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Sunday, December 6, 2015

धर्म की खोज

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने बाल बनवाने एक नाई की दूकान पर गया है। दाढ़ी पर साबुन लगा दी गई है, गले में कपड़ा बांध दिया गया है–और नाई बिलकुल तैयार ही है काम शुरू करने को कि एक लड़का भागा हुआ आया और उसने कहा “शेख, तुम्हारे घर में आग लगी है।’ नसरुद्दीन ने कपड़ा फेंका, भूल गया अपना कोट उठाना भी, चेहरे पर लगी हुई साबुन, और उस लड़के के पीछे भागा घबड़ाकर। लेकिन पचास कदम के बाद अचानक ठहर गया, और कहा कि “मैं भी कैसा पागल हूं! क्योंकि पहले तो मेरा नाम शेख नहीं, मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है; और दूसरा, मेरा कोई मकान नहीं जिसमें आग लग जाये!’

ऐसे क्षण आपके जीवन में भी हैं। आपको भी न तो अपने नाम का पता है और न अपने घर का पता है। न तो आपको पता है कि आप कौन हैं और न आपको पता है कि आप कहां से आते हैं और कहां जाते हैं। न आप अपने मूल स्रोत से परिचित हैं और न अपने अंतिम पड़ाव से और नाम जो आप जानते हैं कि आपका है, वह बिलकुल काम चलाऊ है, दिया हुआ है। राम की जगह कृष्ण भी दिया जाता, तो भी चल जाता काम। कृष्ण की जगह मोहम्मद दिया जाता, तो भी चल जाता काम। नाम दिया हुआ है, नाम कोई अस्तित्व नहीं है। 

लेकिन इस झूठे नाम को हम मानकर जी लेते हैं कि मैं हूं। और एक घर बना लेते हैं, जो कि घर नहीं है। क्योंकि जो छूट जाये, उसे घर कहना व्यर्थ है। और जिसे बनाना पड़े, वह मिटेगा भी। 

उस घर की तलाश ही धर्म की खोज है, जो हमारा बनाया हुआ नहीं है और जो मिटेगा भी नहीं। और जब तक हम उस घर में प्रविष्ट न हो जायें जिसे महावीर “मोक्ष’ कहते हैं; जिसे शंकराचार्य “ब्रह्म’ कहते हैं; जिसे जीसस ने “किंगडम आफ गाड’ कहा है जब तक उस घर में हम प्रविष्ट न हो जायें तब तक जीवन एक बेचैनी और एक दुख की एक यात्रा रहेगी।

महावीर वाणी 

ओशो 

धर्म की व्याख्या

तुम बैठे हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, सिर्फ बैठे हो: अपने में ही रमण हो रहा है! तुम अपने में ही डूबे हो, लीन हो, तल्लीन हो। मन कहीं जा ही नहीं रहा है। न भविष्य में जा रहा है, न दूसरे में जा रहा है। क्योंकि दूसरे में भी जाना भविष्य में जाना है। तुम दूसरे का कोई चिंतन ही नहीं कर रहे–सारा चिंतन रुक गया है। तुम विचार ही नहीं कर रहे हो, क्योंकि सभी विचार दूसरे के हैं। तुम सिर्फ हो!

यह स्व-द्रव्य में होना–तुम मात्र हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहे। तुम कोई सेतु नहीं बना रहे। दूसरे के पास जाने की कोई आकांक्षा नहीं। दूसरे से दूर जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं। दूसरा तुम्हारी कल्पना के लोक में है ही नहीं। बस अकेले तुम अपने से भरे हो! अपने से भरपूर, लबालब, कहीं जाते हुए नहीं! तरंग भी नहीं, लहर भी नहीं। क्योंकि लहर भी कहीं जाती है। तुम बस यहीं हो। ऐसी घड़ी को महावीर कहते हैं धर्म।

लहर उठी–और अगर लहर दूसरे के हित में हुई तो पुण्य, अहित में हुई तो पाप। लहर ही न उठी, तुम स्व-द्रव्य में लीन बैठे रहे–तो धर्म। तो धर्म पुण्य और पाप के पार है।

जो पुण्य और पाप के पार है उसका भविष्य नहीं हो सकता। तुम अपने में तो बस अभी और यहीं हो सकते हो–यही वर्तमान के क्षण में। तुम अपनी आत्म-सत्ता का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि सत्ता उपलब्ध ही है। उसके लिए कल तक रुकने की जरूरत नहीं; यह कहने की जरूरत नहीं कि कल अपने में प्रवेश करूंगा। हां, दूसरे में प्रवेश करना हो तो कल तक रुकना पड़ेगा; दूसरे को राजी करना होगा, समझाना-बुझाना पड़ेगा। लेकिन अपने में प्रवेश करना हो तो इसके लिए तो कल तक छोड़ने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो कोई भी साधन जरूरी नहीं है। क्योंकि वहां तो तुम हो ही; सिर्फ थोड़ा विस्मरण हुआ है। स्मरण आते ही तुम अचानक पाते हो कि तुम सदा अपने घर में थे। 

यह अपने घर में होना धर्म है।


जिन सूत्र 

ओशो 



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