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Sunday, October 30, 2016

फल की आकांक्षा



कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है, फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें--यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा सूत्र है।


इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है।


इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है।


स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल के आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो जाती है। 


इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी फलाकांक्षा से भरा है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और परमात्मा का गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित है।


जीसस का एक वचन है कि जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जो दे देगा, उसे सब कुछ दे दिया जाएगा। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाता है, व्यर्थ ही अपने को खोता है। क्योंकि उसे परमात्मा के गणित का पता नहीं है। जो अपने को खोता है, वह पूरे परमात्मा को ही पा लेता है।
तो जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं; ऐसा भी मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही फल का मार्ग है; आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम, आप्टिमम संभावना है मिलने की। और हम जो करते हैं, उससे फल के खोने की मैक्सिमम, अधिकतम संभावना है और लघुतम, मिनिमम मिलने की संभावना है।


जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में कहें, तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की चिंता कर लेता है। असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने का संकल्प इतना बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि अगर इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए--कि कोई कर्म करता है और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और सो जाता है और फल का स्वप्न भी नहीं देखता--इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए चित्त को भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का कोई कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त शक्तियां दौड़ पड़ती हैं।

गीता दर्शन 

ओशो

स्वामी

जीवन दो भांति जीया जा सकता है-एक मालिक की तरह, एक गुलाम की तरह। और गुलाम की तरह जो जीवन है, वह नाममात्र को ही जीवन है। उसे जीवन कहना भी गलत है। बस दिखाई पड़ता हे जीवन जैसा, आभास होता है जीवन जैसा। जैसे एक सपना देखा हो। आशा में ही होता है गुलाम का जीवन। मिलेगा, मिलता कभी नहीं। आ रहा है, आता कभी नहीं। गुलाम का जीवन बस जाता है, आता कभी नहीं। 


गुलाम के जीवन का शास्त्र समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो उसे न समझ पाया, वह मालिक के जीवन को निर्मित न कर पाएगा। दोनों के शास्त्र अलग हैं। दोनों की व्यवस्थाएं अलग हैं। गुलाम के जीवन के शास्त्र का नाम ही संसार है। मालिक और मालकियत के जीवन का नाम ही धर्म है। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म का सूत्र है। 


मालिक से अर्थ है, ऐसे जीना जैसे जीवन अभी और यहीं है। कल पर छोड़कर नहीं, आशा में नहीं, यथार्थ में। मालिक के जीवन का अर्थ है, मन गुलाम हो, चेतना मालिक हो। होश मालिक हो, वृत्तियां मालिक न हों। विचारों का उपयोग किया जाए, विचार तुम्हारा उपयोग न कर लें। विचारों को तुम काम में लगा सको, विचार तुम्हें काम में न लगा दें। लगाम हाथ में हो जीवन की। और जहां तुम जीवन को ले जाना चाहो, वहीं जीवन जाए। तुम्हें मन के पीछे घसिटना न पड़े। 


गुलाम का जीवन बेहोश जीवन है। जैसे सारथी नशे में हो, लगाम ढीली पड़ी हो, घोड़ों की जहा मर्जी हो रथ को ले जाएं। ऊबड़-खाबड़ में गिराएं, कष्ट में डालें, मार्ग से भटकाएं, लेकिन सारथी बेहोश हो।
गीता में कृष्ण सारथी हैं। अर्थ है कि जब चैतन्य हो जाए सारथी, तुम्हारे भीतर जो श्रेष्ठतम है जब उसके हाथ में लगाम आ जाए। बहुत बार अजीब सा लगता है कृष्ण को सारथी देखकर। अर्जुन 
ना-कुछ है अभी, वह रथ में बैठा है। कृष्ण सब कुछ है, वे सारथी बने हैं। पर प्रतीक बड़ा मधुर है। प्रतीक यही है कि तुम्हारे भीतर जो ना-कुछ है वह सारथी न रह जाए; तुम्हारे भीतर जो सब कुछ है वही सारथी।

तुम्‍हारी हालत उलटी है। तुम्हारी गीता उलटी है। अर्जुन सारथी बना बैठा है। कृष्ण रथ में बैठे हैं। ऐसे ऊपर से लगता है-मालकियत, क्योंकि कृष्ण रथ में बैठे हैं और अर्जुन सारथी है। ऊपर से लगता है, तुम मालिक हो। ऊपर से लगता है, तुम्हारी गीता ही सही है। लेकिन फिर से सोचना, व्यास की गीता ही सही है। अर्जुन रथ में होना चाहिए। कृष्ण सारथी होने चाहिए। मन रथ में बिठा दो, हर्जा नहीं है। लेकिन ध्यान सारथी बने, तो एक मालकियत पैदा होती है। 

इसलिए हमने इस देश में संन्यासी को स्वामी कहा है। स्वामी का अर्थ है,जिसने अपनी गीता को ठीक कर लिया। अर्जुन रथ में बैठ गया, कृष्ण सारथी हो गए, वही संन्यासी है। वही स्वामी है।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

Thursday, October 13, 2016

जंग सूं प्रीत न कीजिए, समझि मन मेरा



ञानी सदा सरल होते हैं। शब्द उनके सीधे होते हैं; गोल—गोल नहीं, सीधे हृदय पर चोट करते हैं। उनका तीर सीधा है। और इसलिए कई बार ऐसा होता है कि लोग पंडितों के जाल में पड़ जाते हैं और ज्ञानियों से वंचित रह जाते हैं। क्योंकि, लोगों को लगता है कि इतनी सरल बात है, इसमें है ही क्या समझने जैसा?


ध्यान रखना, जहां सरल हो वहीं समझने जैसा है; और जहां कठिन हो वहां सब कचरा है। वह कठिनाई इसीलिए पैदा की गई है ताकि कचरा दिखाई न पड़े।


तुम डाक्टर के पास जाते हो तो डाक्टर इस ढंग से लिखता है कि तुम्हारी समझ में न आए कि क्या लिखा है।


मुल्ला नसरुद्दीन ने तय कर लिया कि अपने लड़के को डाक्टर बनाना है। मैंने पूछा, आखिर कारण क्या है? उसने कहा, आधा तो यह अभी से है; क्या लिखता है, कुछ पता नहीं चलता। आधी योग्यता तो उसमें है ही। अब थोड़ा—सा और, सो पढ़ लेगा कालेज में।


पता नहीं चलना चाहिए। क्योंकि जो लिखा है वह दो पैसे में बाजार में मिल सकता है। और डाक्टर लेटिन भाषा का उपयोग करता है, जो किसी की समझ में न आए। क्योंकि अगर वे उस भाषा का उपयोग करें तो तुम्हारी समझ में आती है तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि तुम कहोगे कि यह चीज तो बाजार में दो पैसों में मिल सकती है, इसका बीस रुपया! तुम कैसे दोगे? बीस रुपया लेटिन भाषा की वजह से दे रहे हो।


जो डाक्टर का ढंग है, वह पंडित का ढंग है। वह संस्कृत में प्रार्थना करता है, या लेटिन में, या रोमन में, या अरबी में, कभी लोकभाषा में नहीं। लोगों की समझ में आ जाए तो प्रार्थना में कुछ है ही नहीं। समझ में न आए तो लोग सोचते हैं, कुछ होगा। बड़ा रहस्यपूर्ण है। पंडित की पूरी कोशिश है कि तुम्हारी समझ में न आए, तो ही पंडित का धंधा चलता है। ज्ञानी की पूरी कोशिश है कि तुम्हें समझ में आए, क्योंकि ज्ञानी का कोई धंधा नहीं है।


कबीर के शब्द बड़े सीधे—सादे हैं; एक बेपढ़े—लिखे आदमी के शब्द हैं। पर बड़े गहरे हैं। वेद फीके हैं। उपनिषद थोड़े ज्यादा सजाए—संवारे मालूम पड़ते हैं। कबीर के वचन बिलकुल नग्न हैं, सीधे! रत्तीभर ज्यादा नहीं हैं; जितना होना चाहिए उतना ही हैं।


"जंग सूं प्रीत न कीजिए, समझि मन मेरा।
स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा।'


संसार से प्रेम न कर मेरे मन; समझ! क्योंकि संसार से जिसने प्रेम किया—और संसार से अर्थ है तुम्हारे ही खड़े किए संसार से—वह भटका। भटका क्यों? क्योंकि वह सत्य को कभी जान न सका। उसके अपने ही मन ने रंग इतने डाल दिए सत्य में, कि सत्य का रंग ही खो गया। वह कभी स्त्री को सीधा न देख पाया; देख लेता तो मुक्त हो जाता।

सुनो भई साधो 

ओशो 



मन संसार है



भर्तृहरि ने अपने जीवन में उल्लेख किया है। राज्य छोड़ दिया। और राज्य ऐसे ही नहीं छोड़ दिया था, बड़ी परिपक्वता से छोड़ा था, जानकर छोड़ा था। भोगा था जीवन को और जीवन के भोग से जो पीड़ा पाई थी और जीवन के भोग में जो व्यर्थता पाई थी, उसके कारण छोड़ा था। लेकिन तब भी छोड़ते छोड़ते भी धुएं की एक रेखा भीतर रह गई होगी।


जीवन जटिल है। पर्त—दर—पर्त अज्ञान है। एक पर्त पर छोड़ देते ही, दूसरी पर्त पर प्रगट होना शुरू हो जाता है।


सब छोड़कर संन्यस्त होकर जंगल में भर्तहरि बैठे हैं, अपनी गुफा में बैठे हैं। एक पक्षी ने गीत गुनगुनाया, आंख खुल गई। पक्षी को तो देखा ही देखा, राह पड़ा एक चमकदार हीरा दिखाई पड़ा। अनजाने कोने से, अचेतन की किसी पर्त से, जरा—सा लोभ सरक गया, जरा सा हल्का झोंका, पता भी न चले भर्तहरि को ही पता चल सकता है जो कि जीवन को बड़ा समझकर बाहर आया था जरा सा कंपन हो गया। लौ हिल गई भीतर उठा लूं! फिर थोड़ी हंसी भी आई। इससे भी बड़े बड़े हीरे जवाहरात छोड़कर आया, और अभी भी उठाने का मन बना है। बहुत कुछ था, बड़ा साम्राज्य था। यह हीरा कुछ भी नहीं है। ऐसे बहुत हीरों के ढेर थे। वह सब छोड़ आया, और आज अचानक इस साधारण से हीरे को राह पर पड़ा देखकर मन में यह बात उठ आई।


खूंटियां छोड़ने से लोभ नहीं छूटता। महल छोड़ देने से भी लोभ नहीं छूटता। धन के अंबार त्याग देने से भी त्याग नहीं हो जाता।


मगर भर्तहरि बड़ा सचेत, जागरूक व्यक्तित्व है। पहचान लिया, पकड़ लिया, होश में आ गया कि नहीं, यह बात क्या हुई! और जब यह मन में मंथन चलता था, यह जब मन का विश्लेषण चलता था कि लोभ कहां से उठ आया, क्षणभर पहले नहीं था; आंख बंद थी, ध्यान में लीन था कहां से, किस पर्त से? बाहर से तो नहीं आया? कोई हीरा तो नहीं भेज रहा है यह लोभ? इस विश्लेषण में लगे थे, तभी देखा कि दो घुड़सवार दोनों तरफ से राह पर आ गए हैं और दोनों की नजर एक साथ ही हीरे पर पड़ गई। दोनों की तलवारें बाहर निकल आईं। दोनों सैनिक हैं। दोनों ने अपनी तलवारें हीरे के पास टेक दीं और कहा कि पहले नजर मेरी पड़ी, तो दूसरे ने कहा, तुम गलती में हो, पता भी नहीं कि एक तीसरा व्यक्ति भी छिपा गुहा में बैठा है, जो देख रहा है। तलवारें चल गईं। क्षणभर पहले दोनों जीवित थे, क्षणभर बाद दोनों की लाशें पड़ी थीं।

 हीरा अब भी अपनी जगह था न रोया, न पछताया, न चिंतित, न बेचैन। जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। हीरे को क्या हुआ? लेकिन भर्तहरि को बड़ा बोध जागा हीरा अपनी जगह ही पड़ा रहेगा; हम आएंगे और चले जाएंगे; हम चलेंगे संसार में और विदा हो जाएंगे। हीरे हमारे लिए पछताएंगे न। न विदा देते समय एक आंसू उनकी आंखों में झलकेगा, न हमें देखकर वे प्रसन्न हैं। सब अपने ही मन का खेल है। हम ही टांग लेते हैं।


देखकर यह घटना भर्तहरि ने फिर आंख बंद कर ली। और इस घटना ने भर्तहरि को बड़ा बोध दिया।


सब पड़ा रह जाएगा। न तुम लेकर आते हो, न तुम लेकर जाते हो; लेकिन घड़ीभर को बड़े सपने संजो लेते हो, बड़े इंद्रधनुष फैला लेते हो।

मन संसार है। काम कामिनी का निर्माता है, स्रष्टा है। लोभ स्वर्ण का जन्मदाता है।

सुनो भई साधो

ओशो

तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो



तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तो तुम कहते हो: "स्वर्ण—काया! सोने की देह! स्वर्ग की सुगंध!' तुम्हारे कहने से कुछ फर्क न पड़ेगा। गर्मी के दिन करीब आ रहे हैं पसीना बहेगा, स्त्री के शरीर से भी दुर्गंध उठेगी। तब तुम लाख कहो "स्वर्ग की सुगंध,' तुम्हारे सपने को तोड़कर भी पसीने की बास ऊपर आएगी। तब तुम मुश्किल में पड़ोगे कि धोखा हो गया। और शायद तुम यह कहोगे, इस स्त्री ने धोखा दे दिया। क्योंकि मन हमेशा दूसरे पर दायित्व डालता है, कहेगा, यह स्त्री इतनी सुंदर न थी जितना इसने ढंग—ढौंग बना रखा था। यह स्त्री इतनी स्वर्ण काया की न थी जितना इसने ऊपर से रंग रोगन कर रखा था। वह सब सजावट थी, शृंगार था भटक गए, भूल में पड़ गए।


स्त्री भी धीरे धीरे पाएगी कि तुम साधारण पुरुष हो और जो उसने देवता देख लिया था तुममें, वह जैसे—जैसे खिसकेगा, वैसे—वैसे पीड़ा और अड़चन शुरू होगी। और वह भी तुम पर ही दोष फेंकेगी कि जरूर तुमने ही कुछ धोखा दिया है, प्रवंचना की है। और जब ये दो प्रवंचनाएं प्रतीत होंगी कि एक—दूसरे के द्वारा की गई हैं तो कलह, संघर्ष, वैमनस्य, शत्रुता खड़ी होगी। तुम्हारा मन किसी और स्त्री की तरफ डोलने लगेगा। तुम नई खूंटी तलाश करोगे। स्त्री का मन किसी और पुरुष की तरफ डोलने लगेगा। वह किसी नई खूंटी तलाश करेगी।

इसी तरह तुम जन्मों—जन्मों से करते रहे हो। लाखों खूंटियों पर तुमने सपना डाला। लाखों खूंटियों पर तुमने अपनी वासना टांगी। लेकिन अब तक तुम जागे नहीं और तुम यह न देख पाए कि सवाल खूंटी का नहीं है; सवाल कामिनी का नहीं है; काम का है। यह तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो। लेकिन जब तक समझोगे न, समेटोगे कैसे? भागना कहीं भी नहीं है; तुम जहां हो वहीं ही अपने मन की वासनाओं के जाल को समेट लेना है। जैसे सांझ मछुआ अपने जाल को समेट लेता है, ऐसे ही जब समझ की सांझ आती है, जब समझ परिपक्व होती है, तुम चुपचाप अपना जाल समेट लेते हो। वह तुमने ही फैलाया था, कोई दूसरे का हाथ नहीं है। कोई दूसरा तुम्हें भटका नहीं रहा है।
 
सोने का क्या कसूर है? तुम नहीं थे तब भी सोना अपनी जगह पड़ा था। तुम्हारी प्रतीक्षा भी नहीं की थी उसने। तुम नहीं रहोगे तब भी सोना अपनी जगह पड़ा रहेगा।

सुनो भई साधो 

ओशो 

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