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Tuesday, October 24, 2017

हम नारियों की स्थिति कब सुधरेगी?



भगवान,
समय कब बदलेगा?
हम नारियों की स्थिति कब सुधरेगी?

रामप्यारी अग्रवाल,

बदलेगा बाई, जरूर बदलेगा। बदल ही रहा है। ठहरा कब था? जो बदलता है उसी का नाम तो समय है। और जोर से बदल रहा है। थोड़ा सब्र, थोड़ा सा धीरज और। यूं भी अनादि काल से धीरज रखा है। थोड़ा सा धीरज और ऐसा बदलने वाला है--समय बदलता जा रहा है--कि सदियों का बदला इकट्ठा ले लेना।

चंद रोज और मेरी जान फकत चंद ही रोज
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीराज से माजूर हैं हम
जिस्म पर कैद है, जज्बात पे जंजीरें हैं
फिक्र महबूस है, गुफ्तार पे ताजीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब जुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं
अर्साए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में,
हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बेनाम गिरांबार सितम
आज सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दोरोजा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार
चंद  रोज  और  मेरी  जान  फकत  चंद  ही  रोज
 
बस, थोड़ा ही सा सब्र। पुरुष का बनाया हुआ घर गिरा जा रहा है। खंडहर ही रह गए हैं। यूं भी पुरुष बाहर ही बाहर मालिक रहा है। कहने को ही मालिक रहा है। दिखाने को ही मालिक रहा है। लाख उसने उपाय किए हैं मालकियत के, मगर जीता कब? जीत उसकी हुई कब? घर में घुसते ही पूंछ दबा लेता है। 

और स्त्रियां होशियार हैं। कहती हैं, बाजार में चलो अकड़कर चलो, छाती फैलाकर चलो, ताल ठोंककर चलो, कोई फिक्र नहीं। बस, घर में आए कि ढंग से रहो कि ढंग से उठो, ढंग से बैठो। और बैठता है ढंग से; ढंग से उठता है। 
 
मगर इतने से भी, रामप्यारी बाई, तू राजी नहीं है, कुछ और चाहिए! वह कुछ और भी हो जाएगा। जल्दी ही वक्त आ जाएगा कि मर्दों को डोली में बैठकर जाना पड़े। घर का कामकाज तो करने ही लगे हैं, डोली में ही बैठना रह गया है, घूंघट ही डालना रह गया है। वह भी होगा। आखिर इतने दिन स्त्रियां डोलियों में बैठीं और घूंघट डाले, तो उसकी प्रतिक्रिया तो होने ही वाली है।

एक दिन जब म्हारी मां दफ्तर से घर आई तो बापू बोल्यो: ऐजी, थाने दीखे कोई न छोरो जवान होरियो है। कोई अच्छो सो घर देखके याको हाथ पीलो कर दो। कालने कोई ऊंच-नीच हो जावेगी तो खानदान की नाक ही कट जावेगी। 

बापू जब म्हारी मां से म्हारे ब्याह की बात कर रियो थो तो मैं केंवाड़ के छेंक में से सारी बात सुन रियो थो। सुणता ही म्हारो चेहरो शरम से लाल हो रियो थो। पंण कई छोरिया आवें और म्हाणे रिजेक्ट करके चली जावें। पंण एक दिन तन की सूखी, मन की रूखी, दहेज की भूखी एक छोरी म्हाणे देखवाने आई। मैं सर पर पल्यौ, आंखां नीची करके उनकी तरफ पान की तश्तरी बढ़ाई। पंण वा छोरी थी खेल खिलाई। पान लेता वा मोरौ आंगली दबाई। मैं दूसरा कमरा में बापू ने ले जाके सारी बात बताई। तो बापू बोल्यो: तेरी तो तबियत यहीं घबराई। तेरी मां भी म्हारी आंगली यांई दबाई। 

पंण वा छोरी मां ने पास करी और एक दिन वो भी आयौ जब म्हारे मन में बाजोड़ी शहनाई। म्हारे घर में भी बाजी। फिर आवै पुत्रदान के बाद जब विदा को नम्बर आयौ तो बापी बोला, बेटा क्यूं रोवै है? मैं भी कैं करा, बेटो परायो धन होवै है। मैं डोली में बैठो-बैठो, रोतो-रोतो गारियो था--

कि मैं अबला मरदन की बस यही कहानी,
कि  मुंह  पर  मूंछ  और  आंखों  में  पानी।

ससुराल में जब म्हारा कमरा में प्राणेश्वरी आई तो मैं ऊंके चरणों में धोक लगाई। पंण ऊंसे पहले ही वो म्हारो घूंघट उठायो और मुंह दिखाई में जिल्लट को शेविंग सेट थंभायो। इम्पोर्टेड थो। एक दिन मैं प्राणनाथिनी ने शिकायत करी--जी, थारी चाची नी नीयत म्हाणे खराब नजर आवे है। वह बिना खांसा ही म्हार कमरा में घुस आवे है। कालने मैं आइयां-वाइवां बैठे होऊं तो के होवैगो? मैं मर्दां की तो एक इज्जत ही है, यांई लुट जावैगी तो कैने मुंह दिखावैगो?

मत घबड़ा, रामप्यारी बाई, समय बदल रहा है, जोर से बदल रहा है। सदियों-सदियों की तकलीफ है, बस जरा सब्र और। बाई, जरा सब्र और! फकत चंद रोज। फकत चंद ही रोज। 


पीवत राम रस लगी खुमारी

 

ओशो




आपकी बातें कभी कभी विरोधी क्यों प्रतीत होती है?



मेरे इस मंदिर के द्वार अनेक हैं। कोई नाचता हुआ आए, तो उसके लिए मैंने कृष्ण की मूर्ति सजा रखी है। और किसी को नाच न जंचता हो, चुप बैठना हो, तो उसके लिए मैंने बुद्ध की मूर्ति बिठा रखी है। जिसकी जैसी रुचि हो।

पहले अपनी रुचि को पहचानो। पहले अपने दिल को पहचानो; अपने दिल को टटोलो--और उसी आधार पर चलना, वहीं से संकेत लेना, तो यह दुविधा खड़ी नहीं होगी, तो यह दुई खड़ी नहीं होगी।
ज्यूं मुख एक देखि दुई दर्पन! दर्पणों में मत देखो। आंख बंद करो और अपने भीतर के रुझान को पहचानो कि मेरा रुझान क्या है। और कठिनाई नहीं होगी। अगर तुम दूसरों की सुनोगे, तो कठिनाई में पड़ोगे, क्योंकि दूसरे अपनी सुनाएंगे।

इसलिए मैं निरंतर अनेक जीवन-दृष्टियों पर बोल रहा हूं। कहीं ऐसा न हो कि कोई जीवन-दृष्टि तुमसे अपरिचित रह जाए। तुम्हें परिचित करा देता हूं।

और निरंतर यह घटना घटती है: जब मीरा पर बोला हूं, तो किसी के हृदय की घंटियां बजने लगीं। और जब बुद्ध पर बोला हूं, तो किसी के हृदय की गूंज उठी। और मैंने यह पाया है कि जिसको मीरा को सुन कर गूंजा था हृदय, उसको बुद्ध को सुन कर नहीं गूंजा। और जिसको बुद्ध को सुन कर हृदय आंदोलित हुआ, वह मीरा से अप्रभावित रह गया। जो मीरा को सुन कर रोया था, आंख आंसुओं से गीली हो गई थीं--वह बुद्ध को सुन कर ऐसा ही बैठा रहा। कहीं तालमेल न बैठा।

और जो बुद्ध को सुन कर गदगद हो आया, जिसके भीतर कुछ ठहर गया बुद्ध को सुनते-सुनते--वह मीरा को सुन कर सोचता रहा था; यह सब कल्पना-जाल है! यह सब भ्रम है! ये सब मन के ही भाव हैं। कहां कृष्ण? कहां कृष्ण की बांसुरी? कैसा नृत्य? यह मीरा स्त्री थी, भावुक थी, भावनाशील थी। भजन तो अच्छे गाए हैं! वह उनकी भजन की प्रशंसा कर सकता है--काव्य की दृष्टि से, संगीत की दृष्टि से, मगर, और उसके भीतर कुछ नहीं होता।

लेकिन जो मीरा को देख कर डांवांडोल हो गया था, वह बुद्ध को सुनता है, लगता है: हैं--रेगिस्तान जैसे! उसके भीतर कोई फूल नहीं खिलते। उसका दिल ऐसा नहीं होता कि दौड़ पडूं इस रेगिस्तान में। कि जाऊं और खो जाऊं इस रेगिस्तान में। न कोई कोयल बोलती है। न कोई पक्षी चहचहाते हैं। कुछ भी नहीं। सन्नाटा है।

यहां मैं सारे द्वार तुम्हारे लिए खोल रहा हूं। इस तरह की बात कभी पृथ्वी पर नहीं की गई। इसलिए मैं इसे भगीरथ-प्रयास कह रहा हूं। यह पहली बार हो रहा है। महावीर ने अपनी बात कही। मैं भी अपनी बात कह कर चुप हो सकता हूं। मगर मेरी बात कुछ लोगों के काम की होगी, थोड़े से लोगों के काम की होगी।

मीरा ने अपनी बात कही। बुद्ध ने अपनी बात कही। कृष्ण ने अपनी बात कही। अब समय आ गया कि कोई इन सबकी बात को पुनरुज्जीवित कर दे। इसलिए तुम्हें मेरी बातों में बहुत से विरोधाभास मिलेंगे। मिलने वाले हैं। क्योंकि जब मैं मीरा पर बोलता हूं, तो मीरा के साथ एकरूप हो जाता हूं। फिर मैं भूल ही जाता हूं--बुद्ध को, महावीर को। फिर मुझे कुछ लेना-देना नहीं। और अगर किसी ने बुद्ध-महावीर की बात छेड़ी, तो मैं मीरा के सामने उन्हें टिकने नहीं दूंगा! जब मीरा मैं हूं, तो उस समय मीरा मैं हूं।

और जब मैं बुद्ध के संबंध में बोल रहा हूं; किसी ने कहा कि अब मेरी आंखों में आंसू नहीं आ रहे--तो मैं उसे झकझोरूंगा। तो मैं कहूंगा कि तुम्हें रोना हो, तो कहीं और जा कर रोओ। रोने की जरूरत क्या है! मीरा के समय जरूर कहूंगा कि रोओ, जी भर कर रोओ। गीले हो जाओ। इतने गीले कि बिलकुल भीग ही जाओ। तरोबोर हो जाओ।

तो मेरी बातों में तुम्हें विरोधाभास मिलेंगे, क्योंकि मैं सारे द्वार खोल रहा हूं। वे अलग-अलग द्वार हैं। उनकी कुंजियां अलग; उनके ताले अलग; उनकी स्थापत्य कला अलग; उनका रंग-ढंग अलग। मगर ये सब द्वार एक ही जगह ले जा रहे हैं। ज्यूं था त्यूं ठहराया!



ज्यूं था त्यूं ठहराया

ओशो 

जीवन का सत्कार






मैं जीवन का सत्कार करता हूं। मेरे मन में जीवन और परमात्मा पर्यायवाची हैं। और कोई परमात्मा नहीं है--जीवन को छोड़कर। जीवन को अहोभाव से स्वीकार करो। और परमात्मा ने तुम्हें जहां, जैसा बनाया है, वहीं जीओ। और वहीं जीते-जीते शांत बनो, मौन बनो, शून्य बनो।

प्रीतम छवि नैनन बसी 

ओशो

भगवान, आप सदा आनंदमग्न हैं, इसका राज क्या है? मैं कब इस मस्ती को पा सकूंगा?

योगानंद, मैं तुम्हें नाम दिया हूं योगानंद का, उसमें ही सारा राज है।
 
मनुष्य दो ढंग से जी सकता है। या तो अस्तित्व से अलग-थलग, या अस्तित्व के साथ एकरस। अलग-थलग जो जीएगा, दुख में जीएगा--चिंता में, संताप में। यह स्वाभाविक है। क्योंकि अस्तित्व से भिन्न होकर जीने का अर्थ है: जैसे कोई वृक्ष पृथ्वी से अपनी जड़ों को अलग कर ले और जीने की चेष्टा करे। मुरझा जाएगा, पत्ते कुम्हला जाएंगे, फूल खिलने बंद हो जाएंगे। वसंत तो आएगा, आता रहेगा, मगर वह वृक्ष कभी दुल्हन न बनेगा, दूल्हा न बनेगा। 

उसके लिए वसंत नहीं आएगा। जिसकी जड़ें ही पृथ्वी से उखड़ गई हों, उसके लिए मधुमास का क्या उपाय रहा! फिर कहां आनंद, कहां मस्ती! फिर सुबह नहीं है, फिर तो अंधेरी रात है, अमावस की रात है--और ऐसी रात कि जिसकी कोई सुबह नहीं होती। इस तरह के जीवन का नाम ही अहंकार है।
और जो वृक्ष पृथ्वी के साथ योग साध रहा है, पृथ्वी में जड़ें फैला रहा है, आकाश में शाखाएं, बदलियों से बतकही, चांदत्तारों से संबंध जोड़ रहा है, वह आनंदित न होगा तो क्या होगा! हवाएं आएंगी तो नाचेगा, गुनगुनाएगा। हवाएं गुजरेंगी तो गीत गाएंगी। पक्षी उस पर बसेरा करेंगे। सूर्य की किरणें उसके फूलों पर अठखेलियां करेंगी। ऐसे जीवन का नाम ही संन्यास है।

संन्यास अर्थात निरहंकारिता। संसार अर्थात अहंकार। संसार अर्थात मैं हूं अलग, भिन्न।

और जहां यह खयाल उठा कि मैं अलग हूं, भिन्न हूं, वहीं इसका स्वाभाविक तार्किक परिणाम यह होता है कि मुझे संघर्ष करना है, लड़ना है, विजय-पताका फहरानी है। और छोटा-सा आदमी, बूंद जैसा, सागर से लड़ने चल पड़ेगा तो कितनी न चिंताओं से भर जाएगा? कितने न संताप उसे घेर लेंगे? कितने भय और कितनी असुरक्षाएं? उसके चारों तरफ मेला भर जाएगा चिंताओं ही चिंताओं का।

हम अलग नहीं हैं, इस सत्य को जानने की प्रक्रिया का नाम है: योग। योग अर्थात हम इकट्ठे हैं, जुड़े हैं, संयुक्त हैं। योग का अर्थ होता है: जोड़। जैसे ही व्यक्ति ने जाना कि मैं जुड़ा हूं, फिर न तो कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। जैसे ही जाना कि मैं जुड़ा हूं अस्तित्व से, तत्क्षण हम शाश्वत हो गए। अस्तित्व जब से है, हम हैं; और अस्तित्व जब तक रहेगा, हम रहेंगे। और अस्तित्व तो सदा है। ऐसा कभी न था कि न हो। ऐसा भी कभी न होगा कि न हो जाए। तो फिर जन्म और मृत्यु तो छुद्र घटनाएं हैं। जीवन की प्रक्रिया जन्म और मृत्यु के पार है। देह आती है, जाती है, बनती है, मिटती है, हम नहीं।

लेकिन यह प्रतीति तभी संभव है जब अहंकार को हम बीच से हटा लें। जैसे ही अहंकार आया कि दीवार आई। हम टूटे। अलग हुए। और जैसे ही अहंकार गया कि दीवार हटी। सेतु बना। हम संयुक्त हुए। युक्त हुए। योग को उपलब्ध हुए।

योगानंद, तुम्हारे नाम में कुंजी छिपी है। योग ही आनंद है। और तब अमावस भी पूर्णिमा हो जाती है। देर नहीं लगती, एक क्षण में हो जाती है।

लगन मुहूरत सब झूठ 

ओशो

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