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Sunday, February 19, 2017

जागरण



बुद्ध ने आस पर-अनापानसतीयोग, श्वास के आने-जाने का स्मृतियोग-इस पर सारी, सारी दृष्टि बुद्ध ने इस पर खड़ी की है। बुद्ध कहते थे, इतना ही कर ले भिक्षु तो और कुछ करने की जरूरत नहीं है। यह बहुत छोटा काम लगेगा मालूम आपको। लेकिन जब घड़ी के कांटे को देखेंगे और साठ सेक्कें में तीन दफे चूक जाएंगे, तब पता चलेगा कि आस की इस प्रक्रिया में कितनी चूक हो जाएगी। लेकिन, शुरू करें, तो कभी अंत भी होता है। प्रारंभ करें, तो कभी प्राप्ति भी होती है। यह अंतर्क्रिया है। यह राम-राम जपने से ज्यादा कठिन है। क्योंकि राम-राम जपने में होश रखना आवश्यक नहीं है। आदमी राम-राम जपता रहता है-यंत्रवत। होश रखना आवश्यक नहीं है। और तब ऐसी हालत बन जाती है कि वह काम भी करता रहता है, राम-राम भी जपता रहता है। उसे न राम-राम का पता रहता है कि मैं जप रहा हूं-जप चलता रहता है, यंत्रवत हो जाता है। इसलिए अगर राम-राम भी जपना हो, तो राम-राम जपने में दोहरे काम करने जरूरी हैं-जप भी रहे, और जप का होश भी रहे, तो ही फायदा है। नहीं तो बेकार है।

तो बहुत लोग जप कर रहे हैं और व्यर्थ है। उनके जप ने उनकी बुद्धि को और मंदा कर दिया है, तीव्र नहीं किया। और उनके जान को बढ़ाया नहीं, और घटाया है। इसलिए अक्सर आप देखेंगे कि राम-राम जपनेवाले राम-चदरिया ओढ़े हुए लोग बुद्धि के मामले में थोड़े कम ही नजर आएंगे। शान उनका जगता हुआ नहीं मालूम पड़ता, और जंग खा गया हुआ मालूम पड़ता है। जंग खा ही जाएगी बुद्धि। क्योंकि बुद्धि का वह जो बोध है, वह जो ज्ञान है, वह सिर्फ जागरण से बढ़ता है। कोई भी क्रिया अगर मूर्छित की जाए, तो घटता है। और हम सब क्रियाएं मुर्च्‍छित कर रहे हैं। उसी में हम राम-जप भी जोड़ लेते हैं। वह भी एक मूर्छित क्रिया हो जाती है।


बजाय एक नयी क्रिया जोड़ने के, जो क्रियाएं चल रही हैं उनमें ही जागरण बढ़ाना उचित है। और अगर राम की क्रिया भी चलानी शुरू कर दी हो, तो उसमें भी जागरण ले आएं। कुछ भी करें, एक बात तय कर लें कि उसे जागकर करने की सतत चेष्टा जारी रखेंगे। आज असफलता होगी, कल असफलता होगी-कोई चिंता नहीं है-लेकिन हर असफलता से सफलता का जन्म होता है। और अगर अब खयाल जारी रहा और सतत चोट पड़ती रही, तो एक दिन आप अचानक पाएंगे कि आप किसी भी क्रिया को समग्र चैतन्य में करने में सफल हो गये हैं। जिस दिन आप इस चैतन्य में सफल हो जाएंगे, उसी दिन सांख्य का द्वार खुल गया। और कुछ भी जरूरी नहीं है। और कोई बाहरी क्रिया जरूरी नहीं है। अंतर्गुहा में प्रवेश हो जाता है।

कैवल्य उपनिषद 

ओशो 

मुझे बहुत गहरे में ऐसा अनुभव होता है कि जैसे कोई अज्ञात शक्तियां मेरे विचारों तथा कृत्यों को नियंत्रित करती हैं मुझे लगता है कि मैं अज्ञात धागों द्वारा चालित एक कठपुतली हूं



..... जैसे कि क्षणक्षण मेरी परीक्षा ली जा रही है फिर भी मैं इसके प्रति सजग नहीं हूं और यह भी नहीं जानता हूं कि कहीं यह सब मेरे मन का खेल तो नहीं है! यह प्रश्न भी किसी अन्य शक्ति द्वारा ही बनाया गया लगता है जो कि मेरी शक्ति और नियंत्रण के बाहर है कृपया बतायें कि यह सब क्या है?

यह इतना साफ है! इसमें कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। यह कोई प्रश्न नहीं है, केवल तथ्य का कथन है। और यह शुभ है। यदि वस्तुत: ही तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम एक कठपुतली हो, तो फिर तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। यदि तुम्हें सच में ऐसी प्रतीति हो रही है कि तुम अज्ञात शक्तियों के हाथ में हो, तो तुम नहीं हो। यही तो चाहिएकि तुम नहीं हो जाओ।


लेकिन मैं सोचता हूं कि जब तुम कहते हो कि तुम्हें लगता है तुम एक कठपुतली की भांति हो, तो उसमें कुछ निंदा का भाव है। तुम्हें यह अच्छा नहीं लगताकठपुतली की भांति! लेकिन फिर भी तुम तो हो ही। कौन है जो कठपुतली की भांति महसूस कर रहा है? यदि वास्तव में ही तुम कठपुतली हो तो फिर कठपुतली की भांति महसूस कौन कर रहा है? कौन महसूस कर सकता है? कौन है वहां जो महसूस करे? तुम कठपुतली हो और बात खतम हो गई। 


इसलिए एक काम करो : यह खयाल छोड़ दो कि तुम एक कठपुतली हो। सिर्फ अपने चारों ओर उपस्थित विराट की शक्तियों के प्रति सजग होओ। तुम कुछ भी नहीं हो, कठपुतली भी नहीं। तुम सिर्फ बहुतसी शक्तियों का एक मिलनबिंदु हो, सिर्फ एक चौराहा हो जहां से बहुतसी शक्तियां गुजरती हैं। और क्योंकि बहुतसी शक्तियां गुजरती हैं तो एक बिंदु बन जाता है। यदि तुम बहुतसी रेखाएं खींचो जो कि एकदूसरे को काटती हों तो एक बिंदु पैदा हो जायेगा। वह बिंदु ही तुम्हारा अहंकार बन जाता है, और तुम्हें प्रतीति होती है कि तुम हो।


तुम नहीं हो, केवल विराट है। तुम एक कठपुतली की भांति भी नहीं हो, वह भी अहंकार को एक नये रूप में बनाये रखना है। और चूंइक अहंकार अभी बना है, इसलिए इस परिस्थिति के प्रति एक निंदा का भाव महसूस होता है।


आनंदित होओ कि तुम नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे खोते ही, सारे दुख भी खो जाते हैं। अहंकार के विलीन होते ही फिर कोई नर्क नहीं है। तुम मुक्त हो गयेअपने आप से मुक्त हो गये। फिर केवल विराट की शक्तियां ही शेष बची जो हमेशा से क्रियाशील हैं। तुम तो कहीं भी नहीं हो, कठपुतली की भांति भी नहीं।


यदि यह बात तुम्हारे भीतर चली जाये तो तुम पहुंच गये। तुम उस सत्य तक पहुंच गये जहां कि सारे धर्म तुम्हें लाना चाहते हैं। तुमने अंतिम केंद्र को छू लिया, अंतिम आधार पर पहुंच गये।


लेकिन यह कठिन है। शायद तुम कल्पना कर रहे हो या सच में तुम्हीं इसे गढ़ रहे हो। यह बहुत ही कठिन है। तुम सोच सकते हो, लेकिन सोचने से कुछ भी न होगाजब तक कि तुम इसे महसूस न करो, जब तक कि यह तुम्हारी प्रतीति न हो जाये। यह सिर्फ गहरे ध्यान से ही हो सकता है, अन्यथा यह नहीं हो सकता। केवल ध्यान में ही तुम उस बिंदु पर आ सकते हो जहां तुम्हें प्रतीति होती है कि ''सब कुछ हो रहा है और मैं कर्ता नहीं हूं। ''और केवल इतना ही नहीं कि ''मैं करने वाला नहीं हूं'', बल्कि तुम वहा हो ही नहीं और चीजें अवकाश में घटित हो रही हैं। तुम एक खाली स्थान हो गये हो, और वहां चीजें घट रही हैं, और तुम वहा नहीं हो।


यह तभी हो सकता है जब तुम्हारे सारे विचार बंद हो जायें, और तुम्हारा अस्तित्व बादलों से रिक्त हो जायेविचार के बादलों से रिक्त। तुम उस शुद्ध अस्तित्व में होते हो, तुम इसे महसूस कर सकते हो। लेकिन यदि तुम महसूस करते हो कि ऐसा हो रहा है तो यह एक अच्छा संकेत है। आगे बढ़ों... और इस कठपुतली को भी छोड़ो, इसे लादे मत रहो। जब तुम ही नहीं हो तो फिर इस कठपुतली को क्यों ढोना? उसे भी गिरा दो। अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो जाओ।

केनोउपनिषद 

ओशो 

 

Friday, February 3, 2017

दुनिया में दो तरह के दुष्ट हैं।



......एक, जो दूसरों को सताते हैं। और एक, जो अपने को सताते हैं। और ध्यान रखना, पहले तरह के दुष्ट उतने खतरनाक नहीं हैं। क्योंकि दूसरा कम से कम अपनी रक्षा तो कर सकता है। दूसरे प्रकार के दुष्ट बहुत खतरनाक हैं, जो अपने को सताते हैं। वहां कोई रक्षा करने वाला भी नहीं है।


अब अगर तुम अपने ही शरीर में कांटे चुभाओ, तो कौन रक्षा करेगा? खुद को ही भूखा मारो, कौन रक्षा करेगा? अंग काट डालो, आंखें फोड़ लो, कान फोड़ दो, कौन रक्षा करेगा? सडाओ अपने को, कौन रक्षा करेगा?


लेकिन ये दूसरे तरह के दुष्ट बड़े तपस्वी हो जाते हैं। इनके जीवन में सिवाय मूढ़ता के कुछ भी नहीं होता। तुम कोई लपट न देखोगे इनके जीवन में प्रतिभा की।


जाओ, काशी की सड्कों पर बैठे लोगों को देखो। तीर्थों में तुम्हें इस तरह के मूढ़ मिल जाएंगे। तुम उनके चेहरे पर सिर्फ जघन्य अंधकार पाओगे, घनीभूत अंधकार पाओगे। उनकी आंखों में तुम्हें कोई ज्योति न मिलेगी। तुम उन्हें दुष्ट पाओगे।


तुमने कभी नागा संन्यासी देखे कुंभ के मेले पर! ये उसी तरह के लोग हैं, जिस तरह के लोग अपराधी होते हैं। इनमेंउनमें कोई फर्क नहीं है। और बड़े मजे की बात है, अपने अखाड़े में तो वे
कपड़ा पहनते हैं और जब वे जुलूस निकालते हैं, तब वे नंगे हो जाते हैं। और भाला और छुरे और तलवारें लेकर चलते हैं। तुम उनकी आंखों में पाओगे, महापाप, घृणित भाव, हिंसा, मूढ़ता। और खतरनाक हैं वे। वे किसी भी वक्त झगड़े के लिए तैयार हैं। 


कोई बीस वर्ष पहले कुंभ में जो भयंकर उत्पात हुआ, वह उन्हीं के कारण हुआ। क्योंकि वे किसी को पहले स्नान नहीं करने देते। अहंकारी की वही तो दौड़ है। वे पहले स्नान करेंगे। फिर दूसरे कोई व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं। और दूसरे लोगों ने प्रवेश करने की कोशिश की, तो उपद्रव मच गया। उसी उपद्रव में सैकड़ों लोग मरे। साधुओं को जरा गौर से देखना, क्योंकि उनमें तीन तरह के साधु हैं। नब्बे प्रतिशत तो उसमें सिर्फ हठी हैं। हठ ही उनका गुणधर्म है। इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, यह खयाल रखना। क्योंकि हठी व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। उसमें से नौ प्रतिशत तुम पाओगे कि राजसी हैं, जो मानप्रतिष्ठा के लिए कर रहे हैं। कभी भूल से तुम्हें वह एक आदमी मिलेगा, जो सात्विक है। जो उपवास कुछ पाने के लिए नहीं कर रहा है, जिसका उपवास आनंद है। जिसका उपवास परमात्मा के निकट होने की सिर्फ एक दशा है।


फर्क समझ लो। सात्विक व्यक्ति उपवास करता है। उपवास का अर्थ है, उसके पास होना, आत्मा के पास होना या परमात्मा के पास होना। शब्द का भी वही अर्थ है। उसका भूखे मरने से कोई लेनादेना नहीं है सीधा। लेकिन जब सात्विक व्यक्ति उसके निकट होता है, तो शरीर को भूल जाता है। कुछ घड़ियों के लिए न भूख लगती है, न प्यास लगती है। भीतर ऐसी धुन बजने लगती है। जैसे तुम भी कभीकभी नृत्य देखने बैठे हो, कोई सुंदर नर्तक नाच रहा है; या कोई गीत गा रहा है, और गीत ऐसा प्यारा है कि धुन बंध गई, तारी लग गई; तो तीन घंटे तुम्हें न भूख लगती है, न प्यास लगती है। तुम सब भूल ही जाते हो। जब संगीत बंद होता है, अचानक तुम्हें पता चलता है कि पेट में तो हाहाकार मचा है, भूख लगी है, कंठ सूख रहा है। इतनी देर तक पता क्यों न चला! ध्यान लीन था।


सात्विक व्यक्ति का उपवास ऐसा है कि उसका ध्यान इतना भीतर परमात्मा में लीन होता है कि वह भूल ही जाता है, प्यास लगी है, भूख लगी है। जब लौटता है अपने ध्यान से, तब भूख और प्यास का पता चलता है। इसलिए उसका नाम उपवास है, परमात्मा के निकट वास।

गीता दर्शन 

ओशो 



Wednesday, February 1, 2017

क्रोध और पश्चाताप



मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, हम क्रोध करते हैं फिर पश्चात्ताप करते हैं। लेकिन फिर क्रोध हो जाता है, फिर पश्चात्ताप करते हैं, फिर क्रोध हो जाता है। हम क्या करें? मैं उनसे कहता हूं तुमने क्रोध छोड़ने की जीवन भर कोशिश की। अब कृपा करके इतना करो, पश्चात्ताप छोड़ दो। वे कहते हैं, इससे क्या लाभ होगा?

पश्चात्ताप करकर के क्रोध नहीं छूटा और आप हमें और उल्टी शिक्षा दे रहे हैंपश्चात्ताप छोड़ दो। मैं उनसे कहता हूं तुम कुछ तो छोड़ो। पश्चाताप छोड़ो; क्रोध तो छूटता नहीं। एक उपाय करके देखो। क्योंकि पश्चात्ताप ही हो सकता है, क्रोध को बनाए रखने में ईंधन का काम कर रहा है।

तुमने किसी को गाली दी, क्रोध हो गया। घर आए, सोचा यह तो बड़ी बुरी बात हो गई। तुम्हारे अहंकार की प्रतिमा खंडित हुई। तुम सोचते हो, तुम बड़े सज्जन, सतपुरुष! तुमसे गाली निकली? यह होना ही नहीं था। अब तुम पश्चात्ताप करके लीपापोती कर रहे हो। वह जो गाली ने तुम्हारी प्रतिमा पर काले दाग फेंक दिए, उनको धो रहे हो पश्चात्ताप करके कि मैं तो भला आदमी हूं। हो गया, मेरे बावजूद हो गया। करना नहीं चाहता था, हो गया। परिस्थिति ऐसी आ गई कि हो गया। चूक हो गई लेकिन चूक करने की कोई मंशा न थी। देखो पश्चात्ताप कर रहा हूं अब और क्या करूं? पश्चात्ताप करके तुमने फिर पुताई कर ली। फिर तुम उसी जगह पर पहुंच गए जहां तुम क्रोध करने के पहले थे। अब तुम फिर क्रोध करने के लिए तैयार हो गए। अब फिर तुम सज्जन, साधुपुरुष हो गए।

मैं तुमसे कहता हूं कम से कम पश्चात्ताप न करो। इतनी गांठ क्या बांधनी! हो गया सो हो गया। और तुम चकित होओगे, अगर तुम पश्चात्ताप छोड़ दो तो दुबारा क्रोध न कर सकोगे। क्योंकि पश्चात्ताप अगर छोड़ दो तो तुम दुबारा संत और साधुपुरुष न हो सकोगे। तुम जानोगे मैं बुरा आदमी हूं क्रोध मुझसे होता है।

यह बड़ा भारी अरनुभव होगा। तुम धोखा न दे सकोगे अपने को। तुम जाकर अपने मित्रों को कह दोगे कि भाई, मैं बुरा आदमी हूं कभीकभी गाली भी देता हूंबावजूद नहीं, मुझसे ही होती है, निकलती है। क्षमा क्या मांगूं? आदमी बुरा हूं। तुम सोचसमझ कर ही मुझसे संबंध बनाओ। तुम जाकर घोषणा कर दोगे वृहत संसार में कि मैं बुरा आदमी हूं मुझसे जरा सावधान रहो। दोस्ती मत बनाना, कभी न कभी बुरा करूंगा। काटूंगा। काटना मेरी आदत है।


अगर तुम ऐसी घोषणा कर सको तो देखते हो कैसी क्रांति घटित न हो जाए! तम्हारा अहंकार तुमने खंडित कर दिया। क्रोध तो अहंकार से उठता है। जितना तुम्हारा अहंकार चला जाए उतना ही क्रोध नहीं उठता। और पश्चात्ताप अहंकार को मजबूत करता है। इसलिए पश्चात्ताप से कभी किसी का क्रोध नहीं जाता।

अष्टावक्र महागीता 

ओशो 





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