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Tuesday, September 24, 2019

बच्चों को अंतर्मुखी कैसे बनाया जाए?




पहली तो बात यह है कि बच्चों को कैसा बनाया जाए, इसकी बजाय हमेशा यह सोचना चाहिए, खुद को कैसा बनाया जाए। हमेशा हम यह सोचते हैं कि दूसरों को कैसा बनाया जाए। और मैं यह भी आपसे कहूं कि वही व्यक्ति यह पूछता है कि दूसरों को कैसा बनाया जाए, जो खुद ठीक से बनने में असमर्थ रहा है। अगर उसके खुद के व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निर्माण हुआ हो, तो जीवन के जिन सूत्रों से उसने खुद को निर्मित किया है, खुद के जीवन में शांति को, स्वयं को पाने की दिशा खोजी है, खुद के जीवन में संगीत पाया है, उन्हीं सूत्रों से, उन्हीं सूत्रों के आधार पर, वह दूसरों के निर्माण के लिए भी अनायास अवसर बन जाता है।


लेकिन हम पूछते हैं कि बच्चों को कैसे बनाया जाए? इसके पीछे पहली बात तो यह समझ लें कि आपकी बनावट कमजोर होगी, ठीक न होगी। और यह भी समझ लें कि किसी दूसरे को बनाना डायरेक्टली सीधे-सीधे असंभव है। हम जो भी कर पाते हैं दूसरों के लिए, वह बहुत इनडायरेक्ट, बहुत परोक्ष, बहुत पीछे के रास्ते से होता है, सामने के रास्ते से नहीं। कोई मां अपने बच्चों को बनाना चाहे, किसी खास ढंग का अंतर्मुखी बनाना चाहे, सत्यवादी बनाना चाहे, चरित्रवान बनाना चाहे, परमात्मा की दिशा में ले जाना चाहे, तो इस भूल में कभी न पड़े कि वह सीधे-सीधे बच्चे को परमात्मा की दिशा में ले जा सकती है। क्योंकि जब भी हम किसी व्यक्ति को किसी दिशा में ले जाने लगते हैं उसका अहंकार, उस व्यक्ति का अहंकार चाहे वह छोटा बच्चा ही क्यों न हो, हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। क्योंकि दुनिया में कोई भी घसीटा जाना पसंद नहीं करता, छोटा बच्चा भी नहीं करता।


जब हम उसे ले जाने लगते हैं कहीं और, और कुछ बनाने लगते हैं, तब उसके भीतर उसकी अहंता, उसका अहंकार, उसका अभिमान हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। वह सख्ती से इस बात का विरोध करने लगता है क्योंकि यह बात उसे आक्रामक एग्रेसिव मालूम पड़ती है। इसमें आक्रमण है, और इस आक्रमण का वह विरोध करने लगता है। छोटा बच्चा है, जैसे उससे बनता है वह विरोध करता है। जिस-जिस बात के लिए इनकार किया जाता है, वही-वही करने को उत्सुक होता है। जिस-जिस बात से निषेध किया जाता है वहीं-वहीं जाता है। जिन-जिन रास्तों पर रुकावट डाली जाती है, वही रास्ते उसके लिए आकर्षक हो जाते हैं।


फ्रायड एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। जब सांझ को वापस लौटने लगा अंधेरा घिर गया, तो देखा दोनों ने कि बच्चा कहीं नदारद है। फ्रायड की पत्नी घबड़ाई उसने कहा कि बच्चा तो साथ नहीं है, कहां गया? बड़ा बगीचा था मीलों लंबा, अब रात को उसे कहां खोजेंगे? फ्रायड ने क्या कहा? उसने कहा, तुमने उसे कहीं जाने को वर्जित तो नहीं किया था, कहीं जाने को मना तो नहीं किया था। उसकी स्त्री ने कहा, हां, मैंने मना किया था, फव्वारे पर मत जाना। तो उसने कहा, सबसे पहले फव्वारे पर चल कर देख लें। सौ में निन्यानबे मौके तो यह है कि वह वहीं मिल जाए, एक ही मौका है कि कहीं और हो। उसकी पत्नी चुप रही, जाकर देखा वह फव्वारे पर पैर लटकाए हुए बैठा हुआ था।

 
उसकी पत्नी ने पूछा कि यह आपने कैसे जाना? उसने कहा, यह तो सीधा गणित है। मां-बाप जिन बातों की तरफ जाने से रोकते हैं वे बातें आकर्षक हो जाती हैं। बच्चा उन बातों को जानने के लिए उत्सुकता से भर जाता है कि जाने। जिन बातों की तरफ मां-बाप ले जाना चाहते हैं, बच्चे की उत्सुकता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार जग जाता है, वह रुकावट डालता है, वह जाना नहीं चाहता।

आप यह बात जान कर हैरान होंगी कि इस तथ्य ने आज तक मनुष्य के समाज को जितना नुकसान पहुंचाया है किसी और ने नहीं। क्योंकि मां-बाप अच्छी बातों की तरफ ले जाना चाहते हैं। बच्चे का अहंकार अच्छी बातों के विरोध में हो जाता है। मां-बाप बुरी बातों से रोकते हैं, बच्चे की जिज्ञासा बुरी बातों की तरफ बढ़ जाती है। मां-बाप इस भांति अपने ही हाथों अपने बच्चों के शत्रु सिद्ध होते हैं।

इसलिए शायद कभी आपको यह खयाल न आया हो कि बहुत अच्छे घरों में बहुत अच्छे बच्चे पैदा नहीं होते। कभी नहीं होते, बहुत बड़े-बड़े लोगों के बच्चे तो बहुत निकम्मे साबित होते हैं।
 
गांधी जैसे बड़े व्यक्ति का एक लड़का शराब पीया, मांस खाया, धर्म परिवर्तित किया, आश्चर्यजनक है। क्या हुआ यह, गांधी ने बहुत कोशिश की उसको अच्छा बनाने की, वह कोशिश दुश्मन बन गई।

एक बात तो यह समझ लें कि जिसको भी परिवर्तित करने का खयाल उठे पहले तो स्वयं का जीवन उस दिशा में परिवर्तित हो जाना चाहिए। तो आपके जीवन की छाया, आपके जीवन का प्रभाव, बहुत अनजान रूप से बच्चे को प्रभावित करता है। आपकी बातें नहीं, आपके उपदेश नहीं। आपके जीवन की छाया बच्चे को परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं और उसके जीवन में परिवर्तन की बुनियाद बन जाती है।

नारी और क्रांति 

ओशो



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