Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Wednesday, April 18, 2018

समाधि की दो दशाएं


समाधि की भी दो दशाएं हैं। एक-मनुष्य से नीचे गिर जाओ। भांग पी ली, गांजा पी लिया, चरस, शराब-तुम नीचे सरक गए। शराबी को देखते हो, कैसा मस्त मालूम पड़ता है, कैसा डगमगाता चलता है!


यह आकस्मिक नहीं है कि सूफियों ने शराबी से ही ध्यान की परिभाषा की है। और यह भी आश्‍चर्यजनक नहीं है कि शराबी की मस्ती और ध्यान की, प्रार्थना की मस्ती में, थोड़ासा तारतम्य है। ध्यानी की आंखों में भी तुम वैसे ही नशे के डोरे पाओगे। उसके चेहरे पर भी तुम वैसा ही आह्नाद पाओगे। उसके पैर भी डगमगाते हैंकहीं पर रखता है पैर, कहीं पड़ जाते हैं। वह भी एक मस्ती से भरा है। वह भी कुछ पी उठा है। उसने भी कुछ भीतर रस की गागर उड़ेल ली है। मगर रस की गागर अलगअलग है। और नशे का तल अलगअलग है। 


बच्चे में और संत में भी एक तरह का तारतम्य होता है। छोटे बच्चों में संतत्व नहीं दिखाई पड़ता? कैसा निर्दोष भाव! और संतों में भी छोटे बच्चों जैसा निर्दोष भाव दिखाई पड़ता है। मगर फिर भी भेद भारी है। बच्चा अभी विकृत होगा, संत विकृति के पार आ गया। बच्चे की अभी यात्रा शुरू नहीं हुई। यात्रा शुरू होने को है, अभी तैयारी कर रहा है। संसार में उतरेगा, भटकेगा, परेशान होगा, टूटेगा, बिखरेगाऔर संत उस सारे बिखराव के पार आ गया। संत फिर से बच्चा हो गया है। दोनों में समानता है, दोनों में भेद है।


ऐसी ही जड़ समाधि और चैतन्य समाधि हैं। जड़ समाधि का अर्थ होता है: हमारे भीतर जो थोड़ा सा चैतन्य है, उसे भी गंवा दो। एक लाभ है। जैसे ही चैतन्य हमारे भीतर से खो जाता है थोड़ा ही है हमारे भीतर, कोई ज्यादा है भी नहीं, खोने में कठिनाई भी नहीं होती जैसे ही चैतन्य हमारे भीतर खो जाता है, वैसे ही हमारे भीतर एक स्वर बजने लगता है। द्वंद्व विदा हो गया, दुई न रही। भेद न रहा हमारे भीतर, खंड न रहे हमारे भीतर। हम अविभाज्य हो गए। अचेतन सही, मगर अविभाज्य हो गए। इकट्ठे हो गए। यही तो नींद का मजा है कि तुम इकट्ठे हो जाते हो। दिनभर टूटते हो, बिखरते हो, रात फिर जुड़ जाते हो। सुबह फिर शक्ति उठ आती है।


ऐसी ही जड़ समाधि की अवस्था है। चैतन्य खो गया, फिर तुम इकट्ठे हो गए। मगर यह इकट्ठा होना कोई बड़ा बहुमूल्य इकट्ठा होना नहीं है। तुम पत्थर होकर इकट्ठे हुए। इससे तो आदमी होना बेहतर था। याद करो सुकरात का वचन! सुकरात ने कहा है कि '' मैं असंतुष्ट रहकर भी सुकरात रहना ही पसंद करूंगा। अगर संतुष्ट होकर मुझे सुअर होने का मौका मिले, तो भी मैं सुअर होना पसंद नहीं करूंगा।’’ संतोष भी मिलता हो सुअर होने से, तो सुकरात कहता है: मैं सुअर होना पसंद नहीं करूंगा। और असंतुष्ट ही रहना पड़े मुझे, जलना पड़े असंतोष में, लेकिन सुकरात रहकर, तो मैं यही चुनाव करूंगा।

रामकृष्ण को भी ऐसी समाधि लगती थी, वह जड़ समाधि थी। फिर तोतापुरी ने उन्हें चेताया। तोतापुरी ने उन्हें कहा कि यह तो जड़ समाधि है। यह तुम्हारा पड़ जाना मुर्दे के भ्रांति, इससे कुछ सार नहीं। जागो!

 
तोतापुरी की सतत चेष्टा से रामकृष्ण जागे। और जिस दिन रामकृष्ण को चैतन्य समाधि लगी, उस दिन उन्होंने जाना कि मैं किस भ्रांति में भटका था! मैं कैसी भूल में चला जा रहा था! मैंने अंधेरे को ही रोशनी समझ लिया था। मैंने मूर्च्छा को होश समझ लिया था।

आदमी का लोभ ऐसा है कि हर किसी के जाल में पड़ सकता हैलोभ के कारण। कहीं से भी मिल जाए, मिल जाए। और मिलता कहीं से भी नहीं, खयाल रखना। मिलता सदा अपने भीतर से है। कोई दूसरा तुम्हें दे नहीं सकता। और दूसरे के साथ जितना समय व्यर्थ गंवा रहे हो, पछताओगे पीछे। मिलना अपने भीतर है। लेकिन अपने भीतर पाने के लिए श्रम करना होता है। और श्रम कोई करना नहीं चाहता। लोग आलसी हैं। धन के लिए तो श्रम कर लेते हैं, ध्यान के लिए श्रम नहीं करना चाहते। ध्यान, कहते हैं, प्रसाद रूप मिल जाए। 

का सौवे दिन रैन 

ओशो
 

एक फकीर, एक संन्यासी प्रभु की खोज में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था....


...वह किसी मार्गदर्शक की तलाश में था..कोई उसकी प्रेरणा बन सके, कोई उसे जीवन के रास्ते की दिशा बता सके। और आखिर उसे एक वृद्ध संन्यासी मिल गया राह पर ही, और वह उस वृद्ध संन्यासी के साथ सहयात्री हो गया। 


लेकिन उस वृद्ध संन्यासी ने कहा कि मेरी एक शर्त है यदि मेरे साथ चलना हो तो। और वह शर्त यह है कि मैं जो कुछ भी करूं, तुम उसके संबंध में धैर्य रखोगे और प्रश्न नहीं उठा सकोगे। मैं जो कुछ भी करूं, उस संबंध में मैं ही न बताऊं, तब तक तुम पूछ नहीं सकोगे। अगर इतना धैर्य और संयम रख सको तो मेरे साथ चल सकते हो। 


उस युवक ने यह शर्त स्वीकार कर ली और वे दोनों संन्यासी यात्रा पर निकले। पहली ही रात वे एक नदी के किनारे सोए और सुबह ही उस नदी पर बंधी हुई नाव में बैठ कर उन्होंने नदी पार की। मल्लाह ने उन्हें संन्यासी समझ कर मुफ्त नदी के पार पहुंचा दिया। नदी के पार पहुंचते-पहुंचते युवा संन्यासी ने देखा कि बूढ़ा संन्यासी चोरी-छिपे नाव में छेद कर रहा है! नाव का मल्लाह तो नदी के उस तरफ ले जा रहा है, और बूढ़ा संन्यासी नाव में छेद कर रहा है! वह युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, यह उपकार का बदला? मुफ्त में उन्हें नदी पार करवाई जा रही है! उस गरीब मल्लाह की नाव में किया जा रहा यह छेद?
 
भूल गया शर्त को। कल रात ही शर्त तय की थी। नदी से उतर कर वे दो कदम भी आगे नहीं बढ़े होंगे कि उस युवा संन्यासी ने पूछा कि सुनिए! यह तो आश्चर्य की बात है। एक संन्यासी होकर, जिस मल्लाह ने प्रेम से नदी पार करवाई, मुफ्त सेवा की सुबह-सुबह, उसकी नाव में छेद करने की बात मेरी समझ में नहीं आती, कि उसकी नाव में आप छेद करें! यह कौन सा बदला हुआ..नेकी के लिए बदी से, भलाई का बुराई से?

 
उस बूढ़े संन्यासी ने कहा, शर्त तोड़ दी तुमने। सांझ को ही हमने तय किया था कि तुम पूछोगे नहीं। मेरे से विदा हो जाओ। अगर विदा होते हो तो मैं कारण बताए देता हूं। और अगर साथ चलना है तो आगे ध्यान रहे, दुबारा पूछा कि फिर साथ टूट जाएगा। 


युवा संन्यासी को ख्याल आया। उसने क्षमा मांगी। उसे हैरानी हुई कि वह इतना भी संयम नहीं रख सका! इतना भी धैर्य नहीं रख सका


लेकिन दूसरे दिन ही फिर संयम टूटने की बात आ गई। वे एक जंगल से गुजर रहे थे, और उस जंगल में उस देश का सम्राट शिकार खेलने आया था। उसने संन्यासियों को देख कर बहुत आदर दिया, उन्हें अपने घोड़ों पर सवार किया और वे सब राजधानी की तरफ वापस लौटने लगे। वृद्ध संन्यासी के पास राजा ने अपने एकमात्र पुत्र युवा राजकुमार को घोड़े पर बिठा दिया। घोड़े दौड़ने लगे राजधानी की तरफ। राजा के घोड़े आगे निकल गए; दोनों संन्यासियों के घोड़े पीछे रह गए। बूढ़े संन्यासी के साथ राजा का बच्चा भी बैठा हुआ है, वह एकमात्र बेटा है उसका। जब वे दोनों अकेले रह गए; उस बूढ़े संन्यासी ने उस युवा राजकुमार को नीचे उतारा और उसके हाथ को मरोड़ कर तोड़ दिया। और झाड़ी में धक्का देकर अपने संन्यासी साथी से कहा, भागो जल्दी। 


यह तो बरदाश्त के बाहर था। फिर भूल गई शर्त। उसने कहा, हैरानी की बात है यह! जिस राजा ने हमारा स्वागत किया, घोड़ों पर सवारी दी, महलों में ठहरने का निमंत्रण दिया, जिसने इतना विश्वास किया कि अपने बेटे के घोड़े पर तुम्हें बिठाया, उसके एकमात्र बेटे का हाथ मरोड़ कर तुम जंगल में छोड़ आए हो। यह क्या है? यह मेरी समझ के बाहर है! मैं इसका उत्तर चाहता हूं?


बूढ़े ने कहा, तुमने फिर शर्त तोड़ दी। और मैंने कहा था दूसरी बार शर्त तोड़ोगे, तो विदा हो जाएंगे। अब हम विदा हो जाते हैं, और दोनों बातों का उत्तर मैं तुम्हें दिए देता हूं। जाओ लौट कर पता लगाओ तो तुम्हें ज्ञात होगा कि वह नाव वह मल्लाह इसी किनारे पर रात छोड़ गया, और रात उस गांव पर डाका डालने वाले लोग उसी नाव पर सवार होकर डाका डालेंगे। मैं उसमें छेद कर आया हूं। उस गांव में डाका बच जाएगा। और राजा के लड़के को मैंने हाथ मरोड़ कर छोड़ दिया है जंगल में। तुम पता लगाना, यह राजा तो अत्यंत दुष्ट और क्रूर और आततायी है, इसका लड़का उससे भी क्रूर और आततायी होने को है। लेकिन उस राज्य का एक नियम है कि गद्दी पर वही बैठ सकता है, जिसके सब अंग ठीक हों। मैंने उसके हाथ को मरोड़ दिया है, वह अपंग हो गया, अब वह गद्दी पर बैठने का अधिकारी नहीं रहा। सैकड़ों वर्षों से इस देश की प्रजा पीड़ित है, वह पीड़ित परंपरा से मुक्त हो सकेगी। 


अब तुम विदा हो जाओ। मैं क्षमा चाहता हूं। तुम्हें जो प्रकट दिखाई पड़ता है, वही दिखाई पड़ता है; जो अप्रकट है, जो अदृश्य है, वह दिखाई नहीं पड़ता। और जो आदमी प्रकट पर ही ठहर जाता है, दि अॅाबियस, वह जो सामने दिखाई पड़ता है, उसी पर रुक जाता है, वह कभी सत्य की खोज नहीं कर सकता है। मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं; हमारे रास्ते अलग जाते हैं। 


मुझे पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है, मुझे यह भी पता नहीं कि उस नाव से डाकू हमला करते या न करते, मुझे यह भी पता नहीं कि वह राजकुमार बड़ा होकर आततायी होता या नहीं होता, लेकिन यह कहानी मैंने किसी दूसरे ही अर्थ से कहनी चाही है। और वह यह है कि जिंदगी में एक तो प्रकट अर्थ होता है और एक अप्रकट अर्थ होता है। जीवन के समस्त तथ्यों के पीछे एक तो वह अर्थ होता है, जो ऊपर से दिखाई पड़ता है; और एक वह अर्थ होता है, जो अदृश्य होता है। जो ऊपर के ही अर्थ को देखते हैं, वे धार्मिक नहीं हैं; जो भीतर के अदृश्य अर्थ को देख पाते हैं, वे धार्मिक हैं। 


महावीर या महाविनाश 

ओशो

Monday, April 16, 2018

मन हमारा जौहरी है

जौहरी इसलिए कि हर चीज का मूल्य आंकता रहता है। जो देखता है, तत्क्षण निर्णय करता है, सुंदर है कि असुंदर, शुभ है कि अशुभ, करणीय कि अकरणीय, सत्य कि झूठ! मन का सारा काम ही निर्णायक का काम है। अगर निर्णय न छूटा तो मन के पार गए नहीं। इसलिए जीसस ने कहा है जज ई नाट। निर्णय ही मत करना। निर्णय किया कि मन के कब्जे में आ गए। वह जौहरी! वह बैठा भीतर। वह कसता रहता है अपने कसने के पत्थर पर हर चीज को, कि सोना है कि नहीं है। हीरा है कि नहीं है। मन तो एक तराजू है जो तोलता रहता, तोलता रहता है। इसे तुम जांचो।
 
 
गुलाब का फूल देखा, देख भी नहीं पाए ठीक से कि फौरन मन कह देता है--सुंदर! अभी देखना भी पूरा नहीं हुआ कि शब्द बन जाता है। कहीं गंदगी का ढेर लगा देखा, अभी गंध, दुर्गंध नासापुटों तक पहुंची ही थी कि मन तत्क्षण कह देता है कि कुरूप, गंदगी, बचो!
 
 
मन के निर्णय करने की यह जो आदत है, यह तुम्हें जीवन के सत्य को देखने ही नहीं देती। मन अपनी पुरानी बातें ही दोहराए चला जाता है, थोपे। चला जाता है। किसी नए तथ्य का आविष्कार नहीं हो पाता क्योंकि मन तो है अतीत। मन तो है तुम्हारा पिछला अनुभव का जोड़त्तोड़। मन तो है तुमने जो अब तक जाना, सुना, समझा। उस सोचे, सुने, समझे को ही मन नए तथ्यों पर आरोपित करता जाता है।
 
कानो सुनी सब झूठ 
 
ओशो

जाग्रत से शुरू करो


एक सुबह, मुल्ला नसरुद्दीन अस्पताल में अपने मित्र के पास बैठा था। मित्र ने आँख खोली और उसने कहा, 'नसरुद्दीन, क्या हुआ? मुझे कुछ याद भी नहीं आता।नसरुद्दीन ने कहा, 'रात, तुम जरा ज्यादा पी गये और फिर तुम खिड़की पर चढ़ गये। और तुमने कहा कि मैं उड़ सकता हूं। और तुम उड़ गये। तीन मंजिल मकान पर थे। घटना जाहिर है। सब हड्डियांपसलियां टूट गयी हैं।


मित्र ने उठने की कोशिश की और कहा कि नसरुद्दीन, तुम वहां थे? और तुमने यह होने दिया? तुम किस तरह के मित्र हो?


नसरुद्दीन ने कहा, ' अब यह बात मत उठाओ। उस समय तो मुझे भी लग रहा था कि तुम यह कर सकते हो। यही नहीं, अगर मेरे पायजा में का नाडा थोड़ा ढीला न होता तो मैं भी तुम्हारे साथ आ रहा था। तो कहां कने में पायजामा सम्हालूंगा, इसलिए मैं रुक गया और बच गया। तुम ही थोड़े पी गये थे, मै भी पी गया था।


बेहोशी का अर्थ है: जो भी चित्त में दशा आ जाए, उसी के साथ एक हो जाना। शराबी को एक खयाल आ गया कि उड़ सकता हूं तो अब वह भेद नहीं कर सकता। सोचने के लिए जगह नहीं है। विवेक के लिए सुविधा नहीं है। इसी के साथ एक हो गया!


तुम्हारा जीवन इसी शराबी जैसा है। माना कि तुम खिड़कियों से नहीं उड़ते और माना कि तुम अस्पताल में नहीं पाये जाते और हड्डियां नहीं तोड़ लेते; लेकिन बहुत गौर से देखोगे तो तुम अस्पताल में ही हो और तुम्हारी सब हड्डियां टूट गई हैं। क्योंकि तुम्हारा पूरा जीवन एक रोग है। और उस रोग में सिवाय दुख और पीड़ा के कुछ हाथ आता नहीं है। सब जगह तुम गिरे हो। सब जगह तुमने अपने को तोड़ा है। और सारे तोड्ने के पीछे एक ही मूर्च्छा का सूत्र है कि जो भी घटता है, तुम उससे फासला नहीं कर पाते।


थोड़े दूर हटो! एकएक कदम लंबी यात्रा है; क्योंकि हजारोंलाखों जन्मों में जिसको बनाया है, उसको मिटाना भी आसान नहीं होगा। पर टूटना हो जाता है; क्योंकि वही सत्य है। तुमने जो भी बना लिया है, वह असत्य है। इसलिए हिंदू इसे माया कहते हैं। माया का अर्थ है कि तुम जिस संसार में रहते हो, वह झूठ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि बाहर जो वृक्ष है, वह झूठ है; पर्वत जो है, वह झूठ है और आकाश में चांदतारे है, वे झूठ है। नहीं, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा जो तादात्‍म्‍य है, वह झूठ है। और, उसी तादात्‍म्य से तुम जीते हो। वही तुम्हारा संसार है।


कैसे तादात्‍म्‍य टूटे? तो पहले तो जागने से शुरू करो; क्योंकि वहीं थोड़ीसी किरण जागरण की है। स्‍वप्‍न से तो तुम कैसे शुरू करोगे। मुश्किल होगा। और सुषुप्‍ति का तो तुम्हें कोई पता नहीं है। वहां तो सब होश खो जाता है। जाग्रत से शुरू करो। साधना शुरू होती है जाग्रत से। वह पहला कदम है। दूसरा कदम है: रूप। और तीसरा कदम है: सुषुप्‍ति। और जिस दिन तुम तीनों कदम पूरे कर लेते हो, चौथा कदम उठ जाता है, वह चौथा कदम है तुर्यावस्था वह सिद्धावस्था है।


जाग्रत से शुरू करो; क्योंकि वही रास्ता है। इसलिए उसको जाग्रत कहा है; वह जाग्रत है भी नहीं। क्योंकि कैसी जागृति, जब तुम वस्तुओं में खोये हुए हो और अपने प्रति तुम्हें कोई भी होश नहीं है! उसको क्या जागरण कहना; नाम मात्र को जागरण है। लेकिन उसको जाग्रत कहा है। ठीक जाग्रत तो हमने बुद्धपुरुषों को कहा है। लेकिन यह जागरण है, इस अर्थ में, कि इसमें थोड़ीसी संभावना जागरण की है।


तो पहले तुम जागरण से शुरू करो। भूख लगे, भोजन देना; लेकिन इस स्मरण को साधे रखना कि भूख शरीर को लगती है, मुझे नहीं। पैर में चोट लगे तो मरहमपट्टी करना, अस्पताल जाना, दवा लेना; लेकिन भीतर एक जागरण को साधे रखना कि चोट शरीर को लगी है, मुझे नहीं। इतने ही स्मरण को रखने से ही तुम पाओगे कि निव्यानबे प्रतिशत पीड़ा तिरोहित हो गई। निव्यानबे प्रतिशत पीड़ा इतना होश रखने से ही तिरोहित हो जाती है कि जो चोट लगी है, वह मुझे नहीं लगी। इतना बोध भी तत्‍क्षण तुम्हारे दुख को विसर्जित कर देता है। एक प्रतिशत बची रहेगी; क्योंकि यह बोध पूरा नहीं है। जिस दिन बोध पूरा हो जाएगा, उस दिन समग्र दुख विसर्जित हो जायेग। 


शिव सूत्र 

ओशो

आशीर्वाद तभी मिल सकता है, जब अहंकार न हो।


अहंकार है सारी पीड़ाओं का स्रोत, नरक का द्वार। लेकिन तुमने समझ रखा है, कि वही स्वर्ग की कुंजी है। और अहंकार को सिर पर लेकर तुम लाख उपाय करो, सुख की कोई संभावना नहीं है, न शांति का कोई उफाय है, न स्वर्ग का द्वार खुल सकता है। अहंकार के लिए द्वार बंद है, द्वार के कारण नहीं, अहंकार के कारण ही बंद है।

और अहंकार बिलकुल अंधा है। उसे दिखाई भी नहीं पड़ता। और उस अंधेपन में जिसे मिटाना है, उसे तुम बचाते हो। जिसे छोड़ना है, उसे तुम पकड़ते हो। जिसे फेंकना है, उसे तुम सम्हालते हो।

हीरे-मोती तो फेंक देते हो, कूड़ा-करकट बचा लेते हो। जो असार है, उसे तो सम्हाल कर रखते हो, जो सार है उसकी खबर भूल जाती है।


रोज ही यह मुझे अनुभव होता है। क्योंकि रोज ही लोग आते हैं। उनकी पीड़ा है, उनका कष्ट है। और उनका कष्ट वास्तविक है। लेकिन कष्ट मिटता नहीं, पीड़ा जाती नहीं, अशांति खोती नहीं। और जब मैं उनसे बात करता हूं, तो पाता हूं कि वे उसे बचा रहे हैं।


कल रात ही एक महिला आई। पढ़ी-लिखी है, विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है, पी.एच.डी. है, सुसंस्कृत है। उसने मुझे कहा, कि मेरे मन में बड़ी उदासी है। उदासी जाती नहीं। तो मैंने पूछा, डाक्टरों को पूछा? डाक्टर क्या कहते हैं?


उस महिला ने कहा, "डाक्टर! डाक्टर क्या ठीक करेंगे!"जैसे कि बीमारी इतनी विशिष्ट है कि डाक्टरों का क्या वश कि ठीक कर सकें! जिस ढंग से उसने कहा, जिस भाव-भंगिमा से कहा, कि डाक्टर क्या करेंगे; उसमें ऐसा लगा, कि उसकी बीमारी डाक्टरों के लिए एक चुनौती है। और डाक्टर न कर पाएंगे, क्योंकि वह करने न देगी। डाक्टरों और उसके बीच जैसे कोई संघर्ष, कोई प्रतिस्पर्धा चल रही है।


और उसने कहा, कि संतों के यहां भी गई; कुछ हुआ नहीं। अब आपके चरणों में आई हूं।


संतों को भी हरा चुकी है! अब वह मुझको हराने आई है। कहती तो यही है ऊपर से, कि आपके चरणों में आई हूं; लेकिन भीतर भाव यह है, कि एक मौका आप को भी देना उचित है--एक अवसर! चरणों में नहीं आई है, सेवा लेने आई है। उससे मैंने कहा, रुक जाओ दस दिन ध्यान कर लो।
वह संभव नहीं है। अभी तो विश्वविद्यालय खुलने के करीब है।


अगर बीमारी सच में बीमारी है और कष्ट दे रही है, तो आदमी हजार उपाय करेगा उसे दूर करने का। लेकिन यह महिला उसे बचाती मालूम पड़ती है।


मैंने कहा, ध्यान करो। उसने कहा, एक दिन कल करके देखा!


बीमारी को तो जन्मों-जन्मों तक आदमी इकट्ठा करता है।  ध्यान को एक दिन में करके देख लेता है!मैंने उससे कहा, तो ऐसा करो, जब तक न आ सको--जब आ सको तो दस दिन का वक्त निकाल कर आ जाओ, ताकि पूरा ध्यान का शिविर कर सको। जब तक न आ सको तो मैंने जो-जो कहा है, उसे पढ़ जाओ।


उसने कहा, पढ़ने से क्या होगा? आपका आशीर्वाद चाहिए।

जैसे कि आशीर्वाद मांगे जा सकते हैं!

आशीर्वाद मिलते हैं, मांगे नहीं जा सकते। आशीर्वाद पाने की पात्रता चाहिए। मांगने से उनका कोई संबंध नहीं है। तुम जब तैयार होते हो, तब आशीष बरस जाती है, छीनी-झपटी नहीं जा सकती।


लेकिन ऐसा लगता है, महिला जिद करके बैठी है। उसकी उदासी कोई मिटा न सकेगा। और जब तुम ही जिद करके बैठे हो, तो कौन मिटा सकेगा? और असली सवाल मिटाने का नहीं है। उदासी क्यों है? उदासी इसीलिए होगी, कि अहंकार ने बड़ी महत्वाकांक्षा की होगी, वह पूरी नहीं हो पाई है। अहंकार ने बड़ी सफलताएं चाही होंगी वह पूरी न हो पाई, अहंकार ने बड़े आभूषण उपलब्ध करने चाहे होंगे, सजाना चाहा होगा स्वयं को; वह पूरा नहीं हो पाया। वह कभी पूरा नहीं होता।


सुसंस्कृत महिला है, पढ़ी-लिखी है, इसका अर्थ ही यह हुआ, कि महत्वाकांक्षा साधारण स्त्रियों से ज्यादा है। पुरुषों जैसी महत्वाकांक्षा है, पुरुषों जैसा अहंकार है, एक दौड़ है। उसमें सफल नहीं हो पा रही है। कोई कभी सफल नहीं हो पाता।


कहीं भी पहुंच जाओ, अहंकार की भूख तृप्त होती ही नहीं। क्योंकि अहंकार की भूख झूठी है। सच हो, तो तृप्त हो जाए। झूठी भूख को तृप्त करने का कोई उपाय नहीं। जितना करो तृप्त, उतनी बढती चली जाती है। इसलिए उदासी है। अब उदासी अहंकार के कारण है। और आशीर्वाद तब तक नहीं मिल सकता, जब तक अहंकार न मिटे।

 
इसे थोड़ा ठीक से समझ लो। यह गणित सभी के जीवन के काम का है। आशीर्वाद तभी मिल सकता है, जब अहंकार न हो। और मजा यह है, कि अहंकार न हो, तो आशीर्वाद के बिना भी उदासी मिट सकती है। आशीर्वाद की कोई जरूरत भी नहीं है। अहंकार हो, तो आशीर्वाद की जरूरत है, क्योंकि उदासी रहेगी। लेकिन अहंकार के रहते आशीर्वाद नहीं बरस सकता।और अहंकार गलत को बचाए चला जाता है।

कहै कबीर दीवाना 

ओशो

Popular Posts