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Sunday, December 6, 2015

कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास

सुख तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां?  छोड़ने योग्य कुछ है ही नहीं, मुट्ठी खाली है।

दो पागल बात कर रहे थे पागलखाने में बैठे। एक पागल ने मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में क्या है? तो पहले पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो। उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो पहले पागल ने कहा, हाथी। तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा मुझे देख लेने दे। उसने धीरे-से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया।

वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह सिर्फ पागलपन के कारण है। वह पागलपन की धारणा है।

तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। सुख है ही नहीं। मुट्ठी खाली है।

इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो! कहते हैं, बंधी लाख की! मैं भी मानता हूं: बंधी लाख की, खुली खाक की! क्योंकि है ही नहीं कुछ वहां। बंधी है, इसलिए लाख मालूम होते हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे।

तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है। जरा-सा साक्षी-भाव–सुख गया! लेकिन दुख? दुख थोड़ा समय लेगा। अनंत-अनंत जन्मों में वह जो गलत-गलत धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं…।

तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार–यही महावीर का संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख नहीं है, पुण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है, परम स्वतंत्रता है।

जिन सूत्र 

ओशो 

Sunday, November 15, 2015

एक मित्र ने पूछा है, कि आप पाखंड का विरोध करते हैं लेकिन यहां लोग आपकी कुर्सी के सामने सिर झुका रहे हैं! सरासर पाखंड हो रहा है! तो फिर इस पाखंड में और मंदिर की प्रतिमा के सामने झुकने में क्या भेद है?

मस्तिष्क का प्रश्न है। अगर कोई मंदिर की प्रतिमा में भी इतने ही भाव से झुक रहा है जितने भाव से यहां, तो वहां भी पाखंड नहीं है। पाखंड प्रतिमा के सामने झुकने में नहीं है, पाखंड तो तब है जब कि सिर्फ मस्तिष्क झुक रहा है और हृदय में कोई अनुभव नहीं हो रहा है। पत्थर की भी पूजा प्रेमपूर्ण हो तो पत्थर परमात्मा है। और परमात्मा की भी पूजा पत्थर की तरह हो तो सब पाखंड है।

लेकिन जिसने पूछा है, सोचा है कि बहुत बुद्धिमानी का प्रश्न पूछ रहा है। जिसने पूछा है, उसको खयाल है कि उसने ऐसा सवाल पूछा है जिसका जवाब नहीं हो सकता। मैं निश्चित पाखंड का विरोधी हूं। पाखंड का अर्थ तुम समझते हो? पाखंड का अर्थ होता है, जहां हृदय न हो, जहां हृदय का तालमेल न हो, जहां हृदय की जुगलबंदी न बंधी हो, वहां झुकना। क्योंकि मां ने कहा, पिता ने कहा, परिवार ने कहा, तो झुक गए मंदिर में, मस्जिद में। तुमने जाना? अगर तुम अपने जानने से झुके होओ, अगर तुम्हारा प्रेम ही तुम्हें झुकाया है, तो कौन कहता है यह पाखंड है? जरा भी पाखंड नहीं।

झेन फकीर इक्कू एक मंदिर में ठहरा। रात है सर्द। इतनी सर्द, इतनी ठंड पड़ रही है कि बाहर बर्फ गिर रही है। गरीब फकीर के पास एक ही कंबल है, वह उसकी सर्दी को नहीं मिटा पा रहा है। वह उठा कि मंदिर में कुछ लकड़ी तलाश लाए। और लकड़ी तो न मिली लेकिन बुद्ध की प्रतिमाएं थीं, वे लकड़ी की थीं। कई प्रतिमाएं थीं, तो वह एक प्रतिमा उठा लाया, आग जला ली। मंदिर में जली आग, लकड़ी की चट चटाक, अचानक रोशनी का होना, पुजारी जग गया। भागा हुआ अया। आगबबूला हो गया। आंखों पर भरोसा न आया कि एक फकीर, जिसको लोग सिद्धपुरुष समझते हैं, वह भगवान की प्रतिमा जला रहा है! इससे बड़ी और नास्तिकता और बड़ा कुफ्र क्या होगा? उसने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? होश में हो कि पागल हो? भगवान की प्रतिमा जला रहे हो! इक्कू हंसा, उसने पास में ही पड़े अपने संडे को उठाया, प्रतिमा तो जल गई थी, बस अब राख ही रह गई थी, उस राख में डंडे को डालकर टटोला। पुजारी पूछने लगा अब क्या खोज रहे हो? सब राख हो चुका। इक्कू ने कहा, भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं। पुजारी ने सिर से हाथ मार लिया। उसने कहा, तुम निश्चित पागल हो। अरे, लकड़ी की मूर्ति में कहां की अस्थियां! इक्कू ने कहा, यही तो मैं कहूं। रात अभी बहुत बाकी, बर्फ जोर से पड़ रही है और मंदिर में तुम्हारे मूर्तियां बहुत हैं, एक दो और उठा लो! और मैं ही क्यों तापूं, तुम भी ठिठुर रहे हो, तुम भी तापो। जब अस्थियां नहीं हैं, तो कैसा भगवान!

ऐसे आदमी को मंदिर में टिकने देना खतरनाक था। क्योंकि पुजारी आखिर सोएगा। यह और मूर्तियां जला दे! बहुमूल्य चंदन की मूर्तियां हैं। इक्कू को धक्के मार कर उसने बाहर निकाल दिया। इक्कू ने बहुत कहा कि बर्फ पड़ रही है, और भगवान को बाहर निकाल रहे हो! लकड़ी की मूर्तियां बचा रहे हो और मुझे जीवित बुद्ध को बाहर निकाल रहे हो! लेकिन उसने बिलकुल नहीं सुना, उसने कहा तुम पागल हो। तुम और बुद्ध! धक्के देकर दरवाजा बंद कर लिया।

सुबह जब उसने दरवाजा खोला मंदिर का तो देखा कि इक्कू बाहर बैठा है और जो मील का पत्थर है उस पर फूल चढ़ा कर आराधना में झुका है और उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे हैं। पुजारी ने जाकर हिलाया और कहा कि तुम मुझे और परेशान न करो; तुम मुझे और उलझाओ मत, ऊहापोह में मत डालो! रात मंदिर में भगवान की मूर्ति जलाई, अब सुबह राह के किनारे लगे मील के पत्थर पर फूल चढ़ा कर आराधना कर रहे हो! इक्कू ने कहा, जहां आराधना है, वहां आराध्य है। पत्थर को भी प्रेम से देखो तो परमात्मा है और परमात्मा को भी सिर्फ बुद्धि से देखते रहो, तो परमात्मा नहीं। रात जो मैंने मूर्ति जलाई, अपनी सर्दी मिटाने को न जलाई थी, तुम्हारा पाखंड जलाने को जलाई थी। तुम्हें याद दिलाना चाहता था कि तुम यह पूजा व्यर्थ ही कर रहे हो, क्योंकि तुमने खुद ही कहा कि अरे पागल, लकड़ी में अस्थियां कहां? अगर तुमने यह आराधना सच में की होती तो ऐसा वचन तुमने न निकल सकता था। भीतर तो तुम जानते हो कि लकड़ी ही है, ऊपर मानते हो कि भगवान है।

पाखंड का अर्थ होता है: भीतर कुछ, बाहर कुछ। जिन मित्र ने पूछा है, उन्हें पाखंड शब्द का भी अर्थ नहीं मालूम। पाखंड का अर्थ होता है: भीतर एक, बाहर दूसरी बात, ठीक उलटी बात। लेकिन अगर बाहर भीतर एकरस हो, जुगलबंदी बंधी हो, फिर कैसा पाखंड!

तो अगर कोई प्रीति से पत्थर के सामने झुके प्रीति कसौटी है तो पत्थर भगवान है। क्योंकि जहां झुक जाओ तुम, वहां भगवान है। तुम्हारा समर्पण भगवान है। लेकिन कोई ऐसे ही औपचारिकता से, सामाजिक व्यवहार से, और लोग झुकते हैं इसलिए झुकना चाहिए, औरों को झुकते देखकर झुकता हो, संस्कारवश झुकता हो, तो पाखंड है। पाखंड का निर्णय झुकने से नहीं होगा, पाखंड का निर्णय भीतर हृदय के अंतरतम में होगा।

उन मित्र ने पूछा है कि कल मैंने कुछ संन्यासियों को गाते सुना: जय रजनीश हरे; यह तो महा भयंकर पाखंड हो रहा है!!

तुम कैसे निर्णय करोगे! अगर यह उनके हृदय की पुकार है तो पाखंड नहीं। और अगर वे केवल एक औपचारिकता अदा कर रहे हैं तो जरूर पाखंड है। मगर तुम कैसे तय करोगे? तुम कौन हो निर्णायक? तुम अपने ही हृदय का निर्णय ले लो तो बहुत। तुम दूसरे के हृदयों का निर्णय न लो! तुम्हें अभी अपने हृदय का पता नहीं, औरों का तो क्या पता होगा? और यहां जो बात चल रही है, जो सत्संग चल रहा है, वह अनिर्वचनीय का है। नहीं कहा जा सके जो, उसको कहने की चेष्टा चल रही है। तुम जैसा व्यक्ति, जो अभी बुद्धि के क्षुद्र जाल में उलझा हो, उसका यहां काम नहीं है। तुम यहां आए भी, व्यर्थ आए! जिन मित्र ने पूछा है, वे संन्यासी भी हैं। तुम्हारा संन्यास भी व्यर्थ। तुम्हारा संन्यास पाखंड!

अब तुम समझो पाखंड का अर्थ।

तुम्हारा संन्यास पाखंड। क्योंकि अगर तुम्हारे भीतर पूजा का भाव नहीं, अगर तुम्हारे भीतर आराधना नहीं जगी, तो तुमने बस कपड़े रंग लिए, माल पहन ली, यह पाखंड। भीतर रंग जाए और बाहर रंगे, जुगलबंदी हो, फिर पाखंड नहीं। तुमने तो सोचा होगा कि मैं करूंगा खंडन उन सबका जो इस तरह का पाखंड कर रहे हैं। तुमने कभी सोचा भी न होगा कि मैं तुमसे यह कहूंगा कि तुम पाखंडी हो। मुझसे प्रश्न पूछते समय थोड़े सोच—समझ कर पूछा करो। तुम निपट पाखंडी हो! तुम्हारा संन्यास झूठ, मिथ्या! तुम झुके ही नहीं हो। तुम्हारा कोई समर्पण नहीं है। तुम मैं जो कह रहा हूं समझ ही न पाओगे, क्योंकि शब्द पकड़ोगे तुम। शब्द की तुमने पकड़े हैं। पूछा है कि आप पाखंड का इतना विरोध करते हैं और यहां आपके संन्यासी पाखंड कर रहे हैं; इसको आप रोकते क्यों नहीं? मैं पाखंड का विरोध करता हूं। तुमसे कहूंगा कि संन्यास छोड़ दो। मैं पाखंड का विरोधी हूं। तुम्हारे हृदय में अभी लहर नहीं आई, तरंग नहीं आई, अभी तुमने मेरे मौन को नहीं सुना, अभी मेरे शून्य से तुम नहीं जुड़े; अभी तुम्हारे भीतर अनाहत का नाद नहीं हुआ।


सपना यह संसार 

ओशो 

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