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Sunday, November 15, 2015

शून्यता का अनुभव

ध्यान में तुम्हें कभी कभी एक तरह की शून्यता का अनुभव होता है; वह वास्तविक शून्यता नहीं है। मैं उसे एक तरह की रिक्तता कहता हूं। ध्यान में कुछ क्षणों के लिए तुम्हें ऐसा अनुभव होगा जैसे कि विचार की प्रक्रिया ठहर गई है। शुरू शुरू में ऐसे अंतराल आएंगे। लेकिन क्योंकि तुम्हें ऐसा अनुभव होता है जैसे कि विचार की प्रक्रिया ठहर गई है, इसलिए यह भी एक विचार ही है बहुत सूक्ष्म विचार। तुम क्या कर रहे हो? तुम भीतर भीतर कह रहे हो. ‘विचार की प्रक्रिया ठहर गई है।’ लेकिन यह क्या है? यह एक सूक्ष्म विचार प्रक्रिया है, जो अब आरंभ हुई है। और तुम कहते हो, यह शून्यता है। तुम कहते हो, अब कुछ घटित होने वाला है। यह क्या है? फिर एक नई विचार प्रक्रिया आरंभ हो गई।

जब ऐसा फिर हो तो उसके शिकार मत बनना। जब तुम्हें लगे कि कोई मौन उतर रहा है, तो उसे शब्द देना मत शुरू कर देना। शब्द देकर तुम उसे नष्ट कर देते हो। प्रतीक्षा करो; किसी चीज की प्रतीक्षा नहीं, सिर्फ प्रतीक्षा करो। कुछ करो मत। यह भी मत कहो कि यह शून्यता है। जैसे ही तुम यह कहते हो, तुम उसे नष्ट कर देते हो। उसे देखो, उसमें प्रवेश करो, उसका साक्षात करो। लेकिन प्रतीक्षा करो, उसे शब्द मत दो। जल्दी क्या?

शब्द देकर मन फिर दूसरे रास्ते से प्रवेश कर गया; उसने तुम्हें धोखा दे दिया। मन की इस चालबाजी के प्रति सजग रहो। शुरू शुरू में ऐसा होना अनिवार्य है। तो जब फिर ऐसा हो तो रूको, प्रतीक्षा करो। उसके जाल में मत फंसो। कुछ कहो मत; चुप रहो। तब तुम गहरे प्रवेश करोगे, और तब वह खोंएगी नहीं। क्योंकि तुम एक बार सच्ची शून्यता को जान लो तो फिर वह खोती नहीं है। सच्ची शून्यता कभी नहीं खोती है, यही उसकी गुणवत्ता है।

और एक बार तुमने अपने आंतरिक खजाने को जान लिया, एक बार तुम अपने अंतरतम केंद्र के संपर्क में आ गए, तो फिर तुम अपने काम धाम में लगे रह सकते हो, तुम जो चाहो कर सकते हो, तुम सामान्य सांसारिक जिंदगी जी सकते हो और यह शून्य तुम्हारे साथ रहेगा। तुम इसे भूल नहीं सकते; भीतर वह शून्य बना रहेगा। इसका संगीत सतत सुनाई देगा। तुम जो भी करोगे, करना सतह पर रहेगा, भीतर तुम शून्य के शून्य रहोगे।

और अगर तुम भीतर शून्य रह सके, करना सिर्फ सतह पर चलता रहा, तो तुम जो भी करोगे वह दिव्य हो जाएगा, तुम जो भी करोगे उसमें भगवत्ता का स्पर्श होगा। क्योंकि अब कृत्य तुमसे नहीं आ रहा है, अब कृत्य मूलभूत शून्यता से आ रहा है। तब अगर तुम बोलोगे तो वे शब्द तुम्हारे नहीं होंगे।

यही मतलब है मोहम्मद का जब वे कहते हैं कि ‘कुरान मैंने नहीं कहां,यह मुझ पर ऐसे उतरा है जैसे किसी और ने मेरे द्वारा कहा हो।’ यह आंतरिक शून्य से आया है। यही अर्थ है हिंदुओं का जब वे कहते हैं कि ‘वेद मनुष्य के द्वारा नहीं लिखे गए हैं; वे अपौरुषेय हैं, स्वयं भगवान ने उन्हें कहा है।’

वह जो अति रहस्यपूर्ण है, उसको प्रतीकों में कहने के ये उपाय हैं। और यही रहस्य है जब तुम आत्यंतिक रूप से शून्य हो तो तुम जो भी कहते हो या करते हो वह तुमसे नहीं आता है क्योंकि तुम तो बचे ही नहीं। वह शून्यता से आता है; वह अस्तित्व के गहनतम स्रोत से आता है। वह उसी स्रोत से आता है जिससे यह सारा अस्तित्व आया है। तब तुम गर्भ में प्रवेश कर गए सीधे अस्तित्व के गर्भ में। तब तुम्हारे शब्द तुम्हारे नहीं हैं, तब तुम्हारे कृत्य तुम्हारे नहीं हैं। अब मानो तुम एक उपकरण भर हो समस्त के हाथों में

अगर क्षण भर के लिए शून्यता अनुभव में आए और बिजली की कौंध की तरह चली जाए तो वह शून्यता सच्ची नहीं है। और अगर तुम उस पर विचार करने लगोगे तो वह क्षणिक शून्यता भी खो जाएगी। उस क्षण में विचार न करना बड़े साहस का काम है। मेरे देखे, यह सबसे बड़ा संयम है। जब मन शांत हो जाता है और तुम शून्य में गिर रहे होते हो तो उस क्षण में नहीं सोचने के लिए सर्वाधिक साहस की जरूरत है। क्योंकि उस क्षण मन का सारा अतीत बल मारेगा, उसका समस्त यंत्र कहेगा कि अब सोच विचार करो। सूक्ष्म ढंगों से, परोक्ष ढंगों से तुम्हारी अतीत की स्मृतियां तुम्हें सोचने को बाध्य करेंगी। और अगर तुमने सोच विचार शुरू कर दिया तो तुम वापस आ गए।

अगर उस क्षण में तुम शांत रह सको, अगर तुम अपने मन और स्मृतियों के जाल में न पड़ो यही असली शैतान है जो तुम्हें फुसलाता है। तुम्हारा अपना ही मन तुम्हें फुसलाता है। जैसे ही तुम शून्य होने लगते हो, मन कुछ तरकीब करता है कि तुम सोच विचार में पड़ जाओ। अगर तुम सोच विचार में पड़ गए तो तुम वापस आ गए।


तंत्र सूत्र 

ओशो 

Sunday, November 8, 2015

भगवान, क्या परमात्मा का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है?

मुल्ला नसरुद्दीन नदी के किनारे गया था तैरना सीखने। जो उस्ताद उसे तैरना सिखाने को थे, वह तो एकदम चौंके, क्योंकि मुल्ला जैसे ही तट पर गया नदी के, पत्थर पर पैर फिसल गया काई जमी होगी भड़ाम से गिरा, एक पैर तो पानी में भी पड़ गया, कपड़े भी भींग गए, एकदम उठा और घर की तरफ भागा। उस्ताद ने कहा कि बड़े मियां, कहां जाते हो? मुल्ला ने कहा कि अब जब तक तैरना न सीख लूं, नदी के पास पैर न रखूंगा। यह तो खतरनाक धंधा है! यह तो उसकी दुआ कहो, यह तो उसकी कृपा कहो। अगर जरा और फिसलकर अंदर चला गया होता, तो उस्ताद, तुम तो खड़े थे बाहर, तुम तो देखते ही रहे, हम काम से गए थे! अब तो तैरना सीख लूंगा, तभी पानी के पास फटकूंगा।

अगर अब तैरना कहां सीखोगे? कोई गद्देत्तकिए बिछा कर तैरना सीखा जाता है। और गद्देत्तकिए बिछाकर तुम कितना ही तैरने का अभ्यास कर लो, पानी में काम न आएगा, खयाल रखना। हाथ पैर पटकना सीख लोगे गद्देत्तकिए पर, लेकिन पानी में सब बेकाम हो जाएगा।

नहीं, तैरना सीखने के लिए भी पानी के पास जाना ही पड़ता है। परमात्मा का अस्तित्व कैसे सिद्ध करोगे? तर्क से? विचार से? तो तो तुम उल्टे काम में लग गए। परमात्मा को जाना है लोगों ने निर्विचार से। परमात्मा को जाना है लोगों ने हृदय से। और तुम सिद्ध करने लगे बुद्धि से। नहीं सिद्ध होगा, तो आज नहीं कल तुम कहोगे: है ही नहीं। और एक बार तुम्हारे मन में यह बात गहरी बैठ गई कि है ही नहीं, तो बस अटक गए। तो तुम्हारा विकास अवरुद्ध हुआ।

गलत प्रश्न न पूछो! पूछो कि क्या मैं हूं? पूछो कि कैसे मैं जानूं कि मैं कौन हूं? परमात्मा को छोड़ो! परमात्मा से लेना देना क्या है? पहले पानी की बूंद तो पहचान लो, फिर सागर को पहचान लेना। अभी बूंद से भी पहचान नहीं और सागर के संबंध में प्रश्न उठाए। वे प्रश्न व्यर्थ हैं। उनके उत्तर सिर्फ नासमझ देने वाले मिलेंगे। हां, किताबों में इस तरह के प्रमाण दिए हुए हैं, बड़े बड़े प्रमाण दिए हुए हैं, बड़े पंडित, शास्त्री प्रमाण देते हैं ईश्वर के होने का। और उनके प्रमाण सब बचकाने, दो कौड़ी के! क्योंकि प्रमाण कोई दिया ही नहीं जा सकता।

क्या प्रमाण हैं उनके?

इस तरह के प्रमाण कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। बिना कुम्हार के घड़ा कैसे बनेगा? इसी तरह परमात्मा ने जगत को बनाया, वह कुम्भकार है कुम्हार है।…कर दिया शूद्र उसको भी!…अब जरा कोई इन बुद्धिमानों से पूछे कि अगर घड़े को बनाने के लिए कुम्हार की जरूरत है, तो कुम्हार को बनाने के लिए भी तो किसी की जरूरत है! वह कहते हैं, हां, परमात्मा ने कुम्हार को बनाया। फिर तुम्हारी दलील का क्या होगा? परमात्मा ने संसार बनाया, फिर परमात्मा को किसने बनाया?

यही तो बुद्ध ने पूछा, महावीर ने पूछा और पंडितों की बोलती बंद हो गई। पंडित तो नाराज हो गए। इसको वह अतिप्रश्न कहते हैं। तुम पूछे कि संसार किसने बनाया, तो सम्यक प्रश्न। और कोई पूछे कि भई, जब बिना बनाए कोई चीज बनती ही नहीं, तो परमात्मा को किसने बनाया? तो अतिप्रश्न। तो जबान काट ली जाएगी। यह न्याय हुआ? तुम्हारा ही तर्क जरा आगे खींचा गया।

और फिर इसका अंत कहां होगा? अगर तुम कहो कि हां, परमात्मा को फिर और किसी बड़े परमात्मा ने बनाया, और उसको फिर किसी और बड़े परमात्मा ने बनाया, तो इसका अंत कहां होगा? यह तो अंतहीन शृंखला हो जाएगी, व्यर्थ शृंखला हो जाएगी। नहीं, ऐसे प्रमाणों से कुछ सिद्ध नहीं होता। ऐसे प्रमाणों से सिर्फ प्रमाण देने वालों की नासमझी, बुद्धिहीनता, असंवेदनशीलता सिद्ध होती है और कुछ भी सिद्ध नहीं होता। परमात्मा सिद्ध नहीं होता, सिर्फ प्रमाण देने वालों का बुद्धूपन सिद्ध होता है।

बुद्ध परमात्मा का प्रमाण नहीं देते। बुद्ध परमात्मा का प्रमाण बनते हैं।

भेद को समझ लेना। बुद्ध प्रमाण बनते हैं परमात्मा का, बुद्ध प्रमाण होते हैं परमात्मा का। मैं तुमसे कहूंगा, तुम भी प्रमाण बनो। तुम भी प्रमाण बन सकते हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर भी बुद्धत्व छिपा पड़ा है। झरने को तोड़ने की जरूरत है। जरा चट्टान हटाओ विचारों की और फूटने दो भाव का झरना! नाचो, गाओ जीवन के उत्सव को अनुभव करो! और तुम्हें पता चल जाएगा कि परमात्मा है। जिस दिन तुम जानोगे कि जीवन एक रास है; एक महोत्सव है, राग से, रंग से भरा; एक इंद्रधनुष है, सतरंगा; एक संगीत है, अदभुत स्वरों से पूर्ण, उस दिन परमात्मा का प्रमाण मिल गया। हालांकि तुम वह प्रमाण किसी और को भी न दे सकोगे। गूंगे का गुड़ हो जाता है वह अनुभव।

मगर धन्य हैं वे, जिन्हें कुछ ऐसा अनुभव मिल जाता है जिसे वह कह नहीं पाते। इस जगत में सर्वाधिक धन्य वे ही हैं, जिन्हें गूंगे का गुड़ मिल जाता है।

सपना यह संसार 

ओशो 

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