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Thursday, March 31, 2016

जागो!

बंबई में एक नई नई होटल खुली थी, जिसके बाहर ही एक बड़ा साइनबोर्ड लगा था कि चिंता न करें, इस होटल में आपका बिल आपके नाती चुकाएंगे। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने मित्रों के साथ उस होटल के सामने से गुजर रहा था, उसकी नजर साइनबोर्ड पर गई, उसने कहा, अरे, यह होटल कब खुल गई? क्या पते की बात लिखी है: आपका बिल आपके नाती चुकाएंगे! चलो, हो जाए कुछ! इस तख्ती को देखकर तो भूख भी जग गई है। सभी पहुंच गए होटल के भीतर और भरपेट भोजन किया और जो कुछ भी वे खा पी सकते थे उन्होंने खाया पिया, जब हाथ मुंह धोकर चलने लगे तो बैरे ने एक सौ बीस रुपए का बिल लाकर सामने रख दिया। बिल देख कर मुल्ला तो बहुत नाराज हुआ। उसने कहा, यह क्या अंधेर है! बाहर इतना बड़ा बोर्ड लगा रखा है कि आपका बिल आपके नाती चुकाएंगे, फिर यह बिल देते हुए शर्म नहीं आती? बैरा बोला, हुजूर, यह आपका नहीं, आपके दादाजी का बिल है।


तुम कितने दिन से यहां हो! कितनी बार तुम जिए हो! कितने बार तुम मरे हो! जन्म और मरण की इस अनंत शृंखला में अब तक कुछ उपलब्धि नहीं हुई? और पंडित पुरोहित कह रहे हैं कि और थोड़े जनम! अब क्या जोड़ लोगे और जो तुमने अब तक नहीं किया है? नहीं, यह भाषा गलत है। भविष्य की भाषा गलत है। धर्म की भाषा है: वर्तमान।


मैं तुमसे कहता हूं, अभी और यहीं, इसी क्षण परमात्मा उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि परमात्मा उपलब्ध ही है। तुमने उसे कभी खोया ही नहीं था। सिर्फ तुम पीठ करके खड़े हो गए हो। जैसे कोई सूरज की तरफ पीठ करके खड़ा हो जाए। तो कोई सूरज खो थोड़े ही जाता है! जरासा घूमना है और सूरज सामने हैं। या यह भी हो सकता है कि सूरज सामने हो और तुम आंख बंद किए खड़े हो। जरा सी आंख खोलनी है और सूरज सामने है। ऐसा ही परमात्मा है। ऐसा ही जीवन का परम अर्थ है। ऐसा ही निर्वाण है। निर्वाण तुम्हारा स्वभाव है। परमात्मा तुम्हारा अस्तित्व है।

इसलिए जो तुमसे कहे कि बहुत जन्म लगेंगे, समझ लेना चालबाजी है। मैं तुमसे कहता हूं, जन्म की तो बात छोड़ो, दिनों की भी बात व्यर्थ है, क्षणों की भी बात व्यर्थ है। प्रश्न समय का ही नहीं है। प्रश्न तो अभी जागने का है। जब जागे तब सवेरा। क्योंकि सवेरा तो है ही, बस तुम सोए हुए हो।


गुरुदास, जागो!

सपना यह संसार 

ओशो 

राम राम

मैंने तो सुना है, एक जौहरी ने अपनी दुकान पर यह हिसाब बना लिया था बड़ी दुकान थी-जैसे ही ग्राहक आता…दुकानदार की बड़ी प्रसिद्धि थी उस जौहरी की कि बड़ा भक्त है! भगत जी ही लोग उनको कहते थे। और भगत जी वे थे। मगर वैसे ही भगत जी जैसे बगुला भगत होते हैं। बगुला देखा है कैसा खड़ा होगा है? शुद्ध खादी के वस्त्र पहने हुए बगुला खड़ा होता है। और एक टांग पर खड़ा होता है: बगुलासन! बड़े बड़े योगी मुश्किल से साध पाते हैं। एक टांग पर खड़ा रहता है, बिलकुल थिर-हिलता ही नहीं, डुलता ही नहीं। हिले डुले तो मछली फंसे कैसे! हिले डुले तो पानी हिल डुल जाए, पानी हिल डुल जाए तो बगुले का बनता हुआ प्रतिबिंब हिल डुल जाए, मछली संदिग्ध हो जाए कि मामला कुछ गड़बड़ है, भगत जी खड़े हैं! तो भगत जी ऐसे खड़े रहते हैं कि पानी हिलता ही नहीं। जब कुछ भी नहीं हिलता और गतिमान नहीं होता तो मछली निश्चिंत गुजरती रहती है। उसी में मछली फंसती है तो वे भगत जी बड़े जाहिर भगत जी थे।

 मछलियों को कुछ पता नहीं था। मछली यानी ग्राहक। वे ग्राहक को देख कर ही जपने लगते थे एकदम। कभी कहते, राम राम, राम राम का अर्थ था: बेकाम; किसी मतलब का नहीं है, इसको जाने दो। वे अपने नौकर चाकरों को कह रहे थे, बेकार मेहनत मत करो, मैं इसको भलीभांति जानता हूं। राम राम करो! समय खराब मत करो। इससे कुछ निकलेगा नहीं। इस पर कुछ है भी नहीं। तो जब भगत जी राम राम कहते, दुकान पर जो उनके नौकर चाकर थे, टाल टूल करके खिसका देते ग्राहक को।


किसी ग्राहक को देख कर भगत जी कहते: हरे हरे! हरे हरे! मतलब: लूटो! लूटो! हरि का मतलब होता है: लूटो। लुटेरा। हरण करो, छोड़ो मत। काटो इसको! ये उनके कोड शब्द थे।


राम राम यानी बेकाम। जाने भी दो! छुटकारा पाओ, राम राम करो। और हरि हरि, जाने मत देना! अब आ ही गया है तो छूट न जाए, फांसो। ऐसे उन्होंने मंत्रों के भी अर्थ तय कर रखे थे। जब वे एकदम मंत्रजाप करने लगते, उनके नौकर चाकर सब समझ जाते क्या करना है। कितना दाम बताना है, कितना नहीं बताना है। दुगुना बताना है कि तीन गुना बताना है। कम करना है कि नहीं करना है। इस सब के धार्मिक मंत्र तय कर रखे थे। कभी गायत्री जपने लगते…मगर ये सब प्रतीक थे।


तुम राम राम जप सकते हो यंत्र की भांति तुम्हारी जीभ दोहराए जाए, तुम्हारा कंठ दोहराए जाए, इससे कुछ भी न होगा, होश चाहिए। अगर राम राम भी जपने में तुम्हें रस हो, तो खयाल रखना, राम राम जपना और भीतर साक्षीभाव रखना कि मैं राम राम जप रहा हूं। राम कहा, राम कहा, भीतर देखते जाना। जैसे बुद्ध ने कहा: श्वास देखना, ऐसे तुम राम राम देखना। मगर उलटा राम राम में कहां उलझना? यह तो ज्यादा आसान श्वास है। क्योंकि अपने आप चल रही है। राम राम तो चलाना पड़ेगा। और राम राम चलाने में थोड़ा खतरा भी है। जैसे कार ड्राइव कर रहे हो और राम राम जपने लगे और मन राम राम पर लगाया, तो एक्सीडेंट हो सकता है। सायकिल पर चले जा रहे हो और राम राम कर रहे हो, तो एक्सीडेंट हो सकता है। तुम राम राम जप रहे हो और ट्रक वाला हार्न बजा रहा है, तुम्हें सुनाई ही न पड़े।

सपना यह संसार 

ओशो 


बुराई को स्थगित करना, भलाई को तत्काल कर लेना

...  क्योंकि पल का भरोसा नहीं है। भलाई एक क्षण भी चूक गई, फिर जरूरी नहीं कि होने का मौका मिलेगा। और पलभर भी बुराई के लिए रुक गए तो मैं कहता हूं कि फिर कभी न कर पाएंगे। क्योंकि उतना रुकने में जो समर्थ है, वह बुराई करने में असमर्थ हो जाता है। ध्यान रखें, एक पल बुराई को रोकने में जो समर्थ है, वह बुराई करने में असमर्थ हो जाता है। वह बड़ा सामर्थ्य है  एक क्षण रुक जाने का सामर्थ्य। जब आंख में खून उतरने लगे और हाथ की मुट्ठियां भिंचने लगें, तब एक क्षण क्रोध में रुक जाने का सामर्थ्य इस जगत में बड़े से बड़ा सामर्थ्य है।

ईशावास्य उपनिषद

ओशो 

प्रवंचना की बूंदें

बुद्ध एक छोटी सी और बड़ी मीठी कहानी कहा करते थे, वह मैं आपसे कहूं। सुनी भी होगी। लेकिन शायद इस अर्थ में सोची नहीं होगी। बुद्ध कहते थे, भाग रहा है एक आदमी जंगल में। दो कारणों से आदमी भागता है। या तो आगे कोई चीज खींचती हो, या पीछे कोई चीज धकाती हो। या तो आगे से कोई पुल  खींचता हो, या पीछे से कोई पुश  धक्का देता हो। वह आदमी दोनों ही कारणों से भाग रहा था। गया था जंगल में हीरों की खोज में। कहा था किसी ने कि हीरों की खदान है। इसलिए दौड़ रहा था। लेकिन अभी अभी उसकी दौड़ बहुत तेज हो गई थी, क्योंकि पीछे एक सिंह उसके लग गया था। हीरे तो भूल गए थे, अब तो किसी तरह इस सिंह से बचाव करना था। भाग रहा था बेतहाशा, और उस जगह पहुंच गया, जहां आगे रास्ता समाप्त हो गया था। गड्ढ था भयंकर, रास्ता समाप्त था। लौटने का उपाय न था।


लौटने को उपाय कहीं भी नहीं है  किसी जंगल में और किसी रास्ते पर। और चाहे हीरों के लिए भागते हों और चाहे कोई मौत पीछे पड़ी हो, इसलिए भागते हों, लौटने का कोई उपाय कहीं भी नहीं है। असल में लौटने के लिए रास्ता बचता ही नहीं। समय में सब पीछे के रास्ते नीचे गिर जाते हैं। पीछे नहीं लौट सकते, एक इंच पीछे नहीं लौट सकते। वह भी नहीं लौट सकता था, क्योंकि पीछे सिंह लगा था। और सामने रास्ता समाप्त हो गया था। बड़ी घबराहट में, कोई उपाय न देखकर, जैसा निरुपाय आदमी करे, वही उसने किया। गड्ढ में लटक गया एक वृक्ष की जड़ों को पकड़कर। सोचा कि तब तक सिंह निकल जाए, तो निकलकर वापस आ जाए। लेकिन सिंह ऊपर आ गया और प्रतीक्षा करने लगा। सिंह की भी अपनी वासना है। कभी तो ऊपर आओगे।


जब देखा कि सिंह ऊपर खड़ा है और प्रतीक्षा करता है, तब उस आदमी ने नीचे झांका। नीचे देखा कि एक पागल हाथी चिंघाड़ रहा है। तब उसने कहा कि अब कोई उपाय नहीं है। उस आदमी की स्थिति हम समझ सकते हैं, कैसे संताप में पड़ गया होगा! लेकिन इतना ही नहीं, संताप जिंदगी में अनंत हैं। कितने ही आ जाएं तो भी कम हैं। जिंदगी और भी दे सकती है। तभी उसने देखा कि जिस शाखा को वह पकड़े है, वह कुछ नीचे झुकती जाती है। ऊपर आंखें उठाईं तो दो चूहे उसकी जड़ों को काट रहे हैं। बुद्ध कहते थे, एक सफेद चूहा था, एक काला चूहा था। जैसे दिन और रात आदमी की जड़ों को काटते चले जाते हैं। तो हम समझ सकते हैं कि उसके प्राण कैसे संकट में पड़ गए होंगे।


लेकिन नहीं, आदमी की वासना अदभुत है। और आदमी के मन की प्रवंचना का खेल अदभुत है। तभी उसने देखा कि ऊपर मधुमक्खी का एक छत्ता है और मधु की एक एक बूंद टपकती है। फैलाई उसने जीभ अपनी, मधु की एक बूंद जीभ पर टपकी। आंख बंद की और कहा, धन्यभाग, बहुत मधुर है। उस क्षण में न ऊपर सिंह रहा, न नीचे चिंघाड़ता हाथी रहा, न जड़ों को काटते हुए चूहे रहे। न कोई मौत रही, न कोई भय रहा। एक क्षण को वह मधुर…। कहा उसने, बहुत मधुर है, मधु बहुत मधुर है!


बुद्ध कहते थे, हर आदमी इसी हालत में है, लेकिन मन मधु की एक एक बूंद टपकाए चले जाता है। आंख बंद करके आदमी कहता है, बहुत मधुर है। स्थिति यही है, सिचुएशन यही है। पूरे वक्त यही है। नीचे भी मौत है, ऊपर भी मौत है। जहां जिंदगी है, वहां सब तरफ मौत है। जिंदगी सब तरफ मौत से घिरी है। और प्रतिपल जीवन की जड़ें कटती जा रही हैं अपने आप। जीवन रिक्त हो रहा है, चुक रहा है।  एक एक दिन, एक एक पल। और जीवन की.. जैसे कि रेत की घड़ी होती है और एक एक क्षण रेत नीचे गिरती चुकती जाती है। ऐसे ही जीवन से समय चुकता जाता है और जीवन खाली होता चला जाता है। लेकिन फिर भी एक बूंद गिर जाए मधु की, स्वप्न निर्मित हो जाते हैं, आंख बंद हो जाती है। मन कहता है, कैसा मधुर है! और जब तक एक बूंद चुके, समाप्त हो, तब तक दूसरी बूंद टपक जाती है। मन प्रवंचना की बूंदें टपकाए चला जाता है।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो 


ओम क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर

अगर एक व्यक्ति कुत्ते को बहुत प्रेम किए चला जा रहा है तो यह बिलकुल आकस्मिक नहीं है। उसके भीतर के आलयविज्ञान में स्मृतियां हैं, जो उसे कुत्ते के साथ बड़ी सजातीयता बड़ा अपनापन, बड़ी निकटता का बोध करवाती हैं। हमारे जीवन में जो भी घटता है, वह आकस्मिक नहीं है, एक्सीडेंटल नहीं है। उसकी गहरी कार्य कारण की प्रक्रिया पीछे काम करती होती है।


मृत्यु में शरीर गिरता है, लेकिन मन यात्रा करता चला जाता है। और मन संगृहीत होता चला जाता है। इसलिए आपके मन में कई बार ऐसे रूप आपको दिखाई पड़ेंगे, जिनको आप कहेंगे, ये मेरे नहीं हैं। आपको भी कई बार लगेगा कि कुछ काम आप ऐसे कर लेते हैं जिनको आपको कहना पड़ता है, इनस्पाइट आफ मी, मेरे बावजूद हो गया।


एक आदमी का किसी से झगड़ा होता है और वह दांत से उसकी चमड़ी काट लेता है। पीछे वह सोचता है कि मैं और दांत से चमड़ी काट सका! मैं कोई जंगली जानवर हूं? आज वह नहीं है, कभी वह था। और किसी क्षण में उसके भीतर की स्मृति इतनी सक्रिय हो सकती है कि वह बिलकुल पशु जैसा व्यवहार करे। हममें से सभी लोग अनेक मौकों पर पशुओं जैसा व्यवहार करते हैं। वह व्यवहार आसमान से नहीं उतरता, हमारे भीतर के ही चित्त के संग्रह से आता है।


हमारी मृत्यु सिर्फ हमारे शरीर की मृत्यु है, संकल्पात्मक मन मरता नहीं। इसलिए ऋषि को मजाक का मौका न होता, अगर मृत्यु हो रही होती। इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह सूत्र समाधि के क्षण का है। समाधि के साथ एक भेद है कि समाधि की पूर्वघोषणा हो सकती है। क्योंकि मृत्यु आती है, समाधि लाई जाती है। मृत्यु घटती है, समाधि का आयोजन करना पड़ता है। एक एक कदम ध्यान का उठाकर आदमी समाधि तक पहुंचता है।


यह भी आप खयाल रख लें कि समाधि शब्द बड़ा अच्छा है। कब्र के लिए भी कभी आप समाधि बोलते हैं। साधु मर जाता है तो उसकी कब्र को समाधि कहते हैं। सच है यह बात। समाधि एक तरह की मृत्यु है। बड़ी गहरी मृत्यु है। शरीर तो शायद वही रह जाता है, लेकिन भीतर जो मन था वह विनष्ट हो जाता है।


उस मन के विनष्ट होने के क्षण में ऋषि कह रहा है कि हे मेरे संकल्पात्मक मन, अपने किए हुए का स्मरण कर, अपने किए हुए का स्मरण कर।


क्यों? इसलिए कि इसी मन ने कितने धोखे दिए। और यह मन आज खुद ही नष्ट हुआ जा रहा है। जिस मन को हमने समझा मेरा है, जिसके आधार पर जीए और मरे। जिसके आधार पर काम किए, हारे और जीते। जिसके आधार पर जय और पराजय की आकांक्षाएं बांधी। जिसके आधार पर सुखी और दुखी हुए। सोचा था कि जो सदा साथ देगा, आज वही धोखा दिए जा रहा है। जिसके कंधे पर हाथ रखकर इतनी लंबी यात्रा की, आज पाया कि वह कंधा भी विदा हो रहा है। जिस नाव को समझा था कि नाव है, आज पाया कि वह भी पानी ही सिद्ध हुई और नदी में मिली जा रही है।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो 

अ-मन

तो यदि तुम इस संसार में सफल होना चाहते हो, तो पुरुष मन चाहिए। यदि तुम भीतर के संसार में सफल होना चाहते हो, तो स्त्रैण मन चाहिए। लेकिन वह केवल शुरुआत है, स्त्रैण मन


केवल एक शुरुआत है। वह अ-मन की ओर जाने की एक सीडी है। असली बात यही है. पुरुष मन स्त्रैण मन की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा दूर है अ-मन से। इसीलिए स्त्रैण मन रहस्यमय मालूम पड़ता है।

असल में तुम किसी स्त्री को जीवन भर प्रेम कर सकते हो, लेकिन तुम कभी उसे समझ न पाओगे। वह एक रहस्य ही बनी रहेगी। उसके व्यवहार के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। वह विचारों की अपेक्षा भाव दशाओं से अधिक जीती है। वह मौसम की भांति अधिक है यंत्र की भांति कम। सुबह बदलियां छाई होती हैं और दोपहर बदलियां छंट जाती हैं और धूप निकल आती है। स्त्री को प्रेम करके देखो और तुम जान जाओगे। सुबह बादल घिरे होते हैं और वह उदास होती है, और शीघ्र ही, प्रत्यक्ष में कुछ खास हुआ भी नहीं होता, और बादल छंट जाते हैं और फिर धूप निकल आती है और वह गुनगुना रही होती है।


पुरुष के लिए बिलकुल बेबूझ है यह बात। क्या क्या बेतुकी बातें चलती रहती हैं स्त्री में? हां, तुम्हें बेतुकी लगती हैं क्योंकि पुरुष के लिए चीजों की तर्कसंगत व्याख्या होनी चाहिए।’क्यों उदास हो तुम?’ तो स्त्री सरलता से कह देती है, ‘बस मुझे उदासी पकड़ती है।’ पुरुष यह बात नहीं समझ सकता। कोई कारण होना चाहिए उदास होने का। बस, ऐसे ही उदास हो जाना? ‘तुम खुश क्यों हो?’ स्त्री कहती है, ‘बस वह खुशी अनुभव कर रही है।’ वह भाव दशाओं द्वारा जीती है।


निश्चित ही, पुरुष के लिए कठिन है स्त्री के साथ जीना। क्यों? क्योंकि यदि चीजें तर्कसंगत हों, तो चीजें संभाली जा सकती हैं। यदि चीजें एकदम बेबूझ हों चीजें अनायास, अकारण आ जाएं और चली जाएं तो कोई तालमेल बिठाना बहुत कठिन हो जाता है। कोई पुरुष कभी किसी स्त्री के साथ तालमेल नहीं बैठा पाया। अंततः वह समर्पण कर देता है, अंततः वह तालमेल बैठाने का पूरा प्रयास ही छोड़ देता है।


पुरुष मन ज्यादा दूर है अ-मन से; वह ज्यादा यंत्रवत है, ज्यादा तर्कपूर्ण है, ज्यादा बौद्धिक है; सिर में ज्यादा जीता है। स्त्रैण मन ज्यादा निकट है, ज्यादा स्वाभाविक है, ज्यादा अतार्किक है; हृदय के ज्यादा निकट है। और हृदय से नीचे नाभि में उतरना कहीं ज्यादा आसान है जहां कि अ-मन का अस्तित्व है।

पतंजलि योगसूत्र 

ओशो 

तुम्हारा प्रेम प्रेम है?

प्रेम उस घड़ी का नाम है, जब तुम्हें सब जगह परमात्मा और उसका सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। तब तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा उठती है, जो अहर्निश गीत उठता है–वही प्रेम है। अभी तो तुमने जिसे प्रेम कहा है, उसका प्रेम से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि भी नहीं है। वह प्रेम की प्रतिछाया भी नहीं है। वह प्रेम का विकृत रूप भी नहीं है। वह प्रेम से बिलकुल उलटा है।


इसलिए तो तुम्हारे प्रेम को घृणा बनने में देर कहां लगती है! अभी प्रेम था, अभी घृणा हो गई। एक क्षण पहले जो मित्र था, क्षणभर बाद दुश्मन हो गया। क्षणभर पहले जिसके लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको मारने को तैयार हो गये।


तुम्हारा प्रेम प्रेम है? घृणा का ही बदला हुआ रूप मालूम पड़ता है। प्रेम सिर्फ तुम्हारी बातचीत है। प्रेम तो उनका अनुभव है जिनकी आंख से वासना गिर गई; जिन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ उसके नृत्य का अनुभव हुआ; जिसे सब तरफ परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी। फिर प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम यानी प्रार्थना। प्रेम यानी पूजा। प्रेम यानी अहोभाव, धन्यता, कृतज्ञता।


नहीं, अभी तुम्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ। अभी तो तुमने वासना को भी नहीं जाना, प्रार्थना को तुम जानोगे कैसे? वासना को जानो, ताकि वासना से मुक्त हो जाओ। जब मैं निरंतर तुमसे कहता हूं, वासना को जानो, तो मैं यही कह रहा हूं कि वासना से मुक्त होने का एक ही उपाय है: उसे जान लो। जिसे हम जान लेते हैं, उसी से मुक्ति हो जाती है।


सत्य बड़ा क्रांतिकारी है। जान लेने के अतिरिक्त और कोई रूपांतरण नहीं है।

जिन सूत्र 

ओशो 

साक्षी ध्यान

अब एक घंटा रोज आंख बंद करके, कल्पना को खुली छूट दो। कल्पना को पूरी खुली छूट दो। वह किन्हीं पापों में ले जाये, जाने दो। तुम रोको मत। तुम साक्षी-भाव से उसे देखो कि यह मन जो-जो कर रहा है, मैं देखूं। जो शरीर के द्वारा नहीं कर पाये, वह मन के द्वारा पूरा हो जाने दो। तुम जल्दी ही पाओगे कुछ दिन के…एक घंटा नियम से कामवासना पर अभ्यास करो, कामवासना के लिए एक घंटा ध्यान में लगा दो, आंख बंद कर लो और जो-जो तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठती हैं, सपने उठते हैं, जिनको तुम दबाते होओगे निश्चित ही–उनको प्रगट होने दो! घबड़ाओ मत, क्योंकि तुम अकेले हो। किसी के साथ कोई तुम पाप कर भी नहीं रहे। किसी को तुम कोई चोट पहुंचा भी नहीं रहे। किसी के साथ तुम कोई अभद्र व्यवहार भी नहीं कर रहे कि किसी स्त्री को घूरकर देख रहे हो। तुम अपनी कल्पना को ही घूर रहे हो। लेकिन पूरी तरह घूरो। और उसमें कंजूसी मत करना।


मन बहुत बार कहेगा कि “अरे, इस उम्र में यह क्या कर रहे हो!’ मन बहुत बार कहेगा कि यह तो पाप है। मन बहुत बार कहेगा कि शांत हो जाओ, कहां के विचारों में पड़े हो!


मगर इस मन की मत सुनना। कहना कि एक घंटा तो दिया है इसी ध्यान के लिए, इस पर ही ध्यान करेंगे। और एक घंटा जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना सको बना लेना। इस एक घंटा जितना इस कल्पना-भोग में डूब सको, डूब जाना। और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके, बिना निर्णय किये कि पाप है कि अपराध है। कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही तीन-चार महीने के निरंतर प्रयोग के बाद हलके हो जाओगे। वह मन से धुआं निकल जायेगा।


तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं, लेकिन तुम्हारे मन में देखने की कोई आकांक्षा नहीं रह गई। और जब तुम्हारे मन में किसी को देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती, तब लोगों का सौंदर्य प्रगट होता है। वासना तो अंधा कर देती है, सौंदर्य को देखने कहां देती है! वासना ने कभी सौंदर्य जाना? वासना ने तो अपने ही सपने फैलाये।

और वासना दुष्पूर है; उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ती ही चली जाती है।


जिन सूत्र 

ओशो 



अपने-अपने हिसाब - अपने-अपने मतलब

एक रोगी ने अपने डाक्टर से आकर कहा कि बड़ी कठिनाई है; जो आपने कहा था, हो नहीं पाता। डाक्टर ने कहा कि मैंने ऐसी कोई कठिन बात तुमसे कही न थी। इतना ही तो कहा था कि जो तुम्हारा बच्चा खाता है, वही भोजन तुम लो। इसमें क्या अड़चन है? कुछ दिन तक जो तुम्हारा बच्चा लेता है, वही भोजन तुम लो, तो तुम्हारा शरीर ठीक रास्ते पर आ जायेगा।


उसने कहा कि मैंने प्रयत्न तो किया, पर सफल न हो सका। डाक्टर ने कहा, “क्या बेवकूफी है? इतनी-सी बात तुमसे न हो सकी कि तुम्हारा बच्चा जो खाता है वही तुम खाओ? दूध पीता है तो दूध पीओ। खिचड़ी खाता है तो खिचड़ी खाओ। और जितनी थोड़ी मात्रा में खाता है उतनी ही मात्रा में खाओ। यह भी तुमसे न हो सका?’


उसने कहा कि महाराज, मेरा बच्चा मोमबत्ती, कोयला, मिट्टी, जूते के फीते, ऐसी कौन-सी चीज है जो नहीं खाता! वही तो मैं मरा जा रहा हूं खा-खाकर। मेरी हालत और खराब हो गई है।


थोड़ी सावधानी चाहिए। अर्थ तो तुम डालोगे!

महावीर कहते हैं, उपवास; तुम पढ़ोगे, अनशन। महावीर कहते हैं, सत्य में संयम छिपा है; तुम पढ़ोगे, संयम में सत्य छिपा है। ऐसे चूकते चले जाओगे। फिर तुम अपनी मतलब की बात सदा निकाल लोगे। आदमी अपनी मतलब की बात निकाल लेता है।


मैं जबलपुर बहुत वर्षों तक रहा। एक बूढ़े सिंधी की दुकान थी। पुरानी किताबें, पुराना कागज, खरीदता और बेचता। मैं भी उसकी दुकान पर पुरानी किताबों की तलाश में जाता था। कभी-कभी बड़े महत्वपूर्ण शास्त्र उसकी किताब की दुकान पर से मिल गये। उस सिंधी को…सिंधियों में ऐसी मान्यता थी कि वह कुछ धार्मिक है, वे उसको साईं कहते थे। मैं भी किताबें पुरानी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते, सुनता रहता था उसकी बातें; उसके कुछ शिष्य-शागिर्द भी कभी-कभी बैठे रहते थे। एक दिन एक आदमी आया जो फाउन्टेनपेन खरीदकर ले गया था। पुरानी और चीजें भी वह खरीदता-बेचता था। वह आदमी बड़ा नाराज था। उसने कहा कि यह तुमने धोखा दिया। यह तो फाउन्टेनपेन चार आने का भी नहीं है और लिखा है इस पर “मेड इन यू. एस. ए.।’ यह है नहीं “अमरीका का बना।’


वह सिंधी नाराज हुआ। उसने कहा, “कहा किसने कि यह अमरीका का बना है?’ पर उसने कहा, “इस पर लिखा हुआ है: मेड इन यू. एस. ए.। तो वह सिंधी नाराज हुआ। उसने कहा, “कोई यू. एस. ए. ने यू. एस. ए. लिखने का ठेका ले रखा है? अरे, यू. एस. ए. का मतलब होता है: उल्हासनगर सिंधी एसोसिएशन।’


अपने-अपने हिसाब हैं, अपने-अपने मतलब हैं। यू. एस. ए. की चीज खरीदते वक्त उल्हासनगर के सिंधियों को याद रखना। तुम ही तो अर्थ डाल लोगे। शब्द तो बेचारा क्या करेगा! अर्थ तो तुम जोड़ोगे! अर्थ तो तुम निकालोगे!

जिन सूत्र 

ओशो 

जो जैसा है वहीं से उपाय

मैंने सुना है, एक शराबी बैठा था राह के किनारे और एक आदमी ने कार रोकी और उसने कहा कि मुझे स्टेशन जाना है, कहां से जाऊं। रास्ता भूल गया हूं। अजनबी हूं यहां।

शराबी ने झकझोर कर अपने को जरा सजग किया। और उसने कहा, ऐसा करो, पहले बायें जाओ–दो फर्लांग। फिर चौरस्ता पड़ेगा। फिर तुम उससे दायें मुड़ जाना–दो फर्लांग। फिर उसने कहा कि नहीं-नहीं, यह तो गलत हो गया। तुम यहां से दायें जाओ। चार फर्लांग के बाद मस्जिद पड़ेगी। बस मस्जिद के पास से तुम बायें मुड़ जाना। उसने कहा कि नहीं-नहीं, यह फिर गलत हो गया। अब तो वह अजनबी भी थोड़ा मुश्किल में पड़ा कि यह मामला क्या है। उसने फिर कहा कि तुम ऐसा करो कि जहां से तुम आये हो उसी तरफ लौट जाओ। आठ फर्लांग के बाद नदी पड़ेगी, पुल आयेगा। उसने कहा, कि नहीं-नहीं फिर गलत हो गया।


उस ड्राइवर ने कहा, “महानुभाव! मैं किसी और से पूछ लूंगा।’ उसने कहा कि तुम किसी और से ही पूछ लो तो अच्छा, क्योंकि जहां तक मैं समझता हूं, यहां से स्टेशन पहुंचने का कोई उपाय ही नहीं है।


जो जैसा है वहीं से उपाय है। जो जहां है वहीं से उपाय है। निराश मत होना। संकल्प सधे, संकल्प; न सधे, चिंता मत करना। साधनों की बहुत फिक्र मत करना, साध्य को स्मरण रखना। राह की कौन चिंता करता है, वाहन की कौन फिक्र करता है, बैलगाड़ी से पहुंचे कि हवाई जहाज से पहुंचे–पहुंच गये। हवाई जहाज के भी मजे हैं, बैलगाड़ी के भी मजे हैं। हवाई जहाज में समय बच जाता है, लेकिन बैलगाड़ी में जो सौंदर्य का, दोनों तरफ के रास्तों का अनुभव होता है, वह नहीं हो पाता। बैलगाड़ी में थोड़ा समय लगता है, लेकिन दोनों तरफ पृथ्वी के सुहावने दृश्य उभरते हैं।


 जिन सूत्र 

ओशो

संकल्प शक्तियों के रूपांतरण का नाम है

एक आदमी को महीने भर के लिए भूखा रख दिया गया है। जब वह भूखा है तब चौबीस घंटे उसे याद आती है: भोजन करूं, भोजन करूं, भोजन करूं। चौबीस घंटे उसके शरीर का रोआं-रोआं कहेगा कि भोजन करो। जागते में, सपने में, शरीर कहेगा: भोजन करो। एक जगह खाली हो गई है। एक बायोलाजिकल गैप भीतर पैदा हो गया है। शरीर कहेगा भोजन करो और वह इसी वक्त परमात्मा की प्रार्थना में लगता है। शरीर चिल्ला रहा है भोजन की प्यास, और वह चिल्ला रहा है परमात्मा की प्यास। थोड़े ही समय में, दिन दो-दिन, चार-दिन बीतेंगे और शरीर की जो भोजन की प्यास है, कनवर्ट हो जाएगी और परमात्मा की प्यास बन जाएगी। वह जो शरीर की भोजन की मांग है, अगर वह नहीं झुका और संकल्प किए ही चला गया कि नहीं, भोजन नहीं, परमात्मा ही; नहीं, भोजन नहीं परमात्मा। अगर शरीर के सामने नहीं झुका और कहता चला गया: भोजन नहीं, परमात्मा! तो चार-छह दिन के भीतर शरीर भोजन की जगह परमात्मा को पुकारने लगेगा।


यह रूपांतरण हुआ। यह ट्रांसफार्मेशन हुआ। एनर्जी, जो भोजन को मांगती थी, वह परमात्मा को मांगने लगी। इस तरह भोजन की तरफ जाते हुए संकल्प को परमात्मा की तरफ मोड़ दिया गया है। यह बड़ा रूपांतरण है।
संकल्प शक्तियों के रूपांतरण का नाम है। जब चित्त मांगता है यौन, जब चित्त मांगता है दूसरे को, अपोजिट को, स्त्री पुरुष को, पुरुष स्त्री को, जब चित्त मांगता है कि दूसरे की तरफ बहो, तब बहाव का रूपांतरण करना पड़ेगा। जब चित्त जिस ढंग से दूसरे को, मांगता है उससे उलटी प्रक्रिया करनी पड़ेगी ताकि चित्त की यह मांग परमात्मा की, मोक्ष की, निर्वाण की मांग बन जाये।


ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया

ओशो

समयातीत

तुमने कभी खयाल किया! कोई प्रेमी घर आ जाये, घंटा बीत जाता है, क्षणभर मालूम पड़ता है। और कोई उबानेवाले सज्जन घर आ जायें और बकवास करें, दो-चार-पांच मिनट भी ऐसे लगते हैं जैसे कि घंटों लगाये दे रहे हैं। क्या हो जाता है? समय में इतना अंतर क्यों हो जाता है?


समय बड़ा लोचपूर्ण है। जब तुम सुख अनुभव करते हो, समय छोटा हो जाता है। तब तुम मित्र की बातें सुन रहे हो, साधारण-सी बातें हैं, बड़ी मधुसिक्त हो जाती हैं। जब कोई आ जाता है उबानेवाला, चाहे बातें वह बड़ी मधुर कर रहा हो, लेकन तुम्हें रास नहीं आता। तो एक भेद पड़ गया। तुम उस चर्चा में डूब नहीं पाते। चर्चा की क्रिया गतिमान नहीं हो पाती, ठहर-ठहर जाती है, लंगड़ाती है। तुम जबर्दस्ती बार-बार घड़ी देखते हो, जम्हाई लेते हो, कोई तरह इशारा करते हो कि भाई देखो, अब जाओ भी!


अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन में उल्लेख है कि एक मित्र के घर गया था। भुलक्कड़ आदमी था। बात चलती रही, भोजन हो गया। फिर बात चलती रही। मित्र बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई ले। आइंस्टीन भी बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई ले; लेकिन उठे न। आखिर मित्र ने कहा, “दो बज रहे हैं, पत्नी राह देखती होगी…।’ आइंस्टीन ने कहा, “मतलब?’

मित्र ने कहा, “मेरा मतलब यह है कि पत्नी राह देखती होगी…। वैसे कोई हर्जा नहीं है, आप बैठें और।’ आइंस्टीन घबड़ाकर खड़ा हो गया। उसने कहा, “हद्द हो गई, मैं तो सोचता था कि कब आप जायें तो मैं सोऊं। मैं तो यही सोच रहा था कि मैं अपने घर में हूं।’


दोनों घड़ी देख रहे हैं, दोनों जम्हाई ले रहे हैं। समय बड़ा लंबा मालूम पड़ता है।


जब तुम किसी क्रिया के साथ लीन नहीं हो पाते, वही क्रिया, ठीक वही क्रिया…।


तुम नाच रहे हो–किसी और के लिए, नाचना नहीं चाहते, तो समय रहेगा। तुम नाच रहे हो अपने लिए, या किसी के लिए जिसके लिए तुम नाचना चाहते हो–समय मिट जायेगा। समय तनाव है। जहां तनाव नहीं वहां समय नहीं। जहां तुम बेत्तनाव हो, वहां समय नहीं; तुम समयातीत हो गये, कालातीत हो गये।


और यही बात जो समय के संबंध में सच है वही बात क्षेत्र के संबंध में भी सच है। टाइम-स्पेस, समय और क्षेत्र यह दोनों एक साथ खो जाते हैं, जब तुम्हारी लीनता परिपूर्ण होती है। भक्त अपनी भक्ति में भूल जाता है–सब भूल जाता है। भगवान को भी भूल जाता है। धुन रह जाती है। मस्ती रह जाती है। ध्यानी अपने ध्यान में भूल जाता है–ध्यान को भी भूल जाता है। फिर बस एक सुवास रह जाती है। वह सुवास इस पृथ्वी की नहीं है। उस सुवास को न तो समय घेरता है, न स्थान घेरता है। वह सुवास समय-क्षेत्र अतीत है।

जिन सूत्र 

ओशो 

 

Friday, March 25, 2016

निर्णय

आपने देखा होगा…फिल्म भी अगर आप देख रहे हैं तो अक्सर वैसी ही फिल्म ज्यादा देखी जाती हैं जो थ्रीलिंग हैं, जो उत्तेजक हैं, जिनमें आपके रोयें-रोयें खड़े हो जायें और रोंगटे खड़े हो जायें। जो रोमांचकारी हैं। इसलिए फिल्म का एडवरटाइज करने वाला अपनी फिल्म के एडवरटाइज के लिए लिखेगा कि ऐसी रोमांचक फिल्म कभी नहीं बनी, आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। लेकिन जिस फिल्म में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, आप गलत आहार कर रहे हैं। वह उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या है, खून है, वह सब का सब आपको उत्तेजना से भर रहा है।


अगर फिल्म को देखते वक्त आप किसी दिन फिल्म न देखें, कोने में खड़े हो जायें और लोगों को देखें, फिल्म मत देखें। तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सी चीज उत्तेजित करती है। जब उत्तेजना का चित्र आएगा तो सारे लोग अपनी कुर्सियां छोड़कर रीढ़ को सीधा कर लेंगे, सांसें उनकी ठहर जाएंगी, कि पता नहीं सांस के लेने में कोई चीज चूक न जाये। बिलकुल वे थिर हो जाएंगे। जब उत्तेजक चित्र चला जाएगा, फिर वे अपनी कुर्सी पर वापस टिक जायेंगे, फिर वे आराम से देखने लगेंगे। जितनी बार किसी फिल्म में आदमी कुर्सी छोड़कर बैठ जाता है, उतनी ही उसकी सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ जाने में सुविधा बनेगी।


लेकिन हम रास्ते पर भी सब कुछ देख रहे हैं, बिना फिक्र किए कि सब कुछ देखना अनिवार्य नहीं है, न उचित है। न सब कुछ देखना-पढ़ना अनिवार्य है, न उचित है। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। वह वही भीतर ले जाये जो उसकी जिंदगी को ऊपर ले जानेवाला है। और अगर उसे जिंदगी को नीचे ही ले जाना है तो भी सोच समझ कर ले जाये। फिर वही ले जाये जो नीचे ले जाने वाला है।


लेकिन हमें कुछ पता नहीं है। हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं, एक हाथ नीचे भी मारते हैं। सुबह चर्च भी हो आते हैं, सांझ फिल्म भी देख आते हैं। चर्च में चर्च की घंटी भी सुन लेते हैं, होटल में जाकर नृत्य भी देख आते हैं। हम इस तरह से अपनी जिंदगी को अपने हाथों से काटते रहते हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को दोनों तरफ फैलाये रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते।


निर्णय चाहिए। नीचे जाना है तो जायें और पूरा नर्क तक छू कर लौटें। लेकिन तब भी व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना चाहिए। तब फिर ऊपर की बातों को छोड़ दें। फिर चर्च की तरफ भूलकर मत देखें, फिर मंदिर की तरफ मुड़कर भी न जायें, फिर कभी गीता से कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से बचें, फिर इनको भूल जायें कि ये दुनिया में हैं, फिर ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इनके नाम भी न लें। क्योंकि ये ठीक लोग नहीं हैं, आपकी यात्रा में बाधा बनेंगे। आपको नर्क जाना है, अपनी गाड़ी पकड़ें और अपनी गाड़ी पर मजबूती से रुके रहें।


लेकिन आदमी अजीब है, एक पांव नर्क की गाड़ी पर रखे रहता है, एक पांव स्वर्ग की गाड़ी पर रखे रहता है। कहीं भी नहीं पहुंच पाता। यह सारी जिंदगी एक घसीटन बन जाती है। वह यहां से वहां तक घसीटता रहता है। आदमी ऐसी बैलगाड़ी है जिसमें दोनों तरफ बैल जोत दिए हैं। वे दोनों तरफ खींचते रहते हैं। कभी यह बैल थोड़ा खींच लेता है, फिर मन पछताता है कि नर्क चूक गया, थोड़ा इस तरफ चलें। फिर थोड़ा नर्क की तरफ गए कि फिर मन पछताता है, कहीं स्वर्ग न चूक जाये, थोड़ा उस तरफ चलें। और सारी जिंदगी ऐसे ही बीत जाती है, बैलगाड़ी कहीं पहुंच नहीं पाती। अस्थिपंजर ढीले हो जाते हैं और बैल मर जाते हैं। फिर नई दुनिया, फिर नई जिंदगी, फिर वही काम हम पुरानी आदत से शुरू करते हैं।


यह निर्णय करें कि कहां जाना है, निर्णय करें क्या होना है, निर्णय करें क्या पाना है, निर्णय करें क्या लक्ष्य है, क्या दिशा है, क्या आयाम है। फिर उस निर्णय के अनुसार चलना शुरू करें, उस निर्णय के अनुसार जिंदगी में सब बदलें। आंख, कान, मुंह, हाथ सब को बदलें। फिर वही स्पर्श करें जो परमात्मा की तरफ ले जानेवाला हो। फिर वही सुनें जिसकी झंकार प्राणों को छुए और वह ऊपर उठ आये। फिर वही खायें जो जीवन को ऊंचा उठाता है और हल्का करता है। फिर वही देखें जो आंखों में दीया बन जाता है और अंधेरे को दूर करता है। और फिर सब कुछ बदल दें।


ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया 

ओशो 

भोजन और काम ऊर्जा

तिब्बतियों के पास एक विशेष घंटा होता है, शायद आपमें से किसी ने देखा हो। वह घंटा ऐसा लटकाने वाला नहीं होता। बर्तन की तरह बड़ा होता है, और बजाने को उसके अंदर एक गोल डंडा घुमाकर चोट करनी पड़ती है। जैसे एक बाल्टी रखी हो, उसके अंदर गोल घुमाकर डंडे से चोट करनी पड़ती है। उस डंडे और घंटे के बीच चोट का एक विशेष क्रम है। उस चोट करने से, घंटे से जोर की आवाज निकलती है–ॐ मणि पद्मे हुं–यह पूरा सूत्र तिब्बत का उससे निकलता है। और यह सूत्र बार-बार मंदिर में गूंजता रहता है। और इस सूत्र के कुछ उपाय हैं। ये सूत्र हमारे भीतर जाकर कुछ चक्रों पर चोट करना शुरू कर देते हैं और उन चक्रों की शक्ति ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।


ओम का उपयोग भीतर, उसकी गूंज, शक्ति को ऊपर ले जाने के लिए थी। अकेले ओम का ही नहीं, मुसलमान कहते हैं आमीन, वह ओम का ही रूप है। क्रिश्चियन भी कहते हैं, आमीन, वह ओम का ही रूप है। अंग्रेजी में शब्द हैं: ओमनीसाइंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीप्रेजेंट; वह सब ओम से ही बने हुए शब्द हैं। ओमनीसाइंट का मतलब है, जिसने ओम को देख लिया। ओम का मतलब है, विराट ब्रह्म। ओमनीप्र्रेजेंट का अर्थ है, जो ओम के साथ मौजूद हो गया। ओमनीपोटेंट का अर्थ है, जो ओम की तरह शक्तिशाली हो गया। जो परमात्मा के बराबर शक्ति-बीज से भर गया।


अब यह जो ओम शब्द है उसमें ए यू एम, अ ऊ म मूल ध्वनियां हैं। ये ध्वनियां अगर व्यवस्था से गुंजायी जायें तो ऊर्जा को ऊपर ले जाने लगती हैं। इससे उलटी ध्वनियां भी हैं, जो चोट की जायें तो ऊर्जा नीचे जाने लगती है।


आज अमरीका में जाज है, टि्वस्ट है, शेक है, और जमाने भर के नृत्य हैं। उन सबकी ध्वनि-लहरी, उन सबके रिदम, सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिए अगर आप टि्वस्ट देख रहे हों तो थोड़ी देर में आप पायेंगे कि आपके भीतर टि्वस्ट होना शुरू हो गया। आपके भीतर कोई शक्ति डावांडोल होने लगी। आधुनिक जगत में विकसित सभी नृत्य और सभी संगीत की व्यवस्थाएं मनुष्य के काम का शोषण हैं।


इसलिए आहार का मतलब बड़ा है। इसलिए जो भोजन हम ले रहे हैं उसके परिणाम होंगे ही, उसके परिणाम से हम बच नहीं सकते। क्योंकि हमारा पूरा का पूरा जो जीवनऱ्यंत्र है वह साइको केमिकल है। उसमें पीछे मन है, तो नीचे रसायन है। वह रसायन पूरे वक्त काम कर रहा है। केमिस्ट्री हमारे पूरे शरीर में पूरे वक्त काम कर रही है। हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, उसके परिणाम होंगे। ऐसे भी भोजन हैं जो मनुष्य को ज्यादा कामुक बनाते हैं।


मधुमक्खियों के छत्ते में एक खास तरह की जैली होती है। मधुमक्खियों के बाबत आपको शायद थोड़ा पता हो कि मधुमक्खियों में एक ही रानी मक्खी होती है जो बच्चे पैदा करती है। और बाकी सारी मधुमक्खियां, मादा स्त्री मधुमक्खी जो सिर्फ मजदूर का काम करती हैं, उनकी जिंदगी में सेक्स जैसी कोई चीज नहीं होती। फेवरे, जिसने इन मधुमक्खियों का विराट गहन अध्ययन किया है, वह बड़ी हैरानी में पड़ा कि लाखों मधुमक्खियों की जिंदगी में कोई सेक्स क्यों नहीं होता! आखिर वे भी मादा हैं, उनकी जिंदगी में भी सेक्स का यंत्र पूरा है, लेकिन फिर भी सेक्स नहीं है। बात क्या है? तो उसे बड़ी हैरानी का जो नतीजा निकला वह यह कि मधुमक्खियां खास तरह की जैली इकट्ठी करती हैं जो सिर्फ मादा रानी ही खाती है। बाकी सब मधुमक्खियों को सिर्फ तीन दिन के लिए, जन्म के बाद, वह खाने को मिलती है, उसके बाद खाने को नहीं मिलती। उस जैली में ही सारा राज है।


इसलिए उस जैली को रिजुवीनेशन के लिए कई पागलों ने प्रयोग किया…आदमी को उसकी गोली बनाकर खिला दी जाये तो शायद बूढ़ा आदमी जवान हो जाये। उस जैली से बहुत-सी क्रीम भी लोगों ने बनाई और लाखों स्त्रियों के चेहरे पर पोती कि शायद उस जैली से सौंदर्य प्रगट हो जाये। वह जैली विशेष विटामिन्स लिए हुए है, जो अति-कामुकता पैदा कर देती है।


तो वह जो रानी मधुमक्खी है उसकी कामुकता का हिसाब लगाना मुश्किल है। वह दो हजार अंडे रोज देती है और देती ही चली जाती है। वह करोड़ों अंडे एक ही मादा पैदा कर देती है, इतनी सेक्स ऐक्टीविटी उसके भीतर पैदा हो जाती है।


और अब तो हम जानते हैं कि हारमोन्स की खोज ने बड़ा स्पष्ट कर दिया है कि अगर एक पुरुष को भी स्त्री हारमोन्स के इंजेक्शन दे दिए जायें तो उसका शरीर पुरुष का न रहकर थोड़े दिनों में स्त्री का हो जाएगा। अगर एक स्त्री शरीर को पुरुष-इंजेक्शन दे दिये जायें तो उसका शरीर थोड़े दिनों में स्त्री का न रहकर पुरुष का हो जाएगा। पैंतालीस से पचास साल के बाद आमतौर से कुछ स्त्रियों को मूंछ आनी शुरू हो जाती है। उसका कुल कारण इतना ही है कि स्त्री हारमोन्स कम हो गए और शरीर में पड़े हुए पुरुष हारमोन प्रभावी होने लगे, इसलिए मूंछ आनी शुरू हो जायेगी। स्त्रियों की आवाज पचास साल के बाद पुरुषों से मेल खाने लगेगी। उसका कुल कारण यही है कि पुरुष हारमोन और स्त्री हारमोन का अनुपात टूट गया। स्त्री हारमोन कम हो गए, पुरुष हारमोन अनुपात में ज्यादा हो गए, तो आवाज में बदलाहट हो जाएगी। ये सारे केमिकल मामले हैं।


हम जो भोजन ले रहे हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर है। हम कैसा भोजन ले रहे हैं, इस भोजन में यदि मादक तत्व हैं, इस भोजन में यदि मूर्च्छा लानेवाले तत्व हैं, तो वे शरीर-ऊर्जा को, काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। इस भोजन में अगर उत्तेजक स्टिमुलेंट हैं, एक्टीवाइजर्स हैं, तो वे शरीर की काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। अगर इस भोजन में ट्रैंकोलाइजर्स हैं, और शामक तत्व हैं जो कि मन को शांत करते हैं, उत्तेजित नहीं करते हैं, तो वे ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले जाने में सहयोगी होंगे।


ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया 

ओशो 


My name is Legion - for we are many

मैंने सुना है, जीसस एक गांव से गुजरते थे। रात थी और मरघट पर एक आदमी छाती पीट रहा था, चिल्ला रहा था, पत्थरों से अपने शरीर को खरोंच कर लहूलुहान कर रहा था। तो जीसस ने उस आदमी से जाकर पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, जो सारी दुनिया कर रही है वही मैं कर रहा हूं। फिर वह अपने खरोंचने में लग गया। लहू बह गया है, सिर पीट रहा है, सिर पर घाव हो गया है। जीसस ने कहा, ऐ पागल, तेरा नाम क्या है? तो उस आदमी ने कहा, माई नेम इज लीजियन। मेरे नाम हजार हैं। मेरा एक नाम नहीं है। जीसस बार-बार इस कहानी को कहते थे कि एक आदमी ने मुझसे कहा था कि माई नेम इज लीजियन, मेरे नाम हजार हैं, एक मेरा नाम नहीं है क्योंकि मैं हजार आदमी हूं। मैं एक आदमी नहीं हूं।


हमारे नाम भी लीजियन हैं। हमारे भीतर भी हजार आदमी हैं। कोई बचाना चाह रहा है, कोई मारना चाह रहा है; कोई प्रेम करना चाह रहा है, कोई हत्या करना चाह रहा है; कोई जीना चाह रहा है, कोई अपनी कब्र का पत्थर बनवा रहा है; कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर रहा है, हमारे ही भीतर कोई कह रहा है, सब झूठ है, सब असत्य है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। कोई घंटा बजा रहा है मंदिर का, और कोई भीतर हंस रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो? उस घंटे के बजाने से कुछ भी नहीं हो सकता है। कोई माला फेर रहा है और हमारे भीतर उसी वक्त कोई दुकान भी चला रहा है। माई नेम इज लीजियन। उस आदमी ने ठीक कहा कि मेरे नाम हजार हैं। मैं कौन-सा नाम बताऊं तुम्हें! मैं एक आदमी नहीं हूं, मैं हजार आदमी हूं।


ये जो हजार आदमी हैं हमारे भीतर, यही हमारी शक्ति का ह्रास है। अगर ये ही एक आदमी हो जायें तो हमारी शक्ति संरक्षित होती है। टोटल एक्शन, एक करने की विधि है, समग्र कृत्य। जो भी करें उसके साथ पूरे ही खड़े हो जायें, जो भी करें उसे पूरा ही कर लें। और जैसे ही उसे पूरा करेंगे वैसे ही आपके भीतर कोई चीज एकदम इकट्ठी होने लगेगी, संयुक्त होने लगेगी, संश्लिष्ट होने लगेगी।


गुरजिएफ कहा करता था कि पूर्ण कृत्य, क्रिस्टलाइजेशन है। जब भी कोई व्यक्ति कोई काम पूरा करता है तो उसके भीतर कोई चीज क्रिस्टलाइज हो जाती है। कोई चीज इकट्ठी हो जाती है। यह इकट्ठा हो जाना व्यक्तित्व का जन्म है, आत्मा का जन्म है। इस अर्थ में मैंने कहा है। उसे प्रयोग करें, समझें, देखें, तो यह बात खयाल में आ सकती है।

ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया 

ओशो 

सेक्स इतना बुरा नहीं है जितना सेक्स का चिंतन बुरा है

जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता, भविष्य की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता है अभी और यहीं वर्तमान में…इसका यह मतलब नहीं है कि आपको कल सुबह ट्रेन से जाना हो तो आज टिकिट नहीं खरीदेंगे। लेकिन कल की टिकिट खरीदनी आज का ही काम है। लेकिन आज ही कल की गाड़ी में सवार हो जाना खतरनाक है। और आज ही बैठकर कल की गाड़ी पर क्या-क्या मुसीबतें होंगी और कल की गाड़ी पर बैठकर क्या-क्या होने वाला है, इस सबके चिंतन में खो जाना खतरनाक है।


नहीं, सेक्स इतना बुरा नहीं है जितना सेक्स का चिंतन बुरा है। सेक्स तो सहज, प्राकृतिक घटना भी हो सकती है, लेकिन उसका चिंतन बड़ा अप्राकृतिक और पर्वर्जन है, वह विकृति है। एक आदमी सोच रहा है, सोच रहा है, योजनाएं बना रहा है, चौबीस घंटे सोच रहा है। और कई बार तो ऐसा हो जाता है, होता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सैकड़ों-हजारों लोगों के अनुभवों के बाद यह पता चलता है कि आदमी मानसिक यौन में इतना रस लेने लगता है कि वास्तविक यौन में उसे रस ही नहीं आता, फिर वह फीका मालूम पड़ता है। चित्त में ही जो यौन चलता है वही ज्यादा रसपूर्ण और रंगीन मालूम पड़ने लगता है।


चित्त में यौन की इस तरह से व्यवस्था हो जाये तो हमारे भीतर कंफ्यूजन पैदा होता है। चित्त का काम नहीं है यौन। गुरजिएफ कहा करता था कि जो लोग यौन के केंद्र का काम चित्त के केंद्र से करने लगते हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। होगी ही, क्योंकि उन दोनों के काम अलग हैं। अगर कोई आदमी कान से भोजन करने की कोशिश करने लगे तो कान तो खराब होगा ही और भोजन भी नहीं पहुंचेगा। दोनों ही उपद्रव हो जाएंगे।


व्यक्ति के शरीर में हर चीज का सेंटर है। चित्त काम का सेंटर नहीं है। काम का सेंटर मूलाधार है। मूलाधार को अपना काम करने दें। लेकिन चित्त को, चेतना को, अभी उस काम में मत लगायें, अन्यथा चेतना उस काम से ग्रस्त, आबसेस्ड हो जाएगी।


इसलिए आदमी आबसेस्ड दिखायी पड़ता है। वह नंगी तस्वीरें देख रहा है बैठकर, और मूलाधार को नंगी तस्वीरों से कोई भी संबंध नहीं है। उसके पास आंख भी नहीं है। आदमी नंगी तस्वीरें देख रहा है, यह मन से देख रहा है। और मन में तस्वीरों का विचार कर रहा है, योजनाएं बना रहा है, कल्पनाएं कर रहा है, रंगीन चित्र बना रहा है। यह सब के सब मिल कर उसके भीतर सेंटर का कंफ्यूजन पैदा कर रहे हैं। मूलाधार का काम चित्त करने लगेगा, पर मूलाधार तो चित्त का काम नहीं कर सकता है। बुद्धि भ्रष्ट होगी, चित्त भ्रमित होगा, विक्षिप्त होगा।


पागलखाने में जितने लोग बंद हैं उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग चित्त से यौन का काम लेने के कारण पागल हैं। पागलखानों के बाहर भी जितने लोग पागल हैं, अगर उनके पागलपन का हम पता लगाने जायें तो हमें पता चलेगा कि उसमें भी नब्बे प्रतिशत यौन के ही कारण हैं। उनकी कविताएं पढ़ें तो यौन, उनकी तस्वीरें देखें तो यौन, उनकी पेंटिंग्स देखें तो यौन, उनका उपन्यास देखें तो यौन, उनकी फिल्म देखने जायें तो यौन, उनका सब कुछ यौन से घिर गया है। आब्सेशन है यह, यह पागलपन है।


अगर पशुओं को भी हमारे संबंध में पता होगा तो वे भी हम पर हंसते होंगे कि आदमी को क्या हो गया है? अगर हमारी कविताएं वे पढ़ें, भले ही कालिदास की हों, तो पशुओं को बड़ी हैरानी होगी कि इन कविताओं की जरूरत क्या है? इनका अर्थ क्या है? वे हमारे चित्र देखें, चाहे पिकासो के हों, तो उन्हें बड़ी हैरानी होगी कि इन चित्रों का मतलब क्या है? ये स्त्रियों के स्तनों को इतना चित्रित करने की कौन-सी आवश्यकता है? क्या प्रयोजन है?


आदमी जरूर कहीं पागल हो गया है। पागल इसलिए हो गया है कि जो काम मूलाधार का है, सेक्स-सेंटर का है, उसे वह इंटलेक्ट से ले रहा है। इसलिए इंटलेक्ट से जो काम लिया जा सकता था, उसका तो समय ही नहीं बचता है।


बुद्धि परमात्मा की तरफ यात्रा कर सकती है, लेकिन वह मूलाधार का काम कर रही है। चेतना परम जीवन का अनुभव कर सकती है, लेकिन चेतना सिर्फ फैंटेसीज में जी रही है, सेक्सुअल फैंटेसीज में जी रही है, वह सिर्फ यौन के चित्रों में भटक रही है।


इसलिए मैंने कहा, अतीत का मत सोचें, भविष्य का मत सोचें। सेक्स के संबंध में तो बिलकुल ही नहीं। अभी जीयें और जितना सेक्स पल में आ जाता हो उसे आने दें, घबरायें मत, लेकिन उस यौन के समय में भी जो मैंने ऊर्ध्वगमन की यात्रा की बात कही, अगर उसका थोड़ा स्मरण करें तो बहुत शीघ्र उस शक्ति का ऊपर प्रवाह शुरू हो जाता है। और जैसी धन्यता उस प्रवाह में अनुभव होती है वैसी जीवन में और कभी अनुभव नहीं होती।

ज्यों की त्यों रख दीन्हि  चदरिया 

ओशो 

दमन रहित ब्रम्हचर्य का प्रयोग

जैसे ही चित्त यौन की मांग करता है, सेक्स की मांग करता है, शरीर सेक्स की तैयारी करने लगता है। यौन-केंद्र मूलाधार से दूसरे की मांग की स्फुरणा शुरू हो जाती है। यौन-केंद्र बहिर्गामी हो जाता है। इस क्षण में तंत्र कहता है कि अगर यौन-केंद्र को अंतर्गामी किया जा सके, भीतर की तरफ खींचा जा सके–जिसे यौन-मुद्रा का नाम दिया है–अगर यौन-केंद्र मूलाधार को भीतर की तरफ खींचा जा सके, तो तत्काल आप दो क्षण में पायेंगे कि शरीर ने यौन की मांग बंद कर दी। मांग लेकिन पैदा हो गई थी। शक्ति जग गई थी, और अब मांग बंद हो गई। इस शक्ति को ऊपर ले जाया जा सकता है।


जैसे ही हम सेक्स का विचार करते हैं वैसे ही हमारा चित्त जननेंद्रिय की तरफ बहने लगता है। तो तुरंत जननेंद्रिय को भीतर की ओर खींच लेते ही जननेंद्रिय से बाहर जानेवाले सब द्वार बंद हो जाते हैं। और जो ऊर्जा जग गई है, अगर उस क्षण में हम आंखों को बंद कर लें और आंख बंद करके सिर की छत की तरफ, अंदर से जैसे ऊपर की तरफ देख रहे हों, देखना शुरू कर दें, तो ऊर्जा ऊपर की तरफ बहना शुरू हो जाती है।


यह एक महीने भर के प्रयोग से अभूतपूर्व अनुभव में किसी भी व्यक्ति को उतार दिया जा सकता है। जब भी यौन का खयाल उठे तभी यौन-केंद्र को, मूलाधार को भीतर की ओर खींच लें, आंख बंद करें और सिर की छत की तरफ अंदर से जैसे ऊपर देख रहे हों, देखना शुरू कर दें। और आप एक महीने भर के भीतर, इक्कीस दिन के भीतर पायेंगे कि आपके भीतर से कोई चीज नीचे से ऊपर की तरफ जानी शुरू हो गई है। यह वस्तुतः अनुभव होगा कि कोई चीज ऊपर बहने लगी, कोई चीज ऊपर उठने लगी। उसे कोई कुंडलिनी का नाम कहता है, उसे कोई और कोई नाम दे सकता है।


इसमें दो बिदुओं पर ध्यान देना जरूरी है। एक तो सेक्स-सेंटर पर, मूलाधार पर, और दूसरे सहस्रार पर। सहस्रार हमारे ऊपर का केंद्र है सबसे ऊपर, और मूलाधार हमारे सबसे नीचे का केंद्र है। मूलाधार को सिकोड़ लें भीतर की तरफ। तो उसमें जो शक्ति पैदा हुई है, वह शक्ति मार्ग खोज रही है। और अपने चित्त को ले जायें ऊपर की तरफ, तो वही मार्ग खुला रह जाता है। चित्त जिस तरफ देखता है उसी तरफ शरीर की शक्तियां बहनी शुरू हो जाती हैं। यह ट्रांसफार्मेशन की छोटी-सी विधि है।


तो इसका अगर प्रयोग करें तो ब्रह्मचर्य बिना सप्रेशन के फलीभूत होता है। यह सप्रेशन नहीं है, यह सब्लीमेशन है। यह दमन नहीं है। दमन का तो मतलब है कि ऊपर का द्वार नहीं खुला है और नीचे के द्वार पर रोके चले जा रहे हैं। तब उपद्रव होगा, तब विक्षिप्तता होगी, पागलपन होगा। अगर मार्ग भी है शक्ति के लिए, तो दमन नहीं होगा, सिर्फ ऊर्ध्वगमन होगा। शक्ति नीचे से ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाएगी।


यह तो एक प्रायोगिक बात मैंने आपसे कही। यह प्रयोग करें और समझें। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। न कोई बौद्धिक या शास्त्रीय बात है। यह करोड़ों लोगों की अनुभूत घटना है और सरलतम प्रयोग है। कठिन बहुत नहीं है। और एक बार मस्तिष्क के ऊपरी छोरों पर रस के फूल खिलने शुरू हो जायें तो आपकी जिंदगी से यौन विदा होने लगेगा। वह धीरे-धीरे खो जाएगा और एक नई ही ऊर्जा का, नई ही शक्ति का, एक नये ही वीर्य का, एक नई दीप्ति का, एक नये आलोक का एक नया संसार शुरू हो जाता है।

ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया 

ओशो 


ऊर्ध्वगामी

एक बार अपरिपक्व मन जब काम की दुनिया में उतर जाता है, यौन की दुनिया में उतर जाता है, तो जीवन भर जब भी शक्ति इकट्ठी होती है, लीस्ट रेसिस्टेंस का नियम मानकर वह उसी मार्ग से बह जाने की तत्परता दिखलाती है। और जब तक नहीं बह जाती तब तक भीतर पीड़ा, परेशानी अनुभव होती है। और जब बह जाती है तो रिलीफ मालूम होता है। जैसे हल्का हो गया मन, भार से हम मुक्त हो गए। लेकिन एक बार अगर ऊपर की तरफ जानेवाला मार्ग खुल जाये तो फिर निरंतर उसका स्मरण आता रहता है। किस विधि से मन यौन-ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बना सकता है, तीन बातें इस संबंध में समझ लेनी जरूरी हैं।


पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि जो भी चीज नीचे जा सकती है वह चीज ऊपर भी जा सकती है। इसे वैज्ञानिक सूत्र समझा जा सकता है। असल में जिस चीज का भी नीचे जाने का उपाय है, उसके ऊपर जाने का भी उपाय होगा ही, चाहे हमें पता हो चाहे हमें पता न हो। जिस रास्ते से हम नीचे जा सकते हैं, उसी रास्ते से ऊपर भी जा सकते हैं। रास्ता वही होता है, सिर्फ रुख बदलना होता है।


आप यहां तक आये हैं जिस रास्ते से अपने घर से, उसी रास्ते से आप घर वापस लौटेंगे। तब सिर्फ आपकी पीठ घर की तरफ थी, अब मुंह घर की तरफ होगा। कोई दरवाजा ऐसा नहीं है जो बाहर लाये और भीतर न ले जा सके। जिंदगी दोहरे आयाम में फैलती है। अगर ऊर्जा नीचे उतर सकती है तो ऊर्जा ऊपर जा सकती है। इस पहले नियम को मन को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो हो सकता है मन केवल उसी को करने को राजी होता है कि यह हो सकता है। मन असंभव की तलाश छोड़ देता है। उसे साफ खयाल में आना चाहिए कि यह हो सकता है।


अगर पहाड़ से पानी नीचे की तरफ गिरता है तो साधारणतः पानी पहाड़ से नीचे की तरफ ही गिरता है, ऊपर की तरफ नहीं जाता। हजारों साल तक ऊपर तक ले जाने का हमें कुछ भी पता नहीं था। लेकिन जो चीज नीचे आ सकती है तो ऊपर भी जा सकती है। लेकिन अब हम पहाड़ों की ऊंचाई पर पानी को पहुंचा भी सकते हैं। क्योंकि जिस नियम से पानी नीचे आता है उस नियम के विपरीत प्रयोग करने से पानी ऊपर चढ़ जाता है।


यौन-ऊर्जा नीचे की तरफ सहज आती है। प्रकृति की तरफ से आती है। अगर किसी मनुष्य को उस ऊर्जा को ऊपर ले जाना है तो यह सहज नहीं होगा। प्रकृति की तरफ से नहीं होगा। यह संकल्प से होगा। यह मनुष्य के प्रयास, मनुष्य की आकांक्षा और अभीप्सा और श्रम से होगा। मनुष्य को इस दिशा में श्रम करना पड़ेगा, क्योंकि प्रकृति से उलटी दिशा में बहना पड़ेगा। नदी में अगर नीचे की तरफ बहना हो, सागर की तरफ, तब तैरने की कोई भी जरूरत नहीं है। तब हम हाथ-पैर छोड़कर सागर की तरफ बह जा सकते हैं। नदी ही सागर की तरफ ले जाएगी, हमें कुछ भी करना नहीं। लेकिन अगर नदी के मूल स्रोत की तरफ, उदगम की तरफ जाना हो तो फिर तैरना पड़ेगा, श्रम उठाना पड़ेगा। फिर एक संघर्ष होगा। नदी की धारा से संघर्ष होगा।


तो जो लोग भी ऊपर की तरफ जाना चाहते हैं, उन्हें दूसरी बात समझ लेनी चाहिए कि संकल्प और संघर्ष मार्ग होगा। ऊपर जाया जा सकता है, और ऊपर जाने के अपूर्व आनंद हैं। क्योंकि नीचे जाकर जब सुख मिलता है-क्षणिक सही, पर मिलता है: तो ऊपर जाकर क्या मिल सकता है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।

ज्यों की त्यों रख दिनी चदरिया 

ओशो 


अनंत ऊर्जा

यह जमीन हमें खींचे हुए है, लेकिन उसका हमें पता नहीं चलता है। क्योंकि वह दिखायी पड़नेवाली बात नहीं है। जो दिखायी पड़ती है वह जमीन है, जो नहीं दिखायी पड़ता है वह उसका ग्रेवीटेशन है। जो दिखायी पड़ता है वह शरीर है, वह जो नहीं दिखायी पड़ता है वह मनस और आत्मा है। ठीक ऐसे ही काम के साथ, यौन के साथ दो पहलुओं को समझ लेना जरूरी है। जो दिखायी पड़ती हैं वे जैविक कोष्ठ हैं, जो नहीं दिखायी पड़ता है वह काम-ऊर्जा है। इस सत्य को ठीक से न समझने से आगे बातें फैलाकर देखनी कठिन हो जाती हैं।


इस देश में काम-ऊर्जा पर बड़े प्रयोग हुए हैं। इस देश में पांच हजार वर्ष का लंबा इतिहास है। शायद उससे भी ज्यादा पुराना है, क्योंकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी ऐसी मूर्तियां मिली हैं जो इस बात की खबर देती हैं कि योग की धारणा तब तक विकसित हो चुकी होगी। हड़प्पा की मूर्तियां कोई सात हजार साल पुरानी हैं। सात हजार साल के लंबे इतिहास में इस मुल्क ने काम-ऊर्जा पर, सेक्स एनर्जी पर, बहुत अनूठे प्रयोग किए हैं। लेकिन उनको समझने में भूल हो जाती है। क्योंकि काम-ऊर्जा से हम जीव-ऊर्जा, बायोलाजिकल अर्थ लेकर कठिनाई में पड़ जाते हैं।


इस देश के योगियों ने कहा है कि काम-ऊर्जा, सेक्स एनर्जी, नीचे से ऊपर की तरफ ऊर्ध्वगमन कर सकती है। वैज्ञानिक कहता है, हम शरीर में काटकर भी देख लेते हैं योगी के, लेकिन उसके वीर्य-कण तो वहीं पड? रहते हैं। उसी जगह, जहां साधारण आदमी के शरीर में पड़े होते हैं। वीर्य ऊपर चढ़ता हुआ दिखायी नहीं पड़ता है।


वीर्य ऊपर चढ़ता भी नहीं है, चढ़ भी नहीं सकता। लेकिन जिस काम-ऊर्जा के चढ़ने की बात की है उसे हम समझ नहीं पाए। वीर्य-कणों की वह बात नहीं है, वीर्य-कणों के साथ एक और ऊर्जा जुड़ी हुई है, जो दिखायी नहीं पड़ती है, वह ऊर्जा ऊपर ऊर्ध्वगमन कर सकती है। और जब कोई व्यक्ति यौन-संबंध से गुजरता है तो उसके जैविक परमाणु तो उसके शरीर को छोड़ते ही हैं, साथ ही उसकी काम-ऊर्जा, उसकी सेक्स एनर्जी भी उसके शरीर से बाहर जाती है। वह सेक्स एनर्जी आकाश में खो जाती है। और यौनकण नए व्यक्ति को जन्म देने की यात्रा पर निकल जाते हैं।


संभोग के क्षण में दो घटनाएं घटती हैं–एक जैविक और एक साइकिक। एक तो जीव शास्त्रीय दृष्टि से घटना घटती है, जैसा कि बायोलाजिस्ट अध्ययन कर रहा है, वह वीर्य- कण का स्खलन है। वह वीर्य-कण का यात्रा पर निकलना है अपने विरोधी कणों की खोज में, जिससे कि नए जीवन को वह जन्म दे पाये। और एक दूसरी घटना है। जिसकी योग खोज करता है, वह दूसरी घटना है। इस कृत्य के साथ ही मनस की शक्ति भी स्खलित होती है। वह तो सिर्फ शून्य में खो जाती है।


इस मनस-शक्ति को ऊपर ले जाने के उपाय हैं। और जब वीर्य के ऊर्ध्वगमन की बात कही जाती है तो कोई शरीर-शास्त्री, कोई डाक्टर भूल कर यह न समझे कि वह वीर्य की, या वीर्य-कणों के ऊपर ले जाने की बात है। वीर्य-कण ऊपर नहीं जा सकते। उनके लिए कोई मार्ग नहीं है शरीर में ऊपर। सहस्रार तक तथा मस्तिष्क तक पहुंचने के लिए कोई उपाय नहीं है उनके पास। जो चीज जाती है वह ऊर्जा है। वह मैगनेटिक फोर्स है जो ऊपर की तरफ जाती है। यह जो मैगनेटिक फोर्स है, इसके ही नीचे जाने पर वीर्य-कण भी सक्रिय होते हैं।


बच्चा जब पैदा होता है, लड़की जब पैदा होती है, तब वे अपने यौन संस्थान को पूरा का पूरा लेकर पैदा होते हैं। स्त्री तो अपने जीवन में जितने रजकणों का उपयोग करेगी उन सबको लेकर ही पैदा होती है। फिर कोई नया रजकण पैदा नहीं होता। कोई तीन लाख छोटे अंडों को लेकर स्त्री पैदा ही होती है। बच्ची पैदा ही होती है। एक दिन की बच्ची के पास भी तीन लाख अंडों की सामग्री मौजूद होती है। इसमें से ज्यादा से ज्यादा दो सौ अंडे जीवन लेने के लिए तैयार होकर उसके गर्भाधान तक पहुंचते हैं। उनमें से भी दस-बारह, ज्यादा से ज्यादा बीस, सक्रिय और जीवन में सफल उतर पाते हैं।


लेकिन तेरह या चौदह साल तक लड़की को भी इस सारी की सारी व्यवस्था का कोई पता नहीं चलेगा। उसका शरीर पूरा तैयार है, लेकिन अभी उसकी काम-ऊर्जा उसके अंडों तक नहीं पहुंचती है। तेरह और चौदह साल में जब उसका मस्तिष्क पूरा विकसित होगा तब मस्तिष्क काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ भेजेगा। और मस्तिष्क की सूचना मिलते ही उसका सेक्सऱ्यंत्र सक्रिय होगा। और इससे उलटी घटना भी घटती है। पैंतालीस या पचास साल की उम्र में स्त्री के सारे के सारे अंडे, जो उसके पास सामग्री थी, वह सब समाप्त हो जाएगी। उसके बायोलाजिकल सेक्स का अंत हो जाएगा। लेकिन उसके मन की ऊर्जा अभी भी नीचे उतरती रहेगी।


इसलिए सत्तर साल की बूढ़ी स्त्री भी कामातुर हो सकती है, यद्यपि उसके शरीर में अब काम का कोई उपाय नहीं रह गया। अब काम का कोई जैविक अर्थ नहीं रह गया। अब उसकी बायोलाजिकल बात समाप्त हो गई है। पुरुष भी नब्बे साल का बूढ़ा हो जाए तब भी, उसकी काम-ऊर्जा उसके चित्त से उसके शरीर के नीचे हिस्से तक उतरती रहती है। वही काम-ऊर्जा उसे पीड़ित करती रहती है। यद्यपि शरीर अब सार्थक नहीं रह गया, लेकिन मन अभी भी कामना किए चला जाता है।


यह मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि हम समझ सकें कि चौदह या तेरह साल तक, जब तक मस्तिष्क से सूचना नहीं मिलती…और अब तो बायोलाजिस्ट भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जब तक मस्तिष्क से आर्डर नहीं मिलता है शरीर को, तब तक सेक्सऱ्यंत्र सक्रिय नहीं होता है।


इसलिए अगर हम मस्तिष्क के कुछ हिस्से को काट दें, तो व्यक्ति का सेक्स जीवन भर के लिए समाप्त हो जाएगा। या मस्तिष्क के कुछ हिस्से को हारमोन के इंजेक्शन देकर जल्दी आर्डर देने के लिए तैयार कर लें, तो सात साल का लड़का या पांच साल की लड़की, उसका भी सेक्सऱ्यंत्र सक्रिय हो जाएगा। अगर हम बूढ़े आदमी को वीर्य-कणों का इंजेक्शन दे सकें तो वह अस्सी साल में भी गर्भाधान करा सकेगा। अगर हम स्त्री के ओवरी में अंडा रख सकें, नब्बे साल की स्त्री के, तो भी गर्भाधान हो जायेगा। क्योंकि काम-ऊर्जा तो प्रवाहित हो ही रही है, सिर्फ उसका बाडिली पार्ट, उसका शारीरिक हिस्सा समाप्त हो गया है।


यह जो काम-ऊर्जा है, यह अनंत है। महावीर ने उसे अनंत वीर्य कहा है। असल में महावीर को नाम ही महावीर इसीलिए मिला क्योंकि उन्होंने कहा कि यह अनंत वीर्य…अनंत वीर्य से अर्थ, जैविक वीर्य से नहीं, सीमेन से नहीं है। अनंत वीर्य से अर्थ उस काम-ऊर्जा का है जो निरंतर मन से शरीर तक उतरती है। और जो मन से शरीर तक उतरती है, वह मन से नहीं आती है। वह आती है आत्मा से मन तक और मन से शरीर तक। यह आत्मा से मन तक उतरेगी और मन से शरीर तक उतरेगी। यह उसकी सीढ़ियां हैं। इसके बिना वह उतर नहीं सकती। अगर बीच में से मन टूट जाये, तो आत्मा और शरीर के बीच सारे संबंध टूट जाएंगे।




ज्यों की त्यों रख दिनी चदरिया 

ओशो 

आपकी बातों का अभ्यास करना कठिन है। बताएँ कि ध्यान में किस का स्मरण करना चाहिए?

हली तो बात, मेरा जोर अभ्यास पर नहीं है। मेरा जोर समझ पर है, अभ्यास पर नहीं। मेरी बातों को समझो। अभ्यास की जल्दी मत करो। लेकिन वह ग्रंथि भी हमारे भीतर गहरी पड़ी है। समझने की हमें फिकर नहीं है, अभ्यास करना है। तुम यह बात ही भूल गए हो कि समझ पर्याप्त है। मैं तुमसे कहता हूं; यह रहा दरवाजा, इससे निकल जाओ; दाएँ तरफ मत जाना, वहाँ दीवाल है, जाओगे तो टकराओगे। तुम कहते हो; ठीक, अब अभ्यास कैसे करें? मैं तुमसे कहता हूं: अगर बात समझ गए कि बायीं तरफ दरवाजा है, तो अब अभ्यास क्या करना है? निकल जाओ। लेकिन तुम कहते हो: आपकी बात तो सुन ली, लेकिन बड़ी कठिन है, अभ्यास तो करना ही पड़ेगा।

अभ्यास किस बात का करना है? इस बात का अभ्यास कि दीवाल से नहीं निकलेंगे? दीवाल के सामने खड़े होकर कसम खाओगे कि अब कभी तुझसे न निकलेंगे? दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूं कि चाहे लाख चित्त में विचार उठें, भावनाएँ उठें, आकर्षण उठें, मगर कभी अब तुझसे न निकलँगा? दरवाजे के सामने कसम खाओगे कि व्रत लेता हूं कि अब सदा तुझसे ही निकलँगा? बात समझ में आ गयी तो अभ्यास अपने आप हो जाता है। अभ्यास नासमझ करते हैं। समझदार तो सिर्फ देखते हैं चीजों को। समझदार समझते हैं, नासमझ अभ्यास करते हैं। अभ्यास का मतलब ही यह होता है कि तुम समझे नहीं। समझ गए तो पूछना ही मत कि अभ्यास कैसे करें।


जिसको समझ में आ गया कि सिगरेट पीना जहर है, वह यह नहीं पूछेगा कि अब मैं इसको छोड़ँ कैसे? अगर हाथ में आधी जली सिगरेट थी, वहीं से गिर जाएगी। बस समझ में आ जाना चाहिए कि सिगरेट पीना जहर है। हाँ, यह समझ में न आए, सुन तो लो, समझ में न आए, तो सिगरेट हाथ से नहीं गिरती और नए सवाल उठते हैं कि ठीक कहते हैं आप, कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे, आप कहते हैं तो मेरे हित में ही कहते होंगे, अब अभ्यास कैसे करूँ? अब सिगरेट को छाड़ूँ कैसे?


ज़रा सोचना, यह मूढ़ता का लक्षण है, जो आदमी कहता है मैं सिगरेट को छोड़ूँ कैसे? यह आदमी मूढ़ भी है और बेईमान भी। मूढ़ इसलिए कि इसको एक सीधीसी बात दिखायी नहीं पड़ रही है और बेईमान इसलिए कि यह भी नहीं देखना चाहता कि मुझे दिखायी नहीं पड़ रही है। बेईमान इसलिए कि यह दिखाना यह चाहता है कि समझ में तो मुझे आ गया मैं कोई नासमझ थोड़े ही हूं समझ में तो मुझे बात आ गयी कि यह काम ठीक नहीं है, अब अभ्यास… अभ्यास का मतलब है, कल छोड़ँगा; पहले दंड बैठक लगाऊँगा, सिर के बल खड़ा होऊँगा, माला फेरूँगा, मंदिर जाऊँगा, भजन कीर्तन करूँगा कल छोड़ँगा। और कल कभी आता नहीं। कल कभी आया है, कि आएगा? कल भी यह आदमी यही कहेगा कि अभी क्या करूँ, अभ्यास कर रहा हूं। यह जिंदगी भर अभ्यास करेगा। यह दोहरी मूढ़ता हो गयी। सिगरेट ही पीता रहता तो कम से कम उतना ही समय जाया हो रहा था। अब अभ्यास भी हो रहा है सिगरेट छोड़ने का। यह दोहरा समय व्यय हो रहा है। पहले ही ठीक थी बात। उतना ही काफी था।

संतो मगन भया मन मेरा 


ओशो

Saturday, March 19, 2016

सफलता का सूत्र

ऐसा समझें कि ये सब लोग कोई भी नहीं हैं यहां, माइक पर आप अकेले खड़े हैं; फिर आप मजे से बोल सकते हैं, बड़े आनंद से बोल सकते हैं। अपनी ही आवाज सुनना बहुत आनंदपूर्ण होता है। लेकिन लोग बैठे हैं, तब अड़चन होती है। आप तनाव से भर गए।

मनसविद कहते हैं–आपको अनुभव हुआ होगा–गोली गटकनी मुश्किल होती है दवा की; खाना आप रोज गटक जाते हैं। कभी खयाल भी नहीं आता कि खाने का कोई कौर अटक गया हो और आपको चेष्टा करके लीलना पड़ा हो। लेकिन दवा की गोली जीभ पर रखें–पानी अंदर चला जाता है, गोली जीभ पर रह जाती है। इस गोली में क्या खूबी है? जब आप खाना ले जा रहे हैं, तब कोई चेष्टा नहीं है। गोली को गटकना है। यह प्रयास है। वह प्रयास ही अटकाव बन जाता है।

जीवन के सब तलों पर विपरीत का नियम काम करता रहता है। जितनी आप चेष्टा करेंगे, उतने ही आप विफल हो जाएंगे। सफलता का एक ही सूत्र है: चेष्टा ही न करें। इसका यह मतलब नहीं है कि कुछ करें ही नहीं। यह मतलब नहीं है। इसका मतलब है, ऐसे करें, जैसे करना आपसे निकलता हो। उस पर कोई बोझ न हो, उस पर कोई भार न हो, उस पर कोई जबरदस्ती न हो, अपने को खींचना न पड़ता हो। नदी की तरह बहना होता हो, कली की तरह खिलना होता हो, पक्षी की तरह गीत होता हो!

ताओ उपनिषद 

ओशो 


तनाव

जहां भी जीवन में कुछ करने में हमने तनाव लाया, वहीं सब विकृत हो जाता है। अगर हम प्रेम करने में भी तनाव ले आएं तो प्रेम दुख का जन्मदाता है। उससे बढ़ा फिर दुख का जन्मदाता पाना, खोजना मुश्किल है। अगर प्रार्थना भी हमारी तनाव बन जाए तो वह भी एक बोझ है, पत्थर की तरह छाती पर रखा हुआ। उससे हम और डूबेंगे अंधकार में, प्रकाश की तरफ उड़ेंगे नहीं। लेकिन हम हर चीज को तनाव बना लेने में कुशल हैं। हम किसी चीज को बिना तनाव के करना ही भूल गए हैं।


निसर्ग तनावरहित है। जब एक कली फूल बनती है तो कोई भी प्रयास नहीं होता; बस कली फूल बन जाती है। यह कली का स्वभाव है फूल बन जाना; इसके लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती। और नदी जब सागर की तरफ बहती है तो हमें लगता है कि बह रही है; नदी का होना ही उसका बहना है। बहने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना होता। इसलिए नदी कहीं भी थकी हुई नहीं दिखाई पड़ेगी। कली खिलने में थकेगी नहीं। अगर कली खिलने में थक जाए तो फूल नहीं बन पाएगा फिर। क्योंकि थकान से कहीं फूल का कोई जन्म है? कली तो जब खिलती है तो थकती नहीं, खिलती है, और ताजी होती है, और नई हो जाती है। और नदी जब सागर में गिरती है तो थकी हुई नहीं होती इतनी लंबी यात्रा के बाद; पूर्ण प्रफुल्लित होती है।


ताओ उपनिषद 


ओशो 

बदलने की तरकीब भी अहंकार का खेल है

ऐसा मैंने सुना है कि इजिप्त में एक बादशाह पागल हो गया। और पागल हो गया शतरंज खेलते-खेलते। इतना शतरंज के खेल का उसे शौक था कि रात भर चालें चलता रहे नींद में। सुबह होते ही से सब काम छोड़ कर वह शतरंज की चाल पर बैठ जाए; दिन देखे न रात। धीरे-धीरे वह पगला गया; धीरे-धीरे बस शतरंज ही रह गई, और सब भूल गया। चिकित्सक बुलाए गए। चिकित्सकों ने कहा, यह हमारे हाथ की बात नहीं। अगर कोई शतरंज का बड़ा खिलाड़ी इसके साथ शतरंज खेले तो शायद कुछ हल हो जाए।

तो राज्य के सबसे बड़े खिलाड़ी को बुलाया गया। वह राजी हो गया सम्राट को सुधारने को। एक साल तक, कहते हैं, वह उसके साथ खेल खेलता रहा। और वह सही साबित हुआ, सम्राट ठीक हो गया एक साल के बाद, लेकिन खिलाड़ी पागल हो गया। पागल के साथ शतरंज खेलना! एक तो शतरंज वैसे ही पागल करने वाला खेल, फिर पागल के साथ खेलना! तो सम्राट तो कहते हैं ठीक हो गया साल भर में, लेकिन खिलाड़ी पागल हो गया।


चिकित्सकों से खिलाड़ी के घर के लोगों ने पूछा, अब क्या करें? उन्होंने कहा कि और कोई बड़ा खिलाड़ी खोजो जो राजी हो इसको सुधारने को। मगर तब कोई खिलाड़ी राजी न हुआ, क्योंकि बात फैल गई कि जो सुधारेगा वह पागल हो जाएगा।


बुरे को सुधारने में सम्हल कर कदम उठाना। पहले अपनी तरफ गौर से देख लेना, कहीं बुरे को सुधारने में तुम बुरे तो न हो जाओगे! गलत को सुधारने में गलत तो न हो जाओगे! वेश्या को सुधारने सोच-समझ कर जाना; शराबी को सुधारने होश से जाना।


एक युवक अभी कुछ दिन पहले मेरे पास आया और उसने कहा कि मैं बड़ी झंझट में पड़ गया हूं। लंदन में कोई संस्था होगी जो शराबियों को सुधारने का काम करती है। पश्चिम में ऐसी बहुत सी संस्थाएं हैं। बड़ी अंतर्राष्ट्रीय एक संस्था है: अल्कोहलिक अनॉनिमस। वैसी कोई संस्था में वह शराबियों को सुधारने के काम में लगा होगा। शराबी सुधरे कि नहीं, वह शराब पीना सीख गया। अब वह कहता है, मुझे कौन सुधारे?


जरा सम्हल कर सुधारने की बात में उतरना। क्योंकि वह महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी है। बुद्धों ने वह काम किया है; वह तुमसे न हो सकेगा। तुम उस कुल्हाड़ी को हाथ में लेकर चलाओगे, तुम अपने ही हाथ-पैर काट लोगे। बुद्ध वह काम कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें करना नहीं पड़ता, उनकी मौजूदगी सुधारती है। वही तो कला है। उनका होना सुधारता है; उनका अस्तित्व, उनका पूरा समग्र चैतन्य। उनकी मौजूदगी से क्रांति घटित होती है।



बुद्ध पुरुष के पास होने से तुम बदलने शुरू हो जाते हो। वह तुम्हें बदलना नहीं चाहता। उसकी कोई चाह नहीं रही; इसीलिए तो वह बुद्ध पुरुष है। वह तुम्हें बदलने की भी चाह नहीं रखता। वह तुम्हें तुम्हारी समग्रता में स्वीकार करता है; तुम जैसे हो भले हो। इसी स्वीकार से तुम्हारी क्रांति शुरू होती है। वह तुम्हें प्रेम करता है; तुम जैसे हो, बेशर्त, वैसे ही प्रेम करता है। वह यह नहीं कहता कि तुम ऐसे हो जाओ तब मैं तुम्हें प्रेम करूंगा। वह कहता है, तुम जैसे हो परिपूर्ण हो; मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। उसका हृदय तुम्हें अंगीकार कर लेता है। वह तुम्हें आलिंगन कर लेता है; एक गहन तल पर तुम्हें स्वीकार कर लेता है। उसी स्वीकृति से तुम्हारे जीवन में क्रांति घटनी शुरू होती है। उसका प्रेम तुम्हें बदलता है। उसकी करुणा तुम्हें बदलती है। उसकी चेतना तुम्हें बदलती है। वह तुम्हें नहीं बदलता; वह तुम्हें बदलना भी नहीं चाहता।


और जो तुम्हें बदलना चाहते हैं वे तुम्हें तो बदल ही नहीं पाते, तुम्हें बदलने में खुद बदल जाते हैं। तुम भी दूसरे को बदलने की चेष्टा में मत लगना। उससे बड़ी भूल नहीं है। अगर किसी को भी तुम्हें बदलना हो तो खुद को बदलना। तुम जिस दिन बदल जाओगे, तुम एक जले हुए दीये होओगे। तुम्हारी रोशनी तुम्हारे चारों तरफ पड़ेगी। जो भी वहां से निकलेगा उस रोशनी का दान ले लेगा। जो भी वहां से निकलेगा वह रोशनी उसे जीवन का दर्शन करा देगी। बदलाहट निष्क्रिय चेतना से घटती है, सक्रिय चेतना से नहीं।


जो भी किसी को बदलना चाहता है वह अहंकारी है। यह बदलने की तरकीब भी अहंकार का खेल है। बदलने के नाम पर वह दूसरे की गर्दन को पकड़ना चाहता है। बदलने के नाम पर वह दूसरे के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहता है जैसा कोई वस्तुओं के साथ करता है। वह कहता है, तुम्हारा यह पैर काटेंगे, तुम्हारी यह गर्दन अलग करेंगे; तुमको सुंदर बनाएंगे, तुम्हें शुभ बनाएंगे। वह तुम्हें विध्वंस करना चाहता है। सुधारक की वृत्ति में बड़ी हिंसा छिपी है। और तुम्हारे तथाकथित महात्मा सभी हिंसक हैं। वे तुम्हें बदलना चाहते हैं।


वस्तुतः बुद्ध पुरुष तुम्हें स्वीकार करता है। बदलने को क्या है? तुम भले हो, तुम सर्वांग भले हो जैसे हो। तुम्हारे होने में रत्ती भर भी कुछ बुद्ध पुरुष को शिकायत नहीं है। और तब क्रांति घटित होती है। तब भभक कर क्रांति घटित होती है। उस परिपूर्ण स्वीकार में ही तुम्हारा जीवन एक नयी यात्रा पर निकल जाता है।

ताओ उपनिषद 

ओशो 



दूसरे को सुधार ने की चेष्टा

ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन एक स्कूल में मास्टर था। एक औरत एक दिन आई अपने बेटे को लेकर और उसने कहा कि कुछ इसे डराओ-धमकाओ, क्योंकि यह बिलकुल बगावती हुआ जाता है। न किसी की सुनता, न कोई आज्ञा मानता। सब अनुशासन इसने तोड़ डाला है। हम बड़े बेचैन हैं। इसे थोड़ा डराओ-धमकाओ। इसे रास्ते पर लाओ। 

 ऐसा सुनते ही नसरुद्दीन ऐसा उछला-कूदा, ऐसा चीखा-चिल्लाया कि बच्चा तो डरा ही डरा, औरत बेहोश हो गई। उसने इतना न सोचा था कि यह…। वह तो समझी कि यह आदमी पागल हो गया या क्या हुआ। बच्चा भाग खड़ा हुआ। औरत बेहोश हो गई। और नसरुद्दीन खुद इतना घबड़ा गया कि खुद भी बच्चे के पीछे भाग खड़ा हुआ।


घड़ी भर बाद झांक कर उसने देखा कि औरत होश में आई या नहीं। जब औरत होश में आ गई तब वह भीतर आकर, वापस अपने आसन पर बैठा। उस औरत ने कहा कि यह जरा ज्यादा हो गया, मेरा मतलब ऐसा नहीं था। मैंने यह नहीं कहा था कि मुझे डरा दो।


नसरुद्दीन ने कहा कि देख, भय का शास्त्र किसी की चिंता नहीं करता। जब बच्चे को मैंने डराया तो भय थोड़े ही देखता है कि कौन बच्चा है और कौन तू है। जब भय पैदा किया तो वह सभी के लिए पैदा हो गया। बच्चा तो डरा ही डरा, अब सपने में भी मेरी सूरत देख कर कंप जाएगा। लेकिन भय किसी का पक्षपात नहीं करता। तू भी डरी। और तेरी छोड़, मेरी हालत पूछ! मैं तक घबड़ा गया। अब इस बच्चे को मैं भी देख लूंगा तो मेरे हाथ-पैर कंपेंगे। मैं खुद ही आधा मील का चक्कर लगा कर आ रहा हूं; बामुश्किल रोक पाया अपने को भागने से। ऐसी घबड़ाहट पकड़ गई।


इसे ध्यान में रखो। नसरुद्दीन ठीक कह रहा है। 

भय से जब तुम किसी को भयभीत करते हो तो तुम दूसरे को ही भयभीत नहीं करते, अपने को भी भयभीत कर लेते हो। जब तुम बुराई से किसी को डराते हो तब तुम खुद भी डर जाते हो। यह दुधारी तलवार है। और इसे सम्हाल कर हाथ में उठाना, क्योंकि तुम्हारे हाथ भी लहूलुहान हो जाएंगे।


लाओत्से कह रहा है कि कोई कलाकार काष्ठकार होता है, निष्णात होता है अपनी कुल्हाड़ी को पकड़ने में। तुम उसकी कुल्हाड़ी पकड़ कर मत चलाना। नहीं तो तुम अपने हाथों को जख्मी होने से न बचा पाओगे।

जीवन का शास्त्र बड़ा बारीक, नाजुक है। और जीवन के शास्त्र को सम्हल कर एक-एक कदम होशपूर्वक कोई चले तो ही अपने को बचा पाएगा जख्मी होने से। अन्यथा तुम दूसरे को सुधारने में अपने को बिगाड़ लोगे, दूसरे को बनाने में खुद मिट जाओगे।



ताओ उपनिषद 

ओशो 

लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं

क्योंकि अगर वे मृत्यु से भयभीत होते तो उनके जीवन में क्रांति घटित हो जाती। लोग सोचते हैं, मृत्यु सदा दूसरे की होती है। और सोचना ठीक भी है, क्योंकि तुम सदा दूसरे को मरते देखते हो, खुद को तो तुमने मरते कभी देखा नहीं। कभी इस पार का पड़ोसी मरता है, कभी उस पार का पड़ोसी मरता है। हमेशा दूसरा मरता है। लाश तो निकलती है, लेकिन किसी की निकलती है। तुमने अपनी लाश तो निकलती देखी नहीं। उसे तुम कभी देखोगे भी नहीं; दूसरे देखेंगे उसे। तो ऐसा लगता है मृत्यु सदा दूसरे की होती है–एक बात।


जिसको ऐसी याद आ गई कि मृत्यु मेरी होती है, वह तो खुद बदल जाएगा। तुम्हें उसे भयभीत करने की जरूरत न रहेगी। क्योंकि जिसे यह दिखाई पड़ा कि मृत्यु मेरी होने वाली है, वह तो एक अर्थ में इस जीवन के प्रति जो उसकी वासना है, तृष्णा है, उसको छोड़ देगा। क्योंकि जब मरना ही है, जब क्षण भर ही यहां होना है, तो इतना आग्रह होने का क्या मूल्य रखता है? तो उसकी तृष्णा विलीन हो जाएगी।


जिसको मृत्यु दिखाई पड़ने लगी उसकी तृष्णा विलीन हो जाएगी। और जिसकी तृष्णा विलीन हो जाती है वह आदमी बुरा तो हो ही नहीं सकता। बुरे तो हम तृष्णा के कारण होते हैं; वासना के कारण बुरे होते हैं। दूसरे से हम छीनते इसी आशा में हैं कि वह हमारे पास बचेगा–सदा और सदा।


लेकिन जब हम ही खो जाने को हैं, और क्षण भर बाद आ जाएगा मृत्यु का संदेशा और हमें विदा होना होगा, तो क्या छीनना है किसी से? अगर कोई दूसरा भी हमसे छीन ले जाए तो हम ले जाने देंगे। क्योंकि दूसरा शायद भ्रांति में हो कि सदा यहां रहना है; हम इस भ्रांति में नहीं हैं।


जिसको मृत्यु का स्मरण आ गया, जिसे मृत्यु का बोध हो गया, उसे तुम्हें थोड़े ही बदलना पड़ेगा! समाज को थोड़े ही बदलना पड़ेगा! वह बदल जाएगा स्वयं।


जिनको तुम्हें बदलना पड़ता है उनको मृत्यु की याद भी नहीं है। वे बिलकुल भूले हुए हैं। वे ऐसे जी रहे हैं जैसे सदा रहना है। वे इस तरह के मजबूत मकान बना रहे हैं कि जैसे सदा रहना है। वे इस तरह का बैंक बैलेंस इकट्ठा कर रहे हैं कि जैसे अनंत काल तक उन्हें यहां रहना है। इंतजाम वे बड़ा लंबा कर रहे हैं और उन्हें पता नहीं कि घड़ी भर की बात है, रात भर का विश्राम है इस धर्मशाला में, और सुबह विदा हो जाना होगा। बड़ी व्यवस्था कर रहे हैं छोटे से समय के लिए। धर्मशाला में टिके हैं, आयोजन ऐसा कर रहे हैं जैसे कि किसी महल में सदा-सदा के लिए आवास करना हो।


जिनको मृत्यु का जरा सा भी स्मरण आ गया वे तो खुद ही सजग हो गए। उनसे बुराई तो अपने आप गिर जाएगी, तुम्हें उसे गिराना न पड़ेगा।

ताओ उपनिषद 

ओशो 

प्रेम से अभय

सिकंदर ने एक भारतीय संन्यासी को कहा कि अगर तुम मेरे साथ चलने को राजी न हुए तो तुम्हारी गर्दन काट दूंगा। उस संन्यासी ने कहा, जिस गर्दन को काटने की तुम धमकी दे रहे हो उसे मैं बहुत पहले काट चुका हूं। अगर तुम्हें मजा आए तो तुम काट डालो। लेकिन एक बात ध्यान रखना, तुम भी गिरते देखोगे गर्दन को जमीन पर और मैं भी गिरते देखूंगा।


सिकंदर तो बेबूझ हालत में हो गया। उसकी कुछ समझ में न पड़ा। वह तो तलवार की भाषा जानता था, केवल भय की भाषा जानता था। कभी प्रेमी से तो उसका मिलना ही न हुआ था। किसी ऐसे व्यक्ति को तो उसने देखा ही न था जो प्रार्थना को उपलब्ध हुआ हो। उसने तलवार तो म्यान में रख ली और उस आदमी को कहा, मेरी समझ में नहीं आता कि बात क्या है! लेकिन लाखों लोगों को मैंने डरा दिया है। और अगर मैं पहाड़ों को भी कहूं कि चलो मेरे साथ, तो वे भी चलने को राजी हो जाएंगे। एक नंगा फकीर! तेरे पास है क्या जिसके बल पर तू डर नहीं रहा है?


उस फकीर ने कहा, जीवन से जो पाना था वह मैंने पा लिया; अब जीवन को छीन कर तुम कुछ भी न छीन पाओगे। नवनीत तो पा लिया है, अब तो जीवन की छाछ पड़ी रह गई है। तुम उसे ले जाओ। डर तो तब तक था जब तक जीवन दूध था और नवनीत पाया नहीं था। तुम ले जाते तो सब ले जाते। अब तो छाछ पड़ी रह गई है। जो पाना था वह पा लिया। अगर तुम्हें डराना था तो कुछ समय पहले आना था।


स्वभावतः, जब तुम भोजन कर चुके और कोई थाली को छीनने लगे तो तुम भेंट ही कर दोगे, यह जूठन को ले जाए, हर्ज क्या है! लेकिन तुम भूखे बैठे थे, भोजन शुरू भी न हुआ था, और कोई थाली छीनने लगा, तब कठिनाई होगी। जिसने जीवन के अवसर का उपयोग कर लिया–अवसर के उपयोग का एक ही अर्थ है कि जिसने जीवन के पार कुछ जान लिया, जिसके लिए जीवन सीढ़ी हो गया और जो सीढ़ी से पार हो गया–जिसने जीवन की सरिता को जीवन के पार के सागर से मिला दिया, अब सरिता बचे या सूख जाए, अब कोई अंतर नहीं पड़ता।


प्रेम का शास्त्र तो सिखाता है अभय; प्रेम में लिप्त व्यक्ति अभय को उपलब्ध हो जाता है। और प्रेम में लिप्त व्यक्ति के जीवन में शुभ का संचार होता है–चुपचाप, पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। एक मां अपने बेटे को प्रेम करती हो तो प्रेम के कारण बेटा शांत होता है; मां मौजूद होती है। क्योंकि प्रेम का प्रतिकार असंभव है। प्रेम की तो प्रतिध्वनि ही होती है। भय का प्रतिकार होता है, कोई प्रतिध्वनि नहीं होती। एक मां अगर अपने बेटे को प्रेम करती है तो मां मौजूद है इसलिए बेटा चुप बैठता है। एक बाप अगर अपने बेटे को प्रेम करता है तो प्रतिध्वनि होती है बेटे से भी प्रेम की। बाप काम कर रहा है तो बेटा सम्हल कर चलता है, आवाज न हो।


यह तो शांति और तरह की है। यह प्रेम का प्रतिफल है। यहां भीतर अशांति को बेटा दबा नहीं रहा है। बाप की मौजूदगी और बाप का प्रेम एक शांति को जन्म दे रहा है। अगर बाप की भाषा में काव्य हो और बाप की भाषा में संस्कार हो और बाप ने बेटे के आस-पास शब्दों के गीत निर्मित किए हों, तो बेटे से गाली निकलना असंभव होता है। इसलिए नहीं कि वह डरता है, बल्कि इसलिए कि बाप के प्रेम ने उसे इतने ऊपर उठाया है कि गाली देकर नीचे गिरना असंभव हो जाता है।


प्रेम से शुभ का संचार होता है सहज। तुम जिसे प्रेम करते हो तुम उसे ऊपर उठा लेते हो, आकाश में उठा देते हो। तुमने अगर किसी भी व्यक्ति को प्रेम किया तो तुमने कीचड़ से कमल को ऊपर उठा लिया। जैसे कीचड़ से कमल पार हो जाता है ऐसे ही जिसे तुम प्रेम करते हो, प्रेम के क्षण में ही तत्क्षण क्रांति घटित होती है–कीचड़ नीचे पड़ी रह जाती है, कमल पार हो जाता है। बड़ा फासला हो जाता है। तुम कभी किसी को प्रेम करके देखो। जिसे तुम प्रेम करते हो, अगर तुम्हारा प्रेम प्रगाढ़ है, तो तुम्हारे प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुपात में ही उस व्यक्ति में परमात्मा का जन्म होना शुरू हो जाता है।


ताओ उपनिषद 

ओशो 


भय से दमन

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को सिखा रहा था कि गालियां देना बुरा है। बेटा बड़ा होने लगा था, आस-पड़ोस भी जाने लगा था, स्कूल भी; वह गालियां सीख कर आने लगा था। सब तरफ गालियों का बाजार है। तो मुल्ला नसरुद्दीन ने वही किया जो कोई भी पिता करेगा। उसने बच्चे को कहा कि यह देखो, यह दंड की व्यवस्था है। अगर तुमने इस तरह की गाली दी कि तुमने किसी को गधा कहा, उल्लू का पट्ठा कहा, तो तुम्हें चार आने तुम्हें जो रुपया एक रोज मिलता है–उसमें से चार आने कट जाएंगे, एक बार तुमने गाली दी तो। दो बार दी, आठ आने कट जाएंगे। चार बार तुमने इस तरह की गाली का उपयोग किया, पूरा रुपया कट जाएगा। ज्यादा गाली दी, कल का रुपया भी आज कटेगा। नंबर दो की गाली, पिता ने कहा, कि और अगर तुमने किसी को कहा साला, बदमाश, तो आठ आने कटेंगे। ऐसा उसने फेहरिस्त बना दी, चार तरह की गहरी से गहरी गालियां बता दीं। एक रुपया कटने का इंतजाम कर दिया अगर चौथे ढंग की गाली दी। लड़के ने कहा, यह तो ठीक है, लेकिन मुझे ऐसी भी गालियां मालूम हैं कि पांच रुपया भी काटो तो भी कम पड़ेगा। उनका क्या होगा?


ऊपर से तुम दबा दोगे, भीतर चीजें भरी रह जाएंगी। ऊपर से तुम ढक्कन बंद कर दोगे, आत्मा में धुआं गूंजता रह जाएगा। यह ढक्कन भी तभी तक बंद रहेगा जब तक भय जारी रहेगा। कल बच्चा जवान हो जाएगा, तुम बूढ़े हो जाओगे, तब भय उलटे रूप ले लेगा। तब तुमने जो-जो दबाया था वही-वही प्रकट होने लगेगा। बहुत कम बच्चे हैं जो बड़े होकर अपने बाप के साथ सदव्यवहार कर सकें। पैर भी छूते हों तो भी उसमें सदभाव नहीं होता। बूढ़े बाप के साथ अच्छा व्यवहार करना बड़ा ही कठिन है। कारण?


कारण है कि जब तुम बच्चे थे तब बाप ने जो व्यवहार किया था वह अच्छा नहीं था। इसे तो कोई भी नहीं देखता कि बाप बेटे के साथ बचपन में कैसा व्यवहार कर रहा है। यह सभी को दिखाई पड़ेगा कि बेटा बाप के साथ बुढ़ापे में कैसा व्यवहार कर रहा है। लेकिन जो तुम बोओगे उसे काटना पड़ेगा। उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। आज बच्चा सबल हो गया है, बाप अब बूढ़ा होकर दुर्बल हो गया है, इसलिए नाव उलटी हो गई है। अब बच्चा भयभीत करेगा। अब वह जवान है, अब वह तुम्हें डराएगा। वह तुम्हें दबाएगा।


भय से कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ दब जाता है। और जब भय की स्थिति बदल जाती है तो बाहर आ जाता है। तो तुम्हें समाज में दिखाई पड़ेंगे लोग जो भय के कारण अच्छे हैं। उनका अच्छा होना नपुंसक ब्रह्मचर्य जैसा है। वे जबरदस्ती अच्छे हैं। अच्छा होना नहीं चाहते; अच्छे का उन्हें स्वाद ही नहीं मिला। वे सिर्फ बुरे से डरे हैं और घबड़ा रहे हैं, और भीतर कंप रहे हैं। इस कंपन के कारण लोग अच्छे हैं।


ताओ उपनिषद


ओशो

सात साल का वर्तुल

एक से सात साल तक:


बच्‍चा बहुत मासूम होता है, बिलकुल संत जैसा। वह अपनी जननेंद्रियों से खेलता है लेकिन उसे पता नहीं होता कि वह गलत है। वह नैसर्गिक ढ़ंग से जीता है।


सात से चौदह साल तक:


सात साल में बच्‍चा बचपन से बहार आ जाता है। एक नया अध्‍याय खुलता है। अब तक वह निर्दोष था, अब दुनियादारी और दुनिया की चालाकियां सीखने लगता है। झूठ बोलने लगता है, मुखौटे पहनने लगता है। झूठ की पहली पर्त उसे घेर लेती है।


चौदह से इक्‍कीस साल तक:


चौदह साल से पहले सेक्‍स उसके लिए कभी समस्‍या नहीं थी। लेकिन अब अचानक उसके अंतरतम में काम ऊर्जा पैदा हो जाती है। उसकी पूरी दुनिया ही बदल जाती है। पहली बार विपरीत लिंगी व्‍यक्‍ति में उत्‍सुकता जगती है। जीवन की एक अलग ही दृष्‍टि पैदा होती है।


इक्‍कीस से अट्ठाईस साल तक:


अब उसकी सता की दौड़ शुरू है। महत्‍वाकांक्षा, धन कमाने का लालसा, नाम कमाने की लालसा, कुछ कर गुजरने की इच्‍छा। उसका मैं जग जाता है। यह सब इक्‍कीस वर्ष से शुरू होता है। उसे अपने आपको सिद्ध करना है, जीवन में जड़े जमानी है।


अट्ठाईस से पैंतीस साल तक:


यहां आकर वह सुरक्षा के बारे में सोचने लगता है। सुविधाएं, बैक बैलेंस…अपनी पूंजी कहीं न कहीं सुरक्षित रखने का सोचता है। अट्ठाईस साल तक उसकी गाड़ी खतरे से खेलती रही। मुश्‍किलों का सामना करना पसंद करती रहीं। सारे विद्रोही और हिप्‍पी तीस साल से पहले होते है। तीस साल के बाद सारा हिप्‍पी वाद खत्‍म हो जाता है। तीस साल के आते ही सारी खलबली शांत होने लग जाती है। सब कुछ व्‍यवस्‍था का हिस्‍सा होना शुरू हो जाता है।


पैंतीस से बयालीस साल तक:


पैंतीस वर्ष की आयु फिर एक बदलाव की शुरूआत। पैंतीस वर्ष जीवन का शिखर है। अगर सत्‍तर वर्ष का जीवन हो तो पैंतीस उसका मध्‍य बिंदु है। जीवन वर्तुल आधा समाप्‍त हुआ। अब व्‍यक्‍ति मृत्‍यु के बारे में सोचने लगता है। उसे भय पैदा होता है। यही उम्र है जब अल्‍सर, रक्‍तचाप, दिल का दौरा, कैंसर, टी. बी. और अन्‍य संधातम रोग सिर उठाने लग जोते है। भय के कारण। भय इन सबको पैदा करता है। व्‍यक्‍ति हर तरह की दुर्घटनाओं का शिकार होने लगता है। क्‍योंकि उसके भीतर भय पैदा हो गया है। मृत्‍यु निकट आती मालूम होती है। भय उसका पहला चरण लगता है।


बयालीस से उनचास साल तक:


हर व्‍यक्‍ति को धर्म की जरूरत होती है। अब उसे धार्मिक संबंध की जरूरत होती है—ईश्‍वर या गुरु या कोई ऐसी जगह जहां वह समर्पण कर सके; जहां जाकर वह अपना बोझ हल्‍का कर सके; जहां जाकर वह अपना बोझ हल्‍का कर सके। यदि धार्मिक व्‍यक्‍ति न मिला और लोग एडोल्‍फ हिटलर या स्‍टैलिन को खोज लेते है तो उन्‍हें भगवान बना देते है। यदि वे भी न मिलें तो फिर मनोशिचकित्‍सक है, थेरेपिस्‍ट हे।


उनचास से छप्‍पन साल तक–


व्‍यक्‍ति धर्म में चल पड़ता है, तो उस मार्ग पर अपनी जड़े जमा लेता है। ध्‍यान और सुगंध के नये-नये अंकुर निकलने लग जाते है। जीवन में एक सरसता आ जाती है। गुरु की खोज समप्‍त हो जाती है। उसे राह मिल जाती है। और जीवन की डगर रस से भरी महसूस होती है…


छप्‍पन से त्रेसठ साल तक–


अगर वह ध्‍यान में डूबता है, और सही मार्ग पर चलता चला जाता है। उसके जीवन में पत्‍तों के साथ फूलों का खिलना भी महसुस होने लग जाता है। कलियां चटकने लग जाती है। शांति और आनंद का उन्‍माद उसे घेरे रहता है। आंखों में एक गहराई आ जाती है। उसके संग साथ रहने से शांति फैलने लग जाती है। और एक दिन उसे सतोरी की झलक मिल जाती है।


त्रेसठ से सत्‍तर साल तक–


ये जीवन के अंतिम पड़ाव की सुगंध और मंदिर के कलस दिखाई देने लग जाते है। फिर चाहे वो 80-90 साल तक जीए, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मृत्‍यु के अगमन का स्‍वगत-सत्‍कार शुरू कर देता है। उस में डूब जाने की कला निपूर्ण हो जाता है। सतोरी के बाद में आदमी को मृत्‍यु का जो भय समया होता है वह खत्‍म हो जाता है। हम मृत्‍यु को बीना जाने ही भय भीत रहते है। सतोरी के बाद मृत्‍यु एक सुंदर अनुभव है। जिस की वह सतत प्रतिक्षा करता है। ये नहीं की वह आत्‍म हत्‍या करना चाहता है। वह जीवन भी बीना मृत्‍यु के भय के भार हीन जीता है। बिना कोई बोझ लिये। और धीरे-धीर वह एक दिव्‍यता में प्रवेश कर जाता है।



फॉर मैडमैन ओनली

ओशो

Monday, March 14, 2016

परमात्मा को धोखा

तुमने कहानी सुनी है न अजामिल की, कि अजामिल मरा। उसने कभी जीवन में परमात्मा का नाम न लिया, लेकिन उसके बेटे का नाम नारायण था। मरते वक्त उसने बुलाया, नारायण! नारायण तू कहां है? और ऊपर के नारायण समझे कि मुझे बुला रहा है। वह अपने बेटे को बुला रहा था, उसको ऊपर के नारायण से कुछ लेना देना न था। मर गया नारायण को पुकारते और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए और वह स्वर्ग गया।

यह जिन ने कहानी गढ़ी है, इनसे सावधान रहना! इस तरह के लोगों से सावधान रहना! किसको तुम धोखा दे रहे हो? और अगर तुम्हारा परमात्मा इस तरह धोखे में आता है तो दो कौड़ी का परमात्मा है। इस तरह के परमात्मा का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी आत्मा जिस दशा में होगी, वही अंकित होगा अस्तित्व पर, उससे अन्यथा कुछ भी अंकित नहीं हो सकता।


तो यह दहर का बाप मर रहा था। बेटा भिक्षु हो गया है, तो भी इसे याद नहीं आती कि कुछ अपनी सोचे, कुछ अपनी सुध ले। बल्कि मरते वक्त आदमी और  और तीव्रता से दूसरी बातें  सोचने लगता है। यह भी एक तरकीब है, ताकि मौत दिखायी न पड़े। जैसे जैसे मौत करीब आने लगती है आदमी की, वैसे वैसे आदमी सब तरह से अपने को उलझा लेता है विचारों में, ताकि मौत दिखायी न पड़े। यह भी सांत्वना की तरकीब है। यह अपने को दूसरी दिशा में लगा लेने का उपाय है।


तो मरता था, बेटे को देखना चाहता था। मौत भी तुम्हें नहीं बताती कि सब संबंध टूट जाने वाले हैं, सब संबंध मनगढ़ंत हैं। कौन बेटा, कौन बाप! मौत आ गयी, तुम चलने को तैयार हो गए हो, फिर भी इस संसार में पैर रोपे रखना चाहते हो। मरता था बाप, बेटे को देखना चाहता था, लेकिन भिक्षु गया था गांव के बाहर, तो बाप रोता हुआ, अपने बेटे का नाम ले लेकर मर गया। और सौ स्वर्णमुद्राएँ छोड़ गया। खुद भी जीवनभर धन इकट्ठा किया होगा और अब सब धन छूटा जा रहा है तो भी अभी उसे समझ में नहीं आया कि धन निर्मूल्य है। अभी वह धन छोड़ जाता है अपने बेटे के लिए।


अगर बाप में थोड़ी समझ हो तो बेटे के लिए बोध छोड़ जाएगा, धन क्या छोड़ जाना! धन में खुद अपना जीवन गंवाया और अब बेटे के लिए भी उपाय किए जा रहे हो! अगर बाप में थोडा बोध हो तो अपने जीवन की पूरी असली संपदा—असली संपदा यानी अनुभव की संपदा—कि धन व्यर्थ है, कि भोग व्यर्थ है, कि दौड व्यर्थ है, कि दौड़ा धापी, आपाधापी, सब कुछ काम नहीं आती, मौत सब छीन लेती है, ऐसा सूत्र अपने बेटे को छोड़ जाएगा। मरते वक्त अगर बाप में थोड़ी भी समझ हो तो वह कह जाएगा कि मेरे बेटे को इतनी बात कह देना कि जो  जो मैंने किया, सब व्यर्थ गया, तू समय मत गंवाना, इसमें मत उलझना।


लेकिन कब बाप ऐसी समझ की बात कह पाते हैं! हालांकि हर बाप समझता है कि वह समझदार है। उम्र बढ़ने से कोई समझदार नहीं होता, का होने से कोई समझदार नहीं होता, समझदारी का बुढ़ापे से कुछ लेना देना नहीं है। समझदारी कुछ और ही बात है। अनुभवों की बहुत बड़ी श्रृंखला से कोई समझदार नहीं होता, लेकिन अनुभवों के बीच में से सारसूत्र खोज लेने से कोई समझदार होता है।


तुमने एक बार क्रोध किया, तुमने दो बार क्रोध किया, तुमने हजार बार क्रोध किया, इससे थोड़े ही समझ बढ़ेगी। सच तो यह है कि तुमने हजार बार क्रोध किया, यह यही बताता है कि तुम्हारी समझ घटी, बढ़ी नहीं। समझदार होते तो एक बार क्रोध कर लेते और समझ जाते कि बात व्यर्थ है। दुबारा करने की क्या जरूरत पड़ती! दुबारा करना पड़ा, क्योंकि पहली बार समझ न आयी। तीसरी बार करना पड़ा, क्योंकि दूसरी बार समझ न आयी। लाख बार करना पड़ा। और जैसे जैसे समझ न आयी वैसे वैसे तुम्हारा क्रोध करने का अभ्यास बढ़तो गया। आखिर में तुम पाते हो, क्रोध तो बहुत किया, लेकिन समझे कुछ भी नहीं। लोभ तो बहुत किया, समझे कुछ भी नहीं। काम में बहुत तडूफे, लेकिन समझे कुछ भी नहीं।


तो उम्र को तुम समझदारी मत समझ लेना। उस भूल में मत पड़ना। इस संसार में लोग उस भूल में पड़ जाते हैं। लोग सोचते हैं कि उम्र बडी हो गयी तो समझदार हो गए। समझदारी अनुभव के प्रति जागने से पैदा होती है, मात्र अनुभव की राशि बड़ी होती चली जाए, इससे पैदा नहीं होती। जो तुम कर रहे हो, जो तुम्हारे जीवन में हो रहा है, उसे खूब बोधपूर्वक करो, उसे खूब समझकर करो, सब तरफ से परख करके करो। एक बार जो किया है, फिर उसका खूब विश्लेषण करो, निदान करो कि क्या मिला, क्या पाया, क्या हुआ? अगर कुछ न पाया हो, तो दुबारा थोड़ी सावधानी रखो। नहीं तो जाल अंधी आदत का बड़ा हो जाएगा।


मर रहा है बाप, सब संपत्ति छूटी जा रही है, मरते वक्त भी इस व्यर्थ की संपदा को बेटे के लिए छोड़ जाता है। तुमसे मैं कहूंगा, ऐसा मत करना। तुम्हारे भी बेटे होंगे, उनके लिए कुछ और बहुमूल्य छोड़ जाना, कोई और बड़ी वसीयत छोड़ जाना। कुछ दिनों बाद बेटा वापस लौटा भिक्षु दहर गांव आया। तो उसके छोटे भाई ने रोकर समाचार कहा, उन स्वर्णमुद्राओं को दिया, लेकिन भिक्षु ने स्वर्णमुद्राएं फेंक दीं।


यह बात भी अज्ञान की है। अगर स्वर्णमुद्राओं में कुछ भी नहीं है, तो फेंकने का इतना उत्साह क्या। इसलिए मैं कहता हूं कि घर छोड्कर भागना मत, क्योंकि घर छोड़ने का उत्साह यही बताता है कि तुम्हें अब भी घर में कुछ दिखायी पड़ता है। मैं तो कहता हूं घर में कुछ है ही नहीं, भागकर जाना कहा है? है ही नहीं वहां कुछ, हिमालय पर तुम हो ही, घर में सूना है, कुछ भी नहीं है वहां।


इसलिए मैं कहता हूं पत्नी को छोड्कर मत भाग जाना। पत्नी की मान्यता गिर जाए, बस काफी है। पत्नी के प्रति पत्नी भाव गिर जाए, बस काफी है। पत्नी में भी परमात्मा दिखायी पड़ने लगे, बस काफी है। मेरा तेरा गिर जाए, वही झूठ है। लेकिन वह झूठ तो नहीं छोड़ते। अगर तुम हिमालय भी भाग गए, तो भी तुम्हारी पत्नी तुम्हारी है, यह झूठ तो तुम्हारे साथ जाता है, पत्नी छोड़ जाते हो।



एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

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