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Saturday, May 26, 2018

आपके सान्निध्य में व्यक्ति आंतरिक अनुभव करे, मगर बाद में न कर पाए, यह क्या बात है? इसको आप मुक्ति की दिशा कहेंगे या परावलंबन कहेंगे?




इसके दोहरे कारण हो सकते हैं। ऐसे तो बहुत हो सकते हैं, लेकिन मोटा दो का विभाजन अच्छा होगा। या तो यह हो सकता है कि वह सिर्फ कल्पना कर रहा है, अनुभव नहीं कर रहा। तो कल्पना करने में भी मेरी मौजूदगी में उसको सहारा मिलेगा। अकेले में मुश्किल पड़ेगी कल्पना करने में। कल्पना भी सहारे मांगती है। तो मेरी मौजूदगी में वह जल्दी कल्पना कर पाएगा। और कल्पना को अनुभव समझने में बड़ी आसानी मेरी मौजूदगी में हो जाएगी। घर वैसा अनुभव हो तो शायद सोचे कि कल्पना ही हो रही है। 


तो एक तो संभावना, बहुत संभावना यही है कि जो अनुभव मेरी मौजूदगी में होता है, खयाल में आता है, और पीछे नहीं होता, उसमें निन्यानबे मौके पर यह है कि वह कल्पना की गई थी, कल्पना कर ली गई थी। लेकिन एक संभावना यह भी है कि तुमने कल्पना नहीं की थी, सच में ही तुमने एक छलांग लगाई थी, तुम जमीन से दो फीट ऊंचे कूद गए थे। एक क्षण को तुमने अपनी गर्दन उठा कर कुछ ऊंचाई पर देख लिया था। लेकिन फिर वापस तुम जमीन पर खड़े हो गए हो। इसकी भी संभावना है। 


दोनों का फायदा हो सकता है। असल में कल्पना भी तुमने की तो वह भी तो सूचक है कि तुम कल्पना करना चाहते हो। असल में तुम तो अनुभव ही करना चाहते हो, इसीलिए कल्पना भी कर ली है। सूचक तो है ही। सभी को कल्पना भी न हो जाएगी। यानी यह मत सोच लेना कि सभी पास आ जाएंगे तो उनको कल्पना भी हो जाएगी। सभी को कल्पना भी न हो जाएगी। तुम्हें कल्पना भी हुई तो भी तुम्हारे भीतर कुछ कल्पना होने की संभावना तो है ही। अनुभव की आकांक्षा तो है ही। सबीज है आकांक्षा, इसलिए कल्पना हो गई। कल निर्बीज हो सके, तो अनुभव भी हो जाएगा। 


इसलिए ऐसे व्यक्ति को जिसे कल्पना हो गई, उसे मैं कहूंगा कि वह इस सत्य को समझे कि कल्पना हो गई। हालांकि वह बहुत जोर देगा कि नहीं, अनुभव हो गया। उसका जोर भी अर्थपूर्ण है। यानी वह बेचारा यह कह रहा है कि अनुभव करना चाहता हूं, इसलिए कैसे आप कह रहे हैं कि कल्पना हो गई, मुझे अनुभव हो गया। पर वह समझ नहीं पा रहा है कि अगर इस कल्पना को अनुभव समझा गया, तो फिर अनुभव कभी न हो सकेगा। 

अगर यह कल्पना ही है, अगर यह कल्पना ही है, तो मेरे निकट घटी, इसकी कैसे जांच कर सकोगे कि कल्पना है या सच में ही मेरे करीब तुमने एक क्षण ऊंचे होकर देख लिया


दोनों ही पीछे खो सकते हैं। लेकिन अगर कल्पना ही रही होगी, तो तुम्हारा व्यक्तित्व ठीक वैसा ही बना रहेगा जैसा इसके पहले था। लेकिन अगर तुमने एक कदम ऊंचा उठ कर देख लिया होगा और फिर खो गया, तो भी तुम्हारे व्यक्तित्व में परिवर्तन हो जाएगा। तुम्हारा व्यक्तित्व वही नहीं रह सकेगा पीछे जैसा था। यही कसौटी होगी। 


मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम? भला तुम्हें वह अनुभव घर जाकर न मिल सके, लेकिन तुम अब वही आदमी न हो सकोगे जो तुम उस अनुभव के पहले थे। अगर तुम वही आदमी फिर हो जाते हो और अनुभव भी नहीं मिलता, तो जानना कि कल्पना थी। क्योंकि कल्पना व्यक्तित्व को नहीं छू पाती। बस वही कसौटी का आधार है। अनुभव व्यक्तित्व को छूता है, चाहे क्षण भर को ही हो। इससे क्या फर्क पड़ता है! 

जो घर बारे अपना 

ओशो

आप जो ध्यान सिखाते हैं, वह क्या पतंजलि के राजयोग का है या दूसरा? यदि दूसरा है, तो उसका स्रोत क्या है? तथा पतंजलि चर्चित, उनके द्वारा आयोजित जो ध्यान है, उनके प्रकार से आपका किस प्रकार भिन्न है?




जैसे मैं पतंजलि से भिन्न हूं, ऐसे ही। और जब पतंजलि को किसी और स्रोत की जरूरत नहीं है, तो मुझे भी किसी स्रोत की जरूरत नहीं है। और जब पतंजलि प्रामाणिक हो सकते हैं, तो मेरे प्रामाणिक होने में कोई बाधा नहीं है। और बड़े मजे की बात यह है कि पांच हजार साल पहले हुआ कोई आदमी, उसका प्रमाण दें, इससे तो बेहतर है कि मैं जो मौजूद हूं मैं ही प्रमाण बनूं। मुझसे बात भी हो सकेगी, सवाल भी हो सकेंगे। पतंजलि से बात भी नहीं हो सकेगी, सवाल भी नहीं हो सकेंगे।


जिस ध्यान की मैं बात कर रहा हूं, कहना चाहिए, वह मेरा ही है। लेकिन मेरे का "मैं' से कोई लेना-देना नहीं है। मेरा सिर्फ इस अर्थ में कि मैं किसी दूसरे को प्रमाण बना कर कुछ भी कहूं, तो वह भरोसे की बात नहीं। मेरा इसी अर्थ में कि जो भी मैं कह रहा हूं वह अनुभव है, विचार नहीं है। जो भी मैं कह रहा हूं वह किसी शास्त्र से संगृहीत नहीं है, स्वयं से जाना हुआ है। लेकिन मेरे का अर्थ "मैं' नहीं है। वह भूल निरंतर हो जाती है। क्योंकि जब तक "मैं' है तब तक तो ध्यान का अनुभव नहीं हो सकता। जब तक "मैं' है तब तक ध्यान का अनुभव नहीं हो सकता। इसलिए "मेरा' बड़ा कामचलाऊ शब्द है, और उसे ब्रेकेट्स में रख लेना। यानी उसका वही अर्थ नहीं है, जो मेरी कुर्सी का होता और मेरे मकान का होता। 


मेरे का कुल मतलब इतना है कि जो भी मैं कह रहा हूं वह अनुभव से कह रहा हूं। और अनुभव के लिए किसी पतंजलि के पास जाने की मुझे जरूरत नहीं, क्योंकि किसी पतंजलि को मेरे पास आने की कभी कोई जरूरत नहीं रही। इसलिए न तो किसी शास्त्र में उसका स्रोत है, न किसी व्यक्ति में उसका स्रोत है। 


लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, वह पतंजलि ने नहीं जाना या बुद्ध ने नहीं जाना। उन्होंने जाना होगा। लेकिन जो मैंने जाना है, वह मैं ही जान कर कह रहा हूं, उनके जानने से लिया गया नहीं है। जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, अगर उससे कोई यात्रा करे, तो भी वहीं पहुंच जाएगा जहां पतंजलि ध्यान करके पहुंचे होंगे। पतंजलि को पढ़ कर कोई पहुंचा होगा, उसकी बात नहीं करता हूं। पतंजलि जहां पहुंचे होंगे, वह इस ध्यान से भी वहां पहुंच जाएगा। बुद्ध जहां पहुंचे होंगे, इस ध्यान से भी वहां पहुंच जाएगा। 


इस अर्थ में मेरा भी नहीं है, क्योंकि वह शाश्वत है, सदा है। 


लेकिन धर्म का एक राज है। और वह यह है कि उसे सदा ही, जब भी पाना होता है, तब स्वयं से ही पुनः पाना होता है। धर्म जो है, वह सिर्फ डिसकवरी नहीं है, वह हमेशा रि-डिसकवरी है। विज्ञान में कोई चीज रि-डिसकवर नहीं करनी पड़ती, सिर्फ डिसकवर करनी पड़ती है, वह सिर्फ आविष्कार है। न्यूटन ने कर लिया, अब दूसरे को करने की कोई जरूरत नहीं है। अब हो गया। अब वह सबकी थाती हो गई। अब वह सबकी संपत्ति हो गई। अब जिसको भी आगे काम करना हो, वह न्यूटन से आगे करेगा। अब न्यूटन के ही आविष्कार को पुनः आविष्कृत करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
लेकिन धर्म का मामला यहां विज्ञान से भिन्न है। यहां पतंजलि ने जो खोज लिया, इसको जब भी कोई फिर खोजने जाएगा, तो वह रि-डिसकवरी है। वही खोजेगा जो पतंजलि ने खोजा था, लेकिन पुनः खोजेगा। क्योंकि धर्म में खोज भी, जो चीज हम खोजते हैं, उसका अनिवार्य हिस्सा है। खोजने की जो प्रक्रिया है, वह भी पाने में अनिवार्य हिस्सा है। इसलिए खोजने की प्रक्रिया से पुनः-पुनः प्रत्येक को गुजरना ही पड़ता है। 

जो घर बारे अपना 

ओशो 

पूछा है कि आत्महीनता, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स क्यों पैदा होता है?


इसीलिए पैदा होता है, आप मानते तो हैं अपने को गौरीशंकर और सिद्ध नहीं कर पाते। आप मानते तो हैं कि जगत के केंद्र हैं, लेकिन सिद्ध नहीं कर पाते। फिर हीनता पैदा होती है। हीनता पैदा ही उन्हें होती है, जिनके मन में श्रेष्ठ होने का भाव है। उलटा लगेगा; लेकिन हमने जीवन को ऐसा ही उलटा कर लिया है कि उसमें सीधी-साफ बातें कहनी हों, तो उलटी मालूम होती हैं। जिस आदमी को भी श्रेष्ठ होने का भाव है, उसे हीनता का बोध पैदा हो जाएगा। उसे लगेगा मैं कुछ भी नहीं हूं, क्योंकि मानता है वह इतना अपने को और उतना सिद्ध नहीं कर पाता है। फिर पीड़ा पकड़ती है मन को कि मैं कुछ भी न कर पाया।


एक मित्र ने पूछा है कि मुझमें आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?


पैदा करना ही मत। आत्म-विश्वास पैदा करने का मतलब ही क्या होता है? मैं कुछ हूं! मैं कुछ करके दिखा दूंगा! आत्म-विश्वास का मतलब यह होता है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं। और हूं ही नहीं, सिद्ध कर सकता हूं। सभी पागल आत्म-विश्वासी होते हैं। पागलों के आत्म-विश्वास को डिगाना बहुत मुश्किल है। अगर एक पागल अपने को नेपोलियन मानता है, तो सारी दुनिया भी उसको हिला नहीं सकती कि तुम नेपोलियन नहीं हो। उसका भरोसा अपने पर पक्का है। 


आत्म-विश्वास की जरूरत क्या है? क्यों परेशानी होती है कि आत्म-विश्वास नहीं है? क्योंकि तुलना है मन में कि दूसरा आदमी अपने पर ज्यादा विश्वास करता है, वह सफल हो रहा है; मैं अपने पर विश्वास नहीं कर पाता, मैं सफल नहीं हो पा रहा हूं। वह इतना कमा रहा है; मैं इतना कम कमा रहा हूं। वह सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है, राजधानी निकट आती जा रही है; मैं बिलकुल पीछे पड़ा हुआ हूं। पिछड़ गया हूं। आत्म-विश्वास कैसे पैदा हो? कैसे अपने को बलवान बनाऊं? क्या मतलब हुआ? आत्म-विश्वास का मतलब हुआ कि आप दूसरे से अपनी तुलना कर रहे हैं और इसलिए परेशान हो रहे हैं। 


आप आप हैं, दूसरा दूसरा है। अगर आप जमीन पर अकेले होते, तो क्या कभी आपको पता चलता कि आत्म-विश्वास की कमी है? अगर आप अकेले होते पृथ्वी पर, तो क्या आपको पता चलता कि मुझमें हीनता का भाव है, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स है? कुछ भी पता न चलता। तब आप साधारण होते। साधारण का मतलब, आपको यह भी पता न चलता कि आप साधारण हैं। सिर्फ होते। जिसको यह भी पता चलता है कि मैं साधारण हूं, उसने असाधारण होना शुरू कर दिया। आप हैं, इतना काफी है। आत्म-विश्वास की जरूरत नहीं है, आत्मा पर्याप्त है। आप हैं। क्यों तौलते हैं दूसरे से?


फिर दिक्कतें खड़ी होंगी। किसी की नाक आपसे बेहतर है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी की आंख आपसे बेहतर है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी की लंबाई ज्यादा है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी ने मकान बड़ा बना लिया, दीनता पैदा हो जाएगी। फिर हजार दीनताएं पैदा हो जाएंगी। फिर जितने लोग आपको दिखाई पड़ेंगे, उतनी दीनताएं आपके भीतर पैदा हो जाएंगी। उनका जोड़ इकट्ठा हो जाएगा। और आपकी मान्यता है कि आप हैं गौरीशंकर! अब बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। आप हैं जगत के सबसे बड़े शिखर; और हर आदमी जो मिलता है, वह बता जाता है कि आप एक खाई हैं, एक खड्ड हैं। तो आपकी यह स्थिति कि खड्ड-खाई चारों तरफ और आपका यह भाव कि मैं हूं गौरीशंकर का शिखर, इन दोनों के बीच जो खिंचाव पैदा होगा, वही आदमी की बीमारी है। वही रोग है, जिसमें हर आदमी सड़ जाता है, मर जाता है, मिट जाता है। दूसरे से तौलते क्यों हैं?


ताओ उपनिषद 

ओशो 

जिंदगी मांगती है बुद्धिमत्ता, इंटेलिजेंस, विजडम;

 ....और विश्वविद्यालय देता है स्मृति, मेमोरी। जिंदगी में स्मृति काफी नहीं है। और यह भी बड़े मजे की बात है कि बहुत ज्यादा स्मृति होना अनिवार्य रूप से बहुत बुद्धिमान होने का लक्षण नहीं है। आमतौर से उलटा होता है। बहुत बुद्धिमान आदमी की स्मृति कमजोर होती है। बहुत बुद्धिमान लोग भुलक्कड़ होते हैं। असल में स्मृति बिलकुल यांत्रिक प्रक्रिया है। उससे बुद्धि का कोई संबंध नहीं है। लेकिन अब तक की सारी शिक्षा स्मृति को ही आरोपित करने में व्यय होती रही है। जितने पीछे हम लौटेंगे उतनी स्मृति की शिक्षा गहरी थी। स्मरण करा देना ही शिक्षक का काम था। रटा देना, पक्का मजबूत मन में बिठा देना, संस्कारित कर देना, कंडीशनिंग कर देना ही शिक्षा का काम था। शिक्षा ने बुद्धिमत्ता पैदा नहीं की। शिक्षा ने स्मृति पैदा की है; जो पुनरुक्त कर सकती है। 


इसलिए हमारी सारी परीक्षाएं स्मृति की परीक्षाएं हैं, बुद्धिमत्ता की नहीं, इंटेलिजेंस की नहीं। हम परीक्षाओं में सिर्फ इस बात की जानकारी कर लेना चाहते हैं कि कौन व्यक्ति ठीक से दोहरा सकता है। लेकिन ठीक से दोहराने वाला आदमी जिंदगी में खो जाएगा क्योंकि जिंदगी रोज नये सवाल उठाती है। और ठीक से दोहराने वाला सिर्फ पुराने उत्तर दोहरा सकता है। पुराने उत्तर जिंदगी के नये सवालों के सामने हार जाते हैं, बेमानी हो जाते हैं। बंधी हुई टेक्स्ट बुक में जो लिखा है, परीक्षा दे देना एक बात है। जिंदगी की कोई बंधी हुई परीक्षा नहीं है। जिंदगी बहुत चपल है, बहुत चंचल है, उसकी परीक्षा का बंधा हुआ हिसाब नहीं है। और जिंदगी की किताब के पीछे कहीं उत्तर नहीं लिखे हैं जिनकी चोरी की जा सके। 


तो जिंदगी में जिसे हम विश्वविद्यालय में प्रतिभा कहते हैं, वह जिंदगी में प्रतिभाहीन होती है। और कई बार तो ऐसा होता है कि विश्वविद्यालय में जिसकी कोई गणना न थी वह जिंदगी में बड़ा प्रतिभावान सिद्ध हो जाता है। अगर हम दुनिया के प्रतिभाशाली लोगों के नाम उठा कर देखें तो उनमें से गोल्ड मेडलिस्ट शायद ही कोई होे। 


कुछ कारण हैं--स्मृति पर बहुत आधार खतरनाक है। फिकर करनी पड़ेगी बुद्धि के विकास की। शिक्षा में क्रांति का पहला आधार होगा स्मृति को केंद्र से हटाएं, बुद्धि को केंद्र पर रखें। पहला सूत्र आपसे बात करना चाहता हूं। स्मृति नहीं, क्योंकि स्मृति का काम तो अब यंत्रों से भी लिया जा सकता है। टेप-रिकार्डर और कंप्यूटर भी काम कर देंगे। अब, अब बहुत जल्दी छोटे कंप्यूटर बन जाएंगे जिनको एक आदमी खीसे में लेकर चल सके और जो भी उत्तर पूछना हो पूछ ले। फिर गोल्ड मेडलिस्ट का क्या होगा? उसका कोई उपयोग ही नहीं रह जाने वाला है। उपयोग खत्म हो गया है। रोज-रोज स्मृति का उपयोग कम हुआ है, बुद्धि का उपयोग बढ़ा है। 


पुरानी भाषाएं अगर हम एक दृष्टि डालें तो हमारी समझ में आएगा--संस्कृत, अरबी, ग्रीक या लैटिन इस भांति से बनाई गई थीं कि स्मरण की जा सकें। इसलिए पुरानी भाषाएं गद्य में नहीं, पद्य में लिखी हुई हैं, कविता में लिखी हैं। पुरानी सारी भाषाएं ऐसी हैं कि उनको गाया जा सके--जैसे, संस्कृत या अरबी या ग्रीक। गाने से कोई चीज जल्दी याद की जा सकती है इसलिए पुरानी भाषाएं कविता पर जोर देती थीं। यह जान कर हैरानी होगी कि संस्कृत में गणित, भूगोल, ज्योतिष और वैद्यक की किताबें तक काव्य में लिखी गई थीं। उनको याद करने का सवाल था। बड़ा सवाल याद करने का था कि कोई चीज याद कैसे हो सके? रिदिम अगर हो तो याद जल्दी हो जाए। 


लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई उसे दिखाई पड़ा कि सवाल याद करने का नहीं है, सवाल नये को खोजने का है। याद किया जाता है पुराने को, खोजा जाता है नये को। और जो कौम और जो विद्यार्थी और जो शिक्षा याद करने पर ही निर्भर हो, नये को नहीं खोज पाएगी। नये को याद नहीं किया जा सकता। याद सिर्फ पुराने को किया जा सकता है। नये को तो खोजना पड़ेगा, डिस्कवर करना पड़ेगा। 

शिक्षा में क्रांति 

ओशो


Wednesday, May 16, 2018

संत सदियों से गाते रहे हैं--गीत शाश्वत के, सनातन के। यह गंगा अखंड बहती रही है। मैं सोचकर ही चमत्कृत हो उठता हूं। इतनी सृजनात्मकता का स्रोत कहां है?


संत सदियों से नहीं गाते रहे हैं, संतों से सदियों से एक ही गाता रहा है। संत नहीं, परमात्मा ही गाता रहा है। जब तक संत गाए तब तक कवि, जिस दिन संत से परमात्मा गाए उस दिन ऋषि। जब तक संत स्वयं अपना बोल बोले, अपना सोच-विचार, अपने अनुमान, अपना तर्कजाल, अपना सिद्धांत, अपना शास्त्र; जब तक संत की बुद्धि बीच में हो तब तक संत संत नहीं है। चाहे कितने ही मधुर उसके वचन हों, चाहे कितनी ही मधुसिक्त उसकी वाणी हो, पौरुषेय है, मनुष्य की ही है; पार से नहीं आयी है इसलिए मुक्तिदायी नहीं हो सकती है। जब संत केवल वाहक होता है, केवल बांस की पोली पोंगरी होता है परमात्मा के ओंठ पर रखी हुई। तुम्हें तो सुनाई पड़ते हैं गीत बांसुरी से ही आते हुए, मगर गीत परमात्मा के होते हैं। 


जब संत स्वयं नहीं बोल रहा होता, स्वयं शून्य हो गया होता है और परमात्मा को बोलने देता है तब वेद का जन्म होता है, उपनिषद का जन्म होता है, गीता का, कुरान का जन्म होता है, बाइबिल का जन्म होता है; तब बड़े अद्भुत गीत उतरते हैं। मगर संत के उन पर हस्ताक्षर नहीं होते, उन पर हस्ताक्षर परमात्मा के होते हैं।


तो पहली बातः संत तो बहुत हुए लेकिन गायक एक है। बांसुरियां बहुत लेकिन बांसुरीवादक एक है।
दूसरी बातः वे जो गीत शाश्वत के और सनातन के हैं, मनुष्य गा भी नहीं सकता। मनुष्य तो क्षणभंगुर है। क्षणभंगुरता में कैसे शाश्वत का गीत उठेगा? मनुष्य तो मिटे तो ही शाश्वत का गीत बन सकता है। मनुष्य भूल ही जाए कि मैं हूं। उस विस्मृति में ही शाश्वत समय में झलकता है।


भक्त वही है जो भगवान की भक्ति में मस्त हो जाए ऐसा कि भूल जाए, जैसे शराबी भूल जाए; भूल जाए सारा संसार। न और की सुध रहे न अपनी सुध रहे। ऐसे मस्ती की अवस्था में शाश्वत और सनातन निश्चित गाता है, जरूर उतर आता है।


तुमने पूछा, चमत्कृत होता हूं यह देखकर। यह गंगा, अखंड गंगा बहती ही रही है। क्योंकि यह परमात्मा की गंगा है, बहती ही रहेगी। भौतिक गंगा तो कभी सूख भी सकती है लेकिन यह स्वर्गीय गंगा है, यह नहीं सूखेगी। जब तक वृक्षों में फूल लगेंगे, आकाश में तारे होंगे, पक्षी पंख फैलाएंगे और उड़ेंगे तब तक जब तक मनुष्य है और मनुष्य के भीतर अनंत को पाने की अभीप्सा जगती रहेगी और जब तक प्रार्थना उठती रहेगी तब तक कहीं न कहीं, किसी कोने में पृथ्वी के किसी हिस्से में तीर्थ बनता रहेगा, काबा निर्मित होता रहेगा। कोई गाएगा शाश्वत को, सनातन को। परमात्मा अखंड है इसलिए उसकी गंगा अखंड है और हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे बावजूद भी कभी-कभी कोई कंठ परमात्मा को हमारे भीतर गुंजा देते हैं, हमारे बीच गुंजा देते हैं।

प्रेम रंग रस ओढ़ चदरिया
 
ओशो

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