान रखना जरूरी है कि अगर काम केंद्र
सक्रिय हो तो आदमी जिस धर्म को जन्म देगा या जिस तरह के धर्म को मानेगा, वह धर्म किसी न किसी तरह
सेक्सुअल ओर्जी का धर्म होगा। सबसे प्राचीन धर्म के जो प्रतीक हैं वे जननेंद्रिय
के प्रतीक हैं, फैलिक हैं। जैसे शंकर का शिवलिंग है,
या यूनान में, या रोम में, या मिश्र में जो प्राचीनतम, मेसोपोटामिया में,
बेबीलोन में, सीरिया में या
हड़प्पा-मोहनजोदड़ो में जो सबसे प्राचीनतम जो मूर्तियां मिली हैं, वे सब फैलिक हैं। वे सब जननेंद्रिय के ही प्रतीक हैं। ऐसा प्रतीत होता
है कि आज से कोई बीस हजार वर्ष पहले जो भी दुनिया में सभ्यता थी, वह चूंकि अभी जानवरों से बहुत आगे विकसित नहीं हुई थी, इसलिए भगवान का प्रतीक भी जननेंद्रिय ही हो सकती थी। वही केंद्र सबसे
ज्यादा सक्रिय था।
उस केंद्र के बाद जैसे-जैसे मनुष्य थोड़ा
बलशाली हुआ, और
थोड़ा पार हुआ वासना के, और भी उसने कुछ सोचना शुरू किया,
भगवान की जो प्रतिमा बननी शुरू हुई वह भयभीत करने वाले भगवान की
थी। ओल्ड टेस्टामेंट में, या पुराने भगवान के जो रूप हैं
रुद्र के, वे सारे के सारे रूप घबड़ाने वाले, डराने वाले रूप हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का जो दूसरा केंद्र
है भय का, उस भय के केंद्र ने भयभीत करने वाले भगवान को
जन्म दिया।
वह जो मंदिरों में हाथ जोड़ कर प्रार्थना
करने वाला आदमी है, भगवान के चरणों में सिर रखने वाला आदमी है, जो
कंपता है और कहता है, हे भगवान, बचाओ!
अगर वह थोड़ा भी ध्यान रखेगा तो उसे पता चलेगा कि उस प्रार्थना करने के क्षण में
उसकी नाभि का केंद्र सबसे ज्यादा सक्रिय होगा। दुनिया जितनी शिक्षित होगी, जितना दुनिया में भय कम होगा, उतना ही पूजा और
प्रार्थना करने वाले धर्म जमीन से अपने आप समाप्त होते चले जाएंगे। क्योंकि वे
धर्म नाभि के केंद्र से विकसित होते हैं। अगर नाभि का केंद्र मजबूत हुआ तो वे
विलीन हो जाएंगे।
मंदिरों में पुरुषों की बजाय स्त्रियां
ज्यादा दिखाई पड़ती हैं। उसका कोई और कारण नहीं है, उनका नाभि का केंद्र पुरुषों से ज्यादा
क्षीण है। जहां एक पुरुष होगा, वहां कम से कम चार
स्त्रियां मंदिर में होंगी। सारे मंदिर स्त्रियां चलाती हैं। सारे साधु-संतों को
स्त्रियां चलाती हैं। भय! भय वाला भगवान उन्हें अपील करता है, उन्हें सार्थक मालूम पड़ता है।
इस पर ध्यान जाना जरूरी है कि जो आदमी भी
जीवन में बहुत भयभीत हो उसे ध्यान के साथ नाभि के केंद्र पर थोड़े प्रयोग करने
जरूरी होते हैं, उस केंद्र को मजबूत करने के सुझाव देने जरूरी होते हैं। और यह बड़े मजे
की बात है कि ये केंद्र चूंकि प्राणों के केंद्र हैं, विद्युत
के केंद्र हैं, ये मात्र सुझाव से परिवर्तित हो जाते हैं।
इनके लिए कुछ और करना नहीं पड़ता।
उसके बाद तीसरा केंद्र हृदय का केंद्र है।
वह राग का केंद्र है, मोह का केंद्र है, लगाव का केंद्र है। जो लोग
तीसरे केंद्र से प्रभावित होते हैं, वे किसी न किसी तरह
के भक्ति वाले धर्म में दीक्षित हो जाएंगे। जहां राग, मोह,
उस तरह के आसक्ति की पकड़ने की संभावना हो। यह तीसरे केंद्र पर भी
ध्यान रखना जरूरी है। इसे भी समझ लेना जरूरी है कि वह क्या-क्या कर सकता है। वह भी
बहुत सक्रिय है।
पूरब के मुल्कों में बहुत सक्रिय है, पश्चिम के मुल्कों में
कम होना शुरू हुआ है। इसलिए पश्चिम के मुल्कों में परिवार टूट रहा है। परिवार के
टूटने को कभी नहीं रोका जा सकता पश्चिम में, जब तक कि
उनके हृदय के केंद्र को मजबूत करने की कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया में दीक्षित न किया
जाए। परिवार वहां टूटता ही चला जाएगा। क्योंकि राग का केंद्र टूट गया है, या टूट रहा है, या शिथिल हो गया है, या निष्क्रिय है। पूरब के मुल्कों में भी घटना शुरू हो गई है।
और यह भी ध्यान रहे कि यह केंद्र भी पुरुष
की बजाय स्त्री का ज्यादा सक्रिय है। इसलिए परिवार को बनाने वाला पुरुष नहीं है, परिवार को बनाने वाली
स्त्री है। इस भूल में कोई न रहे कि परिवार पुरुष ने निर्मित किया है। पुरुष
परिवार निर्मित कर ही नहीं सकता। परिवार पुरुष के बावजूद निर्मित हो गया है,
पुरुष तो परिवार से प्रतिपल भागने की चेष्टा में रत है, वह तो प्रतिपल भाग जाना चाहता है। उसका कोई राग का केंद्र उतना तीव्र
नहीं है। स्त्री ने सारी की सारी सभ्यता खड़ी की है। परिवार और घर उसने खड़ा किया
है। पुरुष जन्म से खानाबदोश है। वह भटकने वाला है। वह भटकता रहे, उतना सुखी होगा। जितना भटके उतना सुखी होगा। स्त्री एक जगह खूंटी गाड़
कर बैठ जाना चाहती है। भटकना उसे बहुत कठिन मालूम पड़ता है। भटकना उसके मन की बात
नहीं है। कहीं वह लगाव बांध ले; कोई छोटी जमीन हो,
कोई छोटा मकान हो, जहां वह बैठ जाए। और
इसीलिए परिवार, कैसा ही परिवार हो, पुरुष उसमें कभी भी केंद्र नहीं है, वह उसकी
परिधि पर घूमता रहता है, उसका केंद्र स्त्री बन जाती है।
वह जो केंद्र है राग का, उस केंद्र पर भी विचार
करना, समझना जरूरी है कि मेरे व्यक्तित्व में वह बहुत
महत्वपूर्ण है या नहीं।
अभी मैं सिर्फ समझा रहा हूं कि ये केंद्र
क्या काम करते हैं। फिर हम आगे उसकी बात को सोच सकते हैं कि उनसे और क्या काम लिया
जा सकता है।
तृषा मिटी एक बूँद से
ओशो
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