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Sunday, October 30, 2016

स्वामी

जीवन दो भांति जीया जा सकता है-एक मालिक की तरह, एक गुलाम की तरह। और गुलाम की तरह जो जीवन है, वह नाममात्र को ही जीवन है। उसे जीवन कहना भी गलत है। बस दिखाई पड़ता हे जीवन जैसा, आभास होता है जीवन जैसा। जैसे एक सपना देखा हो। आशा में ही होता है गुलाम का जीवन। मिलेगा, मिलता कभी नहीं। आ रहा है, आता कभी नहीं। गुलाम का जीवन बस जाता है, आता कभी नहीं। 


गुलाम के जीवन का शास्त्र समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जो उसे न समझ पाया, वह मालिक के जीवन को निर्मित न कर पाएगा। दोनों के शास्त्र अलग हैं। दोनों की व्यवस्थाएं अलग हैं। गुलाम के जीवन के शास्त्र का नाम ही संसार है। मालिक और मालकियत के जीवन का नाम ही धर्म है। एस धम्मो सनंतनो। वही सनातन धर्म का सूत्र है। 


मालिक से अर्थ है, ऐसे जीना जैसे जीवन अभी और यहीं है। कल पर छोड़कर नहीं, आशा में नहीं, यथार्थ में। मालिक के जीवन का अर्थ है, मन गुलाम हो, चेतना मालिक हो। होश मालिक हो, वृत्तियां मालिक न हों। विचारों का उपयोग किया जाए, विचार तुम्हारा उपयोग न कर लें। विचारों को तुम काम में लगा सको, विचार तुम्हें काम में न लगा दें। लगाम हाथ में हो जीवन की। और जहां तुम जीवन को ले जाना चाहो, वहीं जीवन जाए। तुम्हें मन के पीछे घसिटना न पड़े। 


गुलाम का जीवन बेहोश जीवन है। जैसे सारथी नशे में हो, लगाम ढीली पड़ी हो, घोड़ों की जहा मर्जी हो रथ को ले जाएं। ऊबड़-खाबड़ में गिराएं, कष्ट में डालें, मार्ग से भटकाएं, लेकिन सारथी बेहोश हो।
गीता में कृष्ण सारथी हैं। अर्थ है कि जब चैतन्य हो जाए सारथी, तुम्हारे भीतर जो श्रेष्ठतम है जब उसके हाथ में लगाम आ जाए। बहुत बार अजीब सा लगता है कृष्ण को सारथी देखकर। अर्जुन 
ना-कुछ है अभी, वह रथ में बैठा है। कृष्ण सब कुछ है, वे सारथी बने हैं। पर प्रतीक बड़ा मधुर है। प्रतीक यही है कि तुम्हारे भीतर जो ना-कुछ है वह सारथी न रह जाए; तुम्हारे भीतर जो सब कुछ है वही सारथी।

तुम्‍हारी हालत उलटी है। तुम्हारी गीता उलटी है। अर्जुन सारथी बना बैठा है। कृष्ण रथ में बैठे हैं। ऐसे ऊपर से लगता है-मालकियत, क्योंकि कृष्ण रथ में बैठे हैं और अर्जुन सारथी है। ऊपर से लगता है, तुम मालिक हो। ऊपर से लगता है, तुम्हारी गीता ही सही है। लेकिन फिर से सोचना, व्यास की गीता ही सही है। अर्जुन रथ में होना चाहिए। कृष्ण सारथी होने चाहिए। मन रथ में बिठा दो, हर्जा नहीं है। लेकिन ध्यान सारथी बने, तो एक मालकियत पैदा होती है। 

इसलिए हमने इस देश में संन्यासी को स्वामी कहा है। स्वामी का अर्थ है,जिसने अपनी गीता को ठीक कर लिया। अर्जुन रथ में बैठ गया, कृष्ण सारथी हो गए, वही संन्यासी है। वही स्वामी है।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

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