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Thursday, December 31, 2015

दलील से कुछ हल नहीं होता

मैंने सुना है, दो फकीर थे और उन दोनों फकीरों में एक विवाद था, बड़ा लंबा विवाद था। उनमें एक फकीर था, जो इस बात को मानता था कि कुछ पैसे वक्त बेवक्त के लिए अपने पास रखना जरूरी है, उचित है। वह निरंतर, दूसरे मित्र से उसका निरंतर विवाद होता था। दूसरा मित्र कहता था, पैसे की क्या जरूरत है? पैसे रखने की क्या जरूरत है? हम संन्यासी हैं, हमें पैसे की क्या जरूरत है? पैसे तो वे रखते हैं, जो संसारी हैं। वे दोनों दलीलें देते थे और वे दोनों ठीक ही दलीलें देते थे, ऐसा मालूम पड़ता था।

इस जगत का बड़ा रहस्य यह है कि इस जगत के बड़े रहस्य में जो विरोध की ईंटें रखी गई हैं, उनमें से किसी भी एक ईंट के संबंध में पूरी दलीलें दी जा सकती हैं। और दूसरी ईंट के संबंध में भी उतनी ही दलीलें दी जा सकती हैं। और यह विवाद कभी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों ईंटें लगी हुई हैं। कोई भी इशारा करके बता सकता है कि देखो, मेरी ईंटों से बना हुआ है यह। और दूसरा भी बता सकता है कि मेरी ईंटों से बना हुआ है। और जिंदगी इतनी बड़ी है कि बहुत कम लोग इतना विकास कर पाते हैं कि पूरे द्वार को देख पाएं। वह जो ईंटें उनको दिखाई पड़ती हैं, उतनी ही देख पाते हैं।

 वे कहते हैं, ठीक ही तो कहते हो, संन्यास से ही तो बना हुआ है; ठीक ही तो कहते हो, ब्रह्म से बना हुआ है, ठीक ही तो कहते हो, आत्मा से बना है। वह दूसरा कहता है, पदार्थ से बना है, मिट्टी से बना है। डस्ट अनटू डस्ट, सब मिट्टी का मिट्टी में गिर जाएगा उसी से बना हुआ है, और कुछ भी नहीं है। वह भी ईंटें बता सकता है। इसलिए न आस्तिक जीतता है, न नास्तिक जीतता है। न पदार्थवादी जीतता है, न अध्यात्मवादी जीतता है। जीत भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे जिंदगी को आधा आधा तोड़कर कह रहे हैं।

तो उन दोनों में बड़ा विवाद था। वह जो कहता था कि पैसे पास होना जरूरी है, एक जो कहता था कि पैसे की क्या जरूरत है। वे दोनों एक दिन सांझ एक नदी के किनारे भागे हुए पहुंचे हैं। रात उतरने के करीब है। माझी नाव बांध रहा है। नाव बांधते उस मांझी से उन्होंने कहा, नाव मत बांधो, हमें उस पार पहुंचा दो, रात उतरने को है, हमें उस पार जाना जरूरी है। उस मांझी ने कहा, अब तो मैं दिन भर का काम निपटा चुका और अपने गांव वापस लौट रहा हूं। अब सुबह उतार दूंगा। उन्होंने कहा, नहीं, सुबह तक हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते। हमारा गुरु उनका गुरु, उनका फकीर जिसके पास उन्होंने जीया, जाना, पहचाना जीवन को वह मृत्यु के निकट है और खबर आई है कि सुबह तक उसके प्राण निकल जाएंगे। उसने हमें बुलावा भेजा है। हम रात नहीं रुक सकते। तो माझी ने कहा कि मैं पांच रुपए लूंगा, तो उतार दूंगा। तो जो फकीर कहता था कि रुपए पास रखना चाहिए, वह हंसा और उसने कहा, कहो दोस्त, अब क्या खयाल है? उस फकीर से कहा जो कहता था कि पैसे रखना बिलकुल व्यर्थ है। उससे उसने कहा, कहो मित्र, क्या खयाल है? पैसा रखना व्यर्थ है या सार्थक है? वह दूसरा आदमी सिर्फ हंसता रहा। फिर उसने पांच रुपए निकाले, मांझी को दिए। 

वह जीत गया है। फिर वे नाव पर सवार हुए और उस पार पहुंच गए। फिर उतर कर उसने कहा, कहो मित्र, आज नदी के पार न उतर पाते, अगर पैसे पास न होते। वह दूसरा खूब हंसने लगा। उसने कहा, हम पैसे पास होने की वजह से नदी पार नहीं उतरे हैं। तुम पैसे छोड़ सके, इसलिए नदी के पार उतरे हैं। पैसा होने से नहीं, पैसा छोड़ने से उतरे हैं नदी के पार। दलील फिर अपनी जगह खड़ी हो गई। उसने कहा, मैं सदा कहता हूं, पैसे छोड़ने की हिम्मत होनी चाहिए संन्यासी को। हम पैसे छोड सके, इसलिए पार आ गए। अगर तुम पकड लेते, न छोड़ते, तो कैसे पार आते?

अब बड़ी मुश्किल हो गई। वह दूसरा भी हंसा। वे दोनों अपने गुरु के पास गए और मरते हुए गुरु से उन्होंने पूछा कि क्या करें? बड़ी मुश्किल है! और आज तो घटना ऐसी घट गई है साफ साफ। पहले वाले ने कहा कि पैसे थे, इसलिए हम उतरे हैं और दूसरा कहता है, पैसे छोड़े, इसलिए हम उतरे हैं। और हम अपने सिद्धातों पर अडिग हैं। और हमारे दोनों के सिद्धात ठीक मालूम पड़ते हैं। वह गुरु खूब हंसा। उसने कहा कि तुम दोनों पागल हो। तुम वही पागलपन कर रहे हो, जो आदमी बहुत जमाने से कर रहा है। क्या पागलपन है? उन्होंने पूछा। गुरु ने कहा, तुम एक सत्य के आधे हिस्से को देख रहे हो। यह सच है कि पैसे छोड़ने से ही तुम नाव से उतर सके, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि तुम पैसे इसलिए छोड़ सके कि पैसे तुम्हारे पास थे। और यह भी सच है कि पैसे पास होने से ही तुम नदी पार उतरे, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि अगर पास ही होते तो तुम नदी उतर न सकते थे। तुम पास से दूर कर सके, इसलिए तुम नदी उतरे। ये दोनों ही बातें सच हैं। और ये दोनों बातें ही इकट्ठा जीवन है और इनमें विरोध नहीं है।

जीवन के सारे तलों पर ऐसा ही विरोध हमने बांट कर रखा है। और हर विरोध का मानने वाला अपनी दलील दे सकता है। कठिनाई नहीं है। क्योंकि उसके पास भी आधी जिंदगी तो है ही। और आधी जिंदगी कोई कम बात है? बहुत है, दलील के लिए काफी है। इसलिए दलील से कुछ हल नहीं होता, खोजना पड़ेगा पूरी जिंदगी को।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 

पापी और पुण्यात्मा

पापी और पुण्यात्मा में बहुत फर्क नहीं है। इतना ही फर्क है, जैसे एक आदमी पैर पर खड़ा है और एक आदमी सिर पर खड़ा है। तुम अगर शीर्षासन कर लो तो कुछ फर्क हो जाएगा? 

 तुम ही रहोगे - सिर के बल खड़े रहोगे। अभी पैर के बल खड़े थे। क्या फर्क होगा तुममें? तुम उलटे हो जाओगे। पुण्यात्मा सीधा खड़ा है; पापी सिर के बल खड़ा है वह शीर्षासन कर रहा है। और शीर्षासन करने में कष्ट मिलता है, तो पा रहा है। पुण्यात्मा कुछ विशेष नहीं कर रहा है। और पापी कुछ पाप का फल आगे पाएगा, ऐसा नहीं है; पाप करने में ही पा रहा है। सिर के बल खड़े होओगे, कष्ट मिलेगा। और पुण्यात्मा पैर के बल खड़ा है, इसलिए सुख पा रहा है। इसमें कोई भविष्य में कोई सुख मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा ऐसा कोई सवाल नहीं है।

 तुम अगर ठीक ठीक चलते हो रास्ते पर, तो सकुशल घर आ जाते हो, बस। अगर तुम उलटे सीधे चलते हो, शराब पीकर चलते हो गिर पड़ते हो, पैर में चोट लग जाती है, फ्रैक्चर हो जाता है। कोई जमीन तुम्हारे पैर में फ्रैक्चर नहीं करना चाहती थी; तुम्हीं उलटे सीधे चले।

पापी उलटा सीधा चल रहा है, थोड़ा डांवाडोल चल रहा है; पुण्यात्मा थोड़ा सम्हलकर चल रहा है। लेकिन कबीर कहते हैं कि जो अपने भीतर चला गया, वह तो स्वयं परमात्मा हो गया वहां न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। उसकी चाल का क्या कहना! 

ध्यान रखो, पाप से दुख मिलता है, पुण्य से सुख मिलता है। पाप रोग की तरह है, पुण्य स्वस्थ होने की तरह है। लेकिन भीतर जो चला गया, वह न तो दुख में होता है, न सुख में; वह आनंद में जीता है। आनंद बड़ी और बात है। आनंद का मतलब है: सुख भी गए, दुख भी गए। क्योंकि जब तक दुख रहते हैं, तभी तक सुख रहते हैं। और जब तक सुख रहते हैं, तब तक दुख भी छिपे रहते हैं; वे जाते नहीं। पापी के लिए नरक, पुण्यात्मा के लिए स्वर्ग; और जो भीतर पहुंच गया, उसके लिए मोक्ष। वह स्वर्ग और नरक दोनों के पार है।

पुण्य और पाप, दोनों ही बंधन है। पाप होगा लोहे की जंजीर, पुण्य होगा सोने की जंजीर हीरे, जवाहरातों से जड़ी। पर क्या फर्क पड़ता है? पापी भी बंधा है, पुण्यात्मा भी बंधा है। पापी दुख पा रहा है, पुण्यात्मा सुख पा रहा है; लेकिन दोनों को अभी उसकी खबर नहीं मिली जो दोनों के पार है। दोनों द्वैत में जी रहे हैं। भीतर जिसने स्वयं को जाना; जिसने साहब को जाना; जिसने अपने सलोने रूप को पहचाना; जिसने अपने निराकार निर्गुण को देखा; जिसने अपनी अद्वैत प्रतिष्ठा पाई उसके लिए न तो कोई पुण्य है, न तो कोई पाप है। वह द्वंद्व के बाहर हो गया वह निर्द्वंद्व है। वह द्वैत के पार उठ गया वह अद्वैत है।

और यह साहब बहुत दूर नहीं है। पास भी कहना उचित नहीं है। साहब तुम्हारे भीतर है। भीतर कहना भी उचित नहीं है। साहब तुम्हीं हो। 

“ऐसन साहब कबीर…!
“कस्तूरी कुंडल बसै!’

सुनो  भई  साधो 

ओशो 

परमात्मा से छूट कर कहा जाओगे?

मछली ने कभी सागर छोड़ा है? वह सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही लीन होती है। परमात्मा में हम जी रहे हैं, उसी में श्वास लेते, उसी में उठते बैठते, चलते, भटकते, पाते सब उसी में घट रहा है। खोते भी हैं, तो भी उसी के भीतर हैं; पाते हैं तो भी उसी के भीतर हैं। 

उससे बाहर होने का कोई उपाय नहीं है। मछली तो कभी कभी छलांग लगाकर तट पर भी आ सकती है और तड़फ सकती है, लेकिन परमात्मा के बाहर होने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि उसके बाहर कोई तट ही नहीं है। वह तटहीन सागर है। उससे बाहर जाने की कोई जगह नहीं है, क्योंकि उसके बाहर कुछ नहीं है; वही सब कुछ है।

सुनो भई साधो 

ओशो 

जिसने विश्राम की कला सीख ली, जिसने विराम का राज समझ लिया, वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाएगा

ऐसा हुआ कि अमरीका में पहली दफा ट्रेनें चलाई गईं; ट्रेन की पटरियां डाली गईं; तो एक आदिवासी कबीले में भी पहली दफे ट्रेन गुजरने वाली थी। अमरीकी प्रेसीडेंट उसका उदघाटन करने गया। स्टेशन पर झाड़ के नीचे एक आदिवासी लेटा हुआ सारा दृश्य बड़े मजे से देख रहा है; बीच बीच में अपने हुक्के से दम लगा लेता है, फिर अपने लेटकर वही देख रहा है ऐसे जैसे दुनिया में कुछ करने को नहीं है। प्रेसीडेंट उसके पास गया और उसने कहा कि तुम्हें शायद पता नहीं कि यह बड़ी ऐतिहासिक घटना है, इस ट्रेन का गुजरना। उस आदिवासी ने पूछा, इससे क्या होगा? 

तो प्रेसीडेंट ने उसे समझाने के लिए कहा कि तुम लकड़ियां काटकर शहर जाते हो बेचने कितने दिन लगते हैं? उसने कहा कि दो दिन जाने में लगते हैं, एक दिन बेचने में लग जाता है, दो दिन लौटने में लगते हैं सप्ताह में पांच दिन लग जाते हैं और फिर दो दिन घर आराम करना पड़ता है, फिर जाना पड़ता है। अभी ये आराम के दिन हैं : दो दिन।

प्रेसीडेंट ने कहा, “अब तुम समझ सकोगे। ट्रेन से तुम घंटे भर में पहुंच जाओगे, और दिन भर में बिक्री करके रात घंटे भर में घर वापस आ जाओगे।’ सोचा था प्रेसीडेंट ने कि आदिवासी बहुत प्रसन्न होगा, वह थोड़ा उदास हो गया। उसने कहा, “फिर छह दिन, बाकी दिन क्या करेंगे? यह तो बहुत झंझट हो गई।’

समय कम हो तो बचाओ, बचाने का अर्थ है गति को तेज कर लो, सब चीजों में गति कर लो। सब चीजों में गति हो जाती है, एक हड़बड़ाहट पैदा हो जाती है, भीतर एक तनाव पैदा हो जाता है। तुम सदा भागे भागे हो; जहां हो वहां नहीं हो। तुम्हें कहीं और आगे होना था, वहां तुम अभी पहुंचे नहीं हो। जब तुम वहां पहुंचोगे, तब तुम वहां नहीं हो। तुम सदा अपने से आगे भागे जा रहे हो। चित्त बहुत अशांत और बेचैनी से भर जाता है।

 ऐसी हड़बड़ी में कैसे तुम स्वयं को पा सकोगे? क्योंकि स्वयं को पाने के लिए एक स्थिति चाहिए जैसे कहीं नहीं जाना, कुछ नहीं करना, सिर्फ आंख बंद करके बैठे रहना है, अपने में डूबना है। इसलिए पूरब में तो कभीकभी आत्मज्ञान की घटना घट जाती है। पश्चिम में बहुत मुश्किल हो गई है। और पूरब में घट जाती है, क्योंकि पूरब को खयाल है कि जल्दी कुछ भी नहीं है यह जन्म ही नहीं, अनंत जन्म हैं। यात्रा लंबी है। समय बहुत है। विश्राम किया जा सकता है।

जिसने विश्राम की कला सीख ली, जिसने विराम का राज समझ लिया, वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाएगा। यह बात तुम्हें बड़ी बेबूझ लगेगी। श्रम से कभी किसी ने परमात्मा को नहीं पाया। श्रम से संसार पाया जाता है, बाहर की वस्तुएं पाई जाती हैं; विश्राम से परमात्मा पाया जाता है, भीतर का अस्तित्व पाया जाता है।

सुनो भई साधो 

ओशो 


गूंगे केरी सरकरा, खाए और मुसकाए!

सारी भाषा बाहर की है। भीतर की कोई भाषा नहीं है, हो ही नहीं सकती। पूछा जा सकता है कि हजारों हजारों साल से ज्ञानी भीतर जा रहे हैं, अब तक भीतर की भाषा विकसित क्यों नहीं हुई? कोई नई घटना तो नहीं है। उस भीतर के देश में न मालूम कितने लोग गए हैं! न मालूम कितने लोग वहां से डूबकर और सिक्त होकर आए हैं! न मालूम कितनों ने भीतर के उस अंतरध्यान में लीनता पाई है! अब तक भीतर की भाषा विकसित क्यों नहीं हो सकी? कारण है। भाषा की जरूरत होती है, जहां दो हों। भीतर तो तुम अकेले ही होते हो। अकेले में तो भाषा की कोई जरूरत नहीं होती। भाषा की जरूरत होती है जहां दो हों, जहां द्वैत हो; अद्वैत में तो भाषा का कोई सवाल ही नहीं उठता। जहां अकेले ही हैं, वहां किससे बोलना है, किसको बोलना है? तो भीतर तो आदमी जाकर बिलकुल गूंगा हो जाता है। कबीर कहते हैं, “गूंगे केरी सरकरा, खाए और मुसकाए।’ गूंगा खा लेता है शक्कर, और मुसकाता है।

वैसे ही भीतर का अनुभव है कि वहां एक ही बचता है, और वह भी इतने अपरिसीम आनंदउत्सव में लीन हो जाता है कि कौन खोजे भाषा और किसके लिए खोजे? जब बाहर आता है भीतर से, तब अड़चन शुरू होती है बाहर खड़े हैं लोग, इनको बताना मुश्किल हो जाता है। तो कबीर कहते हैं, “कहन सुनन कछु नाहिं’ न तो कुछ कहने को है, न कुछ सुनने को है। कहना सुनना दोनों छोड़कर, मार्ग पकड़ना है “होने’ का। बहुत कहा गया, बहुत सुना गया है कुछ भी हुआ नहीं। “होने’ का एकमात्र मार्ग है।

“नहीं कछु करन है’ करने को भी कुछ नहीं है।

इसलिए मैं कहता हूं, ये बड़े क्रांतिकारी वचन हैं। कोई करने की बात नहीं है। क्या करोगे उसे पाने के लिए? जिसे पाया ही हुआ है, उसे पाने के लिए क्या करोगे? जो भीतर छिपा ही है, मौजूद है, जो तुम्हारे साथ ही चला आया है, जो तुम्हारी अंतरसंपदा है उसे पाने के लिए क्या करोगे? उसे जितना तुम पाने की कोशिश करोगे, उतनी ही अड़चन खड़ी होगी। जैसे कोई अपनी ही खोज में निकल जाए भटकेगा। दूसरे की खोज, समझ में आती है; अपनी ही खोज कहां खोजोगे? हिमालय जाओगे? मक्का मदीना, काशी, गिरनार कहां जाओगे?

सुनो भई साधो 

ओशो


भीतर का अँधेरा

यहूदियों की बड़ी पुरानी कथा है कि हजरत मूसा जब सिनाई के पर्वत पर गए तो अचानक उन्होंने आवाज सुनी कि जूते उतार दे, क्योंकि यह पवित्र भूमि है। तो डरकर उन्होंने जूते उतार दिए। आगे बढ़े तो उन्होंने एक झाड़ी में आग को जलते देखा। वे बड़े हैरान हो गए। वह बड़ा चमत्कारी अनुभव था। आग तो जल रही थी और झाड़ी जल नहीं रही थी। आग में तो लपटें निकल रही थी; झाड़ी हरी की हरी थी।

यहूदियों को बड़ी मुश्किल हुई यह समझाने में कि इसका क्या मतलब होगा। इसका मतलब बाहर की किसी कथा से नहीं है; इसका मतलब भीतर की आग से है। भीतर एक ऐसी आग है जो जलती है और जलाती नहीं। एक बड़ी ठंडी रोशनी है; ठंडी आग बरफ जैसी ठंडी, और आग जैसी उज्जवल।

 जब तुम भीतर जाओगे तो बाहर की रोशनी से इस रोशनी का गुणधर्म अलग है। इसलिए तुम्हारे पास नई आंखें चाहिए जो इसे देख सकें। और तुम्हें अपनी आंखों को धीरे धीरे समायोजित करना होगा।

ध्यान की सारी प्रक्रियाएं और कुछ भी नहीं हैं, सिवाय इसके कि तुम्हारी बाहर देखने के लिए जो आदत बनी है आंखों की, उसमें एक नई आदत को प्रवेश करवा दें कि तुम भीतर देखते रहो, कितना ही अंधेरा हो, अंधेरे को ही देखते रहो अंधेरे को भी देखते देखते देखते तुम एक दिन पाओगे कि अंधेरा कम होने लगा; एक धीमीसी रोशनी आने लगी। अगर तुम देखते ही गए, देखते ही गए, तो एक नई रोशनी का जगत प्रारंभ हो जाता है।

सुनो भई साधो 

ओशो 

श्रद्धा का अर्थ

श्रद्धा का अर्थ है: जिसे मानने के लिए तर्क के पास कोई कारण न हो; जिसे मानना बिलकुल असंभव मालूम पड़े, जिसे मानना बिलकुल ही अतक्र्य हो उसे मान लेना। जो दिखाई न पड़ता हो, जिसका स्पर्श न होता हो, जिसकी गंध न आती हो, और जिसको मानने के लिए कोई भी आधार न हो उसे मान लेने का नाम है श्रद्धा।

लेकिन श्रद्धा बहुमूल्य सूत्र है। वह अंत नहीं है, शुरूआत है। जिसे तुम मान लेते हो, उसकी खोज की संभावना शुरू हो जाती है। वैज्ञानिक हायपोथिसिस निर्मित करते हैं। श्रद्धा हायपोथिसिस है। हायपोथिसिस का मतलब होता है कि पहले वैज्ञानिक एक सिद्धांत तय करता है, क्योंकि बिना सिद्धांत तय किए तुम जाओगे कहां, खोजोगे कैसे क्या खोजोगे? खोज की शुरूआत ही न हो सकेगी। वह सिद्धांत सिर्फ प्रारंभ है, वह कोई अंत नहीं है। लेकिन उससे द्वार खुलता है, उससे संभावना निर्मित होती है फिर आदमी खोज में निकलता है। हो सकता है वह मिले, हो सकता है न मिले। क्योंकि अंधेरे में तुमने जो तय किया था, उसके मिलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन एक बात पक्की है: हो सकता है, तुमने जो तय किया था वह न मिले; लेकिन कुछ मिलेगा।

परमात्मा को तुम अभी जानते नहीं, कोई पहचान नहीं, कभी देखा नहीं, कभी मिलन नहीं हुआ। श्रद्धा का अभी तो इतना ही अर्थ हो सकता है कि हम एक परिकल्पना स्वीकार करते हैं, और हम खोज में लगते हैं शायद जो परिकल्पना है वैसा सिद्ध हो, न हो। लेकिन एक बात पक्की है कि खोज शुरू हो जाएगी। आर जिसकी खोज शुरू हो गई, अंत ज्यादा दूर नहीं है। और एक बात यह भी पक्की है कि अज्ञानियों ने जितने ढंग से परमात्मा को माना है, अंतिम अर्थ में वे कोई भी सही सिद्ध नहीं होती; वे सभी परिकल्पनाएं असिद्ध होती हैं। जो प्रगट होता है, वह सभी परिकल्पनाओं से ज्यादा अनूठा है। जो प्रकट होता है वह तुम्हारी सभी मान्यताओं से बहुत ऊपर है। जो प्रगट होता है, तुमने उसे सोचा था दीया; लेकिन जो प्रगट होता है वह महासूर्य है। किसी की परिकल्पना परमात्मा के संबंध में कभी सही सिद्ध नहीं होती, हो भी नहीं सकती।

छोटा सा मन है, छोटा सा उसका आंगन है कितना बड़ा आकाश उस आंगन में समाएगा? छोटे छोटे हाथ हैं। इन छोटे छोटे हाथों से उस विराट को छूने की कोशिश कितना विराट तुम छू पाओगे? बूंद जैसी क्षमता है, सागर को खोजने निकले हो कितना सागर तुम अपने में ले पाओगे?

लेकिन श्रद्धा के बिना यात्रा शुरू नहीं होती। श्रद्धा का कुल इतना ही अर्थ है कि साहस की हम तैयारी करते हैं, हम ज्ञात से न बंधे रहेंगे, अज्ञात में, उतरने के लिए हमारी हिम्मत है; हम डरे डरे अपने घर में कैद न रहेंगे, हम खुले आकाश के महाअभियान पर निकलते हैं।

एक बात पक्की है कि तुम जो भी मानकर निकलोगे, वह तुम कभी न पाओगे; क्योंकि तुम अभी जानते नहीं तो तुम ठीक मान कैसे सकोगे?

सम्यक श्रद्धा तो ज्ञान से घटित होगी। लेकिन सम्यक श्रद्धा के पहले एक परिकल्पित श्रद्धा है, हायपोथेटिकल है। वैज्ञानिक भी उसके बिना काम नहीं कर सकता, तो धार्मिक तो कैसे कर सकेगा?

तो, श्रद्धाएं दो प्रकार की हैं। एक श्रद्धा है साहस का नाम, जो अज्ञान से बाहर लाती है, द्वार के बाद हृदय में आरोपित होती है। उस दूसरी श्रद्धा को फिर डिगाने का कोई उपाय नहीं है। पहली भी उखाड़ ले सकता है। नए रोपे की बड़ी सुरक्षा करनी पड़ती है, चारों तरफ बागुड़ लगानी पड़ती है, देखभाल रखनी पड़ती है। एक बार वृक्ष की अपनी जड़ें जमीन को पकड़ लेती हैं, एक बार वृक्ष जमीन के साथ एक हो जाता है, फिर बागुड़ की कोई जरूरत नहीं। फिर बच्चे उसे न उखाड़ पाएंगे। फिर कोई उसे नुकसान न पहुंचा पाएगा। फिर तो वृक्ष बड़ा हो जाएगा। फिर तो सैकड़ों लोग उसके नीचे बैठकर छाया पा सकेंगे।

इसलिए प्राथमिक रूप से जब श्रद्धा में कोई उतरता है तो बड़ी सावधानी की जरूरत है, क्योंकि चारों तरफ अंधों की भीड़ है। वह तुमसे कहेगी, “क्या मान रहे हो? क्या कर रहे हो? पागल हो गए? दिमाग तो ठीक है?’ वह अंधों की भीड़ बच्चों की तरह है; वह तुम्हारे पौधे को उखाड़ दे सकती है।

सुनो भई साधो 

ओशो 

बड़े पाप में पड़ा हूं, इससे छुटकारा दिलाएं

कल एक युवक आया। युवक है, तो स्वभावतः वासना जगेगी, कुछ आश्चर्यजनक नहीं है, न जगे तो ही आश्चर्यजनक है। युवक हो और अगर वासना न जगे तो उसका अर्थ यही हुआ कि कहीं न कहीं शरीर में, मन में कुछ कमी रह गई, कहीं कोई बात चूक गई। वासना तो स्वाभाविक है। लेकिन वह युवक अपने को बहुत निंदित और दलित मान रहा है, आत्मग्लानि से भरा है। वह कहता है, “मेरे मन में बड़े पाप उठ रहे हैं। कैसे पाप से छुटकारा हो?’

जिस चीज को तुमने पाप कह दिया, उससे छुटकारा कभी भी न हो सकेगा। क्योंकि जिस चीज को तुमने पाप कह दिया, उतने ही में मामला समाप्त नहीं हो गया; उसके कारण तुम पापी हो गए। और पापी परमात्मा के निकट कैसे हो सकेगा?

थोड़ासा भोजन में रस है, तो पाप। थोड़ा कपड़ा पहनने में रस हो, तो पाप। थोड़ी ज्यादा देर सो जाते हो सुबह, तो पाप। सब तरफ से पाप खड़ा कर दिया है निंदकों ने। जहर फैलानेवालों का बड़ा लंबा इतिहास है। उन्होंने सब तरफ तुम्हें निंदित कर दिया है। उसके पीछे कारण हैं।

तुम जितने निंदित हो जाओ, उतने ही पंडित पूजित हो जाते हैं। यह गणित है। तुम जितने निंदित हो जाओ, उतना ही पंडित पूजित हो जाता है। क्योंकि वह सुबह पांच बजे उठता है और तुम नहीं उठ पाते। वह ब्रह्ममुहूर्त में उठता है। वह उपवास करता है, तुम नहीं कर पाते। त्यागी त्याग करता है, तुम नहीं कर पाते। लेकिन तुम जानकर चकित होओगे कि सौ में से निन्यानबे त्यागी इसलिए त्याग कर रहे हैं कि उनका त्याग एक अस्त्र है, जिसमें वे तुम्हें निंदित करते हैं। उनका त्याग उनके अहंकार की एक व्यवस्था है। उपवास में मजा उन्हें भी नहीं आता, लेकिन उपवास के कारण भोजन करने वालों को नरक में भेजने की जो सुविधा उनके मन में आ जाती है, वही उपवास का रस है।


दूसरे को निंदित करना हो तो एक ही उपाय है कि तुम जिस बात की निंदा करते हो, उसको स्वयं न करो। और सरल से उपाय हैं कि कोई आदमी विवाह नहीं करता तो गैरविवाहित रहकर विवाहित लोगों की निंदा करता है। सारी दुनिया विवाहित लोगों की निंदित हो जाती है। उसके अहंकार की कोई सीमा नहीं रहती।

अब यह युवक, जो मेरे पास कल आया, वह कहता है, “बड़े पाप में पड़ा हूं, इससे छुटकारा दिलाएं।’

पाप कहां है? जो स्वाभाविक है उसमें कोई पाप नहीं। और ध्यान रखने की बात तो यह है कि अगर तुमने पाप समझा तो कभी छूट न पाओगे। अगर छूटना चाहा तो कभी छूट न पाओगे। और अगर तुमने प्रभु की अनुकंपा समझी इसे भी, तो इसके द्वारा भी तुम प्रभु को पास ले आए, दूर न किया। जरा सूक्ष्म है, ठीक से समझ लेना। अगर तुमने कहा पाप है, तो कितनी बातें घट रही हैं, तुम्हें पता नहीं है। किसी चीज को पाप कहा तो तुम पापी हो गए। किसी चीज को पाप कहा तो पूरी प्रकृति पापी हो गई, क्योंकि उसी प्रकृति से वह पाप जन्मा है। और किसी चीज को अगर पाप कहा तो बहुत गौर से देखना, परमात्मा भी पापी हो गया, क्योंकि उसके बिना इस जगत में कुछ भी नहीं घट सकता है। 

सुनो भई साधो 

 ओशो 

मैं ओशो के साथ सोहन के घर ठहरी हुई हूं...

...  ओशो हमारे साथ डाइनिंग टेबल पर बैठकर भोजन लेना पसंद करते हैं। सोहन सच ही बहुत बढ़िया खाना बनाती है। सुबह के प्रवचन के  बाद हम लोग 10:15 बजे के करीब घर पहुंचते हैं। एक ही घंटे में सोहन बहुत सारे स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ भोजन तैयार कर लेती है। 11:30 बजे तक हम सभी लोग बीच में फूलों से सजी बड़ी सी डाइनिंग टेबल के इर्द गिर्द बैठ जाते हैं। हर भोजन बड़ी दावत जैसा होता है। ओशो खाना खाते समय चुटकुले सुनाना पसंद करते हैं और अपने चारों ओर हंसी बिखेर देते हैं।

आज इतने सारे व्यंजन हैं कि समझ ही नहीं आ रहा कहां से शुरु, करें। सोहन ओशो के पास खड़ी हुई है और अलग अलग डोगौ से चीजें निकालकर उन्हें परोसने लगती है। ओशो अपने मनपसंद भोजन की प्रशंसा करने में कभी कोई कंजूसी नहीं करते। आज, उन्हें दही बड़े बहुत अच्छे लगते हैं। वे सोहन को कहते हैं, सोहन, दही बड़े बहुत ही स्वादिष्ट हैं।’ सोहन कहती है, इसका मतलब है बाकी की चीजें स्वादिष्ट नहीं हैं।’ ओशो हैरानी से सोहन की ओर देखते हैं और कहते हैं, ‘नहीं, नहीं। मेरा यह मतलब नहीं है। मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूं ताकि तू समझ सके कि मेरा क्या मतलब है।’

फिर वे यह कहानी सुनाते हैं: 

मुल्ला नसरुद्दीन दो सुंदर. स्त्रियों के प्रेम में था। वह दोनों से अलग अलग कहा करता था, तुम सबसे सुंदर हो। एक दिन दोनों स्त्रियों का आपस में मिलना हो जाता है और उन्हें पता लगता है कि वह उन दोनों से ही बात कह रहा है। वे दोनों इकट्ठी मुल्ला के पास जाती हैं और कहती हैं, ‘अब हमें सच सच बताओ’, हम दोनों में से सुंदर कौन है?’ मुल्‍ला एक क्षण के लिए सोचकर कहता है, तुम दोनों ही एक दूसरे से बढ़कर सुंदर हो।’

हम सब हंसते हंसते लोट पोट हो जाते हैं और ओशो कहते हैं, सोहन तेरे सारे पकवान एक से बढ़कर एक हैं।’ सोहन को अब बात समझ आ जाती है और वह भी हंसने लगती है।

दस हज़ार बुद्धो की सो गाथाए 

ओशो

नया साल

मुझसे कहते हैं मित्र कि नये वर्ष के लिए कुछ कहूं। नये वर्ष के लिए मैं कुछ न कहूंगा। क्योंकि आप ही तो नया वर्ष फिर जीएंगे, जिन्होंने पिछला वर्ष पुराना कर दिया; आप नये वर्ष को भी पुराना करके ही रहेंगे।आपने न मालूम कितने वर्ष पुराने कर दिए!

आप पुराना करने में इतने कुशल हैं कि नया वर्ष बच न पाएगा, इसकी उम्मीद बहुत कम है। आप इसको भी पुराना कर ही देंगे। और एक वर्ष बाद फिर इकट्ठे होंगे और फिर सोचेंगे, नया वर्ष। ऐसा आप कितनी बार नहीं सोच चुके हैं! लेकिन नया आया नहीं! क्योंकि आपका ढंग पुराना पैदा करने का है। नये वर्ष की फिकर न करें। नये का कैसे जन्म हो सकता है, इस दिशा में थोड़ी सी बातें सोचें और थोड़े प्रयोग करें। तो तीन बातें मैंने आपसे कहीं। एक तो पुराने को मत खोजें। खोजेंगे तो वह मिल जाएगा, क्योंकि वह है। हर अंगारे में दोनों बातें हैं। वह भी है जो राख हो गया अंगारा, बुझ गया जो; जो अंगारा बुझ चुका है, जो हिस्सा राख हो गया, वह भी है, और वह अंगारा भी अभी भीतर है जो जल रहा है, जिंदा है; अभी है, अभी बुझ नहीं गया। अगर राख खोजेंगे, राख मिल जाएगी। 

जिंदगी बड़ी अद्भुत है, उसमें खोजने वालों को सब मिल जाता है।वह आदमी जो खोजने जाता है उसे मिल ही जाता है।और जो आपको मिल जाता हो, ध्यान से समझ लेना कि आपने खोजा था इसीलिए मिल गया है। और कोई कारण नहीं है उसके मिल जाने का। नया अंगारा भी है, वह भी खोजा जा सकता है। 

तो पहली बात, पुराने को मत खोजना। कल सुबह से उठ कर थोड़ा एक प्रयोग करके देखें कि पुराने को हम न खोजें। कल जरा चैक कर अपनी पत्नी को देखें जिसे तीस वर्ष से आप देख रहे हैं। शायद आपने तीस वर्ष देखा ही नहीं फिर। हो सकता है पहले दिन जब आप लाए थे तो देख लिया होगा, फिर बात समाप्त हो गई। फिर आपने देखा नहीं। और अगर अभी मैं आपसे कहूं कि आंख बंद करके जरा पांच मिनट अपनी पत्नी का चित्र बनाइये मन में, तो आप अचानक पाएंगे कि चित्र डांवाडोल हो जाता है, बनता नहीं।

क्योंकि कभी उसकी रेखा भी तो अंकित नहीं हो पाई। हालांकि हम चिल्लाते रहते हैं कि इतना प्रेम करते हैं, इतना प्रेम करते हैं। वह सब चिल्लाना भी
इसीलिए है कि प्रेम नहीं करते, शोरगुल मचा कर आभास पैदा करते रहते हैं। वह आभास हम पैदा करते रहे हैं।

तो कल सुबह उठ कर नये की थोड़ी खोज करिए। नया सब तरफ है, रोज है, प्रतिदिन है। और नये का सम्मान करिए, पुराने की अपेक्षा मत करिए। हम अपेक्षा करते हैं पुराने की। हम चाहते हैं कि जो कल हुआ वह आज भी हो। तो फिर आज पुराना हो जाएगा। जो कभी नहीं हुआ वह आज हो, इसके लिए हमारा खुला मन होना चाहिए कि जो कभी नहीं हुआ वह आज हो। हो
सकता है वह दुख में ले जाए।


लेकिन मैं आपसे कहता हूं, पुराने सुखों से नये दुख भी बेहतर होते हैं, क्योंकि नये होते हैं। उनमें भी एक जिंदगी और एक रस होता है। पुराना सुख भी
बोथला हो जाता है, उसमें भी कोई रस नहीं रह जाता। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि पुराने सुखों से घिरा आदमी नये दुख अपने हाथ में ईजाद करता है, खोजता है।


वह खोज सिर्फ इसलिए है कि अब नया सुख नहीं मिलता तो
नया दुख ही मिल जाए। आदमी शराब पी रहा है, वेश्या के घर जा रहा है। यह नए दुख खोज रहा है। नया सुख तो मिलता नहीं, तो नया दुख ही सही। कुछ तो नया हो जाए। नये की उतनी तीव्र प्राणों की आकांक्षा है। लेकिन हम पुराने की अपेक्षा वाले लोग हैं। 

इसलिए दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं: पुराने की अपेक्षा न करें। और कल सुबह अगर पत्नी उठ कर छोड़ कर घर जाने लगे, तो एक बार भी मत कहें कि अरे तूने तो वायदा किया था। कौन किसके लिये वायदा कर सकता है तब उसे चुपचाप घर से विदा कर आएं। जिस प्रेम से उसे ले आए थे, उसी प्रेम से विदा कर आएं। यह विदा भी स्वीकार कर लें, नये की सदा संभावना है। पत्नी चैबीस घंटे पूरी जिंदगी के साथ रहेगी, यह जरूरी क्या है? रास्ते मिलते हैं और अलग हो जाते हैं। मिलते वक्त और अलग होते वक्त इतना परेशान होने की बात क्या है?

लेकिन नहीं, बड़ा मुश्किल है विदा होना। क्योंकि हम कहेंगे कि जो पुराना था उसे थिर रखना है। सब पुराने को थिर रखना है। नया जब आए तब उसे स्वीकार करें, पुराने की आकांक्षा न करें। 

तीसरी बात: कोई और आपके लिए नया नहीं कर सकेगा; आपको ही करना पड़ेगा। और ऐसा नहीं है कि आप पूरे दिन को नया कर लेंगे या पूरे वर्ष को नया कर लेंगे, ऐसा नहीं है, एक-एक कण, एक-एक क्षण को नया करेंगे तो अंततः पूरा दिन, पूरा वर्ष भी नया हो जाएगा।

जीवन रहस्य 


ओशो 

Monday, December 28, 2015

सृजनात्मक शक्ति

कभी आपने नहीं सोचा होगा, इतने पेन्टर हुए, इतने मूर्तिकार हुए, इतने चित्रकार, इतने कवि, इतने आर्किटेक्‍ट, लेकिन स्‍त्री कोई एक बड़ी चित्रकार नहीं हुई! कोई एक स्‍त्री बडी आर्किटेक्ट, वास्तुकला में अग्रणी नहीं हुई! कोई स्‍त्री ने बहुत बड़े संगीत को जन्म नहीं दिया! कोई एक स्‍त्री ने कोई बहुत अदभुत मूर्ति नहीं काटी! सृजन का सारा काम पुरुष ने किया है। और कई बार पुरुष को ऐसा खयाल आता है कि क्रिएटिव, सृजनात्मक शक्ति हमारे पास है। स्‍त्री के पास कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है।

लेकिन बात उलटी है। स्‍त्री पुरुष को पैदा करने मैं इतना बड़ा श्रम कर लेती है कि और कोई सृजन करने कि जरूरत नहीं रह जाती। स्‍त्री के पास अपना एक क्रिएटिव एक्ट है। एक सृजनात्‍मक कृत्य है, जो इतना बड़ा कि न, पत्थर की मूर्ति बनाना और एक जीवित व्यक्ति को बड़ा करना.. लेकिन स्‍त्री के काम को हमने सहज स्वीकार कर लिया है। और इसीलिए स्‍त्री की सारी सृजनात्‍मक शक्ति उसके मां बनने में लग जाती है। उसके पास और कोई सृजन की न सुविधा बचती है, न शक्ति बचती है। न कोई आयाम, कोई डायमेंशन बचता है। न सोचने का सवाल है।

एक छोटे से घर को सुंदर बनाने में लेकिन हम कहेंगे, छोटे से घर को सुंदर बनाना, कोई माइकल एंजलो तो पैदा नहीं हो सकता, कोई वानगाग तो पैदा नहीं हो जायेगा। कोई इजरा पाउंड तो पैदा नहीं होगा। कोई कालिदास तो पैदा नहीं होगा। एक छोटे से घर को… लेकिन मैं कुछ घरों में जाकर ठहरता रहा हूं।

एक घर में ठहरता था, मैं हैरान हो गया। गरीब घर है। बहुत सम्पन्न नहीं है। लेकिन इतना साफ सुथरा, इतना स्वच्छ मैंने कोई घर नहीं देखा। लेकिन उस घर की प्रशंसा करने कोई कभी नहीं जायेगा। घर की गृहणी उस घर को ऐसा पवित्र बना रही है कि कोई मंदिर भी उतना स्वच्छ और पवित्र नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन उसकी कौन फिक्र करेगा? कौन माइकेल एंजलो,कालिदास और वानगाग में उसकी गिनती करेगा? वह खो जायेगी। या : एक ऐसा काम कर रही है, जिसके लिए कोई प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। क्यों नहीं मिलेगी? नहीं मिलेगी यह, यह दुनियां पुरुषों की दुनिया है।

स्‍त्री के विकास, स्‍त्री की संभावनाओं, स्त्रियों की जो पोटेशियलिटीज हैं, उनके जो आयाम, ऊंचाइयां हैं, उनको हमने गिनती में ही नहीं लिया है। अगर एक आदमी गणित में कोई नयी खोज कर ले तो नोबल प्राइज मिल सकता है। लेकिन स्रियां निरंतर सृजन के बहुत नये नये आयाम खोजती हैं। कोई नोबल प्राइज उनके लिए नहीं है! या : स्रियों की दुनिया नहीं हैं। स्रियों को सोचने के लिए, स्रियों को दिशा देने के लिए, उनके जीवन में जो हो, उसे भी मूल्य देने का हमारे पास कोई आधार नहीं है। 

हम सिर्फ पुरुषों को आधार देते हैं! इसलिए अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो उसमें चोर, डकैत, हल।, बड़े बड़े आदमी मिल जायेंगे। उसमें चंगेज खां, तैमूर लंग और हिटलर और स्टैलिन और माओ सबका स्‍थान है। लेकिन उसमें हमें ऐसी स्त्रियां खोजने में बड़ी मुश्किल पड़ जायेगी। उनका कोई उल्लेख ही नहीं है जिन्होंने सुन्दर घर बनाया हो। जिन्होंने एक बेटा पैदा किया हो और जिसके साथ, जिसे बड़ा करने में सारी मां की ताकत, सारी प्रार्थना, सारा प्रेम लगा दिया हो। इसका कोई हिसाब नहीं मिलेगा।

पुरुष की एक तरफा अधूरी दूनिया अब तक चली है। और जो पूरा इतिहास है, वह पुरुष का ही इतिहास है, इसलिये युद्धों का, हिंसाओं का इतिहास है।

जिस दिन स्‍त्री भी स्वीकृत होगी और विराट मनुष्यता में उतना ही समान स्थान पा लेगी, जितना पुरुष का है, तो इतिहास भी ठीक दूसरी दिशा लेना शुरू करेगा।

संभोग से समाधि की ओर 

ओशो 

कभी ऐसा सुना है की कोई पुरुष स्त्री के लिए सति हो गया हो ?


स्रियां लाखों वर्ष तक इस देश में पुरुषों के ऊपर बर्बाद होती रही हैं। मरकर सती होती रही है। कभी ऐसा सुना, कि कोई पुरुष भी किसी स्‍त्री के लिए सती हो गया हो? क्योंकि सारा नियम, सारी व्यवस्था, सारा अनुशासन पुरुष ने पैदा किया है। वह स्‍त्री पर थोपा हुआ है। सारी कहानियां उसने गढ़ी है। वह कहानियां गढ़ता है, जिसमें पुरुष को स्‍त्री बचाकर लौट आती है। और ऐसी कहानी नहीं गढ़ता, जिसमें पुरुष स्‍त्री को बचाकर लौटता हो।

स्‍त्री गयी कि पुरुष दूसरी स्‍त्री की खोज में लग जाता है, उसको बचाने का सवाल नहीं है। पुरुष ने अपनी सुविधा  के लिये सारा इंतज़ाम कर लिया है। असल में जिसके पास थोड़ीसी भी शक्ति हो, किसी भांति की, वे जो थोड़े भी निर्बल हों किसी भी भांति से, उनके ऊपर सवार हो ही जाते हैं। मालिक बन ही जाते हैं। गुलामी पैदा हो जाती है।

पुरुष थोड़ा शक्तिशाली है शरीर की दृष्टि से। ऐसे यह शक्तिशाली होना किन्हीं और कारणों से पुरुष को पीछे भी डाल देता है। पुरुष के पास स्ट्रैंग्थ और शक्ति ज्यादा है। लेकिन रेसिस्टेंस उतनी ज्यादा नहीं है, जितनी स्‍त्री के पास है। और अगर पुरुष और स्‍त्री दोनों को किसी पीड़ा में सफरिंग में से गुजरना पड़े तो पुरुष जल्दी टूट जाता है। स्‍त्री ज्यादा देर तक टिकती है। रेसिस्टेंस उसकी ज्यादा है। प्रतिरोधक शक्ति उसकी ज्यादा है। लेकिन सामान्य शक्ति कम है। शायद प्रकृति के लिए यह जरूरी है कि दोनों में यह भेद हो, क्योंकि स्‍त्री कुछ पीड़ाएं झेलती है।

जो पुरुष अगर एक बार भी झेले, तो फिर सारी पुरुष जाति कभी झेलने को राजी, नहीं होगी। नौ महीने तक एक बच्चे को पेट में रखना और फिर उसे जन्म देने की पीडा और फिर उसे बड़ा करने की पीड़ा, वह कोई पुरुष कभी राजी नहीं होगा। अगर एक रात भी एक छोटे बच्चे के साथ पति को छोड़ दिया जाय तो या तो वह उसकी गर्दन दबाने की सोचेगा या अपनी गर्दन दबाने की सोचेगा।

मैंने सुना है, एक दिन सुबह मास्को की सड़क पर एक आदमी छोटी सी बच्चों की गाड़ी को धक्का देता हुआ चला जा रहा है। सुबह है लोग घूमने निकले हैं। फूल खिले हैं, पक्षी खिले हैं। वह आदमी रास्ते में चलते चलते बार बार यह कहता है अब्राहम शांत रह ; अब्राहम उसका नाम होगा। पता नहीं, वह किससे कह रहा है। वह बार बार कहता है, अब्राहम शांत रह। अब्राहम धीरज रख। बच्चा रो रहा है। वह गाड़ी को धक्के दे रहा है। एक बूढ़ी औरत उसके पास आती है। वह कहती है, क्या बच्चे का नाम अब्राहम है?

वह आदमी कहता है, क्षमा करना, अब्राहम मेरा नाम है। मैं अपने को समझा रहा हूं। शान्त रह, धीरज रख, अभी घर आया चला जाता है। इस बच्चे को तो समझाने का सवाल नहीं है। अपने को समझा रहा हूं कि किसी तरह दोनों सही सलामत घर पहुंच जायें।

स्‍त्री के पास एक प्रतिरोधक शक्ति है, जो प्रकृति ने उसे दी है। एक रेसिस्टेंस की ताकत है। बहुत बड़ी ताकत है। कितनी ही पीड़ा और कितने ही दुख और कितने ही दमन के बीच वह जिंदा रहती है और मुस्करा भी सकती है। पुरुषों ने जितना दबाया है स्‍त्री को, अगर स्रियों ने उस दमन को, उस पीड़ा को कष्ट से लिया होता तो शायद वे कभी की टूट गयी होतीं। लेकिन वे नहीं टूटी हैं। उनकी मुस्कराहट भी नहीं टूटी है। इतनी लम्बी परतंत्रता के बाद भी उसके चेहरे पर कम तनाव है पुरुष की बजाय।

रेसिस्टेंस की, झेलने की, सहने की, टालरेंस की, सहिष्णुता की बड़ी शक्ति उसके पास है। लेकिन मस्कुलर, बड़े पत्थर उठाने की, और बड़ी कुल्हाड़ी चलाने की शक्ति पुरुष के पास है। शायद जरूरी है कि पुरुष के पास वैसी शक्ति ज्यादा हो। उसे कुछ काम करने हैं जिंदगी में, वह वैसी शक्ति की मांग करते हैं। स्‍त्री को जो काम करने हैं, वह वैसी शक्ति की मांग करते हैं। और प्रकृति या अगर हम कहें परमात्मा इतनी व्यवस्था देता है जीवन को कि सब तरफ से जो जरूरी है जिसके लिए, वह उसको मिल जाता है।

 संभोग से समाधि ओर 

ओशो 



लोभ का कोई वजन नहीं होता

कथा है कि जनक के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ और संन्यासी ने सब वैभव देखा, विस्तार देखा, उसने कहा कि मैंने तो सुना था कि आप परम ज्ञानी हैं; यह वैभवविस्तार, यह कनक कामिनी यह कैसा ज्ञान?

जनक ने कहा, “समय पर कहूंगा। थोड़ी प्रतीक्षा रखो, जल्दी न करो।’

दूसरे दिन ही सुबह समय आ गया। आ नहीं गया, जनक ले आए, स्थिति निर्मित कर दी। लेकिन संन्यासी को गए, महल के पीछे ही नदी थी, स्नान करने को। और जब दोनों स्नान कर रहे थे नदी में, तब अचानक महल में आग लग गई; लगवा दी गई थी, लग नहीं गई थी। क्योंकि संन्यासी का कोई भरोसा नहीं था; वह इतनी जल्दबाजी में था और वह इतना बेचैन था महल से भागने को, भयभीत था कि कहीं महल में फंस न जाए। कनक और कामिनी सब वहां मौजूद तो जल्दी करनी जरूरी थी। जनक ने आज्ञा से महल में आग लगवा दी। दोनों स्नान कर रहे हैं। संन्यासी चिल्लाया कि “देखो, तुम्हारे महल में आग लग गई!’

जनक ने कहा, “क्या अपना है, क्या किसका है! आए थे कुछ लेकर नहीं, जाएंगे बिना कुछ लिए! खाली हाथ आना, खाली हाथ जाना! किसका महल है! लगने दो, चिंता न करो। स्नान पूरा करो।’

लेकिन यह सुनने को वह संन्यासी वहां मौजूद न था; वह लंगोटी छोड़ आया था किनारे पर, वह महल के पास ही थी। वह भागा। उसने कहा कि महल तो ठीक, मेरी लंगोटी भी महल के पास रखी है, दीवाल के बिलकुल पास।


महल और लंगोटी में कोई फर्क नहीं है तुम्हारे लोभ के लिए कोई भी खूंटी बन सकता है। तुम बड़ी छोटी खूंटी पर, बड़े विराट लोभ को लटका सकते हो। क्योंकि लोभ का कोई वजन थोड़े ही है; विस्तार है, और सपने का है, खाली हवा है। तो खूंटी कोई बहुत बड़ी चाहिए, ऐसा नहीं है; खीली भी, तीली भी काम दे जाएगी। लोभ में कोई वजन नहीं है, बिना खूंटी के लटक जाएगा।

सुनो भई साधो 

ओशो

 

मन कलह का सूत्र है

दो दुनियाएं हैं। जहां दो व्यक्ति मिलते हैं, वहां दो संसार मिलते हैं। और जब दो संसार करीब आते हैं, तो उपद्रव होता है; क्योंकि दोनों भिन्न हैं।

ऐसा हुआ, मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा था। उसका छोटा बच्चा रमजान उसका नाम है, घर के लोग उसे रमजू कहते हैं वह इतिहास की किताब पढ़ रहा था। अचानक उसने आंख उठाई और अपने पिता से कहा, “पापा, युद्धों का वर्णन है इतिहास में…युद्ध शुरू कैसे होते हैं?’

पिता ने कहा, “समझो कि पाकिस्तान हिंदुस्तान पर हमला कर दे। मान लो……।’

इतना बोलना था कि चौके से पत्नी ने कहा, “यह बात गलत है। पाकिस्तान कभी हिंदुस्तान पर हमला नहीं कर सकता और न कभी पाकिस्तान ने हिंदुस्तान पर हमला करना चाहा है। पाकिस्तान तो एक शांत इस्लामी देश है। तुम बात गलत कह रहे हो।’

मुल्ला थोड़ा चौंका। उसने कहा कि मैं कह रहा हूं, सिर्फ समझ लो। सपोज…। मैं कोई यह नहीं कह रहा हूं कि युद्ध हो रहा है और पाकिस्तान ने हमला कर दिया है; मैं तो सिर्फ समझाने के लिए कह रहा हूं कि मान लो…।

पत्नी ने कहा, “जो बात हो ही नहीं सकती, उसे मानो क्यों? तुम गलत राजनीति बच्चे के मन में डाल रहे हो। तुम पहले से ही पाकिस्तान विरोधी हो, और इस्लाम से ही तुम्हारा मन तालमेल नहीं खाता। तुम ठीक मुसलमान नहीं हो। और तुम लड़के के मन में राजनीति डाल रहे हो, और गलत राजनीति डाल रहे हो। यह मैं न होने दूंगी।’

वह रोटी बना रही थी, अपना बेलन लिए बाहर निकल आई। उसे बेलन लिए देखकर मुल्ला ने अपना डंडा उठा लिया। उस छोटे बच्चे ने कहा, “पापा रुको, मैं समझ गया कि युद्ध कैसे शुरू करते हैं। अब कुछ और समझाने की जरूरत नहीं है।’

जहां दो व्यक्ति हैं, जैसे ही उनका करीब आना शुरू हुआ कि युद्ध की संभावना शुरू हो गई। दो संसार हैं; उनके अलग अलग सोचने के ढंग हैं; अलग अलग देखने के ढंग हैं; अलग उनकी धारणाएं हैं; अलग परिवेश में वे पले हैं; अलग अलग लोगों ने उन्हें निर्मित किया है; अलग अलग उनके धर्म हैं, अलग अलग राजनीति है; अलग अलग मन हैं सारसंक्षिप्त। और जहां अलग अलग मन हैं, वहां प्रेम संभव नहीं वहां कलह ही संभव है।

 इसलिए तो संसार में इतनी कठिनाई है प्रेमी खोजने में। मित्र खोजना असंभव मालूम होता है। मित्र में भी छिपे हुए शत्रु मिलते हैं। और प्रेमी में भी कलह की ही शुरूआत होती है।

दो संसार कभी भी शांति से नहीं रह सकते।

उसका कारण?

एक संसार भी अपने भीतर कभी शांति से नहीं रह सकता; दो मिलकर अशांति दुगुनी हो जाती है।

तुम अकेले भी कहां शांत हो? तुम्हारा मन वहां भी अशांति पैदा किए हुए है। फिर जब दोनों मिलते हैं तो अशांति दुगुनी हो जाती है।

जितनी ज्यादा भीड़ होती जाती है उतनी अशांति सघन होती जाती है, क्योंकि उतने ही कलह में पड़ जाते हैं।
जिस दिन तुम इस सत्य को देख पाओगे कि तुम्हारा संसार तुम्हारे भीतर है, और तुम उसी संसार के आधार पर बाहर की खूंटियों पर संसार निर्मित कर रहे हो, इसलिए सवाल बाहर के संसार को छोड़कर भाग जाने का नहीं है; भीतर के संसार को छोड़ देने का है तब तुम कहीं भी रहो, तुम जहां भी होओगे, तुम वहीं संन्यस्थ हो। तुम कैसे भी रहो महल में या झोपड़ी में, बाजार में या आश्रम में, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे भीतर से जो भ्रांति का सूत्र था, वह हट गया।

 सुनो भई साधो 

 ओशो 

तुम जो हो, उसे ही तुम फैलाकर बाहर देखते हो!

संसार जीवन को देखने का तुम्हारा ढंग है। ज्ञानी यहीं पत्थरों में छिपे परमात्मा को देख लेता है; तुम चारों तरफ मौजूद परमात्मा में केवल पत्थर को देख पाते हो। देखने की बात है। दृष्टि की ही सारी बात है। तुम वही देखते हो, जो तुम्हारे मन की धारणाएं हैं। तुम वही नहीं देखते, जो है।

पूर्णिमा की रात हो और तुम उदास हो, तो नाचता गाता चांद भी उदास मालूम पड़ता है। अमावस की रात हो, आकाश में बादल घिरे हों, सब उदास और खिन्न मालूम पड़ता हो; लेकिन तुम प्रसन्न हो, तुम आनंदमग्न हो, तो अमावस भी पूर्णिमा मालूम पड़ती है, अंधेरा भी ज्योतिर्मय हो जाता है; आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट सुमधुर नाद मालूम होती है।


धन में कुछ भी नहीं है; तुम्हारे मन में ही सब छिपा है। तुम्हारा मन जो लोभ से भरा हो, तो संसार में सब जगह तुम्हें धन ही धन दिखाई पड़ता है ऐसे ही जैसे उपवास किया हो तुमने किसी दिन और तुम बाजार गए, तो कपड़े की दुकानें, जूते की दुकानें उस दिन दिखाई नहीं पड़तीं; उस दिन सिर्फ मिठाई मिष्ठान्न के भंडार दिखाई पड़ते हैं; सब तरफ से भोजन की ही गंध मालूम पड़ती है; सब ओर भोजन का ही निमंत्रण दिखाई पड़ता है। तुम भरे पेट हो, तब यही बाजार बदल जाता है।

तुम जैसे हो वैसा ही तुम अपने चारों तरफ एक संसार निर्मित करते हो। इसलिए संसार एक नहीं है; संसार उतने ही हैं, जितने मन हैं। हर व्यक्ति का अपना संसार है, जो अपने चारों तरफ लपेटे हुए घूमता है। और जब तक तुम यह न समझोगे, तब तक तुम कभी भी संन्यासी न हो सकोगे। क्योंकि तुम उस संसार को छोड़ोगे, जो बाहर है; और तुम उस संसार को पकड़े ही रहोगे, जो भीतर है। और बाहर संसार है ही नहीं, बस भीतर है। तो तुम संन्यासी का संसार बना लोगे, कोई भेद न पड़ेगा। 

हिमालय की गुफा में भी बैठ जाओगे, तो तुम तुम ही रहोगे। और तुम अगर तुम ही हो, तो गुफा क्या करेगी, पहाड़ पर्वत क्या करेंगे? तुम वहां भी धीरे धीरे अपनी दुनिया फिर से सजा लोगे। तुम्हारे भीतर ब्लूप्रिंट है, नक्शा छिपा है कि कैसे संसार बनाना है। उस संसार को बनाने के लिए अगर कोई भी सामग्री न हो, तो भी तुम बना लोगे।

मनसविद कहते हैं कि अगर एक व्यक्ति को सारी संसारी की दौड़धूप से अलग कर लिया जाए, और एक ऐसी कालकोठरी में रख दिया जाए, जहां सब तरह की सुविधाएं हैं, कोई असुविधा नहीं है; भोजन करने के जिए भी उसे कुछ न करना पड़े, नलियां जुड़ी हुई हैं, जिनसे उसके रक्त में सीधा भोजन पहुंच जाएगा इस तरह के प्रयोग किए गए हैं और जितनी सुविधापूर्ण हो सके, उतनी सुविधापूर्ण शय्या पर वह विश्राम करता रहे, तो वे कहते हैं कि तीन दिन के बाद वह अपना संसार बचाना शुरू कर देता है। अब कल्पना में बनाता है, क्योंकि बाहर तो कुछ भी नहीं है, सिर्फ अंधकार से भरी हुई कोठरी है।

 धीरे धीरे उसके ओंठ चलने लगते हैं। वह बात करने लगता है उससे, जो मौजूद नहीं है। सुंदर स्त्रियां उसे घेर लेती हैं। धन के आंकड़े वह खड़े करने लगता है। तीन सप्ताह में वह आदमी पागल हो जाता है। 

पागल का कुल इतना ही मतलब है कि जिसने अपने संसार को बनाने के लिए अब किसी भी पदार्थ की जरूरत नहीं समझी; अब बिना किसी कारण के भी वह संसार खड़ा कर लेता है। स्त्री बाहर हो तो ठीक, न हो तो ठीक अब पर्दे की कोई जरूरत ही नहीं है; बिना पर्दे के वह स्त्री का बना लेता है। पागल का इतना ही मतलब है कि वह तुमसे भी ज्यादा कुशल हो गया है। तुम्हें स्त्री में रस लेने के लिए कम से कम कुछ सहारा चाहिए, बाहर कोई स्त्री चाहिए; वह बिलकुल सहारे से मुक्त है; उसे कोई स्त्री बाहर नहीं चाहिए। वह अपने भीतर के मन से प्रगाढ़ प्रतिमाएं खड़ी कर लेता है।

तुमने ऋषि मुनियों की कहानियां पढ़ी हैं कि इंद्र अप्सराओं को भेजता है उन्हें डिगाने को। तुम इस भ्रांति में मत पड़ना। न तो कहीं कोई इंद्र है, और न कहीं कोई परमात्मा ने ऋषि मुनियों को डिगाने का इंतजाम कर रखा है। क्यों करेगा परमात्मा किसी को डिगाने का इंतजाम? परमात्मा तो चाहता है कि तुम थिर हो जाओ। तो कोई भी डिपार्टमेंट नहीं है, जहां ऋषि मुनियों को हिलाने की कोशिश की जा रही है। ऋषि मुनि खुद ही हिल रहे हैं। ऋषि मुनि उसी अवस्था में हैं, जिसकी मनोवैज्ञानिक चर्चा कर रहे हैं। उन्होंने खुद ही अपने चारों तरफ सब संसार बाहर का छोड़ दिया है, अपनी गुफा में बैठ गए हैं, अब धीरे धीरे मन खेल पैदा कर रहा है। अब कोई जरूरत ही नहीं है। अब बाहर की स्त्री नहीं चाहिए, जिस पर तुम प्रक्षेपण करो; अब शून्य आकाश में भी तुम्हारा प्रक्षेपण होने लगा। अब तुम अप्सराओं को देख रहे हो! धन के अंबार लगे हैं! तुम सोचते हो, कोई प्रलोभन दे रहा है; तुम्हारा मन ही…। कोई और तुम्हें डिगाने को नहीं है।


सुनो भाई साधो 

ओशो 

पत्थर के पंख

एक बहुत बड़े राजमहल के निकट पत्‍थरों को एक ढ़ेर लगा हुआ था। कुछ बच्‍चे वहां खेलते हुए निकले। एक बच्‍चे ने पत्‍थर उठा लिया और महल की खिड़की की तरफ फेंका। वह पत्‍थर उपर उठने लगा। पत्‍थरों की जिंदगी में यह नया अनुभव था। पत्‍थर नीचे की तरफ जाते है। ऊपर की तरफ नहीं। ढलान पर लुढ़कते है, चढ़ाई पर चढ़ते नहीं। तो यह अभूतपूर्व घटना थी, पत्‍थर का ऊपर उठना। नया अनुभव था। पत्‍थर फूल कर दुगुना हो गया जैसे कोई आदमी उदयपुर से फेंक दिया जाये और दिल्‍ली की तरफ उड़ने लगे। तो फूल कर दुगुना हो जाए। वैसा वह पत्‍थर जमीन पर पडा हुआ, जब उठने लगा राजमहल की तरफ तो फूल कर दुगुना हो गया। आखिर पत्‍थर ही ठहरा,अक्ल कितनी, समझ कितनी,फूल कर दुगुना वज़नी हो गया ऊपर उठने लगा।

नीचे पड़े हुए पत्‍थर आंखें फाड़ कर देखने लगे। अद्भुत घटना घट गयी थी। उनके अनुभव में ऐसी कोई घटना न थी। की कोई पत्‍थर ऊपर उठा हो। वे सब जयजयकार करने लगे। धन्‍य-धन्‍य करने लगे। हद्द हो गई, उनके कुछ में उनके वंश में ऐसा अद्भुत पत्‍थर पैदा हो गया, जो ऊपर उठ रहा है। और जब नीचे होने लगा जयजयकार और तालियां बजने लगीं। और हो सकता है पत्‍थरों में कोई अख़बार नवीस हों, जर्नलिस्‍ट हों,उन्‍होंने खबर छापी हो; कोई फोटोग्राफर हो, उन्‍होंने फोटो निकाली हो; कोई चुनाव लड़ने वाला पत्‍थर हो, उसने कहा हो ये मेरा छोटा भाई है। जो देखो ऊपर जा रहा है। कुछ हुआ होगा नीचे,वह ज्‍यादा तो मुझे पता नहीं विस्‍तार में,लेकिन नीचे के पत्‍थर बहुत हैरान हो रहे थे, और गर्व के मारे जयजयकार चिल्‍लाने लगे। नीचे की जयजयकार उस ऊपर के पत्‍थर को भी सुनाई पड़ी। जयजयकार किसको सुनाई नहीं पड़ जाती है। वह तो सुनाई पड़ ही जाती है। वह उसे सुनाई पड़ गई। उसने चिल्‍लाकर कहा कि मित्रों घबडाओं मत, मैं थोड़ा आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। उसने कहा: मैं जा रहा हूं आकाश की यात्रा को, और लौट कर तुम्‍हें बता सकूंगा वह का हाल।

गया, महल की कांच की खिड़की से टकराया। तो पत्‍थर टकराएगा कांच की खिड़की से तो स्‍वाभाविक कि कांच चूर-चूर हो जाएगा। इसमें पत्‍थर की कोई बहादुरी नहीं है। इसमें केवल कांच का कांच होना और पत्‍थर का पत्‍थर होना है। इसमें कोई कांच की कमजोरी नहीं है, और पत्‍थर की बहादुरी नहीं है। लेकिन पत्‍थर खिलखिला कर हंसा। जैसे कि नेता अक्‍सर खिलखिलाते है। और हंसते है। और पत्‍थर ने कहा: कितनी बार मैंने नहीं कहां कि मेरे रास्‍ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जायेगा। वह वहीं भाषा बोल रहा था जो राजनीति की भाषा है जो मेरे रास्‍ते में आयेगा। चकनाचूर हो जाएगा। देखा अब अपना भाग्‍य, चकनाचूर होकर पड़े हो।

और वह पत्‍थर गिरा महल के कालीन पर। बहुमूल्‍य कालीन बिछा था। थक गया था। पत्‍थर, लंबी यात्रा की थी। सड़क की गली से महल तक की यात्रा कोई छोटी यात्रा है। बड़ी थी यात्रा, जीवन-जीवन लग जाते है गली से उठते, महल तक पहुंचते। थक गया था। पसीना माथे पर आ गया होगा, गिर पड़। कालीन पर गिर कर उसने ठंडी सांस ली और कहा; धन्‍य, धन्य है ये लोग। क्‍या मेरे पहुंचने की खबर पहले ही पहुंच गई थी जिससे मेरे स्‍वागत के लिए, कालीन पहले ही बिछा रखा था। और ये लोग कितने अतिथि-प्रेमी है। कैसा स्‍वागत सत्‍कार के प्रेमी, महल बना कर रखा मेरे लिए? क्‍या पता था कि मैं आ रहा हूं? ठीक जगह खिड़की बनाई, जहां से मैं आने को था। ठीक-ठाक सब किया कोई भेद न पडा एक इंच मैं चुका नहीं। जो मेरा मार्ग था आने का, वहां खिड़की बनाई। जो मेरा मार्ग था विश्राम का, वहां कालीन बिछाए गये। बड़े अच्‍छे लोग है।

और यह वह सोचता ही था कि राजमहल के नौकर को सुनाई पड़ी होगी आवाज टूट जाने की कांच की, वह भाग हुआ आया, उसने उठाया पत्‍थर को हाथ में। पत्‍थर तो, पत्‍थर तो, ह्रदय गदगद हो उठा। उसने कहां: आ गया मालूम होता है मकान मालिक, स्‍वागत में हाथ में उठाता है प्रेम दिखलाता है। कितने भले लोग।

और फिर उस नौकर ने पत्‍थर को वापस फेंक दिया। तो उस पत्‍थर ने मन में कहा: वापस लौट चलें, घर की बहुत याद आती है। होम सिकनेस मालूम होती है। वह वापस गिरने लगा अपनी ढेरी पर, नीचे तो आंखे फाड़े हुए लोग बैठे थे। उनका मित्र उसका साथी, गया था आसमान की यात्रा को, चंद्रलोक गया था वह लौट कर आया था। वह गिरा नीचे, फूल मालाएँ पहनाई गई, कई दिन तक जलसे चले, कई जगह उदघाटन हुआ और न मालूम क्‍या-क्‍या हुआ। और उन पत्‍थरों ने पूछा कि क्‍या-क्‍या किया। उसने अपनी लंबी कथा कहीं: मैंने यह किया,वह किया, मेरा कैसा स्‍वागत सत्‍कार हुआ। ऐसी-ऐसी जगह मेरा सत्‍कार हुआ। इतने-इतने शत्रु मरे। कई चीजों का गुणन फल किया उसने। एक कांच मारा था, कई कांच बताये। एक महल में ठहरा था । कई महलों में ठहरा हुआ बतलाया। एक हाथ में गया था। अनेक हाथों में पहुंचने की खबर दी। जो बिलकुल स्वाभाविक है, आदमी का मन। आदमी का मन जैसा करता तो पत्‍थर का मन तो और ज्‍यादा करेगा। और जब उसके पत्‍थरों ने कहा: मित्र तुम अपनी आत्‍म कथा जरूर लिख दो, हमारे बच्‍चों के काम आयेगी। ऑटोबायोग्राफी लिखो, क्‍योंकि सभी महापुरुष लिखते है। तुम भी लिखो।

वह लिख रहा है। जल्‍दी ही लिख लेगा तो आपको पता चलेगी। खबर हो जायेगी। क्‍योंकि उसके पहले भी और पत्‍थरों ने लिखी है और उनको आप अच्‍छी तरह पढ़ते है। यह भी लिखेगा , उसकी भी पढ़ेंगे।

इस पत्‍थर की कथा पर आपको हंसी क्‍यों आती है। इस बेचारे पत्‍थर में कौन सी खराबी है। यह आदमी से कौन सा भिन्‍न है? और इस पत्‍थर पर हम हंसते है पर अपने पर नहीं। क्‍या हमें भी किन्‍हीं अंजान हाथों ने नहीं फेंका है। हम पता है हम क्‍यों जन्‍म लेते है। हमें पता है हमें कौन फेंक देता है। लेकिन नहीं हम तो कहते है ये मेरा जन्‍म दिन है। किस ने तारिख निर्धारित की थी हमारे जन्‍म की। जो हम कहते है हमारा जन्‍म दिन है। क्‍या ये हमारे बस का निर्णय था। क्‍या यह हमारी च्‍वाइस थी। या पूछी गई थी। न पूछा दिन, न तारिख और हम कैसे मान लेते है यह मेरा जन्‍म दिन। सब एक दुर्घटना मात्र है। जो हम छल्‍ले जा रही है।


अपने मांहि टटोल 

ओशो 

वासवदत्ता - उपगुप्त

रात्रि का गहरा सन्‍नाटा, चारों तरफ फैले अँधियारे में भी बाजार की रौनक चकाचौंध थी, चारो तरफ मानों यौवन उन्माद पर था, युवकों और युवतियों के झुंड के झंड अठखेलिया करते परिविहर रहे थे। इसी समय वासव दत्ता भी अपने रथ पर अभिसार को निकली। यौवन के मद में मस्त‍ नगर-नटी वासव दत्ता निकले देख कर सब की आंखे उसके रूप यौवन पर जाकर रूक गई। एक झलक पार भी लोग अनुगृहीत हो जाते थे। और जिस को संग-साथ मिल जाये तो वो तो दुनियां में अपने आप को धन्य भागी समझता था। ऐसा रूप थे वासवदत्‍ता का।
वासवदत्‍ता एक नगर वधू थी यानि सारे नगर की वधू, नगर नटी सारे शहर में उसके यौवन का जादू छाया था। जो सुंदरतम लड़कियां होती थी, उसे नगर-वधू बना दिया जाता था, ताकि लोगों में संघर्ष न हो, कलह न हो, झगड़ा ना हो। जो सुंदरतम है उसके लिए बहुत प्रतियोगिता मचेगी, झगड़ा होगा, वह सब की हो, एक की न हो। यह वासवदत्‍ता उस समय कि सुंदरतम युवती थी।

वासवदत्‍ता अभिसार को निकली है अपने रथ पर सवार होकर, फूलों से सजी। वह पास से गुजरते बौद्ध भिक्षु उपगुप्त को देख कर ठिठक गई, उसकी मदमस्‍त चाल, हाथ में एक भिक्षा पात्र शरीर पर एक चीवर कोई आभूषण नहीं उसने तो अभुषणो से लदा सौंदर्य देखा था। सुंदर वस्‍त्रों में लिपटे शरीर, जो शरीर की कुरूपता को केवल छीपा सकते है। उसमें सौंदर्य नहीं भर सकते यह हमारी आंखों में एक भ्रम पैदा कर देते है एक आवरण का चशमा पहना देते हे। आज उसकी आंखों ने कोरा सौंदर्य देखा, शुद्ध और स्फटिक हीरा जो अभी तराशा नहीं गया था परन्‍तु उसमें से उसकी आभा छलक कर प्रसाद कि तरह बिखर रही था। उसकी आँखों को विश्वास नहीं आया। क्‍या ऐसा सौंदर्य भी हो सकता है, इस कुरूप संसार में, जो केवल देह के भोग में लिप्‍त होते हे। उनके चेहरे पर वासना का एक काला साया उसे घेराना शुरू कर देता हे।

उसने सम्राट देखे हे, द्वार पर भीख मांगते सम्राट देखे है। उसके द्वार पर भीड़ लगी रहती थी राजपुत्रों, नवयुवक, धनपतियों की सभी को उसका मिलना हो भी नहीं पाता था। बड़ी महंगी थी वासवदत्‍ता। लेकिन ऐसा सुंदर व्‍यक्ति उसने कभी नहीं देखा था। वासवदत्‍ता ने रथ रोक कर उसे आवाज़ दी। वह जो भिक्षु उपगुप्‍त था। वह शांत मुद्रा में अपना भिक्षा पात्र लिए चला जा रहा था। उसने सोचा भी नहीं की कोई नगर बधू उसे पूकारेगी। वह तो अपनी आंखों को चार फीट आगे जैसा भगवान बुद्ध न कहा था, चार फीट से ज्‍यादा मत देखना अपनी आंखों को गडाए चुपचाप राह पर गुजर रहा था। उसके चलने में एक अपूर्व प्रसाद था। एक लयवदता थी, एक गौरव गरिमा थी। जो एक संन्यासी के चलने में ही हो सकती है। जो एक शांत झील कि तरह स्फटिक जरूर है परंतु वो गहरा भी है। उसके तनाव चले गए, वह शांत है। अपने भीतर रमा चुपचाप चला जा रहा है।

एक इस उपगुप्‍त को निकलते देखा वासवदत्‍ता ने। और वासवदत्‍ता सुंदरतम लोगो को जानती थी। सुंदरतम लोगो को भोगा है। सुंदर से सुंदर से उसकी पहचान है। सुंदरतम उसके पास आने को तड़पते है। उसके रथ को रोक लेते है, उसके आगे पलकें बिछाए खड़े रहते है। बौद्ध भिक्षु उपगुप्‍त को देख कर वह ठिठक गई, दीपक के प्रकाश में राह के किनारे जो दीपस्‍तंभ है उसके प्रकाश में वह सबल, स्‍वस्‍थ और तेजो दीप्‍त गौर वर्ण संन्‍यासी को देखती ही रह गई। ऐसा रूप उसने कभी देखा नहीं था। संन्‍यासी का सहज सौंदर्य उसके मन को डिगा देता है। अब तक लोग उसके प्रेम में पड़े थे, पहली बाद वासवदत्‍ता किसी के प्रेम में पड़ती है। वह संन्‍यासी को अपने घर आमंत्रित करती है। संन्‍यासी बडी बहुमूल्‍य बात उत्‍तर में कहता है।

उपगुप्‍त उससे कहता है ‘जिस दिन समय आ जाएगा, उस दिन मैं स्‍वयं ही तुम्‍हारे कुंज में उपस्थित हो जाऊँगा। वासवदत्‍ता कहती है कि भिक्षु मेरे घर आओ, बैठो रथ में, मैं तुम्‍हें अपने घर ले चलुगी, वहां तुम्‍हारी सेवा करूगी, सब मेरे दास बनने को आतुर रहते है मेरा मन तुझपें आ गया है। मैं खुद तेरी दासी बनने को तैयार हूं।’

भिक्षु उपगुप्त ने कहा: ‘आऊँगा, सुंदरी अवश्‍य आऊँगा। समय जब पुकारेगी में आ जाऊँगा, अभी तुझे मेरी नहीं मैं वासना कि जरूरत है। जब तुझे मेरी जरूरत होगी तो जरूर आऊँगा ये मेरा वादा रहा। समय कि प्रतीक्षा।’
और कहानी कहती है बहुत दिन गुजर गये, वासवदत्‍ता प्रतीक्षा करती रही। उसका मन अब और किसी में नहीं रमता था। वह अपूर्व रूप आंखों के सामने गुजरता रहता। एक प्रति छवि की तरह जिसे चाहा कर भी भोगना तो दुर रहा उसे छू भी नहीं सकती थी। इस संसार में अब राग-रंग उसे कुछ भी नहीं भाते थे। एक लगन सी अन्‍दर ही अन्‍दर कुरेदती रहती थी। परन्‍तु वह यह नहीं समझ पा रही थी कि कैसे पाया जाए उस संन्‍यासी को जिस मार्ग से वो संसार में प्रत्‍ये‍क वस्‍तु को पाना जानती थी। उसी मार्ग से वे संन्‍यासी को ढुड़ रही थी। खुशबु को देखा नहीं जा सकता केवल उसे महसूस किया जा सकता है, उसने फूलों को कुचल कर इत्र निकालना आता था। अदृश्‍य सुगंध की पकड़ने की उसकी थाह नहीं थी।


बहुत लोग आते, बहुत लोगों से संबंध भी बनाती। नगर-बधू थी वह, उसका काम था, वेश्‍या थी वासवदत्ता, लेकिन अब देह में वह दीप्ति न दिखाईं देती थी। कुछ और आँखों में बस गया था जिसे वे जानती नहीं थी कि कैसे पाऊँ। अब धीरे-धीरे वक्‍त के साथ उसका देह में रस कम होता जा रहा था। उसका भी सौंदर्य धीरे-धीरे उतर पर आ रहा था। उपगुप्‍त के वो शांत आंखें उसका पीछा करती रहती थी। उसकी वह आभा, वो निर्मलता, वो चाहा कर भी नहीं भूल पा रही थी। रात को सपने में भी अचानक चौक पड़ती थी दासी को आवाज देती, पसीने से सराबोर दासी उसे पानी देती। फिर पुरी रात उसे निंद नहीं आती। अब मदिरा ने भी अपना काम बंद कर दिया था। वो होश को खोने की बनास्‍पत और बढा देती थी, वो आंखे उसका पीछा करती ही रहती…..।

लेकिन बात सुन ली थी उसने उपगुप्‍त की कि जब समय आएगा तब आ जाऊँगा। इतने बल पूर्वक कही थी बात कि यह बात भी साफ हो गयी थी: उपगुप्‍त उन लोगों में से नहीं है जिसे डि़गाया जो सके। जो कहा है, वैसा ही होगा, समय कि प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तो वासवदत्‍ता ने कभी बुलाने की चेष्‍टा नहीं की। कभी रहा पर आते-जाते शायद उपगुप्‍त दिखायी भी दे जाता, लेकिन फिर उसे बुलाने की हिम्‍मत ना कर सकी, शायद उसने इसे उचित भी नहीं समझा, न ही ये उचित था। संन्‍यासी ने बात कह दी थी। प्रतीक्षा और प्रतीक्षी ….उसका सारा जीवन बीत गया। एक आशा कि किरण प्रकाश पुंज की तरह उसके अंदर चमकती रही जाने अनजाने।

फिर एक रात्रि - पूनम कि रात्रि उपगुप्‍त मार्ग से जा रहा थे। उन्‍होंने देखा कि कोई मार्ग पर रूग्‍ण पडा करहा रहा है। गांव के बाहर एक निर्जन स्‍थान पर शहर कि भीड़-भाड़, चमक दमक से दुर। उसने आवाज दी कोन है। वहां। वासवदत्‍ता केवल कराहती रही, उसका पुरा शरीर जर्जर, वसंत के दानों से गल सड़ गया था। वह सुंदर काया, सुगंधित इत्रों से जो महँकती थी वह आज गल गईं थी। उपगुप्‍त ने प्रकाश में देखा: ‘वासवदत्ता, अरे, पहचान मुझे मैं हु तुम्हारा उपगुप्‍त।

वासवदत्ता ने आंखें खोली शायद अंतिम धड़ी पास थी। साँसे भी मंद होती जा रही थी। उसने उसकी छुअन को पहचान लिया, उसके जलते ज़ख़्मों में एक शांति लता उतरती चली गर्इ। आंखें में जल धार बह निकली। उपगुप्‍त ने वासवदत्‍ता का सर उठा कर अपनी गोद में रख लिया। और वसंत रोग से उसके चेहरे पर फफोले पर स्नेह पूर्व हाथ फेरने लगा।

यह जो महारोग है वसंत रोग इसको कहते है। नाम भी हमने क्‍या खूब चुना है, इस देश में नाम भी हम बड़े हिसाब से चुनते है। सारे शरीर पर काम-विकार के कारण फफोले फैल गए है। यौन-रोग है। लेकिन हमने नाम दिया है बसंत रोग जवानी का रोग, वसंत का रोग जो अब तक सौंदर्य बनकर प्रकट हुआ था। वही अब कुरूपता बनकर प्रगट हो रहा है। जो अब तक चमड़ी पर आभा मालूम होती थी, वह घाव बन गयी है। सारा शरीर घावों से भर गया है सड़ रहा है।

वासवदत्‍ता: मुझे मत छुओ मुझे वसंत रोग हो गया है। कोई मुझे छूना नहीं चाहता। कोई प्रेमी नहीं बचा, सब नाक मुहँ पर कपड़ा रख कर मेरे पास से गुजर जाते है।‘ आज यौवन बीत गया ऐसे क्षण में कोई प्रेमी न बचा, कोर्इ नगर में रखने को भी तैयार नहीं है। मेरी घातक बीमारी तुम्‍हें भी लग जाएगी उपगुप्‍त मुझे एक घूँट पानी पीला दो, दो दिन से एक बूंद पानी गले में नहीं गया तीन दिन से मृत्‍यु का इंतजार कर रही हुं।

उपगुप्‍त ने अपने भिक्षा पात्र उसके कंठ से लगा दिया एक जल कि बूंद कंठ को ही नहीं अंदर की आत्मा को तृप्‍त कर गई। आंखे खुली की खुली रह गई मानों उपगुप्‍त को निहार रही हो। दम तोड़ दिया वासवदत्‍ता ने उपगुप्‍त की बाँहों में।

जिसके चरण चूमते थे सम्राट। एक असहाय अबला की मोत मरी वासवदत्ता। शहर से बहार फिकवा दिया था, कही ये रोग किसी दूसरे को न लग जाए। वही स्‍त्री जिसे लोग सर आंखें पर लिए फिरते थे, अंतिम समय वो सर, एक भिक्षु की गोद में जिसे भी वो भोगना चाहती थी।

एक दयामय मूर्ति उपगुप्‍त, ने आने का, सेवा को जो वादा किया था वो पूरा किया।


एस धम्मो सनंतनो


ओशो



एक में ठहरो

मुल्ला नसरुद्दीन मरता था तो उसने अपने बेटे को कहा कि अब मैं तुझे दो बातें समझा देता हूं। मरने के पहले ही तुझे कह जाता हूं इन्हें ध्यान में रखना। दो बातें हैं। एक आनेस्टी (ईमानदारी) और दूसरी है—विजडम (बुद्धिमानी)। तो, दुकान तू सम्हालेगा, काम तू सम्हालेगा। दुकान पर तखती लगी है आनेस्टी इज द बैस्ट पालिसी। (ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है।) इसका तू पालन करना। कभी किसी को धोखा मत देना। कभी वचन भंग मत करना। जो वचन दो, उसे पूरा करना।

बेटे ने कहा, ‘ठीक, दूसरा क्या है? बुद्धिमानी, उसका क्या अर्थ है?’

नसरुद्दीन ने कहा, ‘ भूलकर कभी किसी को वचन मत देना।’

बस, ऐसा ही विपरीत बंटा हुआ जीवन है। ईमानदारी भी और बुद्धिमानी भी, दोनों संभालने की कोशिश है। वचन पूरा करना ईमानदारी का लक्ष्य है। वचन कभी न देना बुद्धिमानी का लक्ष्य है। इधर तुम चाहते हो कि लोग तुम्हें संत की तरह पूर्जे और उधर तुम चाहते हो कि तुम पापी की तरह मजे भी लूटो। बड़ी कठिनाई है। इधर तुम चाहते हो कि राम की तरह तुम्हारे चरित्र का गुणगान हो; लेकिन उधर तुम रावण की तरह दूसरे की सीता को भगाने में तत्‍पर हो। तुम असंभव संभव करना चाहते हो। तुम होना तो रावण जैसा चाहते हो; प्रतिष्ठा राम जैसी चाहते हो। बस, तब तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। तब विपरीत दिशाओं में तुम्हारी यात्रा चलती है और अनंत तुम लक्ष्य बना लेते हो। उन सब में तुम बंट जाते हो। टुकड़े टुकड़े हो जाते हो। जीवन के आखिर में तुम पाओगे जो भी तुम लेकर आये थे, वह खो गया।

एक बहुत बड़ा जुआरी हुआ। बहुत समझाया पत्नी ने, परिवार ने, मित्रों ने; लेकिन उसने सुना नहीं, धीरे धीरे सब खो गया। एक दिन ऐसी हालत आ गयी कि सिर्फ एक रुपया घर में बचा। पली ने कहा, ‘अब तो चौंको। अब तो सम्हलो।’ पति ने कहा, ‘जब इतना सब चला गया है और एक रुपया ही बचा है तो आखिरी मौका मुझे और दे। कौन जाने, एक रुपये से भाग्य खुल जाए।’ जुआरी सदा ऐसा ही सोचता है। और फिर उसने कहा कि जब लाखों चले गये, अब एक ही बचा तो अब एक के लिए क्या रोना धोना। और एक रुपया चला ही जायेगा, कोई बचनेवाला नहीं है। लगा लेने दे दाव पर उसे भी।

पत्नी ने भी सोचा कि अब जब सब ही चला गया, एक ही बचा है और एक कोई टिकनेवाला वैसे भी क्या है; सांझ के पहले खत्म हो जायेगा। तो ठीक है, तू अपनी आखिरी इच्छा भी पूरी कर।

जुआरी गया जुए के अड्डे पर। बड़ा चकित हुआ। हर बाजी जीतने लगा। एक के हजार हुये, हजार के दस हजार हुये, दस हजार के पचास हजार हुये, पचास हजार के लाख हो गये; क्योंकि वह इकट्ठे ही दांव पर लगाता गया। फिर उसने लाख भी लगा दिये और कहा कि बस, अब आखिरी हल हो गया सब। और वह सब हार गया। वह घर लौटा। पली ने पूछा, ‘क्या हुआ?’ उसने कहा कि एक रुपया भी चल गया।

क्योंकि तुम वही खो सकते हो, जो तुम लेकर आये थे। लाख की क्या बात करनी! उसने कहा, ‘एक रुपया खो गया, कोई चिंता की बात नहीं। वह दांव खराब गया।’ पर उसने यह बात न कही कि लाख हो गये थे। ठीक ही किया; क्योंकि, जो तुम्हारे नहीं थे, उनके खोने का सवाल भी क्या है! मरते वक्त तुम पाओगे कि जो आत्मा तुम लेकर आये थे, वह तुम गंवाकर जा रहे हो। बस, एक खो जायेगा! बाकी तुमने जो गंवाया, जोड़ा, मिटाया, बनाया, उसका कोई बड़ा हिसाब नहीं है; अंतिम हिसाब में उसका कोई मूल्य नहीं। तुमने लाखों जीते हों तो भी मौत के वक्त तो वे सब छूट जायेंगे; हिसाब एक का रह जायेगा। वह एक तुम हो। और अगर तुम उस एक में ठहर गये तो तुम जीत गये। अगर तुम उस एक में आ गये, रम गये; उसके लिए शिव कह रहे है: स्व में स्थिति शक्ति है।
तुम दुर्बल हो, दीन हो, दुखी हो इसका कारण यह नहीं कि तुम्हारे पास रुपये कम है, मकान नहीं है, धन नहीं है, धन दौलत नहीं है। तुम दीन हो, दुखी हो; क्योंकि, तुम स्वयं में नहीं हो। स्वयं में होना ऊर्जा का स्रोत है।वहां ठहरते ही व्यक्ति महाऊर्जा से भर जाता है।



शिव सूत्र 
 
ओशो 

ज्ञात अज्ञात के पार

एक तो ऐसी वस्तुएं हैं, जिन्हें हमने जान लिया उन्हें हम ‘ज्ञात’ कहें; कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जिन्हें हमने जाना नहीं लेकिन हम जान लेंगे उन्हें हम ‘अज्ञय’ कहें; और कुछ ऐसा भी है इस जगत में, जिसे हमने जाना भी नहीं है और हम जान भी न पायेंगे उसे हम ‘ अज्ञेय ‘ कहें। परमात्मा अज्ञेय है। वह तीसरा तत्व है। विज्ञान इसलिए परमात्मा को स्वीकार नहीं करता; क्योंकि विज्ञान कहता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है, जो न जाना जा सके। नहीं जाना होगा हमने अभी तक, हमारे प्रयास कमजोर हैं; लेकिन आज नहीं कल, केवल समय की बात है, हम जान लेंगे। एक दिन जगत पूरा का पूरा जान लिया जायेगा; इसमें अनजाना कुछ भी न बचेगा।

विज्ञान आश्‍चर्य से पैदा होता है और फिर आश्‍चर्य की हत्या में लग जाता है। इसलिए, विज्ञान को मैं ‘पितृघाती’ कहता हूं जिससे पैदा होता है, उसे मिटाने में लग जाता है। धर्म बिलकुल विपरीत है। धर्म भी एक आश्‍चर्य— भाव से पैदा होता है; इस आश्‍चर्य—भाव को शिवसूत्र में विस्मय कहा है। फर्क इतना ही है कि जब किसी स्थिति में आश्‍चर्य से भर जाता है धार्मिक खोजी, तो वह बाहर की यात्रा पर नहीं जाता, वह भीतर की यात्रा पर जाता है। जब भी कोई रहस्य उसे घेर लेता है तो वह सोचता है कि मैं जानूं कि मैं कौन हूं। रहस्य अंतर्मुखी बन जाये; यात्रा, खोज भीतर चलने लगे, पदार्थ की तरफ नहीं, स्व की तरफ मेरी खोज उसुख हो जायें; मेरा संधान पहले उसे जानने में लग जाये कि मैं कौन हूं : तो विस्मय।

और, दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि विस्मय कभी चुकता नही; जितना ही हम जानते हैं, उतना ही बढ़ता है। इसलिए विस्मय एक विरोधाभास है; क्योंकि जानने से विस्मय नष्ट होना चाहिए। लेकिन, बुद्ध या कृष्ण या शिव या जीसस उनका विस्मय नष्ट नहीं होता। जिस दिन वे परम ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, उस दिन उनका विस्मय भी परम होता है। उस दिन वे ऐसा नहीं कहते कि हमने सब जान लिया; उस दिन वे ऐसा कहते हैं कि सब जानकर भी, सब जानने को शेष रह गया।

उपनिषदों ने कहा है कि पूर्ण से पूर्ण निकाल लिया जाये, तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। सब जान लिया जाए, तो भी सब जानने को शेष रह जाता है। इसलिए, धार्मिक ज्ञान अहंकार का जन्म नहीं बनता; वैज्ञानिक ज्ञान अहंकार का जन्म बनेगा। धार्मिक ज्ञान में तुम जाननेवाले कभी भी न बनोगे; तुम सदा विनम्र रहोगे। और, जितना तुम जानते जाओगे, उतनी ही तुम्हें प्रतीति होगी कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। परम ज्ञान के क्षण में तुम कह सकोगे कि मेरा कोई भी ज्ञान नहीं। परम ज्ञान के क्षण में यह पूरा अस्तित्व विस्मय हो जायेगा।

विज्ञान अगर सफल हो तो सारा जगत ज्ञात हो जायेगा; धर्म अगर सफल हो तो सारा जगत अज्ञात हो जायेगा। विज्ञान अगर सफल हो तो तुम, जाननेवाले, अस्मिता से भर जाओगे और सारा जगत साधारण हो जायेगा; क्योंकि जहां विस्मय नहीं है, वहां सब साधारण हो जाता है; जहां रहस्‍य नहीं है, वहां सारी आत्मा खो जाती है; जहां रहस्‍य का और उपाय नहीं है, वहां आगे की यात्रा बंद हो जाती है; जहां जिज्ञासा पूरी हो गयी, कुतूहल समाप्त हो गया। अगर विज्ञान जीता तो जगत में ऐसी ऊब पैदा होगी, जैसी ऊब कभी भी पैदा नहीं हुई थी। इसलिए, अगर पश्‍चिम में लोग ज्यादा ऊब से भरे हैं, बोरडम से भरे हैं, तो उसका मौलिक कारण विज्ञान है; क्योंकि लोगों की विस्मय क्षमता घटती जा रही है। लोग किसी भी चीज से चकित नहीं होते; चकित होना ही भूल गये हैं। अगर तुम उनके सामने कुछ ऐसा सवाल भी रखो, जो उलझानेवाला है, तो भी वे कहेंगे कि सुलझ जायेगा। क्योंकि लोगों की विस्मय क्षमता घटती जा रही है। 

लोग किसी भी चीज से चकित नहीं होते; चकित होना ही भूल गये हैं। अगर तुम उनके सामने कुछ ऐसा सवाल भी रखो, जो उलझानेवाला है, तो भी वे कहेंगे कि सुलझ जायेगा। क्योंकि, मौलिक रूप से ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, विज्ञान की दृष्टि में, जो अज्ञात सदा के लिए रह जाए हम पर्दे उघाड़ ही लेंगे।

लेकिन, धर्म की यात्रा बड़ी उलटी है। जितने हम पर्दे उघाडते है, पाते हैं कि रहस्‍य उतना सघन होता जाता है; जितने हम करीब आते हैं, उतना ही पता चलता है कि जानना बहुत मुश्किल है। और, जिस दिन हम परमात्‍मा के ठीक केंद्र में प्रवेश कर जाते हैं; उस दिन सभी कुछ रहस्यपूर्ण हो जाता है। बुद्ध के लिए आकाश के तारे ही रहस्यपूर्ण नहीं है, जमीन पर पड़े कंकड पत्थर भी आश्‍चर्यपूर्ण हो गये हैं; बुद्ध के लिए यह विराट ही रहस्यमय नहीं है, क्षुद्र से क्षुद्र घटना भी रहस्यपूर्ण हो गयी है। एक बीज का जमीन से अंकुरित होना भी उतना ही रहस्यपूर्ण है, जितना इस पूरी सृष्टि का जन्म।

तो, जैसे जैसे विस्मय घना होगा, वैसे वैसे तुम्हारी आंखें छोटे बच्चे की तरह होती जायेंगी; क्योंकि छोटे बच्चे के लिए सभी कुछ विस्मय होता है। छोटे बच्चे को चलते देखो। वह रास्ते से जा रहा है, हर चीज उसे चौंकाती है। एक रंगीन पत्थर उसे कोहिनूर मालूम होता है। तुम हंसते हो, क्योंकि तुम ज्ञाता हो; तुम जानते हो कि यह रंगीन पत्थर है। तुम कहते हो—पागल मत हो, यह कोहिनूर नहीं है। लेकिन छोटा बच्चा उस पत्थर को खीसे में रखना चाहता है। तुम कहोगे: ‘वजन मत ढोओ। और, गंदा पत्थर है, कीचड़ में पड़ा है; फेंक इसे।’ लेकिन बच्चा इसे पकड़ता है। क्योंकि, तुम बच्चे को नहीं समझ पा रहे हो, यह बच्चे के लिए विस्मय है; यह रंगीन पत्थर किसी कोहिनूर से कम कीमती ‘नहीं है। कीमत विस्मय की है, पत्थरों की थोड़ी ही कोई कीमत होती है। एक तितली भी उसे इतना सम्मोहित कर लेती है, जितना परमात्मा भी तुम्हें मिल जाए तो इतना सम्मोहित नहीं करेगा। वह तितली के पीछे दौड़ना शुरू कर देता है।

एक छोटे बच्चे की जैसी निर्मल दशा है, ऐसे विस्मय की परम स्थिति में बुद्धत्व की स्थिति में किसी भी व्यक्ति की हो जाती है। इसलिए, जीसस ने कहा है कि जो छोटे बच्चों की तरह सरल होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। जीसस ने वही कहा है, जो शिव सूत्र में कह रहे हैं. विस्मय योग भूमिका:। विस्मय योग का प्रथम चरण है। तब तो बहुत बातें खयाल में लेनी जरूरी हैं।

तुम्हारे पास जितना ज्ञान होगा, उतनी ही योग की भूमिका मुश्किल हो जायेगी। तुम्हें जितना दंभ होगा कि मैं जानता हूं उतना ही तुम योगी न हो पाओगे। जितने शास्त्र तुम्हारे चित्त पर भारी होंगे, उतना ही तुम्हारा विस्मय नष्ट हो गया। एक पंडित को पूछो, परमात्मा के संबंध में, तो वह ऐसे उत्तर देता है, जैसे परमात्मा कोई उत्तर देने की बात हो; जैसे कि कोई उत्तर दिया जा सकता हो। पंडित को पूछो, उसके पास उत्तर रेडीमेड हैं। तुमने पूछा भी नहीं था, उसके पास उत्तर तैयार था। परमात्मा भी उसे अवाक नहीं करता। उसके पास सूत्र सब निश्‍चित हैं, वह तो तत्क्षण समझा देता है।


शिव सूत्र 

ओशो 


एक बंगाली कहानी मैं पढ़ रहा था : एक सज्जन है उनको यह आदत है कि वे अगर सफर को भी जाते हैं तो घर का सारा सामान ले जाते हैं। रेडियो भी, ग्रामोफोन भी, रेकार्डप्लेअर भी और सब अंटशट! उनकी पत्नी स्वभावत: परेज्ञान है। इतना सारा सामान लादना, थर्ड क्लास का सफर-और भारतिय ट्रेनें! जब भी सफर की बात उठती है, उनकी पत्नी के प्राण कंपते है। गर्मी आ रही है, अब फिर सफर की तैयारी शुरू हो रही है, घर भर का सामान बंध जा रहा है। भर दिया जाकर एक कम्पार्टमेंट में। संयोग की बात थी, एक डिब्बा बिलकुल खाली था। बड़े चकित थे, पत्नी भी बड़ी चकित थी। और पति ने कहा : देखा! मैंने कहा नहीं कि ऊपर वाला सबकी फिक्र करता है! पूरी ट्रेन भरी है, एक डिब्बा बिलकुल खाली है। यह बस अपने ही लिए समझो। सारा सामान भर दिया कमरे में। वह कमरा इसलिए खाली था कि वह मिलिट्री के लिए था। मिलिट्री का अफसर आया, उसने कहा कि यह क्या मामला है! तीसरे स्टेशन के बाद तुम्हें उतरना पड़ेगा। क्योंकि तीन स्टेशन तक कोई बात नहीं, तुम बैठे रहो; तीसरे स्टेशन के बाद हमारे लोग सफर करने वाले हैं।

उसने कहा कोई फिक्र नहीं। वह शांत ही बैठा रहा, अपना हुक्का गुड्गुडाता रहा। हुक्का भी साथ लाया है। सब चीजें साथ हैं। पूरा घर ही साथ है। चोरों के लिए कुछ छोड़ नहीं आए पीछे। पत्नी बहुत डरी और उसने कहा : अब क्या होगा? अब इतने सामान का उतारना, फिर किसी दूसरे डब्बे में चढ़ाना। गाड़ी पूरी भरी है।

उसने कहा : तू बिलकुल फिक्र मत कर। अरे जिसने चोंच दी है वह दाना भी देता है।

तीसरा स्टेशन आ गया। वह उतरने को राजी नहीं। गाड़ी वहां दो ही मिनट रुकती है। मिलिट्री के लोग अलग नाराज, वह उतरने का राजी नहीं, खींचातानी की बात हो गई। मिलिट्री के लोग भी अंदर घुस गए। गाड़ी छूट गई। अब बड़ी कल मची है, मगर वह अपना हुक्का गुड़गुड़ा रहा है। आखिर उस मिलिट्री के प्रमुख ने कहा कि फेंक देंगे तुम्हारा सामान, एक-एक चीज उतर देंगे। उसने कहा : देखें कौन उतारता है!

चौथा स्टेशन आया और मिलिट्री के लोगों ने सबने मिलकर उसका सारा सामान नीचे उतार दिया। वह खड़ा अपना हुक्का गुड्गुडाता रहा। यही स्टेशन है जहां उसे उतरना है। वह अपनी पत्नी से कहा रहा है : देख, अरे जो चोंच देता है वह चना भी देता है! अब ये बुद्धू देख रहे हैं! सामान उतार रहे हैं! सामान उतारने तक की भी अपने का जरूरत नहीं।

ऐसे लोग हैं चारों तरफ, तुम्हें जगह जगह मिल जाएंगे, जो कूड़ा करकट भरे हैं। और उसको भी सोचते हैं कि परमात्मा की देन है। सोचते हैं वह भी परमात्मा की भेंट है!

इस कूड़े -करकट से रिक्त हो जाओ। यह परमात्मा की भेंट नहीं है। ही, कटोरा परमात्मा का है और कटोरा जरूर हीरे का है। कटोरा दिव्य है। तुम दिव्य हो। तुम कूड़ा -करकट भरने के लिए नहीं हो। तुम्हारे भीतर परमात्मा उतरे तो ही शोभा है, तो ही गौरव है, तो ही गरिमा है।

हंसा तो मोती चुने 

ओशो 

खड़े श्री बाबा

मैं एक गांव में गया। लोगों ने कहा : गांव में एक महात्मा हैं। वे दस साल से खड़े हुए हैं, बैठते ही नहीं। मैंने कहा : तुम बैठने नहीं देते होओगे। उन्होंने कहा : नहीं, हम तो कुछ नहीं करते। मैंने कहा : तुम्हें पता नहीं है, लेकिन तुम बैठने नहीं देते होओगे। चलो मैं जरा देखूं।

महात्मा की हालत बड़ी बुरी हो गई। उनका नाम ही खड़े श्री बाबा हो गया। वे खड़े ही हैं। अब खड़ा होना दस साल कोई आसान मामला नहीं है। तो दोनों हाथों में बैसाखिया लगा दी गई हैं। ऊपर हाथ जंजीर से बांध दिए गए हैं, क्योंकि कहीं भूल-चूक से बैठ न जाएं।

मैंने कहा : यह जंजीर किसने बाधी है? वे बैसाखिया किसने लगाई हैं?

और उनके पैर हाथी-पांव हो गए हैं क्योंकि सारा खून शरीर का उतर कर पैरों में चला गया है। वह आदमी बड़े कष्ट में है। अब तो वह बैठना भी चाहे तो नहीं बैठ सकता। उसके पैर न बैठने देंगे। अब पैर मुड़ेंगे भी नहीं, दस साल हो गए। और इस खड़े होने में ही तो सारी उसकी प्रतिष्ठा है। लोग आते रहते हैं, दिन  रात मजमा लगा रहता है। पैसे चढ़ रहे हैं, सिर झुकाएं जा रहे हैं, मनौतिया मनाई जा रही हैं, बैड -बाजे बजाए जा रह हैं। और वह आदमी बिलकुल मुर्दे की तरह खड़ा है। न उसकी आखों में कोई ज्योति है न चेहरे पर कोई भाव है।

इस आदमी को क्या हुआ? यह आदमी भीड़ का शिकार है, जैसे और सारे लोग भीड़ के शिकार हैं। कोई प्रधान मंत्री होकर शिकार है; यह आदमी खड़े होकर महात्मा हो गया है, अब यह चक्कर में पड़ गया है। अब बैठ नहीं सकता। अब बैठे तो सब प्रतिष्ठा गई। अगर खड़े श्री महाराज बैठ जाएं तो कौन जाएगा फिर, फिर कौन पूजा करेगा!

मेरे पास जैन मुनि कभी- कभी आ जाते थे। दो जैन मुनि आए- आचार्य तुलसी के शिष्य। उन्होंने कहा कि हमने आशा तो ले ली है, तुलसी जी से, मगर उन्होंने कहा : किसी को पता न चले! क्योंकि यहां तो मेरे पास आना ही खतरनाक है, अगर किसी को पता चल जाए…! तो चुपचाप जाना, छिपकर जाना। दोनों ध्यान करने आए थे।

मैंने कहा : करो ध्यान। मगर ध्यान ऐसा है कि छिप कर हो न सकेगा। इसमें उछलना पड़े, कूदना पड़े।

उन्होंने कहा : हम मुनि हैं, हम बहुत दिन से उछले -कूदे भी नहीं। बचपन के बाद उछले -कूदे नहीं।

मैंने कहा : वह तुम सोच लो। इसमें शोरगुल भी मचाना पड़ेगा।

उन्होंने कहा : तो कमरा बंद करके अगर करें? मैंने कहा : कमरा बंद करके करना हो तो कमरा बंद करके करो। जैसी तुम्हारी मर्जी। 

‘किसी को पता तो न चलेगा?’

मैंने कहा : ध्यान का अगर पता भी चल जाए तो हर्ज क्या? कुछ बुराई है?

उन्होंने कहा। बुराई यह है कि हमारे श्रावक क्या सोचेंगे? वे तो सोचते हैं कि हम आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। और हम उछल-कूद रहे हैं!

मैंने कहा : वैसे तुम्हारी मर्जी है। अगर आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गए हो तो फिर कोई हर्जा नहीं, फिर तो उछलों -कूदो! अब तुम से कोई क्या चीज छीन लेगा?

कहा कि नहीं, अभी उपलब्ध तो नहीं हुए। तो मैंने कहा : फिर तो उछलना-कूदना ही पड़ेगा। नहीं तो उपलब्ध न हो सकोगे।

दोनों उछले -कूदे। चैतन्य भारती से मैंने कहा कि दोनों की तस्वीरें ले लेना। तस्वीरे हैं! बाद में उनको पता चला। मागने आए कि तस्वीरें हमारी दे दें।

मैंने कहा : तस्वीरें तो रहने दो। एक प्रमाण रहेगा कि महात्मा भी उछले -कूदे। बड़े उदास थे कि यह ठीक नहीं हुआ कि किसी न तस्वीरें ले लीं। हमको पता ही न चला। हमारी तो आंख पर पट्टी बंधवा दी थी आपने।

आंख पर पट्टी इसलिए बंधवाई जाती है कि जिसमें तस्वीर लेने वालों को कोई अड़चन न हो। वे तो चले गए, लेकिन उनके शिष्य कई बार आ चुके हैं कि वे तस्वीरे दे दें।

तस्वीरों से तुम्हें क्या फिक्र है?

उनको डर लगा है कि किसी दिन वे तस्वीरें प्रगट न हो जाए, नहीं तो प्रतिष्ठा का क्या होगा? तेरापंथी मुनि और आंख में पट्टी बौध कर और नाच रहे हैं, हूं -हूं कर रहे हैं! और बड़े ज्ञानी-मुनि! एक की उस कोई होगी साठ-सत्तर साल, दूसरे की होगी कोई पैंतीस -चालीस साल। और उनकी बड़ी ख्याति है। नाम उनका न बताऊंगा क्योंकि नाहक क्यों उनको कष्ट देना! उनकी बड़ी ख्याति है। सैकड़ों लोग उन्हें मानते हैं। उनको डर है बहुत, कि कहीं पता न चल जाए! किसी को अगर जरा पता चल गया तो प्रतिष्ठा गिर जाएगी।

यह तो वही अहंकार का खेल चल रहा है! भेद कहां है? कोई कुर्सी पकड़े है, कोई अपना यश पकड़े हैं। कोई धन पकड़े है, कोई ज्ञान पकड़े है।

ये निमित्त हैं, मुकेश! अहंकार का कोई कारण नहीं है। लेकिन निमित्त बहुत हैं। और निमित्त तुम्हारे निर्मित हैं। इसलिए एक सुसमाचार : चूंकि तुम्हारे ही हाथ से बनाए हुए निमित्त हैं, तुम जिस दिन चाहो, जिस क्षण चाहो उस क्षण अहंकार से मुक्त हो सकते हो। यह सुसमाचार। तुम मालिक हो! यह तुम्हारी बनावट है। यह तुम्हारा नाटक है। यह तुम्हारे प्रपंच है। इसमें परमात्मा का कोई हाथ नहीं है। इसे तुम अभी गिरा सकते हो। यह रेत का घर तुमने बनाया, अभी उछल-कूद कर उसको मिटा सकते हो।

हंसा तो मोती चुने

ओशो

एक कहानी

जर्मन कहानी है एक कि एक आदमी ने बहुत दिन तक तपश्चर्या की। देवदूत प्रगट हुआ। उस फरिश्ते ने कहा कि मांग ले कुछ मांगना हो। तो उस आदमी ने कहा : कुछ ऐसी चीज दो जो कभी किसी का न दी हो। पताने वाले तो बहुत हुए होंगे; मैं तो कोई ऐसी चीज मागता हूं जो कभी हुई न हो और कभी हो भी नहीं। उस फरिश्ते ने कहा : तो ठीक, ऐसा ही किए देते हैं। कल से तेरी छाया न बनेगी। धूप में चलेगा, तो भी छाया नहीं बनेगी।

वह आदमी तो बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि गजब हुआ! सारी दुनिया में ख्याति हो जाएगी। ऐसा आदमी न कभी इतिहास में हुआ, न कभी होगा-कि जो धूप में चले और जिसकी छाया न बने! भाग।, पहाड़ वगैरह छोड़ दिया, जहां बैठ कर तपश्चर्या कर रहा था। वह तपश्चर्या भी अहंकार के लिए नए निमित्त खोजने की तलाश थी। और इससे बड़ा निमित्त और क्या मिल सकता था, जरा सोचो तुम कि तुम धूप में चलो और तुम्हारी छाया न बने! सारी दुनिया चरण छूने आएगी।

आया नगर में, घूमा। बात कुछ उल्टी ही हो गई। लोग उससे बचने लगे। लोग कन्नी काट जाएं। जहां से निकले, कोई दूसरा आदमी आ रहा हो परिचित, तो वह बगल की दुकान में घुस जाए आदमी, या बगल की गली से निकल जाए। अपने बिलकुल पराए होने लगे। मित्र पास न आएं, गांव- भर में खबर फैल गई कि यह आदमी भूत -प्रेम हो गया, या क्या मामला है! इसकी छाया नहीं बनती! कहानियों में तो सिर्फ भूत -प्रेतों की छाया नहीं बनती या देवताओं की छाया नहीं बनती। तो देवता तो यह हो नहीं सकता। देवता तो कोई मान नहीं सकता इसको। कोई इस दुनिया में किसी दूसरे को देवता मानने को आसानी से राजी नहीं होता। भूत -प्रेत हो गया है।

घर के लोग अपना दरवाजा बंद कर लिए, जब वह अय।! पत्नी ने कहा : क्षमा करो, पतिदेव! अपनी गुफा में ही रहो! आखिर हमें भी जीना है। बाल -बच्चे हैं, इनको बड़ा करना है। तुम गए सो गए, वह ठीक है; अब तुम हमें और बरबाद न करो। तुम्हें देखकर डर लगता है। बच्चे जो एकदम झूल जाते थे उसके गले से आकर, वे मै। के पीछे छिप कर खड़े हो गए। डैडी भूत हो गए! मित्रों ने दरवाजे बंद कर लिए। होटलों में लोग एकदम दरवाजे बंद करने लगें, भोजन देने को कोई राजी नहीं। छाया नहीं बनती, लेकिन भूख तो लगती ही थी। पानी पिलाने को कोई राजी नहीं। और लोगों ने कहा कि अगर तुमने गांव नहीं छोड़ा तो हम पुलिस को पकड़वा देंगे।

बड़ा हैरान हुआ कि यह भी क्या मैंने वरदान मांग लिया! हट जाना पड़ा उसे गांव से। बड़े अपमान में।

यह कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। उस आदमी की छाया खो गई थी और ऐसी हालत हो गई। और तुम्हारी आत्मा खो गई है, सिर्फ छाया बची है। तुम्हारी हालत तो सोचो! उस आदमी की आत्मा तो बची थी, छाया खो गई थी। तुम्हारी छाया बची है, आत्मा खो गई है।

छाया है अहंकार। और फिर अहंकार के लिए निमित्त जितने मिल जाएं उतना बड़ा हो सकता है। निमित्त टूट जाएं, उतना छोटा हो जाता है। इसलिए तो जो व्यक्ति एक बार जिस पद पर पहुंच जाता है उसको छोड़ता ही नहीं।

मेरी दृष्टि में अहंकार को पैडिल मारना बंद कर देने का नाम ही संन्यास है। अहंकार के लिए निमित्त की और तलाश न करना, यही संन्यास है। और जिस दिन तुम तलाश न करोगे अहंकार के लिए निमित्तों की, पुराने निमित्त ज्यादा दिन काम नहीं आएंगे। पुराने निमित्त बस गिर जाएंगे, अपने से गिर जाएंगे। उनको रोज-रोज नया करना होता है, तो ही जीवित रहते हैं। उनमें रोज -रोज प्राण डालने होते हैं।


हंसा तो मोती चुने 

ओशो 

त्याग की महिमा

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। स्वर्ण- अशर्फिया लाया था भर कर एक झोले में। और आकर उसने रामकृष्ण के चरणों में चढ़ा दी झोली और कहा कि लें, ये हजार स्वर्ण – अशर्फिया हैं। कहना नहीं भूला-हजार! हजार जरा जोर से ही कहा। आसपास बैठे सब लोगों को सुनाई भी पड़ जाए। हजार स्वर्ण – अशर्फियां उन दिनों बहुत बड़ी बात थी। रामकृष्ण ने कहा : हजार हों कि दस हजार, अब यह झंझट, इनकी कौन देख -रेख करेगा? तू एक काम कर… तूने तो मुझे दे दी न?

उस आदमी ने कहा : आपके चरणों में समर्पित है। तो उन्होंने कहा : अब तू मेरी मान। इनको ले जा और गंगा में सिरा दे। गंगा मैया जाने। अब इनको कौन देखेगा? कभी मैं नहाने – धोने जाऊं तो अब इनके पीछे कोई बिठाओ कि यह देखे कोई। या फिर इनको ले जाओ गंगा साथ; फिर वहां नहाऊं तो भी नहीं न पाऊं, क्योंकि घाट पर नजर रखूं कि अशर्फिया कोई लेकर न चल दे! अब यह झंझट तू ले आया, चल, तेरी भी कट गई झंझट, मेरी भी काट। तू गंगा में डुबा दे।

उस आदमी को बड़ा धक्का लगा। ऐसी आशा नहीं थी। उसने सोचा था, रामकृष्ण कहेंगे : ‘ अहो, तू है भक्त! हे धन्यभागी! हे महापुरुष! जन्म- जन्म के पुण्यों का यह फल है। तू ही धन्य नहीं हुआ, तेरे पितर भी धन्य हो गए! इसी को त्याग कहते हैं! इसी की महिमा शास्त्रों में गाई है। ‘ यह तो कुछ कहा नहीं, पीठ भी न ठोंकी, सिर पर हाथ रख कर धन्यवाद भी न दिया-उल्टे कुछ नाराज मालूम हुए; उल्टे कुछ ऐसा लगा कि अपनी झंझट मुझे दे रहा है।… मेरी भी झंझट काट भैया, तू जाकर इनको गंगा में गिरा दे। गंगा पास ही बह रही है। ज्यादा दूर जाना भी न पड़ेगा।

बड़े बेमन से उस आदमी ने अपनी झोली उठाई। चला गंगा की तरफ। ‘नहीं’ भी नहीं कह सकता। जब दे ही चुके तो अब तुम कौन हो कहने वाले! कई बात तो मन में आया कि भाग जाए बीच से, कौन रामकृष्ण पीछे आ रहे हैं। मगर डरा भी। लोग महात्माओं से डरते भी बहुत हैं कि पता नहीं कोई अभिशाप वगैरह दे दें। और देखते तो रहे ही होंगे, हालांकि दिखाई नहीं पड़ रहा हूं उन्हें, मगर अंतर्दृष्टि महात्माओं की तो खुली होती है। तीसरा चक्षु! देख रहे होंगे और पढ़ रहे होंगे मेरा विचार भी। यह ठीक नहीं है। अब झंझट में जो हो गया हो गया, भूल हो गई। अब निपटा दो।

मगर बड़ी देर हो गई, वह आदमी लौटा नहीं। तो रामकृष्ण ने कहा कि भई बड़ी देर लग गई, वह आदमी कहां है, अभी तक लौटा नहीं! चले, देखने उस आदमी को। वह आदमी क्या कर रहा था, मालूम है। घाट पर उसने बड़ी भीड़ इकट्ठी कर ली थी। सैकड़ों आदमी इकट्ठे हो गए थे। वह एक-एक अशर्फी को बजाता था पहले घाट पर पत्थर पर गिर कर। खन -खन, खन- खन उसको बजाता। गिनती करता। पांच सौ सत्तर, फिर गंगा में फेंकता। पांच सौ अठहत्तर, फिर गंगा में फेंकता। ऐसे ही धीरे – धीरे कर रहा था और खूब बजा-बजा कर फेंक रहा था। रामकृष्ण गए, खड़े हो गए और कहा कि अरे मूड! गिनती किसलिए कर रहा है? जब फेंकना ही है तो गिनती किसलिए? गिनती जोड़ते वक्त करनी होती है, फेंकते वक्त क्या गिनती करनी है? थैली की थैली फेंक देना था। और यह बजा क्यों रहा है? यह बजा- बजा कर लेना… लेते समय तो ठीक, क्योंकि कहें कोई धोखा न दे रहा हो, कोई नकली सिक्के न पकड़ा रहा हो। लेकिन गंगा में फेंकते वक्त… गंगा को कोई फिक्र नहीं है कि नकली है कि असली तेरा धन। गंगा को कुछ लेना-देना नहीं है कि नौ सौ निन्यानवे फेंकी कि पूरी हजार फेंकी। गंगा कुछ हिसाब-किताब तेरा रखेगी भी नहीं। मगर तू मूढ़ का मुढ़ रहा!

यह कहानी सोचने जैसी है। आदमी इकट्ठे करते वक्त भी गिनता है और छोड़ते वक्त भी गिनता है। जब मानता है कि धन सत्य है, तब भी गिनता है और जब मानता है कि धन असत्य है, तब भी गिनता है! दोनों हालत में गिनता है! तो महावीर ने कितने घोड़े, कितने हाथी, कितने रथ, कितना धन, कितनी अशर्फियां, मणि -माणिक्य छोड़े, जैन शास्त्रों में ईसि।लसिला बड़ा लंबा है। ऐसा ही बौद्ध शास्त्रों में है, बुद्ध ने कितना छोड़ा। एक -दूसरे से होड़ लगी है। बढ़ाए चले जाते है।

तुम अगर शास्त्र उठा कर देखोगे तो जैसे -जैसे शास्त्र बाद में लिखे गए वैसे  वैसे संख्या बढ़ती चली गई। क्योंकि महावीर ने हजार स्वर्ण -रथ छोड़े तो बौद्ध कोई पीछे तो नहीं रह जाएंगे : उन्होंने बुद्ध से एक हजार एक छुड़वा दिए। तो फिर जब शास्त्र लिखा गया तो जैनियों ने एक हजार दो छुड़वा दिए, क्योंकि वे कहीं पीछे तो नहीं रह जाएंगे। महावीर- बुद्ध से तो कुछ लेना-देना नहीं है। न तो महावीर के पास इतने रथ थे और न बुद्ध के पास, क्योंकि दोनों का राज्य बहुत छोटी-छोटी तहसीलों से ज्यादा नहीं। बुद्ध के जमाने में भारत में दो हजार राज्य थे, कोई बहुत बड़े राज्य हो नहीं सकते उनके पास। बुद्ध के बाप -दादो का नाम कोई इतिहास में नहीं है; वह तो बुद्ध की वजह से। महावीर के बाप -दादो का भी नाम कोई इतिहास में नहीं है; वह तो महावीर की वजह से थोड़ी याद रह गई है। तो ये हाथी- घोड़ों के कारण नाम नहीं इनके। लेकिन फिर भी हमारा मन तो वही है।


हंसा तो मोती चुने 

ओशो 

समय

जब आल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार सापेक्षता का सिद्धांत खोजा तो बड़ा जटिल प्रक्रिया है उस सिद्धांत आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को ठीक से समझते थे। मगर जहां भी अल्वर्ट आइंस्टीन जाता, लोग उससे पूछते कि समझाइए, सापेक्षता का सिद्धांत क्या है? वह भी बड़ी मुश्किल में पड़ता था। बात बहुत जटिल है और सूक्ष्म है। मगर जीवन का बहुत गहरा सत्य है उसमें। महावीर ने इसी सापेक्षता के सिद्धांत का स्यादवाद कहा है। जो महावीर ने धर्म के जगत में किया था, वही अल्वर्ट आइंस्टीन ने विज्ञान के जगत में किया है। ढाई हजार साल के फासले पर अल्वर्ट आइंस्टीन ने पुन: उसी सिद्धांत की स्थापना की है जो महावीर ने की थी। मगर वैज्ञानिक आधारों पर! महावीर को बात तो केवल एक वैचारिक उद्घोषणा थी।

महावीर की बात भी कठिन है, इसलिए महावीर को बहुत अनुयायी नहीं मिले। बात जटिल है। और जो महावीर के अनुयायी तुम्हें दुनिया में दिखाई भी पड़ते हैं, वे भी पैदायशी है, उनकी भी समझ में कुछ नहीं है। कुछ थोड़े -से लोग महावीर से दीक्षित हुए होंगे, बहुत थोड़े -से लोग। आज भी जैनों की संख्या मुश्किल से तीन लाख है। अगर तीस जोड़े महावीर से दीक्षित हो गए हों तो पच्चीस सौ साल में उनके बाल-बच्चे बढ़ते -बढ़ते तीस लाख हो जाएंगे। कोई बहुत ज्यादा लोग महावीर से दीक्षित नहीं हुए होंगे। आदमी भी चूहों जैसे बढ़ते हैं, कम-से -कम इस देश में तो बढ़ते ही हैं।

अल्वर्ट आइंस्टीन की बात भी बहुत लोग नहीं समझ पाते थे, तो उसने समझाने के लिए एक उदाहरण खोज रखा था। जब भी कोई पूछता तो वह कहता कि सिद्धांत तो थोड़ा जटिल है, लेकिन एक उदाहरण, उससे शायद समझ में आ जाए। तो वह कहता कि तुम्हें किसी ने गर्म तवे पर बिठा दिया, घड़ी सामने है, टिक -टिक करके घड़ी सेकंड-सेकंड आगे बढ़ रही है। तवा गर्म होता जा रहा है। तुम उत्तप्त होते जा रहे हो। तुम घबड़ाने लगे। और पसीना -पसीना हुए जा रहे हो। तो तुम्हें कुछ हो सेकंड ऐसे मालूम पड़ेंगे जैसे कुछ घंटे बीत गए। और अगर घंटे- भर उस गरम तवे पर बैठे रहना पड़े तो ऐसा लगेगा जैसे कि वर्षों बीत गए हैं।

दुख में समय लंबा हो जाता है। घड़ी तो अपनी चाल से चलती है। लेकिन गरम तवे पर बैठे आदमी को लगो। कि घड़ी भी बेईमान, आज धीमे चल रही है। टिक -टिक भी आज आहिस्ता- आहिस्ता हो रहा है। आज ही सूझा था अस घड़ी को भी! रोज जाती थी गति से, आज बड़ी मंथर है। आज जैसे झिझक-झिझक कर चल रही है। जैसे आज मुझे सताने का तय ही कर रखा है।

और आइंस्टीन यह भी कहता कि समझो कि वर्षों से बिछड़ी हुई प्रेयसी तुम्हें मिल गई आज। यही घड़ी। तुम अपनी प्रेयसी का हाथ हाथ में लिए, पूर्णिमा की रात, बैठे हो आकाश के तले। वही घड़ी, अब भी टिक -टिक कर रही है; लेकिन अब घंटे ऐसे बीत जाएंगे जैसे क्षण बीते। रात ऐसे बीत जाएगी जैसे अभी आई अभी गई, हवा के झोंके की तरह। तुम्हारा मन कहेगा : बेईमानी घड़ी, आज बड़ी तेज चली!

घड़ी तो वही है, घड़ी की चाल वही है। घड़ी को पता भी नहीं है कि तुम कब गरम तवे पर बैठे थे और कब प्रेयसी का हाथ हाथ में लिए थे। घड़ी को न तुम्हारी अमावस का पता है न तुम्हारी पूर्णिमा का। घड़ी तो यंत्र है। लेकिन तुम्हारे भीतर जो मनोवैज्ञानिक बोध है समय का, वह लंबा हो जाएगा, छोटा हो जाएगा। तुम्हारा मनोवैज्ञानिक जो बोध है समय का, वह भूतियों निर्भर होता है होगी अनुभूति तो समय थोड़ा हो जाता है और जब होगी तो तुम्हारी अनु पर। जब सुखद दुखद बहुत छोटा हो जाता है।

इसलिए परम आनंद का जो क्षण है, समाधि का जो क्षण है, उसमें समय मिट ही जाता है, समय बचता ही नहीं। और जो महादुख का क्षण है, जिसको हम नरक कहते हैं… ईसाइयों का कथन ठीक है कि नरक अनंत है। उस संबंध में मैं ईसाइयों से राजी हूं -बजाय हिंदू  जैनों, बौद्धों के। हालांकि उनकी सिद्धांत तर्क से बैठता नहीं।

उससे ही संबंधित है। अनंत नहीं है नरक। लेकिन नरक की पीड़ा इतनी चरम है कि अनंत मालूम होती है। जैसे समाधि का आनंद इतना गहन है कि कालातीत हो जाता है, समय विलीन हो जाता है -ऐसे ही नरक में समय ही समय रह जाता है, अंतहीन! अंत आता ही नहीं मालूम होता। नरक में कभी सुबह नहीं होती-रात इतनी लंबी मालूम होती है! स्वर्ग में कभी रात नहीं होती-दिन इतना लंबा मालूम होता है। ये अंतरप्रतीतिया हैं।

जिन लोगों ने कहा है कि त्याग बड़ा महिमापूर्ण है, निश्चित ही यह उनकी अंतरप्रतीति है कि वे अभी भोग से ग्रस्त हैं; अभी उनको धन ने पकड़ा है। धन के त्याग की चर्चा कर रहे हैं, क्योंकि धन में अभी उनका लोभ लगा है। अभी भी हाथी- घोड़ों की गिनती कर रहे हैं-कितने छोड़े!



हंसा तो मोती चुने

 ओशो 

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