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Saturday, June 27, 2020

आत्मा की यात्रा

सब यात्रा बीज से शुरू होती है और सब यात्रा बीज पर अंत होती है। ध्यान रहे, जो प्रारंभ है, वही अंत है। जो बिगनिंग है, वही ऐंड है। जहां से यात्रा शुरू होगी, वहीं यात्रा का वृत्त पूरा होगा। एक बीज से हम शुरू होते हैं और एक बीज पर हम पुन: अंत हो जाते हैं।


वह जो चेतना मरते वक्त अपने को सिकोड़ लेगी, बीज बनेगी, वह किस केंद्र पर इकट्ठी होगी? जिस केंद्र पर आप जीए थे! जो आपके जीने का सर्वाधिक मूल्यवान केंद्र था, वहीं इकट्ठी हो जाएगी। क्योंकि जहां आप जीए थे, वही केंद्र सक्रिय है। जहां आप जीए थे, कहना चाहिए, वहीं आपके जीवन का प्राण है।


अगर एक आदमी का सारा जीवन सेक्स से ही भरा हुआ जीवन था, उसके पार उसने कुछ भी नहीं जाना, कुछ भी नहीं जीया, अगर धन भी इकट्ठा किया तो भी काम के लिए, यौन के लिए, अगर पद भी पाना चाहा तो काम और यौन के लिए, स्वास्थ्य भी पाना चाहा तो काम के लिए और यौन के लिए, अगर उसकी जिंदगी का वह सबसे बहुत एमफैटिक केंद्र सेक्स था, तो सेक्स के केंद्र पर ही ऊर्जा इकट्ठी हो जाएगी और उसकी यात्रा फिर वहीं से होगी। क्यों? क्योंकि अगला जन्म भी उसकी सेक्स की केंद्र की ही यात्रा की कंटीन्यूटि होगा, उसका सातत्य होगा। तो वह व्यक्ति सेक्स के केंद्र पर इकट्ठा हो जाएगा। और उसके प्राण का जो अंत है, वह सेक्स के केंद्र से ही होगा। उसके प्राण जननेंद्रिय से ही बाहर निकलेंगे।


अगर वह व्यक्ति दूसरे किसी केंद्र पर जीया था, तो उस केंद्र पर इकट्ठा होगा। यानी जिस केंद्र पर हमारा जीवन घूमा था, उसी केंद्र से हम विदा होंगे। जहां हम जीए थे, वहीं से हम मरेंगे। इसलिए कोई योगी आज्ञा—चक्र से विदा हो सकता है। कोई प्रेमी हृदय—चक्र से विदा हो सकता है। कोई परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति सहस्रार से विदा होगा। उसका कपाल फूट जाएगा, वह वहां से विदा होगा। हम कहां से विदा होंगे, यह हमारे जीवन का पूरा सारभूत सबूत होगा।


और इन सबके सूत्र खोज लिये गए थे कि मरे हुए आदमी को देखकर कहा जा सकता है कि वह कहां से विदा हुआ। इस सबके सूत्र खोज लिए गये थे। मरे हुए आदमी को देखकर, उसकी लाश को देखकर कहा जा सकता है कि वह कहां से निकला है, किस द्वार का उपयोग किया उसने बहिर्गमन के लिए। ये सब चक्र द्वार भी हैं। ये प्रवेश के द्वार भी हैं, ये विदा होने के द्वार भी हैं। और जो जिस द्वार से निकलेगा, उसी द्वार से प्रवेश करेगा। एक मां के पेट में वह जो नया अणु बनेगा, उस अणु में आत्मा उसी द्वार से प्रवेश करेगी जिस द्वार से वह पिछली मृत्यु में निकली थी। वह उसी द्वार को पहचानती है।


और इसीलिए मां—बाप का चित्त और उनकी चेतना की दशा संभोग के क्षण में निर्णायक होगी कि कौन —सी आत्मा वहां प्रवेश करेगी। क्योंकि मां —बाप की चेतना संभोग के क्षण में जिस केंद्र के निकट होगी, उसी केंद्र को प्रवेश करने वाली चेतना उस गर्भ को ग्रहण कर सकेगी, नहीं तो नहीं कर सकेगी। अगर दो योगस्थ व्यक्ति बिना किसी संभोग की कामना के सिर्फ किसी आत्मा को जन्म देने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, तो वे ऊंचे से ऊंचे चक्रों का प्रयोग कर सकते हैं।


इसलिए अच्छी आत्माओं को जन्म लेने के लिए बहुत दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, क्योंकि अच्छा गर्भ मिलना चाहिए। बहुत कठिनाई हो जाती है कि उन्हें ठीक गर्भ मिल सके। इसलिए बहुत सी अच्छी आत्माएं सैकड़ों सैकड़ों वर्षों तक दोबारा जन्म नहीं ले पातीं। बहुत सी बुरी आत्माओं को भी बड़ी कठिनाई हो जाती है, क्योंकि उनके लिए भी सामान्य गर्भ काम नहीं करता। साधारण आत्माएं तत्काल जन्म ले लेती हैं। इधर मरी, उधर जन्म हुआ, उसमें ज्यादा देर नहीं लगती। क्योंकि उनके योग्य बहुत गर्भ उपलब्ध होते हैं सारी पृथ्वी पर। प्रतिदिन उनके लिए हजारों लाखों मौके हैं। बहुत मौके हैं इस वक्त। कोई एक लाख अस्सी हजार लोग रोज पैदा होते हैं। मरने वालों की संख्या काटकर इतने लोग बढते हैं। कोई दो लाख आत्माओं के लिए रोज प्रवेश की सुविधा है। लेकिन ये बिलकुल सामान्य तल पर यह सुविधा है।


असामान्य आत्माओं को अगर हम पैदा न कर पाएं तो यह भी हो सकता है, और बहुत बार हुआ है......। इसकी थोड़ी बात खयाल में लेनी अच्छी होगी।


बहुतसी आत्माएं जो इस पृथ्वी ने बड़ी मुश्किल से पैदा कीं, उनको जन्म किसी दूसरी पृथ्वियों पर लेने पड़े हैं। यह पृथ्वी उनके लिए वापिस जन्म देने में असमर्थ हो गई। ऐसा ही समझो तुम कि जैसे हिंदुस्तान में एक वैज्ञानिक को हम पैदा कर लें, लेकिन नौकरी उसको अमरीका में ही मिले। पैदा हम करें; मिट्टी, भोजन, पानी हम दें; जिंदगी हम दें; लेकिन हम उसे कोई जगह न दे पाएं उसके जीवन के लिए। उसको जगह लेनी पड़े अमरीका में। आज सारी दुनिया के अधिकतम वैज्ञानिक अमरीका में इकट्ठे हो गए हैं। हो ही जाएंगे। ऐसे ही इस पृथ्वी पर जिन आत्माओं को हम तैयार तो कर लेते हैं, लेकिन दोबारा जन्म देने के लिए गर्भ नहीं दे पाते, उनको स्वभावत: दूसरे ग्रहों पर खोज करनी पड़ती है।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ


ओशो



ईसप की एक कथा



एक लोमड़ी अंगूर पाने के लिए कूदने का प्रयास कर रही थी। वे पके हुए और ललचाने वाले थे और उनकी सुगंध लोमड़ी को करीब करीब पागल किए दे रही थी, लेकिन अंगूरों का गुच्छा उसकी पहुंच से बहुत दूर था। लोमड़ी उछली, और उछली, पहुंच न सकी, असफल रही, फिर उसने चारों ओर देखा कहीं किसी ने उसकी असफलता को देख तो नहीं लिया है?

एक नन्हा खरगोश एक झाड़ी के नीचे छिपा हुआ था, और उसने कहा : क्या हुआ मौसी? आप अंगूरों तक पहुंच नहीं सकीं?

वह बोली : नहीं, बेटा यह बात नहीं है, अंगूर अभी तक पक नहीं पाए हैं, वे खट्टे हैं।

यही तो है जो तुमने अब तक धर्म के नाम पर जाना है अंगूर खट्टे हैं क्योंकि उन लोगों को वे मिल नहीं पाते, वे उन तक पहुंच नहीं सकते। ये लोग असफल हैं।

धर्म का असफलता से कुछ भी लेना देना नहीं है। यह परितृप्ति, फलित होना, पुष्पित होना, परम ऊंचाई, शिखर है। अब्राहम मैसलो जब कहता है कि धर्म का संबंध 'शिखर अनुभवों' से है, तो वह सही है।

लेकिन जरा चर्चों में, आश्रमों में, मंदिरों में बैठे अपने धार्मिक लोगों की सूरतें देखो, उदास ऊबे हुए लंबे चेहरे बस मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब आकर उनको ले जाए। जीवन निषेधक, जीवन विरोधी, मतांधतापूर्वक जीवन के विरोध में, और जहां कहीं भी उन्हें जीवन दिखाई देता है वे उसे मार देने और नष्ट करने के लिए आतुर हो जाते हैं। वे तुम्हें चर्च में हंसने की अनुमति नहीं देंगे, वे तुम्हें चर्च में नृत्य न करने देंगे, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे जान जाते हैं कि हम इससे चूक गए, हम इस तक नहीं पहुंच पाए।

धर्म असफलताओं के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन में सफल हुए हैं, जिन्होंने जीवन को इसके गहनतम तल तक, इसे इसकी गहराई और ऊंचाई तक, समस्त आयामों में जीया है, और जो इस अनुभव से इतना अधिक समृद्ध हो गए हैं कि वे इसका अतिक्रमण करने को तैयार हैं, ये लोग कभी जीवन विरोधी नहीं होंगे वे जीवन को स्वीकार करने वाले होंगे। वे कहेंगे, जीवन दिव्य है। वस्तुत: वे कहेंगे, 'परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ, जीवन परमात्मा है।’ वे प्रेम के विरोध में नहीं होंगे क्योंकि प्रेम जीवन का परम रस है। वे कहेंगे, 'प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हुए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?'

यदि तुम प्रेम विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुडने लगोगे। वास्तविक रूप से धार्मिक व्यक्ति विस्तीर्ण होता है, फैलता चला जाता है। यह चेतना का फैलना है, सिकुड़ना नहीं।

भारत में हमने परम सत्य को ब्रह्म कहा है।’ब्रह्म' शब्द का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, आगे और आगे, और आगे, और इसका कोई अंत नहीं है। यह शब्द ही सुंदर है, इसमें एक गहन अर्थवत्ता है। आगे बढता हुआ विस्तार—जीवन, प्रेम, चेतना का यह अनंत फैलाव, यही तो है परमात्मा।

सावधान रहो, क्योंकि जीवन निषेधक धर्म बहुत सस्ता है; तुम्हें यह बस ऊब जाने से ही मिल सकता है। यह बहुत सस्ता है, क्योंकि यह तुमको बस असफल होने से ही, बस असृजनात्मक होने से ही, बस आलसी, निराश, उदास होने से मिल सकता है। यह वास्तव में सस्ता है। लेकिन असली धर्म प्रमाणिक धर्म बड़ी कीमत पर मिलता है; तुम्हें जीवन में स्वयं को ही देना होगा। तुम्हें मूल्य चुकाना पड़ेगा।


इसे अर्जित किया जाता है, और इसे कठिन पथ से अर्जित किया जाता है। व्यक्ति को जीवन से होकर गुजरना पड़ता है—इसकी उदासी, इसकी प्रसन्नता जानने के लिए; इसकी असफलता, इसकी सफलता जानने के लिए; धूप के दिन और बादलों का मौसम जानने के लिए; गरीबी और अमीरी जानने के लिए; प्रेम को और घृणा को जानने के लिए; जीवन की गहनतम चट्टानी तलहटी नरक को छू पाने के लिए और ऊपर उड़ान भर कर उच्चतम शिखर स्वर्ग को स्पर्श कर पाने के लिए जीवन में से होकर जाना पड़ता है। व्यक्ति को सभी आयामों में, सभी दिशाओं में गति करनी पड़ती है, कुछ भी ढंका हुआ नहीं रहना चाहिए। धर्म है अनावृत करना, यह जीवन से आवरण हटाना है।


पतंजलि योगसूत्र


ओशो

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