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Thursday, November 5, 2015

कस्तूरी कुंडल बसै!

ध्यान का पहला सूत्र है जिसे तुम खोजने चले हो, वह खोजनेवाले में छिपा है। कस्तूरी कुंडल बसै। यह ध्यान के पाठ का प्रारंभ है कि पहले अपने घर को टटोल लो। आनंद को खोजने चले हो? जगत बहुत बड़ा है। पहले घर में खोज लो, वहां न मिले, तो फिर जगत में खोजना। कहीं ऐसा न हो कि आनंद की राशि घर में लगी रहे और तुम जगत में खोजते फिरो। अकसर ऐसा ही होता है। ऐसा ही हुआ है।

हम खोज रहे हैं, मिलता भी नहीं है वहां, तो हम और दूर निकलते जाते हैं खोज में। जितना ही पाते हैं कि मिलना नहीं हो रहा है, उतनी ही हमारी खोज बेचैन और विक्षिप्त होती जाती है। जितना ही हम पाते हैं कि दौड़कर नहीं पहुंच रहे हैं, हम दौड़ को और बढ़ाये जाते हैं। हमारे मन का तर्क कहता है कि शायद ठीक से नहीं दौड़ रहे, शायद जितनी शक्ति से दौड़ना चाहिए उतनी शक्ति से नहीं दौड़ रहे हैं। और दौड़ो, और उपाय करो; सारे लोग बाहर दौड़े जा रहे हैं, तो होगा तो जरूर बाहर, इतने लोग गलत थोड़े ही हो सकते हैं!

हम जिस भीड़ में पैदा होते हैं, जन्म से ही हम पाते हैं कि भीड़ भागी जा रही है किसी के साथ। हम भी भीड़ के हिस्से हो जाते हैं। कोई धन खोज रहा है, कोई पद खोज रहा है, कोई यश खोज रहा है। लेकिन खोज बाहर है, सभी की बाहर है, तो हम भी उसमें लग जाते हैं, संलग्न हो जाते हैं। मनुष्य का मन भीड़ से चलता है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। तुम जहां बहुत लोगों को जाते देखते हो, तुम भी चल पड़ते हो। अनजाने यह बात स्वीकृत कर ली गयी है कि जहां इतने लोग जा रहे हैं, वह ठीक ही जा रहे होंगे।

इसीलिए तो दुनिया में बहुत-सी धारणाएं भी सदियों तक चलती हैं। पता भी चल जाता है कि गलत हैं, तो भी चलती हैं, क्योंकि भीड़ जब तक उन्हें न छोड़ दे तब तक नये लोग आते हैं और पुरानी धारणाओं को पकड़ते चले जाते हैं। जब तक भीड़ उन्हें पकड़े है तब तक नये बच्चे भी उन्हें पकड़ लेंगे, क्योंकि बच्चे तो अनुकरण करते हैं। हम सब अनुकरण में हैं।

इसलिए अलग-अलग संस्कृति, अलग-अलग समाज में, अलग-अलग चीजें मूल्यवान हो जाती हैं। किसी समाज में धन का बहुत मूल्य है। जैसे अमेरिका। तो अमेरिका में जो भीड़ है, वह धन की दीवानी है। और सब चीजें गौण हैं, धन प्रमुख है। हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इसलिए धन को पा लो। जिन समाजों में त्याग का बड़ा मूल्य रहा है उन समाजों में सदियों तक लोगों ने त्याग किया है। क्योंकि त्याग को सम्मान था। बचपन से ही व्यक्ति सुनता है त्याग की महिमा, उसके मन में भी भाव जगने शुरू होते हैं–यही मैं भी करूं।

भारत में ऐसा हुआ। सदियों तक त्याग की महिमा रही। उस त्याग की महिमा के कारण करोड़ों लोग त्यागी बने। लेकिन त्यागी बन जाओ कि धन की दौड़ में पड़ जाओ, कोई फर्क नहीं है, अनुकरण जारी है। जैसे पुराने दिनों में महात्मा का प्रभाव था और हर एक व्यक्ति महात्मा बनना चाहता था, वैसे अब अभिनेता का प्रभाव है। हर एक व्यक्ति अभिनेता बनना चाहता है। कोई फर्क नहीं पड़ा आदमी में।

तुम यह मत समझना कि पहले जो आदमी महात्मा बनना चाहते थे, वे बड़े महात्मा थे। कुछ फर्क नहीं है। वह उस भीड़ का मनोविज्ञान था, यह इस भीड़ का मनोविज्ञान है। उस दिन महात्मा पूज्य था, समादृत था, उसकी प्रतिष्ठा थी। महात्मा बनने में अहंकार की तृप्ति थी। अब अभिनेता बनने में अहंकार की तृप्ति है। बात वही की वही है।

क्रांति तो तब घटती है जब तुम भीड़ से हटते हो। जब तुम कहते हो, अनुकरण अब मैं न करूंगा। अब मैं अपने से सोचूंगा। तुम लाख दोहराओ, तुम करोड़ हो तो भी कोई फिकिर नहीं, मैं अपनी सुनूंगा, मैं अपनी अंतरात्मा की सुनूंगा। मैं अपने हृदय की वाणी से चलूंगा।

जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वाणी को सुनना शुरू करता है, वैसे ही समझ में ध्यान का सूत्र पड़ने लगता है। ध्यान के सूत्र का अर्थ है, जिसे हम खोजते हैं, वह कुछ भी क्यों न हो, उसे हम पहले अपने घर तो खोज लें।

 जिनसूत्र 

ओशो 
 
 

Monday, November 2, 2015

भारत में आपके कार्य करने की शैली भिन्न है, अथवा यहां कोई ”प्राकृतिक बुद्ध क्षेत्र ”जैसा कुछ है?

लतीफा! भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है एक प्रतीक, एक काव्य, कुछ अदृश्य सा  किंतु फिर भी जिसे छुआ जा सके! कुछ विशेष ऊर्जा तरंगों से स्पंदित है यह जगह, जिसका दावा कोई और देश नहीं कर सकता।

इधर दस हजार वर्षों में सहस्रों लोग चेतना की चरम विस्फोट की स्थिति तक पहुंचे हैं। उनकी तरंगें अभी भी जीवंत हैं। उनका असर अभी भी हवाओं में मौजूद है। तुम्हें सिर्फ एक विशेष तरह की ग्राहकता की संवेदनशीलता की, उस अदृश्य को ग्रहण करने की क्षमता की जरूरत है  जो इस अद्भुत भूमि को घेरे हुए है।

अद्भुत इसलिए कहां, क्योंकि इसने सिर्फ एक ही खोज सत्य की खोज के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इस देश ने बड़े फिलासफर पैदा नहीं किए तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा  न प्लेटो, न अरस्‍तू; न थामस एक्‍युनस, न कांट; न हीगल, न ब्राडले; और न ही बर्ट्रेंड रसेल। भारत के पूरे अतीत ने एक भी फिलासफर को जन्म नहीं दिया  और वे सत्य की खोज में संलग्न, निश्चित ही उनकी खोज, अन्य देशों में की जा रही खोज से सर्वथा भिन्न थी। दूसरे देशों में लोग सत्य के संबंध में चिंतन कर रहे थे। भारत में वे सत्य के बारे में विचार नहीं कर रहे थे  क्योंकि कोई सत्य के विषय में भला क्या विचार कर सकता है! या तो सत्य को जानते हो, या नहीं जानते हो। चिंतन मनन असंभव है, फिलासफी की संभावना ही नहीं, वह तो बिलकुल ही फिजूल और व्यर्थ की मेहनत है। वह तो एक अंधे आदमी द्वारा प्रकाश के संबंध में सोचने विचारने जैसी बात है क्या खाक चिंतन कर सकता है वह? हो सकता है वह बड़ा प्रतिभाशाली हो, महान तर्कशास्त्री हो, पर इससे क्या फर्क पड़ता है? न प्रतिभा की जरूरत है और न तर्कों की। जरूरत तो है बस आंखों की जो देख सकें।

प्रकाश देखा जा सकता है, पर सोचा नहीं जा सकता। सत्य भी देखा जा सकता है, किंतु विचारा नहीं जा सकता। इसीलिए भारत में हमारे पास ‘फिलासफी’ का समानार्थी शब्द ही नहीं है। सत्य की खोज को हम दर्शन कहते हैं, और ‘दर्शन’ का मतलब होता है ‘देखना’। फिलासफी का अर्थ है सोचना विचारना, और स्मरण रहे कि विचार प्रक्रिया हमेशा वर्तुलाकार होती है, इर्द  गिर्द घूमती है… बस विषय में, विषय में और विषय में.. वह कभी भी अनुभूति के केंद्र बिंदु पर नहीं पहुंचती।

पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसी भूमि है, जिसने अद्भुत रूप से अपनी सारी प्रतिभा को सत्य को जानने और सत्य ही हो जाने के प्रयास में एकाग्र कर दिया, समर्पित कर दिया।

भारत के पूरे इतिहास में एक भी बड़ा वैज्ञानिक तुम न पाओगे। ऐसा नहीं कि यहां बुद्धिमान और कुशल लोग न हुए, कि प्रतिभाएं नहीं जन्मी। गणित की आधारशिला भारत में रखी गई थी, किंतु अल्वर्ट आइंस्टीन यहां पैदा नहीं हुआ। चमत्कारिक रूप से यह पूरा देश किसी बाह्य खोज में उत्सुक ही नहीं था।’पर’ की पहचान नहीं, वरन् स्वयं को जानना ही यहां एकमात्र लक्ष्य रहा।

कम से कम दस हजार सालों से लाखों करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि। उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारिया और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा… इससे एक खास किस्म का वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विशेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से तुम्हें घेरे है।

यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों का संस्पर्श होगा। ही, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे। तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से गुजर जाओगे। यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका अस्थि पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि पंजर के फोटोग्राफ्स होंगे, उनका एलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया.. .यह स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।

एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और न ही तुम्हारे शिक्षा संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड किसी भी देश में जाकर तुम वहा के लोगों से मिल सकते हो। वहा के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो। लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देशों की श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध, महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया। एक भी कबीर, फरीद या दादू पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों और सभी प्रकार के प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो रहा है।

और ऋषि एक बिलकुल ही भिन्न प्रकार का मनुष्य है। वह मात्र प्रतिभावान ही नहीं, एक महान् चित्रकार या कवि ही नहीं  वह तो दिव्यता का माध्यम है, भगवत्ता के लिए एक पुकार और आमंत्रण है। वह भीतर दिव्यता के उतरने के लिए द्वार खोलता है। और हजारों सालों से लाखों ऋषियों ने द्वार खोले हैं  इस देश की हवाओं को दिव्यता से भरने के लिए। मेरे लिए वह दिव्य वातावरण ही वास्तविक भारत है। परंतु उसे जानने के लिए तुम्हें एक विशेष प्रकार की भावदशा में होना होगा।

लतीफा, चूकि तुम शांत होने का प्रयास कर रही हो, ध्यान में डूब रही हो, इसलिए वास्तविक भारत को तुम स्वयं के संपर्क में आने दे पा रही हो। ही, तुम ठीक कहती हो जिस सरलता से इस गरीब देश में तुम सत्य को उपलब्ध कर सकती हो, वैसा किसी और जगह पर संभव नहीं। यह अत्यंत दीन हीन है पर फिर भी इसकी आध्यात्मिक वसीयत इतनी समृद्ध है कि अगर तुम अपनी आंखें खोलकर उसे देख सको तो बहुत आश्चर्यचकित हो जाओगी। शायद यही एकमात्र मुल्क है जो बड़ी गहनता से चैतन्य के विकास में संलग्न रहा, किसी और चीज में नहीं। दूसरे सभी मुल्क और हजारों चीजों में व्यस्त रहे। लेकिन इस मुल्क का एक ही लक्ष्य, एक ही उद्देश्य रहा कि कैसे मनुष्य की चेतना उस बिंदु तक उठ सके, जहां भगवत्ता से मिलन हो। कैसे भगवत्ता और मनुष्य करीब आएं!

और यह किसी इक्के दुक्के आदमी की नहीं, करोड़ों करोड़ों व्यक्तियों के जीवन की बात है। कोई एक दिन, महीना, या साल का सवाल नहीं, सहस्रों वर्षों की सतत् साधना है। स्वभावत: इस देश में सब ओर एक अत्यंत ऊर्जामय क्षेत्र निर्मित हो गया है, वह पूरी जगह पर छाया है। तुम्हें सिर्फ तैयार (संवेदनशील) होना है।

यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसामसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह की तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है! इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जान बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसामसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्मे, यहूदी की तरह जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो—ईसा’ और ‘ईसाई’ ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक—ठीक जवाब है, न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। वे उतने ही निर्दोष थे, जितनी कि कल्पना की जा सकती है।

…..पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार बार कहते हैं ” अतीत के पैगम्बरों ने तुमसे कहां था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।’’ यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

वे जब भारत आए थे तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हूआ था: उनकी करुणा, क्षमा, और प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते हैं कि ”अतीत के पैगम्बरों द्वारा यह कहां गया था” कौन, हैं ये पुराने पैगम्बर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैं : इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,  ”कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता!? ”

यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, ”मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं चाचा नहीं। मैं क्रोधी और ईर्ष्यालु और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं, वे सब मेरे शत्रु हैं।’’

और ईसामसीह कहते है कि ‘’मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा प्रेम है।’’ यह खयाल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।

उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख, और तिब्बत की यात्रा करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परम्परा में बिलकुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।

रजनीश उपनिषद 

ओशो 

Monday, October 26, 2015

वास्तविक खोज

जो जानते है वे सुख तो नहीं खोजते, बल्कि दुःख को मिटाने का कोई उपाय करते है। दुःख मिटाया जा  सकता है, सुख नहीं पाया जा सकता। और जो सुख पाने में जाएगा वह ज्यादा से ज्यादा दुःख को भुलाने में समर्थ हो सकता है। थोड़ी देर के लिए विस्मरण हो सकता है, थोड़ी देर के लिए भूल सकता है, लेकिन दुःख मिटेगा नहीं। दुःख तो मिटाना है तो दुःख के कारण को जानकार, कारण को नष्ट करने से दुःख नष्ट हो जाएगा और जो दुःख तो नष्ट कर देता है, वह जरूर सुख को उपलब्ध हो जाता है, और जो सुख को खोजता है वह दुःख को कभी नहीं मिटा पाता।

मैं आपसे कहूं, हम सरे लोग सुख खोज रहे है, यह वास्तविक बात नहीं है - वास्तविक खोज नहीं है। हमारी वास्तविक खोज है की हम दुःख को मिटाना चाहते है। लेकिन उस वास्तविक खोज को हम एक भ्रांत मार्ग से पकड़ते है और हमें लगता है की हम सुख को पाना चाहते है।

क्या मैं आपको याद दिलाऊ, दुनिया में दो ही तरह के लोग होते है- एक वे जो सुख को खोजते है, एक वे लोग जो दुःख को मिटाने को खोजते है और यह ज़मीन आसमान का फर्क है दोनों मैं। ये शब्द एक से मालूम हो सकते है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगेगा जो सुख को खोज रहा है वह भी वही खोज रहा है, जो दुःख को मिटने को खोजता है वह भी वही खोज रहा है। नहीं, बिलकुल नहीं। ज़मीन और आसमान में भी इतना फर्क नहीं है जितना इन दो बातो में फर्क है। 

जो सुख खोजता है, वह दुःख में पड़ जाता है। और जो दुःख को मिटाने को खोजता है, वह सुख को उपलब्ध होता चला जाता है।  

क्या कारण है? क्यों हम इस तथ्य को नहीं देखते की हमारे भीतर दुःख है? आप क्यों सुख को खोज रहे हैं? निश्चित ही जब आप सुख को खोज रहे है, यह इस बात का प्रमाण है और सबूत है की आप दुःखी हैं।  अगर कोई आदमी दुःखी नहीं है तो सुख को क्या खोजेगा? अगर कोई आदमी निर्धन है तो धन क्यों खोजेगा? इसलिए जो आदमी जितना ज्यादा धन खोजता हो, जानना चाहिए उतना ही गहरा वह निर्धन होगा। नहीं तो क्यों खोजेगा?  जो आदमी बीमार नहीं है, वह स्वास्थ्य को क्यों खोजेगा? और जो ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्य को खोजता हो, जानना चाहिए वह उतना ही गहरा बीमार है।


आँखो देखि सांच

ओशो

Saturday, August 1, 2015

सार्वभौम खोज

यहां अगर कोई ज्ञानी आ गया हो-वापस लौट जाए। मैं उन्हीं के साथ काम कर सकूंगा, जिन्हें इस बात का बोध है कि वे अज्ञानी हैं। तुम्हारा शान बाधा बन जाएगा। फिर शान हो ही गया हो तो व्यर्थ श्रम उठाने की जरूरत नहीं है। इसलिए इसे ठीक से समझ लेना, कि तुम अगर बीमार हो तो मैं दवा दूंगा। तुम अगर अज्ञानी हो तो मैं शान की तरफ ले चलने की कोशिश करूंगा। तुम अगर अंधेरे में हो तो मैं तुम्हें प्रकाश का रास्ता बताऊंगा। लेकिन अगर तुम प्रकाश में ही खड़े हो, तो मेरा श्रम और अपना श्रम व्यर्थ मत करना। जो आदमी सोया हो उसे जगाना बहुत आसान है। जो आदमी जाग कर पड़ा हो और सोचता हो कि सोया है-उसे जगाना बहुत मुश्किल है।
दूसरी बात, जीवन सबका एक ही बात को खोज रहा है- कैसे दुख मिटे? कैसे आनंद उपलब्ध हो? एक ही तलाश है और एक ही प्यास है। वह वृक्ष भी अगर उठ रहा है जमीन से आकाश की तरफ, तो इसी तलाश में है। अगर पक्षी उड़ रहे हैं और पशु चल रहे हैं और आदमी जी रहा है-तलाश वही है। एक पत्थर भी अगर अस्तित्व में है, तो उसकी भी भीतरी खोज आनंद की है। तो दूसरी बात खयाल में ले लेना कि खोज क्या रहे हो? बहुत लोग परमात्मा को खोजने निकल पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा की खोज मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है कि परमात्मा के संबंध में कोई भी तो भीतर गहरी प्यास नहीं है। अपनी प्यास को पकड़ कर चले—स्व दिन शायद वही प्यास परमात्मा की प्यास बन जाए। लेकिन अभी नहीं है। अभी तो आप ठीक से समझ लें कि आपकी तलाश आनंद की तलाश है। शायद यह खोज आगे बड़े, और यह छोटी सी गंगोत्री से निकली गंगा आनंद की तलाश में चले। और धीरे-धीरे जैसे जैसे खोज गहरी हो, वैसे वैसे पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक नाम है। और शायद पता चले कि आनंद तो परमात्मा का ही एक गुण है। और शायद पता चले कि हमारी खोज सिर्फ आनंद की नहीं है, कुछ और ज्यादा की है। लेकिन प्रारंभिक खोज आनंद की है, परमात्मा की नहीं है।
कुछ लोग पहले से ही परमात्मा की बात में पड़ जाते हैं, तो कठिनाई हो जाती है। बीज बिना हुए वृक्ष होने की कोशिश शुरू हो जाती है। फिर अड़चन होती है। फिर दौड़-धूप बहुत होती है, परिणाम कुछ भी नहीं आता। और जब परिणाम नहीं आता, तो निराशा पकड़ती है, विषाद घेर लेता है।

तो एक बात-आनंद की तलाश के लिए यहां आए हैं। छोड़े परमात्मा को, जल्दी नहीं है। आप आनंद की खोज पर यात्रा शुरू करें और अंत परमात्मा की उपलब्धि पर होगा। लेकिन शुरुआत परमात्मा से मत करें। पहली सीढ़ी से ही चढ़ना उचित है, और क ख ग से ही शुरुआत करनी ठीक है। आनंद सबकी समझ में आता हैं-फिर वह नास्तिक हो तो भी, फिर वह हिंदू हो, या मुसलमान हो, या ईसाई हो, या जैन हो तो भी। ईश्वर को मानता हो, न मानता हो; धर्म में आस्था रखता हो या न रखता हो-कोई भी हो, आनंद की खोज सार्वभौम है। उससे ही शुरू करें, जो सबकी खोज है।

यह दुनिया में इतने धर्मों का विवाद न हो, हिंदू और मुसलमान और ईसाई की लड़ाई न हो, जैन और हिंदू के बीच कलह न हो- अगर हम सार्वभौम खोज को स्वीकार करें। लेकिन हम ईश्वर की खोज से शुरुआत करते हैं। और ईश्वर का हमें न कोई पता है और न ईश्वर को खोजने की कोई प्रबल आकांक्षा है, न हमें प्रयोजन है। तो शब्दों पर लड़ते हैं। तो जिस ईश्वर का हमें कोई पता नहीं, उसकी हम अलग अलग शाब्दिक व्याख्याएं करते हैं। फिर इन व्याख्याओं में विरोध होता है, फिर मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे खड़े होते हैं और आदमी व्यर्थ ही परेशान होता है।

ओशो 

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