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Friday, May 19, 2017

प्रार्थना



ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनके घर की हालत बड़ी बुरी थी। पिता मर गए थे। और पिता मौजी आदमी थे, तो कोई संपत्ति तो छोड़ नहीं गए थे, उलटा कर्ज छोड गए थे। और विवेकानंद को कुछ भी न सूझता था कि कर्ज कैसे चुके। घर में खाने को रोटी भी नहीं थी। और ऐसा अक्सर हो जाता था कि घर में इतना थोड़ा बहुत अन्न जुट पाता, कि मां और बेटे दोनों थे, तो एक का ही भोजन हो सकता था।
 
तो विवेकानंद मां को कहकर कि मैं आज घर भोजन नहीं लूंगा, किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मां भोजन कर ले, इसलिए घर से बाहर चले जाते। कहीं भी गली—कूचों में चक्कर लगाकर—कोई मित्र का निमंत्रण नहीं होता—वापस खुशी लौट आते कि बहुत अच्छा भोजन मिला, ताकि मां भोजन कर ले।

रामकृष्ण को पता लगा तो उन्होंने कहा, तू भी पागल है। तू जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता! तू रोज यहां आता है। जा मंदिर में और मां से मांग ले, क्या तुझे चाहिए। रामकृष्ण ने कहा तो विवेकानंद को जाना पड़ा। रामकृष्ण बाहर बैठे रहे। आधी घड़ी बीती। एक घड़ी बीती। घंटा बीतने लगा। तब उन्होंने भीतर झांककर देखा। विवेकानंद आंख बंद किए खड़े हैं। आंख से आनंद के आंसू बह रहे हैं। सारे शरीर में रोमांच है।

फिर जब विवेकानंद बाहर आए, तो रामकृष्ण ने कहा, मांग लिया मां से? विवेकानंद ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि मैं तो सिर्फ अनुग्रह के आनंद में डूब गया। अब दोबारा जब जाऊंगा, तब मांग लूंगा।

दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन भी यही हुआ। रामकृष्ण ने कहा, पागल, तू मांगता क्यों नहीं है? तो विवेकानंद ने कहा कि आप नाहक ही मेरी परीक्षा ले रहे हैं। भीतर जाता हूं तो यह भूल ही जाता हुं कि वे क्षुद्र जरूरतें, जो मुझे घेरे हैं, वे भी हैं, उनका कोई अस्तित्व है। जब मां के सामने होता हूं तो विराट के सामने होता हूं तो क्षुद्र की सारी बात भूल जाती है। यह मुझसे नहीं हो सकेगा। रामकृष्ण ने अपने शिष्यों को कहा कि इसीलिए इसे भेजता था, कि अगर इसकी प्रार्थना अभी भी मांग बन सकती है, तो इसे प्रार्थना की कला नहीं आई। अगर यह अब भी मांग सकता है प्रार्थना के क्षण में, तो इसका मन संसार में ही उलझा है, परमात्मा की तरफ उठा नहीं है।

आप पूछते हैं कि क्या मांगें?

मांगें मत। मांग संसार है। और जो मांगना छोड़ देता है, वही केवल परमात्मा में प्रवेश करता है। तो कुछ भी न मांगें। सुख नहीं, कुछ भी मत मांगें। मोक्ष भी मत मांगें, मुक्ति भी मत मांगें। क्योंकि मांग ही उपद्रव है। मांग ही बाधा है। वह जो मांगने वाला मन है, वह प्रार्थना में हो ही नहीं पाता।

साधारणत: हमने सारी प्रार्थना को मांग बना लिया है। मांगना चाहते हैं, तभी हम प्रार्थना करते हैं। प्रार्थी का मतलब ही हो गया मांगने वाला। अन्यथा हम प्रार्थना ही नहीं करते। जब मांगना होता है, तभी प्रार्थना करते हैं। जब नहीं मांगना होता, तो प्रार्थना भी खो जाती है। हमारी सारी प्रार्थना भिक्षु की, मांगने वाले की प्रार्थना है। हम भिक्षा—पात्र लेकर ही परमात्मा के सामने खड़े होते हैं। यह ढंग उचित नहीं है। यह प्रार्थना का ढंग ही नहीं है। फिर प्रार्थना क्या है? साधारणत: लोग समझते हैं कि प्रार्थना कुछ करने की चीज है—कि आपने जाकर स्तुति की, कि गुणगान किया, कि भगवान की बड़ी प्रशंसा की—कुछ करने की चीज है। प्रार्थना न तो मांग है और न कुछ करने की चीज है। प्रार्थना एक मनोदशा है।

उचित होगा कहना कि प्रार्थना की नहीं जाती, आप प्रार्थना में हो सकते हैं। यू कैन नाट डू प्रेयर, यू कैन बी इन इट। प्रार्थना में हो सकते हैं, प्रार्थना की नहीं जा सकती। वह कोई कृत्य नहीं है कि आपने कुछ किया—घंटा बजाया, नाम लिया। वे सब बाह्य उपकरण हैं। प्रार्थना भीतर की एक मनोदशा है; ए स्टेट ऑफ माइंड।

दो तरह की मनोदशाएं हैं। मांग, डिजायर, वासना। वासना कहती है, यह चाहिए। मन की एक दशा है कि यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए। चौबीस घंटे हम वासना में हैं, यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए। एक क्षण ऐसा नहीं है, जब वासना न हो। कुछ न कुछ चाहिए। चाह धुएं की तरह चारों तरफ घेरे रहती है।

एक स्थिति है, वासना। अगर आप मांग लेकर प्रार्थना कर रहे हैं, तो वासना ही बनी हुई है, स्थिति बदली ही नहीं। वहां आप फिर कुछ मांग रहे हैं। बाजार में कुछ मांग रहे थे। पत्नी से कुछ मांग रहे थे। पति से कुछ मांग रहे थे। बेटे से, बाप से कुछ मांग रहे थे। समाज से कुछ मांग रहे थे। राज्य से कुछ मांग रहे थे। संसार से कुछ मांग रहे थे। अब परमात्मा से मांग रहे हैं। जिससे मांग रहे थे, वह बदल गया, लेकिन मांगने वाला मन, वह भिखारी वासना मौजूद है। कभी इससे मांगा, कभी उससे मांगा। जब कहीं भी न मिल सका, तो लोग भगवान से मांगने लगते हैं। सोचते हैं, जो कहीं नहीं मिला, वह भगवान से मिल जाएगा! मांगते लेकिन जरूर हैं। यह वासना है।

प्रार्थना बिलकुल उलटी अवस्था है। वासना है दौड़, कुछ जो नहीं है, उसके लिए। प्रार्थना, जो है, उसका आनदभाव। प्रार्थना है ठहर जाना, वासना है दौड़। वासना है भविष्य में, प्रार्थना है अभी और यहीं। प्रार्थनापूर्ण चित्त का अर्थ है, मिट गया अतीत, मिट गया भविष्य; यह क्षण सब कुछ है।

गीता दर्शन 

ओशो

एक मित्र ने पूछा है कि सृष्टि और स्रष्टा यदि एक हैं और अगर हम स्वयं भगवान ही हैं, तो फिर भगवान को पाने या खोजने की बात ही असंगत है।





निश्चित ही असंगत है। इससे ज्यादा बड़ी भूल की कोई और बात नहीं कि कोई भगवान को खोजे। क्योंकि खोजा केवल उसी को जा सकता है, जिसे हमने खो दिया हो। जिसे हमने खोया ही नहीं है, उसे खोजने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब यह पता चल जाए कि मैं भगवान हूं तभी खोज असंगत है, उसके पहले असंगत नहीं है। उसके पहले तो खोज करनी ही पड़ेगी।

खोज से भगवान न मिलेगा, खोज से सिर्फ यही पता चल जाएगा कि जिसे मैं खोज रहा हूं वह कहीं भी नहीं है, बल्कि जो खोज रहा है वहीं है। खोज की व्यर्थता भगवान पर ले आती है, खोज की सार्थकता नहीं।

इसे थोड़ा समझना कठिन होगा, लेकिन समझने की कोशिश करें। यहां खोजने वाला ही वह है जिसकी खोज चल रही है। जिसे आप खोज रहे हैं वह भीतर छिपा है। इसलिए जब तक आप खोज करते रहेंगे, तब तक उसे न पा सकेने। लेकिन कोई सोचे कि बिना खोज किए, ऐसे जैसे हैं ऐसे ही रह जाएं, तो उसे पा लेंगे, वह भी न पा सकेगा। क्योंकि अगर बिना खोज किए आप पा सकते होते तो आपने पा ही लिया होता। बिना खोज किए मिलता नहीं, खोजने से भी नहीं मिलता। जब सारी खोज समाप्त हो जाती है और खोजने वाला चुक जाता है, कुछ खोजने को नहीं बचता, उस क्षण यह घटना घटती है।

कबीर ने कहा है, खोजत खोजत हे सखी रह्या कबीर हिराइ। खोजते खोजते वह तो नहीं मिला, लेकिन खोजने वाला धीरे धीरे खो गया। और जब खोजने वाला खो गया, तो पता चला कि जिसे हम खोजते थे वही भीतर मौजूद है।

हम जब परमात्मा को भी खोजते हैं, तो ऐसे ही जैसे हम दूसरी चीजों को खोजते हैं। कोई धन को खोजता है, कोई यश को खोजता है, कोई पद को खोजता है। आंखें बाहर खोजती हैं धन को, पद को, यश को, ठीक। हम भगवान को भी बाहर खोजना शुरू कर देते हैं। हमारी खोज की आदत बाहर खोजने की है। उसे भी हम बाहर खोजते हैं। बस वहीं भूल हो जाती है। वह भीतर है। वह खोजने वाले की अंतरात्मा है।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं आपसे कह रहा हूं कि खोजें मत। आप खोज ही कहां रहे हैं जो आपसे कहूं कि खोजें मत। जो खोज रहा हो, खोजकर थक गया हो, उससे कहा जा सकता है रुक जाओ। जो खोजने ही न निकला हो, जो थका ही न हो, जिसने खोज की कोई चेष्टा ही न की हो, उससे यह कहना कि चेष्टा छोड़ दो, नासमझी है। चेष्टा छोड़ने के लिए भी चेष्टा तो होनी ही चाहिए।

एक मजे की बात इससे मुझे स्मरण आती है। एक मित्र ने पूछी भी है, उपयोगी होगी। कृष्‍ण भी कहते हैं कि वेद में मैं नहीं मिलूंगा, शास्त्र में नहीं मिलूंगा, यश में नहीं मिलूंगा, योग में, तप में नहीं मिलूंगा। लेकिन आपको पता है यह किन लोगों से कहा है उन्होंने? जो वेद में खोज रहे थे, यश में खोज रहे थे, तप में खोज रहे थे, योग में खोज रहे थे, उनसे कहा है। आपसे नहीं कहा है। आप तो खोज ही नहीं रहे हैं।

बुद्ध ने कहा है, शास्त्रों को छोड़ दो, तो ही सत्य मिलेगा। लेकिन यह उनसे कहा है जिनके पास शास्त्र थे। कृष्णमूर्ति भी लोगों से कह रहे हैं, शास्त्रों को छोड़ दो, सत्य मिलेगा। लेकिन वे उनसे कह रहे हैं जो शास्त्र को पकड़े ही नहीं हैं। आप छोडिएगा खाक? जिसको पकड़ा ही नहीं उसको छोडिएगा कैसे?

कृष्णमूर्ति को सुनने वाले लोग सोचते हैं कि तब तो ठीक। सत्य ' तो हमें मिला ही हुआ है, क्योंकि हमने शास्त्र को कभी पकड़ा ही नहीं। जिसने पकड़ा नहीं है वह छोड़ेगा कैसे? और सत्य मिलेगा छोड़ने से। पकड़ना उसका अनिवार्य हिस्सा है।

आपके पास जो है वही आप छोड़ सकते हैं। जो आपके पास नहीं है उसे कैसे छोडिएगा? आपकी खोज होनी चाहिए। और जब आप खोज से थक जाएंगे; ऊब जाएंगे; परेशान हो जाएंगे; जब न खोजने को कोई रास्ता बचेगा, न खोजने की हिम्मत बचेगी; जब सब तरफ फ्रस्ट्रेटेड, सब तरफ उदास टूटे हुए आप गिर पड़ेंगे, उस गिर पड़ने में उसका मिलना होगा। क्योंकि जब बाहर खोजने को कुछ भी नहीं बचता, तभी आंखें भीतर की तरफ मुड़ती हैं। और जब बाहर चेतना को जाने के लिए कोई मार्ग नहीं रह जाता, तभी चेतना अंतर्गामी होती है।

एक गरीब आदमी से हम कहें कि तू धन का त्याग कर दे, एक भिखमंगे से हम कहें कि तू बादशाहत को लात मार दे। भिखमंगे सदा तैयार हैं बादशाहत को लात मारने को। लेकिन बादशाहत कहां है जिसको वे लात मार दें? धन कहां है जिसे वे छोड़ दें? और जिसके पास धन नहीं है, वह धन को कैसे छोड़ेगा? और जिसके पास बादशाहत नहीं है, वह बादशाहत कैसे छोड़ेगा? हम वही छोड़ सकते हैं जो हमारे पास है।

तो ध्यान रखें, जब मैं आपसे कहता हूं कि परमात्मा को खोजने की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह खोजने वाले में छिपा है, तो मैं यह उनसे कह रहा हूं जो खोज रहे हैं, उनसे नहीं कह रहा हूं जो खोज ही नहीं रहे हैं। उनसे तो मैं कहूंगा, खोजो। जहां भी तुम्हारी सामर्थ्य हो, वहां खोजो। मूर्ति में, शास्त्र में, तीर्थ में, जहां तुम खोज सको, खोजो। तुम्हारे मन को थोड़ा थकने दो। खोज व्यर्थ होने दो। तभी तुम भीतर मुड़ सकोगे। जिंदगी में छलांग नहीं होती, जिंदगी में एक क्रमिक गति होती है।

गीता दर्शन 

ओशो

भगवान, आप पश्चिमी सभ्यता का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं?

....पश्चिमी फिरंगियों ने तो सैकड़ों वर्षों तक हमें लूटा, हमारा रक्त चूसा और हमारी पवित्र मानसिकता में अपनी भोगलिप्सा से भरी दूषित संस्कृति के कीटाणु छोड़ गये। और आज हमारे युवक अपनी स्वर्णिम संस्कृति को भूल कर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या समय रहते अपनी संस्कृति को बचा लेना जरूरी नहीं है? क्या आपका भारत के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
 
विद्याधर वाचस्पति,

मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूं। यही मेरा कर्तव्य है! कर्तव्य का अर्थ होता है: करने योग्य। आज जो करने योग्य है वही कर रहा हूं।

लेकिन तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसके एक-एक टुकड़े पर विचार कर लेना जरूरी है। पहली बात--तुम कहते हो: "आप पश्चिमी सभ्यता का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं?' इसलिए कि पश्चिमी सभ्यता ऐसी है जैसे बुनियाद तो डाल दी गयी हो मंदिर की और मंदिर न उठाया गया हो। और पूर्वीय सभ्यता ऐसी है कि बुनियाद तो कभी डाली नहीं गयी, मंदिर का सपना देखा जा रहा है।

पश्चिमी सभ्यता यानी विज्ञान और पूर्वीय सभ्यता यानी अध्यात्म। लेकिन बिना विज्ञान के अध्यात्म नपुंसक होगा, उसकी बुनियाद के पत्थर जुटाने होंगे। और वे पत्थर विज्ञान ही जुटा सकता है। उन पत्थरों को जुटाने का अध्यात्म के पास कोई उपाय नहीं। हां, अध्यात्म तो मंदिर बना सकता है। अध्यात्म तो मंदिर का शिखर होगा। स्वर्ण-शिखर! मगर स्वर्ण-शिखर अकेला रहे तो मंदिर नहीं बनता। रखे बैठे रहो स्वर्ण-शिखर को, किसी काम का नहीं है, थोथा है।

विज्ञान पहली चीज है, क्योंकि शरीर मनुष्य का आधार है और आत्मा मनुष्य आत्यांतिक आविष्कार। वह अंतिम बात है। पहले विज्ञान, फिर धर्म।

भारत एक बुनियादी भूल में पड़ा है। इसने विज्ञान का तिरस्कार किया, उसका फल भोग रहा है। विज्ञान के तिरस्कार के कारण तुम दो हजार साल गुलाम रहे हो, किसी और कारण से नहीं। और अभी भी विज्ञान का तिरस्कार किया तो तुम भ्रांति में ही हो कि तुम स्वतंत्र हो, तुम्हारी स्वतंत्रता दो मिनट में मिटाई जा सकती है। क्या करोगे तुम अणुबम के मुकाबले? क्या करोगे तुम हाइड्रोजन बम के मुकाबले? तुम्हारी स्वतंत्रता दूसरों की कृपा पर निर्भर है, खयाल रखना। तुम्हारी स्वतंत्रता दो क्षण में मिटाई जा सकती है।

और हमें शर्म भी नहीं आती यह कहते हुए कि फिरंगियों ने हमें गुलाम किया। तो तुम गुलाम हुए क्यों? इतना बड़ा देश, चालीस करोड़ का देश, कुल तीन करोड़ संख्या वाले देश का गुलाम हो गया। चुल्लू भर पानी में डूब मरो, इसके पहले कि इस तरह के प्रश्न पूछो! शर्म भी नहीं आती! चालीस आदमियों को तीन आदमी गुलाम बना लें और फिर भी गाली दें कि इन दुष्टों ने हमें गुलाम बना लिया! तो तुम करते क्या रहे? तुम भाड़ झोंकते रहे? तुमसे कुछ भी न हो सका? इतना तो कर सकते थे, कम से कम आत्महत्या करके मर ही जाते। वह भी तुमसे न हो सका। और तुम तो आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले लोग, तुम्हें कम से कम मर तो जाना ही था। कुछ और न कर सकते थे तो मर तो सकते थे। तो लाशें पड़ी रह जातीं। फिर जिनको लाशों पर मालकियत करनी होती वे कर लेते, वे खुद ही भाग गये होते। लाशों की सड़ांध ऐसी उठती,चालीस करोड़ लाशें जरा सोचो तो, पूरा मुल्क कब्रिस्तान हो जाता! अंग्रेज तो भाग गये होते।

लेकिन तुम गुलाम इतने जल्दी हो गये। तुम अंग्रेजों के कारण गुलाम नहीं हुए, तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों के कारण तुम गुलाम हुए हो। और जब तक तुम यह सत्य नहीं समझोगे, तुम फिर-फिर गुलाम होओगे। तुम्हारे भाग्य में गुलामी है फिर। यह तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों की कृपा है कि उन्होंने तुम्हें उल्टी बातें सिखायीं। उन्होंने जीवन की बुनियाद तो तुम्हें दी नहीं और जीवन के शिखर की बकवास शुरू कर दी। क ख ग सिखाया नहीं और तुम्हारे हाथ में कालिदास के शास्त्र पकड़ा दिये बड़े-बड़े। छोटे बच्चे के हाथ में जैसे कोई तलवार थमा दे, तो या तो वह खुद को नुकसान पहुंचाएगा या किसी और को नुकसान पहुंचाएगा।


तुम दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता हो। तुम्हारे पास तो विज्ञान परम शिखर पर होना चाहिए था। लेकिन तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें भगोड़ा बनाते रहे, पलायनवादी बनाते रहे। कहते रहे--"संसार तो माया है। और जो होना है वह तो परमात्मा की कृपा है। उसके बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।' तो फिरंगियों ने तुम पर कब्जा कैसे कर लिया? फिरंगी तो तुम्हारे परमात्मा से भी ताकतवर मालूम होते हैं!


तुम कहते हो कि पश्चिमी फिरंगियों ने तो सैकड़ों वर्षों तक हमें लूटा। तुम लुटे क्यों? तुमसे कुछ करते न बना? तुम इतने नपुंसक? क्यों तुम इतने नपुंसक? तुम्हारे पास वैज्ञानिक साधन न थे। तुम मूढ़ताओं से भरे हुए लोग हो। और तुम अपनी मूढ़ता को अभी भी बचाना चाहते हो और मुझसे कहते हो कि मैं भी अपना कर्तव्य पूरा करूं--तुम्हारी मूढ़ता बचाने के लिए! जिस मूढ़ता के कारण तुम परेशान रहे हो  उसको में मिटा कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूं। और किस तरह कर्तव्य पूरा किया जा सकता है?


जरूर मेरी बात जहर की तरह लगेगी, लेकिन मेरी मजबूरी है। किसी को कैंसर हो तो ऑपरेशन तो करना ही होगा। और तुम जिसको संस्कृति कह रहे हो, वह तुम्हारा कैंसर है। उसका आधार ही नहीं है कोई। धर्म की बकवास है तुम्हारे पास। और तुम्हारी बकवास कुछ काम न आयी। तुम हमेशा गलत चीजों की वजह से हारे। इसमें किसी का दोष नहीं है। जब सिकंदर ने भारत पर हमला किया और पोरस हारा, तो हारने का कारण क्या था? हारने का कारण यह था कि पोरस हाथियों को लेकर लड़ने गया और सिकंदर घोड़ों को लेकर लड़ने आया था। उस जमाने में घोड़े विकसित साधन थे हाथियों के मुकाबले। हाथी कोई बारात वगैरह निकालनी हो तो ठीक, कि किसी संत-महात्मा का अखाड़ा निकालना हो तो ठीक। युद्ध के लिए हाथी ठीक नहीं हैं। जगह भी ज्यादा घेरते हैं, दौड़ भी सकते, घोड़े के मुकाबले उनकी क्षमता भी नहीं होती। उनके चलने-फिरने के लिए भी जगह काफी चाहिए। घोड़े छोटी जगह में से निकल जाएं। घोड़े में गति भी होती है तीव्रता  भी होती है, त्वरा भी होती है। हाथी को तो मोड़ना ही हो तो आधा घंटा लग जाए। पोरस हारा हाथियों की वजह से। पोरस हारा अविकसित साधनों की वजह से।


दो हजार साल में किन-किन ने तुम्हें गुलाम बनाया, जरा सोचो तो! जो आया उसी ने तुम्हें गुलाम बनाया। हूण आए, बर्बर आए, तुर्क आए, मुगल आए--जो भी आया: तुम जैसे गुलाम बनने को तैयार ही बैठे थे! तुम एक भी नहीं जूझ सके। और फिर भी तुम अकड़ से कह पाते हो कि इन्होंने हमें गुलाम बनाया!
 
तुम गुलाम बने! तुम गुलाम बनने के लिए बैठे थे। तुम तो झोली पसारे बैठे थे कि आओ, हमें गुलाम बनाओ। तुम्हारे पास हमेशा अविकसित साधन थे। जो भी आया उसके पास विकसित साधन थे। और आज भी तुम्हारी स्वतंत्रता का क्या मूल्य है! कमजोर की स्वतंत्रता का क्या मूल्य हो सकता है

चीन ने तुम्हारी जमीन पर कब्जा कर लिया, तुमने क्या कर लिया? अब तो तुम स्वतंत्र हो, कुछ तो करके दिखा देते! लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा, "उस जमीन का क्या करेंगे? उस पर तो घास भी पैदा नहीं होता।' तो फिर लड़े ही काहे को? ऐसी भी तुम्हारे देश में पैदा ही क्या होता है? कम से कम मिलिट्रिरी को ही विदा करो, यह झंझट छोड़ो। सत्तर प्रतिशत देश का धन सेना पर खर्च होता है। काहे के लिए खर्च कर रहे हो? इसको ही बचा लो कम से कम। कुछ गरीबों के पेट भरेंगे, दरिद्रनारायण की कुछ सेवा होगी, कुछ मंदिर बना लो, कुछ धर्मशालाएं बना लो। काहे को...और ऐसे भी क्या पैदा होता है? जो भी आएगा सो खुद ही परेशान हो कर लौट जाएगा।

क्या क्या सांत्वनाएं खोजते हो! दो हजार साल से निरपवाद रूप से जो भी आया...वे कैसे कैसे छोटे-छोटे लोग आए! हूणों की कोई संख्या नहीं थी। मगर जो आया, तुम उसके ही पैर चूमने को राजी हो गये। 
 
और मैं तुमसे यह कह देना चाहता हूं, तुम अपने कारण आजाद नहीं हुए हो। इस भ्रांति को छोड़ दो। तुम्हारे राजनेता लाख तुम्हें समझाएं, तुम अपने कारण आजाद नहीं हुए हो। क्योंकि तुमने क्रांति  तो उन्नीस सौ बयालीस में की थी, आजाद सैंतालीस में हुए!  यह तो खूब मजा हुआ। दुनिया में कभी कोई ऐसी क्रांति देखी? उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई तो उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई कि उन्नीस सौ बाइस में जा कर सफलता मिली? उन्नीस सौ बयालीस में तुमने क्रांति की और उन्नीस सौ सैंतालीस में जाकर तुम आजाद हुए! इस आजादी में तुम्हारा कुछ भी नहीं है।

इस आजादी में तुम भ्रांति में मत पड़ना कि तुम्हारा कोई बहुत बड़ा दान है, योगदान है। इस आजादी में भी तुम पर पश्चिम की कृपा है। गुलामी भी उन्होंने दी थी तुम्हें, आजादी भी दे दी उन्होंने तुम्हें। और आज तुम्हारी आजादी छीनी जा सकती है। 

अभी चीन तुम पर कभी भी सवार हो सकता है। अगर नहीं सवार होता तो रूस के कारण, तुम्हारे कारण नहीं। और चीन सवार नहीं होगा तो रूस सवार होगा। तुम तो खच्चर हो, तुम पर कोई न कोई सवार होगा। तुम किसी न किसी को ढोओगे। 

इसलिए मैं कहता हूं, पहले विज्ञान। यह भूल बहुत हो चुकी, दस हजार साल में यह भूल बहुत हो चुकी। अब विज्ञान और विज्ञान की तकनीक...! मगर तुम्हारे मूढ़ महात्मा तुमको समझाते हैं चरखा कातो। अगर में उनका विरोध करता हूं तो तुमको लगता है कि मैं तुम्हारी दुश्मनी कर रहा हूं। कातो चरखा! चरखा कातने से कोई अणु-बम का मुकाबला नहीं हो सकेगा। तुम कातते रहना चरखा! तुम फिर गुलाम होओगे। कोई तुम्हें समझा रहा है खादी पहनो। कोई तुम्हें समझा रहा है तीन ही वस्त्र अपने पास रखो। कोई तुम्हें समझा रहा है ब्रह्मचर्य साधो। कोई तुम्हें समझा रहा है उपवास करो, कोई तुम्हें समझा रहा है कि सिर के बल खड़े होओ, योगासन करो। कोई कह रहा है  पद्मासन लगाओ, सिद्धासन लगाओ। यह तुम लगाते ही रहे दस हजार साल से और तुमने किया ही क्या?

मैं तुमसे कहता हूं, विज्ञान को जन्मा लो, समय रहते ही जन्मा लो।  हमने बड़ी से बड़ी भूल जो की है अतीत में, वह थी--विज्ञान को नहीं जनमाया। और हम जनमा सकते थे, क्योंकि हमारे पास  कोई विचारकों की कोई कमी न थी, चिन्तकों की कोई कमी न थी। मगर हमने चिन्तकों और विचारों को गलत मोड़ दिया। हमने उनको भगोड़ा बना दिया, पलायनवादी बना दिया। हमारे  सारे विचारक और चिन्तक पहाड़ों में चले गये, गुफाओं में चले गये। अगर अल्बर्ट आइंस्टीन यहां पैदा होता तो बैठे होते किसी हिमालय की गुफा में और जप रहे होते राम राम या हनुमान चालीसा पढ़ रहे होते। वह तो सौभाग्यशाली है कि यहां पैदा नहीं हुआ, नहीं तो तुमने बर्बाद कर दिया होता।

अब हनुमान चालीसा पढ़ोगे तो ठीक है, हनुमान जैसी बुद्धि हो जाएगी तुम्हारी भी। इससे ज्यादा आशा भी क्या कर सकते हो? कोई झाड़ों को पूज रहा है। संस्कृति को तुम मुझसे बचाने को कह रहे हो? इसमें बचाने योग्य क्या है? इस कूड़ा करकट को बचाने की बात कर रहे हो?

और तुम कहते हो कि आप पश्चिमी सभ्यता का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं? इसलिए कि भारत से मुझे प्रेम है। मैं चाहता हूं कि यह भी दुनिया में अपना  स्थान पाए, सम्मानपूर्वक अपना स्थान पाए। और यह विज्ञान के बिना नहीं हो सकता है। भारत को विज्ञान सीखना होगा, पश्चिम को अध्यात्म सीखना होगा। तब यह सारी मनुष्यता एक संतुलन पर आएगी।

ज्यूँ मछली बिन नीर 

ओशो

Thursday, May 11, 2017

ज्यूं था त्यूं ठहराया



मैंने सुना है: अमृतसर से एक रेलगाड़ी दिल्ली की तरफ रवाना हुई। सरदार विचित्तर सिंह को जोर से लघुशंका लगी थी। जाकर सरदारी-झटके से संडास का दरवाजा खोल दिया। झांक कर देखा; दर्पण में अपना चेहरा दिखाई पड़ा! जल्दी से कहा, माफ करिए सरदार जी! दरवाजा बंद कर दिया! मगर लघुशंका जोर से लगी थी। पांच मिनट सम्हाला, दस मिनट सम्हाला। मगर यह भीतर जो सरदार घुसा है, निकला ही नहीं, निकला ही नहीं! फिर जा कर दरवाजा खटखटाया, मगर जवाब भी न दे! फिर खोला। सरदार मौजूद था! कहा, माफ करना सरदार जी! फिर बंद कर दिया।

लेकिन अब सम्हालना मुश्किल हो गया। संयम की भी सीमा है! तभी कंडक्टर आ गया। तो विचित्तर सिंह ने कहा कि हद्द हो गई! एक आदमी अंदर घुसा है, सो घंटे भर से निकलता ही नहीं है! कंडक्टर ने कहा, देखो, मैं जाता हूं।

कंडक्टर ने झांका। कंडक्टर भी सरदार! जल्दी से दरवाजा बंद कर के विचित्तर सिंह को कहा कि भई, तुम दूसरे डब्बे के संडास में चले जाओ। भीतर तो कंडक्टर है! देखा कि ड्रेस वगैरह कंडक्टर की है!

वह जो दर्पण है, वह सिर्फ सरदारों को ही धोखा दे रहा है--ऐसा मत सोचना। दर्पण सब को धोखा दे रहा है। और जीवन में बहुत तरह के दर्पण हैं। हर आंख एक दर्पण है।

मां की आंख में बच्चा अपने को झांकता है, तो उसे पहले प्रतीति होती है कि मैं कौन हूं। वह प्रतीति जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती। वह दुई छाया की तरह पीछे लगी रहती है। क्योंकि मां ने जैसा अगाध, बेशर्त प्रेम दिया, वैसा कौन देगा! कुछ मांगा नहीं। बच्चे के पास देने को कुछ था भी नहीं। बच्चा कुछ भी नहीं देता है; मां सब देती है। इससे एक भ्रांति पैदा होती है, कि बच्चे को यूं लगता है कि लेने का मैं हकदार हूं!

दर्पण से धोखा खा गया। अब वह जिंदगी भर मांगेगा कि--दो। पत्नी से मांगेगा। मित्रों से मांगेगा। जहां जाएगा--कहीं छिपी भीतर आकांक्षा रहेगी कि प्रेम दो। प्रेम मैं दूं--यह तो बात ही नहीं उठेगी। क्योंकि पहला दर्पण जो मिला था, वह मां का दर्पण था। उस दर्पण से जो उसे छवि दिखाई पड़ी थी, वह यह थी कि मैं जैसा हूं, प्रेम का पात्र हूं। प्रेम मुझे मिलना चाहिए; यह मेरा हक है, अधिकार है। प्रेम को अर्जित नहीं करना है; बिना अर्जित मिलता है। और जीवन भर दुखी होगा, क्योंकि पत्नी मां नहीं होगी। मित्र मां नहीं होंगे। यह समाज मां नहीं होगा। फिर मां कहां मिलेगी? फिर मां कहीं भी नहीं मिलेगी। इस बड़ी दुनिया में हर जगह दुतकारा जाएगा। और कठिनाई यह है कि इस बड़ी दुनिया में जो भी लोग मिलेंगे, उन सबने मां के दर्पण में अपने चेहरे को देखा है। वे भी मांग रहे हैं कि दो!

तो मांग उठ रही है कि दो। प्रेम दो। पत्नी पति से मांग रही है। पति पत्नी से मांग रहा है। मित्र मित्र से मांग रहा है। देने वाला कोई भी नहीं! मांगने वालों की भीड़ है, जमघट है। मांगने वाले, मांगने वालों से मांग रहे हैं! भिखारी भिखारी के सामने हाथ फैलाए खड़े हैं! दोनों के हाथों में भिक्षा-पात्र है।

वह जो दुई पैदा हो गई दर्पण से, अब अड़चन आएगी; अब छीना-झपटी शुरू होगी। जब नहीं मिलेगा मांगे से, तो छीनो--झपटो--जबर्दस्ती लो। इस जबर्दस्ती का नाम ही राजनीति है। नहीं मिलता मांगे से, तो क्या करें! फिर येन केन प्रकारेण, जैसे भी मिल सकता हो--लो।

कैसी-कैसी विडंबनाएं पैदा हो जाती हैं! लोग प्रेम के लिए वेश्याओं के पास जा रहे हैं! सोचते हैं, शायद पैसा देने से मिल जाएगा! पैसा देने से प्रेम कैसे मिलेगा? प्रेम तो खरीदा नहीं जा सकता। सोचते हैं, बड़े पद पर होंगे, तो मिलेगा। लेकिन कितने ही बड़े पद पर हो जाओ, प्रेम नहीं मिलेगा। हां, खुशामदी इकट्ठे हो जाएंगे। लेकिन खुशामद प्रेम नहीं है।

लाख अपने को धोखा देने की कोशिश करो, दे न पाओगे। एक तसवीर देखी थी पिता की आंखों में, वह धोखा हो गई। एक तसवीर देखी थी भाई-बहनों की आंखों में, वह धोखा दे गई। एक तसवीर देखी थी भाई-बहनों की आंखों में, वह धोखा दे गई। फिर तस्वीरें ही तस्वीरें हैं--अपनी ही तस्वीरें--लेकिन दर्पण अलग-अलग। तो अपनी ही कितनी तस्वीरें देख लीं। हर दर्पण अलग तसवीर दिखलाता है।

एक तसवीर देखी पत्नी की आंखों में, पति की आंखों में। एक तसवीर देखी अपने बेटे की आंखों में, बेटी की आंखों में। एक तसवीर देखी मित्र की आंखों में, एक तसवीर देखी शत्रु की आंखों में। एक तसवीर देखी उसकी आंखों में--जो न मित्र था, न शत्रु था; जिसको परवाह ही न थी तुम्हारी। लेकिन तसवीर तो हर दर्पण में दिखाई पड़ी। ऐसे बहुत-सी अपनी ही तस्वीरें इकट्ठी हो गई। हमने अलबम सजा लिया है! दुई ही नहीं हुई--अनेकता हो गई! एक दर्पण में देखते, तो दुई होती।

रज्जब ठीक कहते हैं, ज्यूं मुख एक, देखि दुई दर्पन! देखा नहीं दर्पण में कि दो हुआ नहीं। इसलिए द्वैत हो गया है। है तो अद्वैत। स्वभाव तो अद्वैत है। एक ही है। लेकिन इतने दर्पण हैं--दर्पणों पर दर्पण हैं! जगह-जगह दर्पण हैं! और तुमने इतनी तस्वीरें अपनी इकट्ठी कर ली हैं कि अपनी ही तस्वीरों के जंगल में खो गए हो। अब आज तय करना मुश्किल भी हो गया कि इसमें कौन चेहरा मेरा है! जो मां की आंख में देखा था--वह चेहरा? कि जो पत्नी की आंखों में देखा--वह चेहरा? कि जो वेश्या की आंखों में देखा--वह चेहरा? कौन-सा चेहरा मेरा है? जो मित्र की आंखों में देखा--वह? या जो शत्रु की आंखों में देखा--वह?

जब धन था पास, तब जो आंखें आसपास इकट्ठी हो गई थीं, वह चेहरा सच था; कि जब दीन हो गए, दरिद्र हो गए--अब जो चेहरा दिखाई पड़ रहा है? क्योंकि अब दूसरी तरह के लोग हैं।

एक बहुत बड़ा धनी बरबाद हो गया। जुए में सब हार गया। मित्रों की जमात लगी रहती थी, मित्र छंटने लगे। उसकी पत्नी ने पूछा...। पत्नी को कुछ पता नहीं। पत्नी को उसने कुछ बताया नहीं--कि हाथ से सब जा चुका है; अब सिर्फ लकीर रह गई है--सांप जा चुका है। तो पत्नी ने पूछा कि क्या बात है! बैठक तुम्हारी अब खाली-खाली दिखती है? मित्र नहीं दिखाई पड़ते। आधे ही मित्र रह गए!

पति ने कहा, मैं हैरान हूं कि आधे भी क्यों रह गए हैं! शायद इनको अभी पता नहीं। जिनको पता चल गया, वे तो सरक गए। पत्नी ने कहा, क्या करते हो! किस बात का पता?

पति ने कहा, अब तुझसे क्या छिपाना। सब हार चुका हूं। जो धन था--हाथ से निकल चुका है। सब जुए में हार चुका। जो मेरे पास इकट्ठे थे लोग, वे धन के कारण थे, यह तो आज पता चला! जिन-जिन को पता चलता जा रहा है कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है, वे खिसकते जा रहे हैं। ठीक है: गुड़ था, तो मक्खियां थीं! अब गुड़ ही नहीं, तो मक्खियां क्यों? फूल खिले थे, तो भंवरे आ गए थे। अब फूल ही गिर गया, मुरझा गया, तो भंवरों का क्या!

पत्नी ने यह सुना और बोली कि मेरे पिता ठीक ही कहते थे कि इस आदमी से शादी मत करो। यह आज नहीं कल गङ्ढे में गिराएगा। मैं मायके चली!

पति ने कहा, क्या कहती हो! तुम भी छाड़ चलीं! पत्नी ने कहा, अब यहां रह कर क्या? अपने जीवन को बरबाद करना है!

यहां लोग सब कारणों से जुड़े हैं। अकारण तो प्रीति कहां मिलेगी? और जब तक अकारण प्रीति न मिले, तब तक प्राण भरेंगे नहीं।

यहां तो सब कारण हैं। लोग शर्तबंदी किए हुए हैं!

एक मित्र अपने बहुत प्रगाढ़ हितैषी से कह रहा था कि दो स्त्रियों के बीच मुझे चुनाव करना है--किससे शादी करूं? एक सुंदर है--अति सुंदर है, लेकिन दरिद्र है, दीन है। और एक अति कुरूप है, पर बहुत धनी है। और अकेली बेटी है बाप की। अगर उससे विवाह करूं, तो सारा धन मेरा है। कोई और मालिक नहीं उस धन का। बाप बूढ़ा है। मां तो मर चुकी, बाप भी आज गया, कल गया! लेकिन स्त्री कुरूप है। बहुत कुरूप है! तो क्या करूं, क्या न करूं?

उसके मित्र ने कहा कि इसमें सोचने की बात है! अरे, शर्म खाओ। प्रेम और कहीं धन की बात सोचता है। जो सुंदर है, उससे विवाह करो। प्रेम सौंदर्य की भाषा जानता है--धन की भाषा नहीं। जो सुंदर है, उससे विवाह करो।

मित्र ने कहा, तुमने ठीक सलाह दी। और जब मित्र जाने लगा, तो उसके हितैषी ने पूछा कि भई, और उस कुरूप लड़की का पता मुझे देते जाओ!

इस दुनिया में सारे नाते-रिश्ते बस, ऐसे हैं! फिर ये सारी तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। फिर यह तय करना ही मुश्किल हो जाता है कि मैं कौन हूं। और अपने को तो तुमने कभी जाना नहीं; सदा दर्पण में जाना!

तुमने कभी किसी म्यूजियम में अनेक तरह के दर्पण देखे! किसी में तुम लंबे दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम ठिगने दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम मोटे दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम दुबले दिखाई पड़ते हो। तुम एक हो, लेकिन दर्पण किस ढंग से बना है, उस ढंग से तुम्हारी तसवीर बदल जाती है। और इतने दर्पण हैं कि अनेकता पैदा हो गई!

रज्जब तो कहते, हैं--दुई! दुई पर ही कहां बात टिकी? बात बहुत हो गई। दो से चार होते हैं, चार से सोलह होते हैं। बात बढ़ती ही चली जाती है। दुई हुई, कि चूके। फिर फिसलन पर हो। फिर फिसलते ही जाओगे, जब तक फिर पुनः एक न हो जाओ। एक हो जाओ--तो ज्यूं था त्यूं ठहराया।

ज्यूं था त्यूं ठहराया

ओशो 


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