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Thursday, September 26, 2019

मैं कभी जीवन के शिखर पर अनुभव करता हूं। ऐसा लगता है कि सब कुछ, जीवन का सब रहस्य पाया हुआ ही है। लेकिन फिर किन्हीं क्षणों में बहुत घनी उदासी और असहायता भी अनुभव करता हूं ,मेरी वास्तविक समस्या क्या है, यह मेरी पकड़ में नहीं आता है।


शिखर जब तक है, तब तक घाटियां भी होंगी। शिखर की आकांक्षा जब तक है, तब तक घाटियों का विषाद भी झेलना होगा। सुख को जिसने मांगा, उसने दुख को भी साथ में ही मांग लिया। और सुख जब आया तो उसकी छाया की तरह दुख भी भीतर आ गया।


हम सुख के नाम तो बदल लेते हैं, लेकिन सुख से हमारी मुक्ति नहीं हो पाती। और जो सुख से मुक्त नहीं, वह दुख से मुक्त नहीं होगा। अष्टावक्र की पूरी उपदेशना एक ही बात की है. द्वंद्व से मुक्त हो जाओ।


जो निर्द्वंद्व हुआ, वही पहुंचा। जिस शिखर को तुम सोचते हो पहुंच गये, वह पहुंचने की भ्रांति है। क्योंकि पहुंचने का कोई शिखर नहीं होता। पहुंचना तो बड़ी समभूमि है। न ऊंचाई है वहा, न नीचाई है वहा। पहुंचना तो ऐसे ही है जैसे तराजू तुल गया। दोनों पलड़े ठीक समतुल हो गये। बीच का काटा ठहर गया। या जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं गया, दाएं गया, तो चलता रहेगा। लेकिन बीच में रुक गया, न बाएं, न दाएं, ठीक मध्य में, तो घड़ी रुक गयी।


जहां न सुख है, न दुख, दोनों के बीच में ठहर गये, वहीं छुटकारा है, वहीं मुक्ति है। अन्यथा मन नयेनये खेल रच लेता है। धन पाना, ध्यान पाना, संसार में सफलता पानी, कि धर्म में सफलता पानी। लेकिन जब तक सफलता का मन है और जब तक सुख की खोज है तब तक तुम दुख पाते ही रहोगे। क्योंकि हर दिन में रात सम्मिलित है। और फूलों के साथ काटे उग आते हैं। फूल काटो से अलग नहीं और रात दिन से अलग नहीं।


छोड़ना हो तो दोनों छोड़ना। एक को तुम न छोड़ पाओगे। एक को हम सब छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी सब की चेष्टा यही है कि रात समाप्त हो जाए, दिन ही दिन हो। ऐसा नहीं होगा। संसार द्वंद्व से बना है। ही, अगर तुम द्वंद्व के बाहर सरक जाओ, अतिक्रमण हो जाए, तुम दोनों के साक्षी हो जाओ। अब समझो फर्क।

तुम कहते हो, 'कभीकभी शिखर पर होता हूं।

जब तुम शिखर पर होते हो, कुछ शांति मिलती है, कुछ आनंद मिलता, कुछ पुलक समाती, कुछ उत्सव होता भीतर, तब तुम उस उत्सव के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तब तुम सोचते हो, मैं उत्सव। तब तुम सोचते हो, मैं आनंद। बस वहीं चूक हो गयी। साक्षी बने रही। होने दो शिखर, उठने दो शिखर, गौरीशंकर बनने दो, उड़ा ऊंचाई आ जाए, लेकिन तुम देखते रहो दूर खड़े, जुड़ मत जाओ, यह मत कहो कि मैं आनंद। इतना ही कहो, आनंद को देख रहा हूं, आनंद हो रहा है, मैं देखनेवाला, मैं आनंद नहीं। फिर थोड़ी देर में तुम पाओगे कि शिखर गया और घाटी आयी। दिन गया, रात आयी। तब भी जानते रहो कि मैं विषाद नहीं। देखता हूं विषाद है, दुख है, पीड़ा है, मैं दूर खड़ा द्रष्टामात्र। सुख को भी देखो, दुख को भी देखो। जब तुम देखनेवाले हो जाओगे तो कैसा शिखर, कैसी घाटी! फिर कैसी विजय और कैसी हार!

अष्टावक्र महागीता 

ओशो

Tuesday, September 24, 2019

भय क्या है?


एक मुसलमान बादशाह हुआ। सुबह ही सुबह वह अपने दरबार में जाकर बैठा था कि एक फकीर भीतर आया। पहरेदारों ने रोकने की कोशिश की, तो उसने कहा कि ' कौन मुझे रोक सकता है? कोई इसका मालिक नहीं है, कि मुझे रोक सके। ' वह इतना दबंग था फकीर, ऐसा प्रभावशाली था कि पहरेदार घबड़ाकर खड़े हो गये। ऐसा कोई आदमी नहीं आया था। उसने कहा, 'हट जाओ रास्ते से। कौन मुझे रोक सकता है? किसका है यह? यह किसी का भी नहीं। ' पहरेदारों ने खबर दी कि ऐसा फकीर आया है, बड़ा प्रभावशाली है और वह कहता है, किसी का मकान नहीं है। कोई मुझे भीतर जाने से रोक नहीं सकता। राजा ने कहा, 'उसे ले आओ।


'फकीर लाया गया। उसने राजा से कहा कि 'मैं इस सराय में कुछ दिन ठहरना चाहता हूं। कौन मुझे रोक सकता है?' उस राजा ने कहा, 'बिलकुल ही अशिष्ट बात बोल रहे हो। एक तो पहरेदारों के साथ तुमने दुर्व्यवहार किया, दूसरा अब तुम मेरे निवास को, मेरे महल को कहते हो सराय, धर्मशाला? शब्द वापस ले लो। ' फकीर बोला, 'मैं अपने शब्द वापस ले लूं? जो कि बिलकुल सच हैं! नहीं, मैं तुमसे कहूंगा, अपने शब्द वापस ले लो। क्योंकि मैं इसके पहले आया, तो तुम यहां नहीं थे; तब कोई और था, जो इसका मालिक बना था। इस सिंहासन पर पहले भी यही झंझट हो चुकी है। ' राजा ने कहा, 'वे कोई नहीं थे, मेरे पिता थे। ' और उसने कहा कि 'उसके पहले भी मैं आया हूं और तब भी झंझट हो चुकी है। तब वे नहीं थे, कोई और थे। ' राजा ने कहा, 'वे उनके पिता थे। ' और फकीर ने कहा, 'ऐसा मैं बहुत बार आया हूं। जब भी यहां आया, तो दूसरे आदमी को पाया हूं। मैं तुमसे पक्का कहता हूं कि जब मैं दुबारा आऊंगा, तब तुम नहीं रहोगे। तो मैं इसको सराय कहने लगा, क्योंकि यहां तो आदमी बदलते रहते हैं! यहां मालकियत किसी की नहीं। तुम अपना शब्द वापस ले लो कि यह निवास है। यह सराय है। यहां तुम आये हो, ठहरे हो, चले जाओगे।


'राजा ने सुना। उसने दरबारियों से कहा, 'मैं अपने शब्द ही वापस नहीं लेता, अपना जीवन भी वापस लेता हूं। ' वह फकीर के पीछे हो गया। उसे दिखायी पड़ गया कि सराय है। वह निवास कभी नहीं था। 


लेकिन सराय को अगर हम अपना निवास समझें, तो फियर होगा। चाहे हम ऊपर से कितने ही समझे रहें कि यह हमारा निवास है, लेकिन आप धर्मशाला में ठहरे हुए हैं और आप यह समझे रहें कितने ही कि मेरा मकान है, फिर भी भीतर किसी तल पर आप झुठला नहीं सकते। आप जानते हैं कि यह मकान नहीं है। यहां ठहरा हुआ हूं। घबराहट लगी रहेगीकब निकल जाऊं। कब अलग कर दिया जाऊं! कब बेघर हो जाऊं! यह डर बना ही रहेगा, क्योंकि जहा आप ठहरे हुए हैं, वह घर है ही नहीं। फियर पैदा होता है, भय पैदा होता है। भय इसलिए पैदा होता है कि जहा घर नहीं है, वहा घर समझे हुए थे।


यह भय बुरा नहीं है। मेरी दृष्टि से जिसमें यह भय नहीं है, वही बात बुरी है। यह भय बुरा नहीं है, क्योंकि जड़बुद्धि में यह भय नहीं होगा। इसलिए जितनी सतेज बुद्धि होगी, उतनी भयभीत होगी। क्योंकि सब तरफ उसे लगेगा, जहाजहा पैर रखे हुए हैं, वहा जमीन है ही नहीं। उसे दिखायी पड़ेगा न, अंधा आदमी नहीं है। जिसके पास आंख है, बोध है, उसे हर चीज भयभीत करती हुई मालूम पड़ेगी। उसका जीवन धीरेधीरे बिलकुल ही भय से भर जायेगा। वह कैपने लगेगा पत्ते की तरह। सब भयभीत हो जायेगा भीतर। लेकिन, इसी भय से अभय पैदा होगा। इसी बोध सेजब कि हर एक चीज उसे आश्वासन देने में असमर्थ हो जायेगी। जब कोई भी चीज उसे ऐसी नहीं रह जाएगी जो अभय दे सके। जिसको दे रही है अभय, वह नासमझ है।

चल हंसा उस देश 

ओशो

साक्षीभाव क्या है? उसे हम जगाना चाहते हैं। क्या वह भी चित्त का एक अंश नहीं होगा? या कि चित्त से परे होगा?




 प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है, और ठीक से समझने योग्य हैसाधारणत: हम जो भी जानते हैं, जो भी करते हैं, जो भी प्रयत्न होगा, वह सब चित्त से होगा, मन से होगा, माइंड से होगाअगर आप रामराम जपते हैं, तो जपने की क्रिया मन से होगीअगर आप मंदिर में पूजा करते हैं, तो पूजा करने की क्रिया मन का भाव होगीअगर आप कोई ग्रंथ पढ़ते हैं, तो पढ़ने की क्रिया मन की होगीऔर आत्मा को जानना हो, तो मन के ऊपर जाना होगामन की कोई क्रिया मन के ऊपर नहीं ले जा सकती हैमन की कोई भी क्रिया मन के भीतर ही रखेगी

स्वाभाविक है कि मन की किसी भी क्रिया से, जो मन के पीछे है, उससे परिचय नहीं हो सकतायह पूछा है, यह जो साक्षीभाव है, क्या यह भी मन की क्रिया होगी? नहीं, अकेली एक ही क्रिया है, जो मन की नहीं है, और वह साक्षीभाव हैइसे थोड़ा समझना जरूरी है

और केवल साक्षीभाव ही मनुष्य को आत्मा में प्रतिष्ठा दे सकता है, क्योंकि वही हमारे जीवन में एक सूत्र है, जो मन का नहीं है, मांइड का नहीं है। 

आप रात को स्वप्न देखते हैंसुबह जागकर पाते हैं कि स्वप्न था, और मैंने समझा कि सत्य हैसुबह स्वप्न तो झूठा हो जाता है, लेकिन जिसने स्वप्न देखा था, वह झूठा नहीं होताउसे आप मानते हैं कि जिसने देखा था वह सत्य था, जो देखा था वह स्वप्न थाआप बच्चे थे, अब युवा हो गयेबचपन तो चला गया, युवापन गयायुवावस्था भी चली जायेगी, बुढ़ापा जायेगालेकिन जिसने बचपन को देखा, युवावस्था  को देखा, बुढ़ापे को देखेगा, वह आया, गया; वह मौजूद रहासुख आता है, सुख चला जाता है; दुःख आता है, दुःख चला जाता हैलेकिन जो दुःख को देखता है और सुख को देखता है, वह मौजूद बना रहता है। 
 
तो हमारे भीतर दर्शन की जो क्षमता है, वह सारी स्थितियों में मौजूद बनी रहती हैसाक्षी का जो भाव है, वह हमारी जो देखने की क्षमता है, वह मौजूद बनी रहती हैवही क्षमता हमारे भीतर अविच्छिन्न रूप से, अपरिवर्तित रूप से मौजूद हैआप बहुत गहरी नींद में हो जाएं, तो भी सुबह कहते हैं, रात बहुत गहरी नींद आयी, रात बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा हुईआपके भीतर किसी ने उस निंद्रापूर्ण अनुभव को भी जानाउस आनंदपूर्ण सुषुप्ति को भी जानातो आपके भीतर जाननेवाला, देखनेवाला जो साक्षी है, वह सतत मौजूद है
मन सतत परिवर्तनशील है, और साक्षी सतत अपरिवर्तनशील हैइसलिए साक्षीभाव मन का हिस्सा नहीं हो सकताऔर फिर, मन की जोजो क्रियाएं हैं, उनको भी आप देखते हैंआपके भीतर विचार चल रहे हैं, आप शांत बैठ जायें, आपको विचारों का अनुभव होगा कि वे चल रहे हैं; आपको दिखायी पड़ेंगे, अगर शांत भाव से देखेंगे तो विचार वैसे ही दिखाई पड़ेंगे, जैसे रास्ते पर चलते हुए लोग दिखायी पड़ते हैंफिर अगर विचार शून्य हो जायेंगे, विचार शांत हो जायेंगे, तो यह दिखायी पड़ेगा कि विचार शांत हो गये हैं, शून्य हो गये हैं; रास्ता खाली हो गया हैनिश्चित ही जो विचारों को देखता है, वह विचार से अलग होगावह जो हमारे भीतर देखने वाला तत्व है, वह हमारी सारी क्रियाओं से, सबसे भिन्न और अलग है

जब आप श्वास को देखेंगे, श्वास को देखते रहेंगे, देखतेदेखते श्वास शांत होने लगेगीएक घड़ी आयेगी, आपको पता ही नहीं चलेगा कि श्वास चल भी रही है या नहीं चल रही हैजब तक श्वास चलेगी, तब तक दिखायी पड़ेगा कि श्वास चल रही है; और जब श्वास नहीं चलती हुई मालूम पड़ेगी, तब दिखाई पड़ेगा कि श्वास नहीं चल रही है लेकिन दोनों स्थितियों में देखने वाला पीछे खड़ा हुआ है

यह जो साक्षी है, यह जो विटनेस है, यह जो अवेयरनेस है पीछे, बोध का बिंदु है : यह बिंदु मन के बाहर है; मन की क्रियाओं का हिस्सा नहीं हैक्योंकि मन की क्रियाओं को भी वह जानता हैजिसको हम जानते हैं, उससे अलग हो जाते हैंजिसको भी आप जान सकते हैं, उससे आप अलग हो सकते हैं; क्योंकि आप अलग हैं हीनहीं तो उसको जान ही नहीं सकतेजिसको आप देख रहे हैं, उससे आप अलग हो जाते हैं, क्योंकि जो दिखायी पड़ रहा है, वह अलग होगा और जो देख रहा है, वह अलग होगा

चल हंसा उस देश 

ओशो


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