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Saturday, September 24, 2016

शरीर पर गेरूआ और गले में माला देख कर लोग प्रश्न ही प्रश्न पूछते रहते हैं। वे मुझसे मेरे गुरु का प्रमाण भी मांगते हैं। ऐसे प्रश्नों के सामने क्या करना चाहिए मुझे—चुप रह जाना चाहिए या कुछ कहना चाहिए?



कोई नियम बनाने की जरूरत नहीं। परिस्थिति पर निर्भर करेगा। अगर पूछने वाला कुतूहलवश पूछ रहा हो तो चुप रह जाना चाहिए; अगर जिज्ञासावश पूछ रहा हो तो कुछ कहना चाहिए। अगर मुमुक्षावश पूछ रहा हो तो सब जो जानते हो, उंडेल देना चाहिए। परिस्थिति पर निर्भर करेगा।

 
इसलिए मैं तुम्हें कोई ऐसा सीधा आदेश नहीं दे सकता कि बोलो या चुप रहो। मैं तो तुम्हें सिर्फ निर्देश इतना दे सकता हूं कि पूछने वाले की आंख में जरा देखना। अगर तुम्हें लगे मात्र कुतूहल है, बचकाना कुतूहल है, तो चुप रह जाना। तुम्हारे चुप रहने से लाभ होगा। क्योंकि कुतूहल तो खाज जैसा है, खुजलाने से समाप्त थोड़े ही होता, चमड़ी छिल जाती और घाव हो जाता है। तुम चुप ही रह जाना।


लेकिन कोई अगर जिज्ञासा से पूछे, ऐसा लगे कि निष्ठावान है, साधक है, पूछता है इसलिए कि शायद मार्ग की तलाश कर रहा है, तो जरूर कहना। और अगर लगे मुमुक्षु है, ऐसे ही जिज्ञासा बौद्धिक नहीं है, प्राणपण से खोजने में लगा है, जीवन को दाव पर लगा देने की तैयारी हैतो अपने हृदय को पूरा खोल कर रख देना।

मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि कोई सूत्र पकड़ कर चलने की जीवन में जरूरत नहीं है, क्योंकि परिस्थिति रोज बदल जाती है। अगर जड़ सूत्र को पकड़ लिया तो बहुत अड़चनें खड़ी होती हैं; कुछ का कुछ होता रहता है।
झेन फकीरों की पुरानी कहानी है। दो मंदिर थे एक गांव के। दोनों मंदिरों में पुराना झगड़ा था। झगड़ा इतना था कि मंदिर के पुजारी एक दूसरे से बोलते भी नहीं थे। दोनों पुजारियों के पास दो छोटे बच्चे थे जो उनके लिए सब्जी खरीद लाते और कुछ सेवा टहल कर देते। उन पुजारियों ने कहा उन बच्चों से कि तुम भी आपस में बोलना मत, रास्ते में कहीं मिल जाओ तो। बच्चे बच्चे हैं! उनको बता दिया कि हमारा झगड़ा बहुत पुराना है, हजारों साल से चल रहा है। उस मंदिर को हम नर्क मानते हैं। उस मंदिर के बच्चे से बोलना मत, बातचीत मत करना।


लेकिन बच्चे तो आखिर बच्चे हैं, रोकने से और उनकी जिज्ञासा बढ़ी। पहले मंदिर का बच्चा एक दिन खड़ा हो गया बाजार में। जब दूसरे मंदिर का बच्चा आता था तो उसने दूसरे मंदिर के बच्चे से पूछा, कहां जा रहे? तो उस बच्चे ने कहा सुनते सुनते वह भी ज्ञानियों की बातें, ज्ञानी हो गया था उसने कहा, जहां हवा ले जाए! पहला बच्चा बड़ा हैरान हुआ कि अब बात कैसे आगे चले? हवा ले जाए, अब तो सब बात ही खत्म हो गई! वह बड़ा उदास आया। उसने अपने गुरु को कहा कि भूल से मैंने उससे बात कर ली। उससे मैंने पूछ लिया, कहां जा रहे? आपने तो मना किया था, मुझे क्षमा करें! लेकिन मैं बच्चा ही हूं। मगर सच में आदमी उस मंदिर के बड़े गड़बड़ हैं। मैंने तो सीधा सादा सवाल पूछा, वह बड़ा अध्यात्म झाड़ने लगा। वह बोला, जहां हवा ले जाए! और चला भी गया हवा की तरह!


गुरु ने कहा, मैंने पहले ही कहा था कि वे लोग गलत हैं। अब तू ऐसा कर, कल उससे फिर पूछना। और जब वह कहे, जहां हवा ले जाए, तो तू कहना, अगर हवा चल रही हो तो फिर क्या करोगे?


वह बच्चा गया दूसरे दिन। उसने पूछा, कहां जा रहे हो? उस बच्चे ने कहा, जहां पैर ले जाएं। अब बड़ी मुश्किल हो गई। अब जहां पैर ले जाएं! वह तो बंधा हुआ उत्तर ले कर आया था। वह फिर लौट कर आया, उसने कहा कि वे तो बड़े बेईमान हैं। आप ठीक कहते हैं, वे आदमी तो बड़े बेईमान हैं! उस मंदिर के लोग तो बदल जाते हैं। कल बोला, जहां हवा ले जाए; आज बोला, जहां पैर ले जाएं!


गुरु ने कहा, मैंने पहले ही कहा था, उनकी बातों का कोई भरोसा ही नहीं। उनसे शास्त्रार्थ हो ही नहीं सकता। कभी कुछ कहते, कभी कुछ कहते। जैसा मौका देखते हैं, अवसरवादी हैं। तो तू ऐसा कर, कल तैयार रह। अगर वह कहे जहां हवा ले जाए, तो पूछना, हवा चले तो? अगर कहे, जहां पैर ले जाएं, तो कहना भगवान करे कहीं अगर लूले लंगड़े हो गए, फिर?


वह गया। अब दो उत्तर उसके पास थे। उसने फिर पूछा, कहां जा रहे हो? उस लड़के ने कहा, सब्जी खरीदने।

मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता। मैं तुम्हें सिर्फ इतना इशारा देता हूं कि जो पूछे, उसकी तरफ गौर से देखना, उसकी स्थिति को समझना और जैसा उचित हो वैसा करना।

जीवन को कभी भी बंधे हुए नियमों में चलाने की जरूरत नहीं है। उसी से तो आदमी धीरे  धीरे मुर्दा हो जाता है। जीवन को जगाया हुआ रखो। बोध से जीयो, सिद्धांत से नहीं। जागरूकता से जीयो, बंधी हुई धारणाओं से नहीं। मर्यादा बस एक ही रहे कि बिना होश के कुछ मत करो।
 

और सब मर्यादाएं व्यर्थ हैं।


अष्टावक्र महागीता 

ओशो

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