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Tuesday, October 16, 2018

जीवन कैसा है? जीवन के सत्य कैसे हैं?


मैंने सुना है, एक अदभुत व्यक्ति हुआ, उसका नाम था, मुल्ला नसरुद्दीन। उसकी जिंदगी की बहुत सी कहानियां हैं। एक दिन सुबह-सुबह एक वृक्ष पर चढ़ कर वह कुल्हाड़ी से वृक्ष को काट रहा है। और जिस शाखा पर बैठा है, उसी शाखा को काट रहा है। शाखा कट जाएगी तो नीचे गिरेगा, जान खतरे में पड़ सकती है। नीचे से निकलने वाले एक राहगीर ने ऊपर की तरफ आंख उठा कर देखा कि यह पागल क्या कर रहा है? और जब देखा कि गांव का सबसे बुद्धिमान आदमी, मुल्ला नसरुद्दीन यह कर रहा है तो उसने चिल्ला कर कहा कि हद हो गई, अगर कोई मूढ़ ऐसा करता होता तो ठीक था, तुम यह क्या कर रहे हो? जिस शाखा पर बैठे हो उसी को काट रहे हो? गिरोगे, मर जाओगे।


लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन तो अपने को बुद्धिमान समझता था। उसने कहा, जाओ, जाओ अपने रास्ते पर, जो सलाह बिना मांगे दी जाती है वह सलाह कभी ली नहीं जाती। और यह भी कहा कि तुमने मुझे बुद्धू, बुद्ध
ु समझा हुआ है, मेरे पास अपनी बुद्धि है। और वह उस कुल्हाड़ी से लकड़ी को काटता रहा। आखिर वह शाखा कट गई और मुल्ला जमीन पर गिरा। गिरने पर उसे खयाल आया कि वह आदमी ठीक कहता था, मैंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया तो बहुत गलती की।

दौड़ कर वह भागा और दूर जाकर रास्ते पर उस आदमी को पकड़ा और उसके पैर छुए और क्षमा मांगी और कहा, मुझसे बड़ी भूल हो गई जो मैंने तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं किया। उस आदमी ने कहाः विश्वास का सवाल नहीं था, तुमने विचार ही नहीं किया। यह विश्वास का सवाल नहीं था कि तुम मुझ पर विश्वास करो, यह सवाल था कि तुम विचार करो कि तुम जो कर रहे हो, वह क्या कर रहे हो? लेकिन तुमने विचार करने से इनकार कर दिया। और अब तुम दूसरी भूल कर रहे हो कि अब तुम मेरे पैर पकड़ कर मुझ पर विश्वास करने की कोशिश कर रहे हो। तब भी तुमने विचार नहीं किया था, अब भी तुम विचार नहीं कर रहे हो।


लेकिन नसरुद्दीन ने कहाः छोड़ो ये बातें, अब तो मुझे मेरा गुरु मिल गया। जिसने भविष्य की तक बात बता दी, जिसने यह बता दिया कि तुम गिरोगे वृक्ष से, भविष्य को कौन जानता है! लेकिन तुम भविष्य को भी जानते हो। अब मैं इसलिए आया हूं तुमसे पूछने कि मेरी मौत कब होगी? यह तुम बता दो, क्योंकि तुम भविष्य को जानने वाले हो। उस आदमी ने कहाः मैं कोई भविष्य को जानने वाला नहीं हूं। और वह कोई भविष्य को जानने की बात न थी, सीधी-साफ थी कि जिस शाखा पर बैठ कर कुल्हाड़ी चला रहे हो, अगर उसी को काटोगे तो गिरोगे और चोट खाओगे। लेकिन मुल्ला कैसे मानने वाला था? उसने जोर से पैर पकड़ लिए और कहा कि जब तक मेरी मौत का न बताओगे, मैं तुम्हें छोडंूगा नहीं। माना ही नहीं। तो उस आदमी ने गुस्से में कहा कि अभी मर जाओगे
, जाओ।
 
वह आदमी तो चला गया, मुल्ला ने सोचा कि यह आदमी तो जो भी कहता है ठीक ही कहता है। वह उसी वक्त गिर गया और मर गया। आस-पास से लोग आए और उसको उठा कर उसकी अरथी को मरघट की तरफ ले जाने लगे। लेकिन बीच में एक रास्ता आता था--दोराहा, जहां से एक रास्ता पश्चिम, एक पूरब की तरफ से जाता था। वे अरथी को ले जाने वाले लोग सोचने लगे कि पूरब से चलें या पश्चिम से, मरघट की तरफ कौन सा रास्ता जल्दी पहुंचाता है? मुल्ला ने ऊपर से सिर उठाया अरथी के और कहा कि मैं मर चुका हूं, अगर मैं जिंदा होता तो तुम्हें बता देता। रास्ता तो पूरब का जो है वही जल्दी पहुंचता है, जब मैं जिंदा था तो पूरब के रास्ते से ही जाता था। लेकिन अब चूंकि मैं मर चुका हूं, मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं।


लोगों ने उसकी अरथी नीचे पटक दी और कहा कि तुम कैसे मूढ़ हो? जब तुम बोल रहे हो तो तुम जिंदा हो। उसने कहाः यह कभी नहीं हो सकता। मैंने अपने गुरु पर विश्वास कर लिया है। और मेरे गुरु कभी भूल नहीं करते, कभी झूठ नहीं बोलते। भविष्य की बातें बता देते हैं। उन्होंने कहा कि तुम अभी मर जाओगे, मैं मर गया। अब मैं जिंदा नहीं हूं। अब कोई लाख कहे, मैं विश्वास नहीं छोड़ सकता। मैं तो अपने गुरु के चरणों को पकड़े हुए हूं, उन्होंने जो कहा है वह ठीक कहा है।

 
इस मुल्ला नसरुद्दीन पर हमें हंसी आती है। लेकिन शायद हमें पता नहीं कि वह यह कहानी हम पर हंसने के लिए लिख गया है। हम सबकी हालत ऐसी ही है। जीवन के तथ्यों को देखने की हमारी तैयारी नहीं। वह आदमी जिंदा है, वह आदमी बोल रहा है। लेकिन वह कहता है चूंकि मेरे गुरु ने कह दिया है, इसलिए मैं मर गया हूं।

जीवित, जीवंत होते हुए भी, जीते हुए भी इस तथ्य पर देखने की उसकी तैयारी नहीं है। लेकिन जो कहा गया है उस पर विश्वास की तैयारी है। हम भी जो है उसे नहीं देख रहे हैं, जो कहा गया है और जो हमने विश्वास कर लिया है; उसको ही देखे चले जा रहे हैं, उसको ही दोहराए चले जा रहे हैं। और कोई हमें लाख बताए कि जिंदगी कुछ और है, तो भी हम मानने को तैयार नहीं हैं।


हम सबको दिखाई पड़ती है कि चारों तरफ की जो जिंदगी हैः सच है, यथार्थ है। लेकिन हमारी किताबों में लिखा है कि बाहर का जो जगत है, वह माया है। हम वही दोहराए जा रहे हैं कि ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है। और जगत चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है। चारों तरफ जगत अपने पूरे यथार्थ में मौजूद है। लेकिन किताब में लिखा हुआ है कि जगत माया है और ब्रह्म सत्य है, हम वही दोहराए चले जा रहे हैं। ब्रह्म हमें कहीं पर नहीं दिखाई पड़ रहा, जगत हमें प्रतिपल दिखाई पड़ रहा है।

 
जो दिखाई पड़ रहा है उसे इनकार कर रहे हैं, जो नहीं दिखाई पड़ रहा है उसकी गवाही भरे चले जा रहे हैं। आश्चर्यजनक है यह बात। और इस भांति का अंधापन लेकर अगर कोई कौम चलेगी तो उस कौम का कोई सुंदर भविष्य नहीं हो सकता है। न अतीत सुंदर था, न वर्तमान सुंदर है और न भविष्य सुंदर हो सकता है।

जीवन कैसा है? जीवन के सत्य कैसे हैं? उन्हें वैसे ही देखना जरूरी है अगर उन्हें बदलना हो। अगर किसी दिन ब्रह्म को भी खोजना हो, तो जगत को माया कह कर उसे नहीं खोज सकते हैं आप। अगर ब्रह्म को भी खेाजना हो तो जगत में जो सत्य है, उसकी खोज करके ही उसे भी खोजा जा सकता है। सत्य की खोज से ही अंततः हम सत्य तक पहंुच सकते हैं। कल्पनाओं की घोषणाओं से और विश्वासों के अंबार लगा लेने से कुछ भी नहीं हो सकता।

प्रेम गंगा 

ओशो

दुनिया में भलाई अब भी उतनी ही है जितनी पहले थी, लेकिन उसकी कोई खबर नहीं है।


कोई सोचता हो कि अंग्रेजी की शिक्षा के कारण लोग बिगड़ गए हैं, तो गलत सोचता है। जब अंग्रेजी का पता न था तब भी लोग ऐसे थे। कोई सोचता हो कि फिल्मों के कारण लोग बिगड़ गए हैं, तो गलत सोचता है। क्योंकि फिल्में जब न थीं तब भी आदमी ऐसा ही था।


इसलिए मैं कहता हूं कि बीमारी की गहराई और दूरी और लंबाई समझ लेनी जरूरी है। नहीं तो लोग ऐसे उपचार बताते हैं जिनको अगर हम हल भी कर लें, अगर सारे हिंदुस्तान के सिनेमा घर बंद कर दिए जाएं, तो भी आदमी में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि डर है कि आदमी शायद और बुरा हो जाए। डर इसलिए है कि सिनेमा की बुराई को देख कर खुद बुरा करने का मन थोड़ा कम हो जाता है। राहत मिल जाती है।

रास्ते पर अगर दो आदमी लड़ रहे हों तो हम हजार काम छोड़ कर वहां रुक जाते हैं। देख लेते हैं क्या हो रहा है? ऐसे ऊपर से कहते हैं कि भाई लड़ो मत, लेकिन भीतर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि कुछ हो ही जाए। और अगर वे दोनों लड़ने वाले मान लें कि आप सब कहते हैं तो नहीं लड़ते हैं, जाते हैं, तो हम उदास वापस लौटेंगे। लेकिन खून टपक जाए, पत्थर चल जाए, छुरी भुंक जाए, तो हम बहुत बुरा कहते हुए लौटेंगे कि लोग बड़े बुरे हो गए हैं, क्या हो रहा है यह? लेकिन हमारी आंखों में चमक होगी, चेहरे पर खुशी होगी। भीतर ऐसा होगा कि कुछ देखा, कुछ हुआ। वे जो दो आदमी लड़ते हैं उनको लड़ते देख कर हमारी लड़ने की वृत्ति भी थोड़ी निकलती है। इसके तो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।


पहला महायुद्ध जब हुआ तो बड़ी हैरानी हुई दुनिया के विचारशील लोगों को कि युद्ध जब तक चला तब तक दुनिया में चोरियां कम हुईं, हत्याएं कम हुईं, आत्महत्याएं कम हुईं। लोग पागल भी कम हुए। संख्या कम हो गई। बड़ी हैरानी की बात है। चोरों को युद्ध से क्या लेना-देना? और चोरों को अगर लेना-देना भी हो, तो पागल भी क्या देख कर पागल होते हैं? कि अभी युद्ध चल रहा है अभी पागल नहीं होना चाहिए। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ सका। दूसरे महायुद्ध में तो और घबड़ाहट बढ़ गई। क्योंकि दूसरे महायुद्ध में तो एकदम सारी दुनिया में पापों का, अपराधों का, हत्याओं का, आत्महत्याओं का, पागलों का, मानसिक बीमारियों का, सबका अनुपात नीचे गिर गया। तब समझ-सोच करना पड़ा। तब पता चला कि कारण हैं। कारण यह है कि जब सारा समाज सामूहिक रूप से पागल हो गया हो तो प्राइवेट पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। जब सारी दुनिया में इतनी हत्याएं हो रही हैं तो मैं अलग से किसी की हत्या करने जाऊं इससे कोई मतलब नहीं। सुबह अखबार पढ़ लेता हूं और राहत मिल जाती है। रेडियो सुन लेता हूं और राहत मिल जाती है।


सिनेमा बंद कर देने से लोग अच्छे हो जाएंगे, ऐसा अगर साधु-संत समझाते हों, तो उन साधु-संतों को आदमी की बुराई का कुछ भी पता नहीं। और कोई अगर समझाता हो कि अंग्रेजी की शिक्षा से और पश्चिम के संपर्क से आदमी बिगड़ गया है, तो बिलकुल ही गलत समझाता है। सारी शिक्षा हम बंद कर दें और पश्चिम से सारा संबंध तोड़ दें और बैलगाड़ी की दुनिया में वापस लौट जाएं, तो भी अच्छा नहीं हो जाएगा आदमी, क्योंकि रोग बहुत गहरा है।


बैलगाड़ी के दिन थे तब भी आदमी ऐसा ही था। लेकिन कुछ बातों में फर्क पड़ा है। पहला तो फर्क यह पड़ा है, सबसे बड़ा जो फर्क पड़ा है वह यह पड़ा है कि हमें सारी दुनिया की खबरें एक साथ मिलने लगी हैं जो पहले नहीं मिलती थीं। और ध्यान रहे कि हमारा रस बुराई में है तो बुराई की खबरें ही हमें मिल पाती हैं, भलाई की खबरें नहीं मिल पातीं। अगर रास्ते पर मैं किसी को छुरा मार दूं तो भावनगर के अखबार खबर छापेंगे। लेकिन रास्ते पर किसी गिरे को उठा लूं तो भावनगर के अखबारों में कोई खबर नहीं छपेगी।


दुनिया में भलाई अब भी उतनी ही है जितनी पहले थी, लेकिन उसकी कोई खबर नहीं है। क्योंकि भलाई को सुनने को, पढ़ने को कोई उत्सुक नहीं है। वह कभी भी नहीं था। जब भी दो आदमी मिलते हैं तो किसी की बुराई करते हैं। अगर बुराई करने को आदमी न हो तो बातचीत का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। बातचीत ही नहीं हो पाती। दस आदमी मिलते हैं, तो पहले औपचारिक बातें होती हैं, फिर किसी की बुराई शुरू हो जाती है। दूसरे में बुरा खोज लेने से एक रस है, और वह रस यह है कि जब हमें दूसरे में बुराई मिल जाती है तो हमें एक रस तो यह मिलता है कि हमें यह राहत मिल जाती है कि हम हीं बुरे नहीं हैं और लोग भी बुरे हैं। और लोग और भी ज्यादा बुरे हैं। इसलिए हम चारों तरफ बुराई की खोज करते हैं, ताकि हमारी बुराई की जो पीड़ा है, वह जो कांटे की तरह चुभती है वह कम हो जाए। जब हमें ऐसा पता चले कि सभी लोग बीमार हैं तो फिर बीमारी इतनी दुखद नहीं रह जाती।

 
अगर मुझे पता चले कि गांव में सब लोग स्वस्थ हैं। मैं ही अकेला बीमार हूं। तो बीमारी से भी ज्यादा यह बात दुख देती है कि और सारे लोग स्वस्थ हैं। मैं ही सिर्फ बीमार हूं। लेकिन अगर पता चल जाए कि सारे लोग बीमार हैं तो, तो फिर बीमारी का जो दंश है, जो पीड़ा है, वह कम हो जाती है। और अगर यह पता चल जाए कि मुझसे भी ज्यादा बीमार हैं, तब अपनी बीमारी में भी स्वास्थ्य दिखाई पड़ने लगता है। क्योंकि हम कम बीमार हैं।


प्रेम दर्शन 

ओशो

ऐसा नहीं है कि आदमी आज बुरा हो गया है; आदमी सदा से ही बुरा रहा है।


हर आदमी की जिंदगी रोज बुरी से बुरी होती जा रही है। लेकिन लोग कुछ इस तरह कहते हैं, जैसे अंधेरा आज ही आ गया हो। अंधेरा सदा से है, और ऐसा नहीं है कि आदमी आज बुरा हो गया है; आदमी सदा से ही बुरा रहा है। लेकिन आज की बुराई दिखाई पड़ती है, पिछली बुराइयां छिप जाती हैं, खो जाती हैं और दिखाई नहीं पड़ती। और इतिहास के साथ एक बुनीयादी भूल हो जाती है और वह भूल यह है कि अतीत के तो अच्छे लोग याद रह जाते हैं और आज के सिर्फ बुरे लोग दिखाई पड़ते हैं। उनके बीच तुलना करने से कठिनाई हो जाती है।


राम याद हैं, बुद्ध याद हैं, महावीर याद हैं, कृष्ण याद हैं, उस जमाने का साधारण आदमी कौन है उसका हमें कुछ भी पता नहीं। आज से दो हजार साल बाद न मेरी किसी को याद होगी, न आपकी किसी को याद होगी, एक आदमी हमारे बीच थे गांधी, उन्हें लोग याद रखेंगे। दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे कि गांधी का युग बड़ा धार्मिक युग रहा होगा--अहिंसा का, प्रेम का, सत्य का। झूठी होगी उनकी धारणा, गलत होगा उनका खयाल। गांधी हमारे प्रतिनिधि, रिप्रेजेंटेटिव नहीं हैं, गांधी अकेले हैं। हम उन जैसे नहीं ठीक उनसे विपरीत हैं। लेकिन वे याद रह जाएंगे और हमारे युग को उनका नाम दिया जाएगा, जो कि सरासर झूठ होगा। गांधी युग कहा जाएगा। युग हम बनाते हैं, गांधी नहीं। हम भूल जाएंगे और गांधी का युग हो जाएगा।



ऐसा ही हुआ है राम के साथ, बुद्ध के साथ, कृष्ण के साथ, महावीर के साथ। आज हम कहते हैं कि महावीर के जमाने के लोग कितने अच्छे रहे होंगे? महावीर के कारण हम ऐसा कहते हैं। लेकिन महावीर प्रतिनिधि नहीं हैं, महावीर अकेले हैं। और इस बात को थोड़ा सोच लेना जरूरी है ताकि हम, आज की बीमारी आज की ही नहीं है सदा की ही है, यह समझ पाएं। अगर बीमारी सदा की है और हमने समझा कि आज की है, तो हम इलाज कभी भी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि हम उस बीमारी की जड़ों में ही नहीं उतर सकेंगे। हम समझेंगे बीमारी सामायिक है। जब कि बीमारी सनातन है। बिमारी उतनी ही पुरानी है जितना पुराना आदमी है। और हम समझेंगे आज का युग ही खराब है। तो हम जो तरकीबें सोचेंगे बदलने की वे काम नहीं करेंगी। क्योंकि हमारा निदान ही गलत होगा। बीमारी कितनी पुरानी है बीमारी मिटाने के लिए पहली बात है जो जान लेनी चाहिए। लेकिन भूल हुई है। अतीत के संबंध में निरंतर भूल हो जाती है। उसके कारण हैं।



पहला कारण तो मैं कहना चाहता हूं कि पिछले जमाने के चमकते हुए लोग याद रह जाते हैं और हम आज के अपने पड़ोसी से उनकी तुलना करते हैं। तो बहुत कठिनाई हो जाती है। उस जमाने का साधारण आदमी बिलकुल भूल जाता है। साधारण आदमी आज ही जैसा था। जरा भी फर्क नहीं।



जितनी चोरी आज है, जितनी बेईमानी आज है, जितना कपट है, उतना ही तब भी था। जरा भी कम नहीं। और जब मैं ऐसा कहता हूं तो मेरा कुछ मतलब है। बुद्ध सुबह से उठते हैं और सांझ तक लोगों को समझाते हैंः चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, दूसरे की स्त्री को लेकर मत भाग जाओ। या तो बुद्ध का दिमाग खराब होगा कि भले लोगों को ऐसी बातें समझा रहे हैं जो ये काम करते ही नहीं या लोग ऐसे रहे होंगे। चालीस साल तक अनवरत सुबह से सांझ तक बुद्ध ये ही बातें समझा रहे हैं। किनको समझा रहे होंगे? जिनको समझा रहे हैं वे लोग हमसे भिन्न नहीं हो सकते। क्योंकि बुद्ध की शिक्षाएं हमारे लिए आज भी काम की मालूम पड़ती हैं। वे हमारे जैसे लोग रहे होंगे, जिनके लिए वह काम की थीं। उसमें बहुत भेद नहीं हो सकता।


इन सारे बड़े पुरुषों को हम इतना आदर देते हैं, उसका भी यही कारण है। सिर्फ आदर उनको दिया जाता है जो अत्यंत न्यून होते हैं, अल्प होते हैं। उन्हें आदर नहीं दिया जाता जो बहुत होते हैं। अगर दुनिया में सज्जन बहुत हो जाएंगे, सज्जन को आदर मिलना बंद हो जाएगा। अगर दुनिया में महात्मा बहुत हो जाएंगे, फिर महात्मा को कोई पूछेगा नहीं। असल में महात्मा को पूछने के लिए चोरों की मौजूदगी बहुत जरूरी है। जो पूछते हैं, जो आदर देते हैं, वे विपरीत होते हैं। इसीलिए पूछते हैं, इसीलिए आदर देते हैं। 


स्कूल में एक शिक्षक काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखता है। सफेद दिवाल पर भी लिख सकता है। लिख तो जाएगा लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा। सफेद खड़िया से काले तख्ते पर लिखे तो ही दिखाई पड़ता है। अच्छा आदमी बुरे समाज के काले तख्ते पर ही दिखाई पड़ता है। नहीं तो दिखाई नहीं पड़ेगा।


महावीर, बुद्ध और कृष्ण और राम जो हमें दिखाई पड़ते हैं हजारों साल के बाद वह समाज की अंधेरी रात, उसके ऊपर चमकते हुए दिखाई पड़ते हैं। अंधेरी रात में तारे ज्यादा चमकते हैं। दिन में तारे खो नहीं जाते। दिन में तारे उतने ही होते हैं जितने रात में होते हैं लेकिन दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि सफेदी में तारा कैसे दिखाई पड़ेगा? खो जाता है। जिस दिन दुनिया अच्छी होगी सबसे पहले महात्मा खो जाएंगे, वे दिखाई नहीं पड़ेंगे। जब तक दुनिया बुरी है तब तक महात्मा दिखाई पड़ता रहेगा। इसलिए महात्मा के तो हित में है कि दुनिया बुरी रहे। समझाता है, बुराई को मिटाता है। लेकिन उसका अस्तित्व तो रह सकता है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ेगा।


अतीत में हमने दस-पांच बड़े नामों को याद रख लिया है। उसका कारण है कि हमने दस-पांच आदमी पैदा किए। बाकी सारी आदमियत बांझ थी। उससे कुछ पैदा नहीं हुआ। आदमी सदा से ऐसा ही है। इसलिए कुछ ऐसा नहीं है कि आज ही अंधेरा हो गया है, और आज ही धर्म खो गया है, और आज ही लोग परमात्मा को याद नहीं कर रहे हैं, कुछ ऐसा नहीं है कि कलियुग की वजह से सब कुछ हो रहा है। सतयुग में सब अच्छा था? जैसा आदमी आज है वैसा सदा था। इसलिए बीमारी से लड़ना बहुत गहरे पड़ेगा।

प्रेम दर्शन 

ओशो

मैं निश्चित ही बुद्धत्व की उपलब्ध होना चाहता हूं। लेकिन यदि मैं उपलब्ध हो भी जाता हूं तो इससे बाकी संसार क्या अंतर पडेगा?



लेकिन तुम बाकी संसार की चिंता क्यों कर रहे हो? संसार को अपनी चिंता स्वयं करने दो। और तुम्हें इसकी चिंता नहीं है कि यदि तुम अज्ञानी रह गए तो बाकी संसार का क्या होगा। 

 
यदि तुम अज्ञानी हो तो बाकी संसार का क्या होता है? तुम दुख पैदा करते हो। ऐसा नहीं कि तुम जान-बूझ कर करते हो, पर तुम ही दुख हो; तुम जो भी करो, सब ओर दुख के ही बीज बोते हो। तुम्हारी आकाक्षा व्यर्थ हैं; तुम्हारा होना महत्वपूर्ण है। तुम सोचते हो कि तुम दूसरों की सहायता कर रहे हो, पर तुम बाधा ही डालते हो। तुम सोचते हो कि तुम दूसरों से प्रेम करते हो पर शायद तुम उनकी हत्या ही कर रहे हो। तुम सोचते हो कि दूसरों को कुछ सिखा रहे हो, पर हो सकता है तुम सदा अज्ञानी ही बने रहने में उनकी मदद कर रहे हो। क्योंकि तुम चाहते हो, तुम जो सोचते हो, तुम आकांक्षा करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं है। तुम क्या हो, यह महत्वपूर्ण है।


प्रतिदिन मैं लोगों को देखता हूं जो एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, लेकिन वे मार रहे हैं एक-दूसरे को। वे सोचते हैं वे प्रेम कर रहे हैं वे सोचते हैं वे दूसरे के लिए जी रहे हैं और उनके बिना उनके परिवार, उनके प्रेमियों, उनके बच्चों उनकी पत्नियों, उनके पतियों का जीवन दुख से भर जाएगा। लेकिन वे लोग इनके साथ दुखी हैं। और वे हर तरह से सुख देने की कोशिश करते हैं, पर वे जो भी करें गलत हो जाता है।

 
ऐसा होगा ही, क्योंकि वे गलत हैं। करना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, जिस व्यक्तित्व से वह उठ रहा है वह अधिक महत्वपूर्ण है। यदि तुम अज्ञानी हो तो तुम संसार को नर्क बनाने में मदद दे रहे हो। यह पहले ही नर्क है-यह तुम्हारी ही निर्मिति है। जहां भी तुम स्पर्श करते हो नर्क बना लेते हो।


 
यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो तो तुम कुछ भी करो-या तुम्हें कुछ करने की भी जरूरत नहीं है-बस तुम्हारे होने से तुम्हारी उपस्थिति से दूसरों को खिलने में सुखी होने में, आनंदित होने में सहायता मिलेगी।


लेकिन उसकी चिंता तुम्हें नहीं लेनी है। पहली बात तो यह है कि बुद्धत्व को कैसे उपलब्ध होना है। तुम मुझसे पूछते हो 'मैं बुद्धत्व को उपलब्ध होना चाहता हूं।लेकिन यह चाह बड़ी नपुंसक मालूम होती है क्योंकि इसके तुरंत बाद तुम कहते हो 'लेकिन'। जब भी लेकिन बीच में आ जाता है तो उसका अर्थ है अभीप्सा नपुंसक है।लेकिन संसार का क्या होगा?' तुम हो कौन? अपने बारे में तुमने सोच क्या रखा है? क्या संसार तुम पर निर्भर है?


क्या तुम इसे चला रहे हो? तुम इसकी देख- भाल कर रहे हो? तुम उत्तरदायी हो? स्वयं को इतना महत्व क्यों देते हो? इतना महत्वपूर्ण क्यों समझते हो?


यह भाव अहंकार का हिस्सा है। और दूसरों की यह चिंता तुम्हे कभी भी अनुभव के शिखर पर नहीं पहुंचने देगी, क्योंकि वह शिखर तभी उपलब्ध होता है जब तुम सब चिंताएं छोड़ देते हो। और तुम चिंताएं इकट्ठी करने में इतने कुशल हो कि बस अदभुत हो। अपनी ही नहीं दूसरों की भी चिंताएं इकट्ठी किए चले जाते हो जैसे कि तुम्हारी अपनी चिंता पर्याप्त नहीं है। तुम दूसरों के बारे में सोचते रहते हो। और तुम कर क्या सकते हो? तुम बस और अधिक चिंतित और पागल हो सकते हो।

 
मैं एक वाइसराय, लार्ड वैवेल की डायरी पढ़ रहा था। वह आदमी बड़ा ईमानदार मालूम होता है क्योंकि उसके कई वक्तव्य बहुत अदभुत हैं। एक वक्तव्य में वह कहता है, 'जब तक ये तीन बड़े, गांधी, जिन्ना और चर्चिल नहीं मर जाते तब तक भारत मुसीबत में ही रहेगा।ये तीन लोग-गांधी, जिन्ना और चर्चिल-और ये ही हर तरह से मदद कर रहे थे! चर्चिल का अपना वाइसराय लिखता है कि इन तीन लोगों को जल्दी मर जाना चाहिए। और बड़ी आशा से वह उनकी उम्र भी लिखता है-गांधी जिन्ना और चर्चिल। क्योंकि यही तीन समस्याएं हैं।

क्या तुम गांधी जी के बारे में यह कल्पना कर सकते हो कि वे ही समस्या हैं? या जिन्ना? या चर्चिल? तीनों ही इस देश की समस्याओं को सुलझाने की पूरी कोशिश कर रहे थे! और वैवेल कहता है कि यही तीनों समस्या हैं, क्योंकि ये तीनों बड़े हठी हैं; तीनों में से हर-एक के पास पूरा-पूरा सत्य है और बाकी दोनों को बिलकुल गलत समझते हैं। ये तीनों कहीं नहीं मिल सकते, बाकी दो बस गलत हैं। मिलने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।


हर कोई यही सोचता है कि जैसे वही केंद्र है और उसे ही पूरे संसार की चिंता करनी है और पूरे संसार को बदलना है, रूपांतरित करना है, आदर्श संसार बनाना है। तुम बस इतना ही कर सकते हो कि स्वयं को बदल लो। तुम संसार को नहीं बदल सकते। इसे बदलने के चक्कर में तुम और गड़बड़ कर सकते हो, और अराजकता बढ़ा सकते हो; और हानि पहुंचा सकते हो और परेशान हो सकते हो। पहले ही संसार इतना परेशान है और तुम उसकी परेशानी बढ़ा दोगे, उसकी उलझन बढ़ा दोगे।

 
संसार को कृपा करके उसके हाल पर ही छोड़ दो। तुम बस एक ही बात कर सकते हो, वह यह कि आंतरिक मौन, आंतरिक आनंद, तरिक प्रकाश को उपलब्ध हो जाओ। यदि तुम यह उपलब्ध कर लो तो तुमने संसार की बहुत सहायता कर दी। अज्ञान के केवल एक बिंदु को प्रकाश की ली में बदलकर, केवल एक व्यक्ति के अंधकार को प्रकाश में बदलकर, तुमने संसार के एक हिस्से को बदल दिया। और उस बदले हुए हिस्से से बात आगे बढ़ेगी। बुद्ध मरे नहीं हैं। जीसस मरे नहीं हैं। वे मर नहीं सकते, क्योंकि एक श्रृंखला चलती है-ज्योति से ज्योति जले। फिर एक उत्तराधिकारी पैदा होता है और यह क्रम आगे चलता रहता है, वे सदा जीवित रहते हैं।

तंत्र सूत्र 

ओशो

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