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Saturday, December 12, 2015

नानक के जीवन में उल्लेख है....

.....  हरिद्वार गए। वहां देखा कि लोग पित्र पूजा कर रहे हैं। लोग एक कुएं पर पानी भर कर और पितरों को चढ़ा रहे हैं। वे भी एकदम से कुएं पर पहुंचे, किसी से बालटी मांगी, भरा पानी और पास ही कुएं के डाला और कहा: पहुंच मेरे खेत में! भीड़ इकट्ठी हो गई कि यह क्या मामला है? खेत कहां? दूसरी बाल्टी, तीसरी बाल्टी…जब वे भरते ही गए तो लोगों ने कहा, भाई रुको, तुम्हारा खेत कहां है? खेत तो मेरा पंजाब में है। तो तुम होश में हो? हरिद्वार की सड़क पर पानी डाल रहे हो और पंजाब के खेत पर पहुंचेगा! उन्होंने कहा, यह मुझे पहले मालूम ही नहीं था। जब मर गए पित्रों तक पहुंच रहा है तुम्हारे पित्र कहां हैं? कोई नर्क में होगा…ज्यादातर तो नर्क में ही होंगे, कोई एकाध स्वर्ग में पहुंच गया होगा…जब वहां तक पहुंच रहा है पानी, तो पंजाब तो कोई बहुत दूर नहीं है। मैं तो तुम्हारी इस अदभुत कला को देखकर सोचा कि यह तो खूब मजे की रही! अब पंजाब जाने की जरूरत भी नहीं। नहीं तो जाना पड़ता है बार बार। अब जहां रहे वहीं से डाल देंगे।

नानक याद दिला रहे हैं उन्हें कि तुम क्या मूढ़ता कर रहे हो! सारे संत तुम्हें याद दिलाते रहे हैं कि तुम जोर कर रहे हो धर्म के नाम पर, मूढ़ता है। लेकिन लोग क्यों कर रहे हैं? लोकलाजवश। और सब लोग कर रहे हैं, न करो, अच्छा नहीं लगता। लोग पूछते हैं, क्यों, तुमने क्यों नहीं किया? लोग चाहते हैं कि तुम ठीक उनकी कार्बनकापी रहो। वे तुम्हें मौलिक व्यक्तित्व नहीं देना चाहते। तुम उनसे अलग थलग खड़े होओ, लोग बर्दाश्त नहीं करते। लोग चाहते हैं, जैसा वे करें, वैसा तुम करो। ताजिया उठाएं तो ताजिया उठाओ। छाती पीटें—याऽअलेऽऽयाऽअलेऽऽ, तो तुम भी छाती पीटो: याऽअलेऽऽयाऽअलेऽऽ…। 

जो लोग करें, वही तुम करो; तो लोग प्रसन्न होते हैं। क्योंकि तुम उनका समर्थन कर रहे हो। समर्थन से क्यों प्रसन्न होते हैं? क्योंकि उन्हें भी शक है कि वे जो कर रहे हैं, वह सच है कि नहीं? जितना समर्थन मिलता है, उतना ही उनको ढाढ़स बंधता है कि ठीक ही होगा, जब तो इतने लोग कर रहे हैं। अगर ठीक न होता तो इतने लोग कैसे करते? उनके पास सत्य का कोई अनुभव तो नहीं है। उनके पास सत्य के लिए सिर्फ एक ही आधार है अधिक लोग कर रहे हों; जब इतने लोग कर रहे हैं तो सभी मूढ़ तो नहीं हो सकते। अपने मन में वे सोचते हैं: हो सकता है मैं मूढ़ हूं, मैं नासमझ हूं, मैं अज्ञानी, मगर सारी दुनिया तो अज्ञानी नहीं है। जब इतने लोग कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे होंगे। और मजा यह है कि ऐसा ही बाकी लोग भी सोच रहे हैं।


सपना यह संसार 

ओशो 

Sunday, November 15, 2015

जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना

जब भी कोई परमात्मा को अनुभव करेगा, तो पहली घटना तो यह घटेगी कि चारों तरफ लोग इनकार करने लगेंगे कि इस आदमी ने पाया-वाया नहीं है। यह सब बातचीत है। अब कहां कलियुग में कोई पा सकता है? वे हो गयीं सतयुग की बातें। वे हजार तरह के छिद्रान्वेषण करेंगे। वे हजार तरह के उपाय निकालेंगे कि सिद्ध कर दें कि इसने कुछ पाया नहीं।

अगर वे असफल हुए–जो कि वे असफल होंगे–अगर पाया है, तो कोई सिद्ध करने का उपाय नहीं। न आचरण से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न व्यवहार से तुम सिद्ध कर सकते हो कि नहीं पाया। न कपड़े-लत्तों से, न खाने-पीने से, फिर कोई चीज से तुम सिद्ध नहीं कर सकते कि नहीं पाया। जिसने पा लिया है, उसकी रोशनी सब तरफ से दिखाई पड़ेगी।

तब क्या करोगे? तब दूसरा उपाय है कि तुम्हारे बीच जो सचमुच सर्वाधिक अहंकार और स्पर्धा से भरे लोग हैं, वे घोषणा करेंगे कि हमने भी पा लिया है। अहंकार पहले तो इनकार करेगा, कि तुम कैसे पा सकते हो मुझ से पहले, जब मैं मौजूद हूं? जब देखेगा कि कोई उपाय असिद्ध करने का नहीं है, तो अहंकार दूसरी घोषणा करेगा कि मैंने भी पा लिया है।

तो नानक कहते हैं कि क्षुद्र लोग भी–सब से बड़ी क्षुद्रता अहंकार है, और कोई क्षुद्रता नहीं है–कीड़ों की तरह क्षुद्र लोग भी स्पर्धा से भर जाते हैं। और तब वे झूठी डींगें हांकने लगते हैं।

तो दुनिया में अगर एक सदगुरु होता है, तो कम से कम निन्यान्नबे असदगुरु होते हैं। इसी अनुपात में घटना घटती है। और मजा यह है कि असदगुरु तुम्हें ज्यादा आसानी से आकर्षित कर सकता है, बजाय सदगुरु के। क्योंकि असदगुरु तुम्हारी ही भाषा बोलता है। और असदगुरु तुम्हें भलीभांति पहचानता है। और वही सब करता है जो तुम चाहते हो, जो तुम्हारी भीतरी मनोकांक्षा है। अगर तुम चाहते हो कि हाथ से राख प्रकट हो, तो राख प्रकट करवा देता है। अगर तुम चाहते हो कि ताबीज हाथ में आ जाए आकाश से, तो ताबीज ला देता है।

यही धंधा तुम मदारी का सड़क पर देखते हो, लेकिन जरा भी प्रभावित नहीं होते हो। यही धंधा जब कोई साधु-संत करता है, तब तुम दीवाने हो जाते हो। कि बस, मिल गया सदगुरु! तुम जो चाहते हो; तुम चाहते हो कि बीमारी मिट जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो बेटा पैदा हो जाए, तो आशीर्वाद देता है। तुम चाहते हो मुकदमा जीत जाएं, तो आशीर्वाद देता है। तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करता है। इसलिए तुम असदगुरु के पास लाखों की संख्या में इकट्ठे हो जाओगे। क्योंकि वह तुम्हारी ही जिंदगी का हिस्सा है।

सदगुरु को पहचानना तुम्हें मुश्किल है। क्योंकि उसकी पहचान का तो मतलब ही है, जीवन में रूपांतरण! तुम बदलो। असदगुरु तुम्हें कुछ देगा। सदगुरु तो तुमसे सब छीन लेगा। असदगुरु तो तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करने की कोशिश करेगा।

और मजा यह है जिंदगी का–और गणित बड़ा महत्वपूर्ण है–अगर तुम भी बैठ जाओ धूनी रमा कर, और जो भी आएं सब को आशीर्वाद देते जाओ, तो कम से कम पचास प्रतिशत आशीर्वाद तो सही होंगे ही। यह तो सीधा गणित है। इसमें कुछ करने जाने की जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ आशीर्वाद देते जाओ। जो भी मुकदमे वाला आए, कहो कि जीतोगे। पचास प्रतिशत तो जीतेंगे ही। वे तुम्हारे बिना आशीर्वाद के भी जीतते। लेकिन अब तुम्हारी तरफ ध्यान रखेंगे कि तुम्हारे आशीर्वाद के कारण जीते हैं। जो पचास हार जाएंगे, वे किसी दूसरे बाबा को, किसी दूसरे गुरु को खोजेंगे। क्योंकि यह उनके काम का नहीं है। लेकिन जो पचास जीत जाएंगे, वे तुम्हारे पास आते रहेंगे। और इन पचास की जो भीड़ तुम्हारे पास इकट्ठी होगी, जब नया कोई ग्राहक आएगा, तो यह सारी भीड़ उसको प्रभावित करेगी। कि इतने लोगों की घटनाएं घट चुकी हैं–कोई मुकदमा जीत गया, किसी की खोयी पत्नी मिल गयी, किसी का प्रेम सफल हुआ, किसी की बीमारी चली गयी, किसी का बच्चा बच गया, किसी का कुछ हुआ। इनकी भीड़ तुम पाओगे। क्योंकि जो हार गए हैं, वे तो कहीं और जा चुके हैं। वे तो वहां रुकेंगे जहां जीतेंगे। वे भी किसी के पास कभी न कभी रुक जाएंगे। संयोग कहीं न कहीं घटेगा। कहीं न कहीं उनकी भी वासना पूरी होगी, वहां रुकेंगे।

तुम वासना से गुरु को पहचानते हो। तब तुम भटकोगे। क्योंकि गुरु का वासना से क्या लेना-देना है? गुरु तुम्हारी वासनाएं पूरी करने को नहीं है, तुम्हें जगाने को है। और जगाने का मतलब है, तुम्हारी वासनाएं जितनी टूट जाएं उतना बेहतर। उसकी उत्सुकता तुम्हारी बीमारी, तुम्हारी अदालत, तुम्हारी पत्नी और बच्चों में नहीं है। उसकी उत्सुकता तुम में और तुम्हारे परमात्मा में है। और वह रास्ता वासना का नहीं है, वह रास्ता तो निर्वासना का है। वह तुम्हें इसलिए आकर्षित कर भी नहीं पाएगा।

इसलिए अक्सर तुम भीड़ पाओगे। जहां भीड़ पाओ, वहां जरा सावधान हो जाना। क्योंकि भीड़ अक्सर गलत जगह होती है। सही जगह तो तुम बहुत थोड़े लोगों को पाओगे। क्योंकि थोड़े लोगों को भी होना वहां मुश्किल है। वहां तुम चुने हुओं को पाओगे कि जिनकी आकांक्षा परमात्मा की है। वहां तुम भीड़ न पाओगे। क्योंकि भीड़ तो वासनाग्रस्त लोगों की है।

नानक कहते हैं, फिर झूठे लोग झूठी डींगें हांकने लगते हैं।

और मजा यह है कि उनकी डींगें भी सिद्ध होती मालूम पड़ती हैं। क्योंकि जीवन का ढंग ऐसा है। पचास प्रतिशत तो सभी सही हो जाएंगे। और जो गलत सिद्ध होते हैं, वे कहीं और चले जाते हैं। उन्हें तुम पाओगे न। जो साईं बाबा के पास गलत हुआ, वह किसी और साईं बाबा के पास होगा। जो सही हुआ, वह वहां रुकेगा। वही तुम को मिलेगा। वह खबर देगा कि मेरा यह हो गया है। मुझे यह लाभ हुआ, मुझे यह लाभ हुआ। उनकी भीड़ बढ़ती जाएगी। एक भीतरी गणित से चीजें फैलने लगती हैं। और जब तुम देखोगे हजारों लोगों को लाभ हुआ है…और तुम भी वासना के ही प्रेरित वहां तक आए हो। तुम भी श्रद्धा करते हो। और बहुत बार तुम्हारी श्रद्धा के कारण भी परिणाम होते हैं। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ बीमारियों में से सत्तर बीमारियां मानसिक हैं। अगर तुम्हें पूरा भरोसा आ जाए कि ठीक हो जाएंगे, तो ठीक हो जाती हैं।

बहुत से अस्पतालों में प्रयोग किए गए हैं। वैज्ञानिक उस प्रयोग को प्लस्बो कहते हैं, झूठी दवा। तो अगर एक ही बीमारी के दस मरीज हों, तो पांच को असली दवा देते हैं, पांच को सिर्फ पानी देते हैं। और मजा यह है कि तीन दवा वालों में से भी ठीक हो जाते हैं, तीन पानी पीने वालों में से भी ठीक हो जाते हैं। करो क्या? इसलिए तो इतनी पैथी चलती हैं दुनिया में। एलोपैथी है, आयुर्वेदिक है, हकीमी है, नैचरोपैथी है। हजार चीजें चलती हैं। और सभी से लोगों को लाभ होता है; नहीं तो चलेंगी कैसे?

ऐसा लगता है, दवा से आदमी कम ठीक होते हैं, श्रद्धा से ज्यादा ठीक होते हैं। वही दवा छोटा डाक्टर तुम्हें दे, जिस पर तुम्हें भरोसा नहीं, अभी-अभी मेडिकल कालेज से आया है, काम न करेगी। अगर तुम्हारा ही बेटा हो मेडिकल कालेज से लौटा, तो बिलकुल काम न करेगी। क्योंकि बाप बेटे पर कभी भरोसा कर सकता है? वही दवा बड़ा डाक्टर दे, और बड़ा डाक्टर यानी बड़ी फीस ले। जितनी ज्यादा फीस ले, उतना भरोसा आता है, क्योंकि उतना बड़ा डाक्टर है। ठीक होना ही पड़ेगा अब। अब इसके आगे जाने का कोई उपाय नहीं। आधा इलाज तो डाक्टर पर भरोसे से होता है। जिस डाक्टर पर तुम्हें भरोसा है, उस डाक्टर का इलाज काम करता है। जिस पर भरोसा नहीं, काम नहीं करता।

इसलिए डाक्टर अपने आफिस में अपने सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। बीमारों के लिए वह भी दवा है। जितने ज्यादा सर्टिफिकेट–लंदन से कोई सर्टिफिकेट है तो बात ही और! सर्टिफिकेट लटका कर रखता है। उनको देख कर मरीज की काफी बीमारी तो ठीक हो जाती है।
 
तुमने कभी खयाल किया है कि जब डाक्टर तुम्हें परीक्षण करता है, तभी तुम्हारी आधी बीमारी ठीक हो जाती है। परीक्षण करते-करते। अभी उसने कोई दवा नहीं दी। नाड़ी देखी, स्टेथोस्कोप लगाया, ब्लडप्रेशर लिया, अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे कि काफी तो तुम ठीक ही हो गए। दर्द कम है, बुखार उतर रहा है।

भीड़ भरोसा दिलाती है। भरोसे से परिणाम होते हैं। और बीच में जो झूठा आदमी बैठा है, वह मुफ्त लाभ ले रहा है। तुम अपने ही मन के खेल में पड़े हो।

एक ओंकार सतनाम 

ओशो 

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस....

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस।
लखु लखु गेड़ा अखिअहि एक नामु जगदीस।।

यदि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से भी बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा।

तब तुम थकोगे, उसके पहले न थकोगे। तुमने अभी जपा ही क्या है? तुमने अभी ध्यान ही कितना किया है? तुमने अभी पुकारा ही क्या है? तुम चिल्लाए ही कहां? तुमने पूरी ताकत ही नहीं लगायी है। अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो तो तुम जितनी तेजी से बाहर भागते हो, इतनी तेजी से भी तुम परमात्मा की तरफ नहीं भागे हो। कि तुम्हारी पत्नी मर जाए तो जैसे जार-जार हो कर तुम रोते हो, ऐसा तुम उसके वियोग के लिए अभी तक नहीं रोए। कि तुम्हारा बच्चा भटक जाए तो तुम जैसे पागल हो कर बेतहाशा खोजने निकल पड़ते हो, ऐसी तुमने अभी तक उसकी खोज नहीं की। तुम्हारी खोज कुनकुनी है। अभी तुम उबले नहीं।

नानक उस उबलने की बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, और लाख से बीस लाख हो जाएं, तो मैं प्रत्येक जीभ से लाख-लाख बार एक जगदीश का नाम जपूंगा।

रोआं-रोआं उसी के नाम से भर जाए। और रोआं-रोआं उसी की प्यास अनुभव करे। और रोएं-रोएं में एक ही पुकार गूंजने लगे कि तुझे पाना है। और जीवन में सब व्यर्थ हो जाए। बस, एक परमात्मा की सार्थकता बचे। और सब गौण हो जाए। और सब छोड़ने को तुम तैयार हो जाओ। एक उसको पाना ही लक्ष्य बचे, तब तुम एकाग्र होओगे।

स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं कि एक जीभ से लाख जीभ हो जाएं, लाख जीभ से बीस लाख हो जाएं। और फिर एक-एक जीभ लाखों बार उसका ही नाम जपे। स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं, जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है। अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

इक्कीस शब्द आता है सांख्यों की गणना से। क्योंकि सांख्य कहते हैं, दो तरह से इक्कीस हो सकते हैं। सांख्यों की गणना बड़ी कीमती है। सांख्य शब्द का अर्थ भी होता है, गणना, संख्या। उसी से सांख्य बना है। क्योंकि उन्होंने पहली गणना की है मनुष्य के अस्तित्व की, इसलिए उस दर्शन का नाम ही सांख्य हो गया।

सांख्य कहते हैं कि पांच महाभूत उस एक से पैदा होते हैं। ये जो पृथ्वी, जल, आकाश…ये पांच महाभूत उससे पैदा होते हैं। लेकिन ये महाभूत तो स्थूल हैं। इन महाभूतों को बनाने वाली पांच तन्मात्राएं हैं, जो सूक्ष्म हैं। जो आंख से दिखाई नहीं पड़तीं। वैज्ञानिक भी राजी हैं कि तुम्हें जो दीवाल दिखाई पड़ती है, यह तो तुम्हें दिखाई पड़ती है। यह तो स्थूल रूप है। जैसी दीवाल है–तन्मात्रा–वह तो तुमने कभी देखी नहीं। वह तो वैज्ञानिक को थोड़ी सी उसकी झलक मिलती है। क्योंकि यह दीवाल तुम्हें तो थिर मालूम होती है, यह थिर नहीं है। यहां बड़ी गति है, और बड़ा जीवन है। एक-एक कण प्रकाश की गति से घूम रहा है। लेकिन गति इतनी ज्यादा है कि तुम उसे पकड़ नहीं पाते। वह इतनी सूक्ष्म है और इतनी तीव्र है…।

प्रकाश की किरण चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रकाश की गति है। प्रकाश की गति से दीवाल के अतिसूक्ष्म कण– इलेक्ट्रान–घूम रहे हैं। उनकी गति इतनी तीव्र है कि तुम देख नहीं पाते। इसलिए दीवाल थिर मालूम पड़ती है। लेकिन दीवाल महान सक्रियता से गुजर रही है। हर चीज, पत्थर भी सक्रिय है और जीवंत है। और बड़ा कारोबार चल रहा है। इसलिए तो यह दीवाल एक दिन गिर जाएगी और खंडहर होगी। क्योंकि अगर यह बिलकुल थिर होती तो खंडहर कैसे होती? अगर कोई चीज बिलकुल थिर हो, तो नष्ट ही नहीं हो सकती। क्योंकि क्रिया न चल रही हो, तो भीतर संघर्षण नहीं होगा। संघर्षण नहीं होगा तो विनाश कैसे होगा?

इसलिए वैज्ञानिक सोचते हैं कि अगर किसी आदमी को बचाना हो लंबी उम्र तक, तो उसको शून्य डिग्री से नीचे ठंडा कर के बर्फ में रख देना चाहिए। तो फिर उसको अनंतकाल तक बचाया जा सकता है। क्योंकि गति कम हो जाती है। इसलिए तो हम फल को फ्रिज में रखते हैं। वह ठंडा रहता है, तो देर तक सड़ता नहीं। क्योंकि जितनी ठंडक होती है, उतनी गति क्षीण हो जाती है। इसलिए तो ठंडे मुल्कों के लोग ज्यादा उम्र पाते हैं, गर्म मुल्कों के लोगों की बजाय। क्योंकि जितनी गर्मी होती है, उतनी गति होती है। जितनी गति होती है, उतनी जल्दी क्षीणता हो जाती है। इसलिए तो तुम गर्मी में बेचैनी अनुभव करते हो। ठंड में अच्छा लगता है। सर्दी के दिनों में स्वस्थ मालूम पड़ते हो, गर्मी के दिनों में थोड़ा अस्वास्थ्य पकड़ने लगता है।

यह दीवाल परम-गति में लीन है। इसलिए गिरेगी। क्योंकि इसके भीतर संघर्षण हो रहा है। और संघर्षण होते-होते शक्ति क्षीण होगी। यह बिखर जाएगी, खंडहर हो जाएगा।

सांख्य कहते हैं कि पांच तन्मात्राएं हैं। वे सूक्ष्म रूप हैं। और उन पांच तन्मात्राओं के पांच महाभूत हैं, जो उनका स्थूल रूप हैं–दस। फिर पांच ज्ञानेंद्रियां हैं जो सूक्ष्म रूप हैं, और पांच कर्मेंद्रियां हैं जो स्थूल रूप हैं। आंख तुम्हारी कर्मेंद्रिय है, और देखने की क्षमता तुम्हारी सूक्ष्मेंद्रिय है। देखने की क्षमता न हो, तो आंख खो जाएगी, आंख रहे तो भी! कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम आंख होते हुए अंधे हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारा ध्यान कहीं और चला गया। और जब ध्यान कहीं और चला गया तो देखने की क्षमता कहीं और चली गयी। कान है, वह स्थूल इंद्रिय है–कर्मेंद्रिय, सुनने की क्षमता सूक्ष्म इंद्रिय है।

इसलिए तो नानक बार-बार कहते हैं, कि सुनिए। तो वे तुम्हारे इस कान के लिए नहीं कह रहे हैं। क्योंकि यह कान तो सुन ही रहा है। यह कान तो बंद ही नहीं होता। आंख तो कम से कम झपकती है, कान तो झपकता भी नहीं। तो क्या बार-बार कहना, सुनिए! वे भीतर की सूक्ष्म इंद्रिय को इशारा कर रहे हैं। जब वे कहते हैं सुनिए, तो वे यह कह रहे हैं कि कान के पास आ जाओ, इधर-उधर मत भटकना। नहीं तो कान तो सुन लेगा, तुम सुनने से वंचित रह जाओगे।

तो पांच सूक्ष्म इंद्रियां हैं, जिनका नाम ज्ञानेंद्रियां। और पांच स्थूल इंद्रियां हैं, जिनका नाम कर्मेंद्रियां। ऐसे बीस।
नानक कहते हैं कि जो अपना सब कुछ दांव पर लगा देगा, वह इक्कीस हो जाता है। वह इक्कीसवां परमात्मा है। और अगर तुमने दांव पर न लगाया और उसे न खोजा, तो भी तुम इक्कीस हो जाते हो, वह तुम्हारा अहंकार है।

इसलिए इक्कीस होने के दो ढंग हैं। बीस तो स्थिति है; इक्कीस होने के दो ढंग हैं। या तो तुम परमात्मा को पा लो अर्थात असली आत्मा को पा लो, अपने स्वरूप को पा लो, तो इक्कीस हो जाओगे। और या फिर एक झूठे स्वरूप की कल्पना कर लो कि मैं यह हूं। धनी हूं, ज्ञानी हूं, शक्तिशाली हूं, त्यागी हूं, राजा हूं, कुछ अकड़ बना लो। तो भी इक्कीस हो जाओगे। लेकिन यह इक्कीसवां झूठ है।

तो या तो बीस में एक झूठ जोड़ दो; बीस+झूठ। या बीस में सत्य जोड़ दो; बीस+सत्य। तुम इक्कीस हो जाओगे। हम सब भी इक्कीस हैं और नानक भी इक्कीस हैं। इससे ज्यादा तो कोई हो नहीं सकता। मगर हम झूठ को जोड़े हुए हैं। हमने बिना खोजे जोड़ लिया है। यह बड़े मजे की बात है।

तुमने कभी अपने को खोजा नहीं और तुम्हें खयाल है कि तुम अपने को जानते हो। इससे बड़ा झूठ जगत में दूसरा नहीं है। तुमने न कभी अपने को खोजा और न झलक पायी अपनी कभी। फिर भी तुम कहते हो, मैं हूं। और तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि तुम कौन हो? तुम्हें उतना ही पता है कि जितना दर्पण बताता है। दर्पण क्या खाक बताएगा? दर्पण में तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो, तुम्हारी चमड़ी का बाहरी हिस्सा दिखाई पड़ता है। दर्पण में तो तुम्हारे वस्त्र दिखाई पड़ते हैं, देह दिखाई पड़ती है, तुम थोड़े ही दिखाई पड़ते हो। तुम्हारी आत्मा दर्पण में थोड़े ही झलकती है। तुम्हारा स्वरूप थोड़े ही दर्र्पण में झलकता है। दर्पण जितना बताता है, उसको तुम समझते हो, मैं हूं।

और इस मैं को तुम इक्कीस माने हुए हो। यही दुख है। यही नर्क है। अगर तुमने इक्कीसवां झूठ जोड़ लिया, तो तुम दुख में पड़ोगे ही। बीस तो वही रहेंगे, यह इक्कीसवां झूठ रहेगा, इसलिए तुम नर्क में पड़ जाओगे। बीस तो जो हैं, तब भी वही रहेंगे। अगर यह इक्कीसवां सच हो जाए, तो सच होते ही तुम परम मुक्ति को अनुभव करोगे। क्योंकि उन बीस के कारण उपद्रव नहीं है। वह तो जीवन की व्यवस्था है। यह इक्कीसवां उपद्रव है। अगर झूठ है तो पीड़ा लाएगा।

इसलिए अहंकार जितना दुख देता है, और कोई चीज दुख नहीं देती। अहंकार के अतिरिक्त दुख का कोई सूत्र ही नहीं है। जितना दुख चाहिए हो उतना अहंकार बढ़ाओ। जितना अहंकार बढ़ाओगे, नर्क तुम्हारी मुट्ठी में होगा। जब चाहो, पैदा कर लो।

जितना आनंद चाहिए हो, उतना अहंकार घटाओ। जिस दिन अहंकार बिलकुल न होगा, स्वर्ग तुम्हारी मुट्ठी में होगा। तुम्हारी छाया बन जाएगा। तुम जहां जाओगे, वहां स्वर्ग होगा। फिर तुम्हें नर्क नहीं भेजा जा सकता। अगर तुम्हें नर्क में भी पटक दिया जाए तो तुम पाओगे कि वहां भी स्वर्ग है। क्योंकि जिसके पास अहंकार नहीं, उसे सब जगह स्वर्ग है। और जिसके पास अहंकार है, उसे कोई जबर्दस्ती स्वर्ग में भी डाल दे, तो वहां भी दुख ही पाएगा। क्योंकि दुख का संबंध या सुख का संबंध स्थितियों से नहीं है। वह भीतर का इक्कीस सच है या झूठ…!
नानक कहते हैं कि जिसने सब दांव पर लगा दिया–स्वामी के नाम की यही सीढ़ियां हैं–दांव पर लगाना। लगाते जाना। ऐसी घड़ी आ जाए कि कुछ बचे ही न दांव पर लगाने को, सब लगा दिया…।

जिन पर चल कर साधक इक्कीस हो जाता है, अर्थात भगवतस्वरूप को प्राप्त करता है। आकाश की, उच्च पद की चर्चा सुन कर, कीट के समान क्षुद्र लोगों को भी स्पर्धा हो जाती है।

एक ओंकार सतनाम 

 
ओशो 

 

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