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Sunday, December 6, 2015

काम आलिंगन में आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो

कई कारणों से काम कृत्‍य गहन परितृप्‍ति बन सकता है और वह तुम्‍हें तुम्‍हारी अखंडता पर, स्‍वभाविक और प्रामाणिक जीवन पर वापस पहुंचा सकता है। उन कारणों को समझना होगा।

एक कारण यह है कि काम कृत्‍य समग्र कृत्‍य है। इसमें तुम अपने मन से बिलकुल अलग हो जाते हो। छूट जाते हो। यही कारण है कि कामवासना से इतना डर लगता है। तुम्‍हारा तादात्‍म्‍य मन के साथ है और काम अ-मन का कृत्‍य है। उस कृत्‍य में उतरते ही तुम बुद्धि-विहीन हो जाते हो। उसमे बुद्धि काम नहीं करती। उसमे तर्क की जगह नहीं है। कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मानसिक प्रक्रिया चलती है तो काम कृत्‍य सच्‍चा और प्रामाणिक नहीं हो सकता। तब आर्गाज्‍म संभव नहीं है। गहन परितृप्‍ति संभव नहीं है। तब काम-कृत्‍य उथला हो जाता है। मानसिक कृत्‍य हो जाता है। ऐसा ही हो गया है।

सारी दुनिया में कामवासना की इतनी दौड़ है, काम की इतनी खोज है, उसका कारण यह नहीं है कि दुनिया ज्‍यादा कामुक हो गई है। उसका कारण इतना ही हे कि तुम काम-कृत्‍य को उसकी समग्रता में नहीं भोग पाते हो। इसीलिए कामवासना की इतनी दौड़ है। यह दौड़ बताती है कि सच्‍चा काम खो गया है। और उसकी जगह नकली काम हावी हो गया है। सारा आधुनिक चित कामुक हो गया है। क्‍योंकि काम कृत्‍य ही खो गया है। काम कृत्‍य भी मानसिक कृत्‍य बन गया है। काम मन में चलता रहता है और तुम उसके संबंध में सोचते रहते हो।

मेरे पास अनेक लोग आते है और कहते है कि हम काम के संबंध में सोच-विचार करते है, पढ़ते है, चित्र देखते है। अश्‍लील चित्र देखते है। वही उनका कामानंद है, सेक्‍स का शिखर अनुभव है। लेकिन जब काम का असली क्षण आता है तो उन्‍हें अचानक पता चलता है कि उसमे उनकी रूचि नहीं है। यहां तक कि वे उसमे अपने को नापुंसग अनुभव करते है। सोच-विचार के क्षण में ही उन्‍हें काम उर्जा का एहसास होता है। लेकिन जब वे कृत्‍य में उतरना चाहते है तो उन्‍हें पता चलता है कि उसके लिए उनके पास ऊर्जा नहीं है। तब उन्‍हें कामवासना का भी पता नहीं चलता है। उन्‍हें लगता है कि उनका शरीर मुर्दा हो गया है।

उन्‍हें क्‍या हो गया है?यही हो रहा है कि उनका काम-कृत्‍य भी मानसिक हो गया है। वे इसके बारे में सिर्फ सोच विचार कर सकते है। वे कुछ कर नहीं सकते। क्‍योंकि कृत्‍य में तो पूरे का पूरा जाना पड़ता है। और जब भी पूरे होकर कृत्‍य में संलग्‍न होने की बात उठती है। मन बेचैन हो जाता है। क्‍योंकि तब मन मालिक नहीं रह सकता, तब मन नियंत्रण नहीं कर सकता।

तंत्र काम-कृत्‍य को, संभोग को तुम्‍हें अखंड बनाने के लिए उपयोग में लाता है। लेकिन तब तुम्‍हें इसमे बहुत ध्‍यानपूर्वक उतरना होगा। तब तुम्‍हें काम के संबंध में वह सब भूल जाना होगा जो तुमने सुना है, पढ़ा है, जो समाज ने, संगठित धर्मों ने, धर्म गुरूओं ने तुम्‍हें सिखाया है। सब कुछ भूल जाओ। दिया है। और समग्रता से इसमे उतरो। भूल जाओ कि नियंत्रण करना है। नियंत्रण ही बाधा है। उचित है कि तुम उस पर नियंत्रण करने की बजाय अपने को उसके हाथों में छोड़ दो। तुम ही उसके बस में हो जाओ। संभोग में पागल की तरह जाओ। अ-मन की अवस्‍था पागलपन जैसी मालूम पड़ती है। शरीर ही बन जाओ। पशु ही बन जाओ। क्‍योंकि पशु पूर्ण है।

जैसा आधुनिक मनुष्‍य है। उसे पूर्ण बनाने की सबसे सरल संभावना केवल काम में है। सेक्‍स में है, क्‍योंकि काम तुम्‍हारे भीतर गहन जैविक केंद्र है। तुम उससे ही उत्‍पन्‍न हुए हो। तुम्‍हारी प्रत्‍येक कोशिका काम-कोशिका है। तुम्‍हारा समस्‍त शरीर काम-उर्जा की घटना है।

यह पहला सूत्र कहता है: ‘’काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’

इसी में सारा फर्क है, सारा भेद है। तुम्‍हारे काम-कृत्‍य, संभोग महज राहत का, अपने को तनाव-मुक्‍त करने का उपाय है। इसलिए जब तुम संभोग में उतरते हो तो तुम्‍हें बहुत जल्‍दी रहती है। तुम किसी तरह छुटकारा चाहते हो। छुटकारा यह कि जो ऊर्जा का अतिरेक तुम्‍हें पीडित किए है वि निकल जाए और तुम चैन अनुभव करो। लेकिन यह चैन एक तरह की दुर्बलता है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है। उतैजना पैदा करती है। और तुम्‍हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो। और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्‍योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्‍त हो गई उतैजना जाती रही, इसलिए तुम्‍हें विश्राम मालूम पड़ता है।

लेकिन यह विश्राम नकारात्‍मक विश्राम है। अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्‍त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है। और तो भी यह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा। वह आध्‍यात्‍मिक नहीं होगा।

यह पहला सूत्र कहता है कि जल्‍द बाजी मत करो और अंत के लिए उतावले मत बनो, आरंभ में बने रहो। काम-कृत्‍य के दो भाग है: आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्‍यादा विश्राम पूर्ण है। ज्‍यादा उष्‍ण है। लेकिन अंत पर पहुंचने की जल्‍दी मत करो। अंत को बिलकुल भूल जाओ।

तीन संभावनाएं है। दो प्रेमी प्रेम में तीन आकार, ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते है। शायद तुमने इसके बारे में पढ़ा भी होगा। या कोई पुरानी कीमिया, की तस्‍वीर भी देखो। जिसमें एक स्‍त्री और एक पुरूष तीन ज्‍यामितिक आकारों में नग्‍न खड़े है। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है, और तीसरा वर्तुल है। यक अल्केमी और तंत्र की भाषा में काम क्रोध का बहुत पुराना विश्‍लेषण है।

आमतौर से जब तुम संभोग में होते हो तो वहां दो नहीं, चार व्‍यक्‍ति होते है। वही है चतुर्भुज। उसमे चार कोने है, क्‍योंकि तुम दो हिस्‍सों में बंटे हो। तुम्‍हारा एक हिस्‍सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्‍सा भावुक हिस्‍सा है। वैसे ही तुम्‍हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्‍यक्‍ति हो दो नहीं। चार व्‍यक्‍ति प्रेम कर रहे है। यह एक भीड़ है, और इसमें वस्‍तुत: प्रगाढ़ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने है और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम होता है। लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना नहीं है। क्‍योंकि तुम्‍हारा गहन भाग दबा पडा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही है। भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित है। वे दबी छीपी है।

दूसरी कोटी काम मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के कोने और किसी क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्‍मिक क्षण में तुम्‍हारी दुई मिट जाती है। और तुम एक हो जाते है। यह मिलन चतुर्भुजी मिलन से बेहतर है। क्‍योंकि कम से कम एक क्षण के लिए ही सही , एकता सध जाती है। वह एकता तुम्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य देती है। शक्‍ति देती है। तुम फिर युवा और जीवंत अनुभव करते हो।

लेकिन तीसरा मिलन सर्वश्रेष्‍ठ है। और यह तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षण भर के लिए नहीं है, वस्‍तुत: यह मिलन समयातित है। उसमें समय नहीं रहता। और यह मिलन तभी संभव है जब तुम स्‍खलन नहीं खोजते हो। अगर स्‍खलन खोजते हो तो फिर यह त्रिभुजीय मिलन हो जाएगा। क्‍योंकि स्‍खलन होते ही संपर्क का बिंदु मिलन का बिंदू खो जाता है।

आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो। इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें ख्‍याल में लेने जैसी है। पहली बात कि काम कृत्‍य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्‍यम मत बनाओ। संभोग को साधन की तरह मत लो, वह आपने आप में साध्‍य है। उसका कहीं लक्ष्‍य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्‍य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम संभोग के आरंभिक भाग में वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते। क्‍योंकि काम कृत्‍य की प्रकृति ही ऐसी है। कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।

तो वर्तमान में रहो। दो शरीरों के मिलन का सुखा लो, दो आत्‍माओं के मिलने का आनंद लो। और एक दूसरे में खो जाओ। एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्‍हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओं, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक दूसरे से मिलकर एक हो जाओ। उष्‍णता और प्रेम वह स्‍थिति बनाते है जिसमें दो व्‍यक्‍ति एक दूसरे में पिघलकर खो जाते है। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो तो संभोग जल्‍दबाजी का काम हो जाता है। तब तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो। दूसरे में डूब नहीं रहे हो। प्रेम के साथ तुम दूसरे में डूब सकते हो।

आरंभ का यह एक दूसरे में डूब जाना अनेक अंतदृष्‍टियां प्रदान करता है। अगर तुम संभोग को समाप्‍त करने की जल्‍दी नहीं करते हो तो काम-कृत्‍य धीरे-धीरे कामुक कम और आध्‍यात्‍मिक ज्‍यादा हो जाता है। जननेंद्रियों भी एक दूसरे में विलीन हो जाती है। तब दो शरीर ऊर्जाओं के बीच एक गहन मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह सहवास समय के साथ-साथ गहराता जाता है। लेकिन सोच-विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्‍ध कर सके तो तुम्‍हारा कामुक चित अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है।

यह वक्‍तव्‍य विरोधाभासी मालूम होता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है। क्‍योंकि हम सदा से सोचते आए है कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है। तो उसे विपरीत यौन के सदस्‍य को नहीं देखना चाहिए। उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्‍म का ब्रह्मचर्य घटित होता है। जब चित विपरीत यौन के संबंध में सोचने में संबंध में सोचने में संलग्‍न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्‍यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे। क्‍योंकि काम मनुष्‍य की बुनियादी आवश्‍यकता है, गहरी आवश्‍यकता है।

तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्‍टा मत करो, बचना संभव नहीं है। अच्‍छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ों मत प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्वीकार करो।

अगर तुम्‍हारी प्रेमिका या तुम्‍हारी प्रेमी के साथ इस मिलन को अंत की फिक्र किए बिना लंबाया जा सके तो तुम आरंभ में ही बने रहे सकते हो। उतैजना ऊर्जा है और शिखर पर जाकर तुम उसे खो सकते हो। ऊर्जा के खोन से गिरावट आती है। कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो। लेकिन वह उर्जा का अभाव है।

तंत्र तुम्‍हें उच्‍चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे में विलीन होकर एक दूसरे को शक्‍ति प्रदान करते है। तब वे एक वर्तुल बन जाते है। और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वह दोनों एक दूसरे को जीवन ऊर्जा दे रहे है। नव जीवन दे रहे है। इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता है। वरन उसकी वृद्धि होती है। क्‍योंकि विपरीत यौन के साथ संपर्क के द्वारा तुम्‍हारा प्रत्‍येक कोश ऊर्जा से भर जाता है। उसे चुनौती मिलती हे।

यदि स्‍खलन न हो, यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो संभोग ध्‍यान बन जाता है। और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्‍हारा विभाजित व्‍यक्‍तित्‍व अविभाजित हो जाता है। अखंड हो जाता है। चित की सब रूग्‍णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्‍चे हो जाते हो। निर्दोष हो जाते हो।

और एक बार अगर तुम इस निर्दोषता का उपलब्‍ध हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्‍यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्‍हारा यह व्‍यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्‍त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमे नहीं हो। तुम मात्र एक अभिनय कर रहे हो। तुम्‍हें झूठा चेहरा लगाना होगा। क्‍योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्‍यथा संसार तुम्‍हें कुचल देगा, मार डालेगा।

हमने अनेक सच्‍चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्‍योंकि वे सच्‍चे मनुष्‍य की तरह व्‍यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्‍त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया। क्‍योंकि वह भी सच्‍चे मनुष्‍य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्‍यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्‍चे स्‍वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्‍हें फिर रूग्‍ण नहीं कर सकता, विक्षिप्‍त नहीं कर सकता।

‘’काम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’

अगर स्‍खलन होता है तो ऊर्जा नष्‍ट होती है। और तब अग्‍नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्‍त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।



विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो 

Saturday, October 24, 2015

लोग पूछते हैं : ‘इस संसार से कैसे छूटा जाए?’

संसार उन पर बहुत भारी पड़ रहा है। वे संसार के बोझ के नीचे दबे जा रहे हैं। और वे संसार से बुरी तरह चिपके भी हैं, क्योंकि जब तक तुम संसार से चिपकते नहीं हो तब तक संसार तुम्हें बोझिल नहीं कर सकता। यह बोझ तुम्हारे सिर में है; और उसका कारण तुम हो, बोझ नहीं। तुम इसे ढो रहे हो। और लोग सारा संसार उठाए हैं; और फिर वे दुखी होते हैं। और दुख के इसी अनुभव से विपरीत कामना का उदय होता है, और वे विपरीत के लिए लालायित हो उठते हैं।

पहले वे धन के पीछे भाग रहे थे, अब वे ध्यान के पीछे भाग रहे हैं। पहले वे इस लोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे थे; अब वे परलोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे हैं। लेकिन भाग दौड़ जारी है। और भाग दौड़ ही समस्या है, विषय अप्रासंगिक है। कामना समस्या है; चाह समस्या है। तुम क्या चाहते हो, यह अर्थपूर्ण नहीं है; तुम चाहते हो, यह समस्या है।

और तुम चाह के विषय बदलते रहते हो। आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते हो, और तुम समझते हो कि मैं बदल रहा हूं। और फिर परसों तुम ‘ग’ की चाह करते हो, और तुम सोचते हो कि मैं रूपांतरित हो गया। लेकिन तुम वही हो। तुमने ‘क’ की चाह की, तुमने ‘ख’ की चाह की, तुमने ‘ग’ की चाह की; लेकिन यह क-ख-ग तुम नहीं हो; तुम तो वह हो जो चाहता है, जो कामना करता है। और वह वही का वही रहता है। 

तुम बंधन चाहते हो और फिर उससे निराश हो जाते हो, ऊब जाते हो। और तब तुम मोक्ष की कामना करने लगते हो। लेकिन तुम कामना करना जारी रखते हो। और कामना बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष की कामना नहीं कर सकते। चाह ही बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष नहीं चाह सकते। जब कामना विसर्जित होती है तो मोक्ष है; चाह का छूट जाना ही मोक्ष है।

तंत्र सूत्र 

ओशो 


मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं?

मुझे याद आता है कि मेरे एक मित्र, जो बौद्ध भिक्षु हैं, स्टैलिन के दिनों में सोवियत रूस गए थे। उन्होंने लौटकर मुझे बताया कि वहा जब भी कोई व्यक्ति उनसे हाथ मिलाता था तो तुरंत झिझककर पीछे हट जाता था और कहता था कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं।

उनके हाथ सचमुच सुंदर थे; भिक्षु होकर उन्हें कभी काम नहीं करना पड़ा था। वे फकीर थे, शाही फकीर; उनका श्रम से वास्ता नहीं पड़ा था। उनके हाथ बहुत कोमल, सुंदर और स्त्रैण थे। भारत में जब कोई उनके हाथ छूता तो कहता कि कितने सुंदर हाथ हैं। लेकिन सोवियत रूस में जब कोई उनके हाथ अपने हाथ में लेता तो तुरंत सिकुड़कर पीछे हट जाता, उसकी आंखों में निंदा भर जाती और वह उन्हें कहता कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं। वे वापस आकर मुझसे बोले कि मैंने इतना निंदित महसूस किया कि मेरा मन होता था कि मजदूर हो जाऊं।

रूस से साधु महात्मा विदा हो गए, क्योंकि आदर न रहा। सब साधुता दिखावटी थी, प्रदर्शन की चीज थी। आज रूस में केवल सच्चा संत ही संत हो सकता है। झूठे नकली संतों के लिए वहां कोई गुंजाइश नहीं है। आज तो वहा संत होने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ेगा, क्योंकि सारा समाज विरोध में होगा। भारत में तो जीने का सबसे सुगम ढंग साधु महात्मा होना है, सब लोग आदर देते हैं। यहां तुम झूठे हो सकते हो, क्योंकि उसमें लाभ ही लाभ है।

तो इसे स्मरण रखो। सुबह से ही, जैसे ही तुम आंख खोलते हो, सच्चे और प्रामाणिक होने की चेष्टा करो। ऐसा कुछ भी मत करो जो झूठ और नकली हो। सिर्फ सात दिन के लिए यह स्मरण बना रहे कि कुछ भी झूठ और नकली, कुछ भी अप्रामाणिक नहीं करना है। जो भी गंवाना पड़े, जो भी खोना पड़े, खो जाए; जो भी होना हो, हो जाए; लेकिन सच्चे बने रही। और सात दिन के भीतर तुम्हारे भीतर नए जीवन का उन्मेष अनुभव होने लगेगा। तुम्हारी मृत पर्तें टूटने लगेंगी, और नयी जीवंत धारा प्रवाहित होने लगेगी। तुम पहली बार पुनर्जीवन अनुभव करोगे, फिर से जीवित हो उठोगे।

कृत्य का पोषण करो, ज्ञान का पोषण करो यथार्थ में, स्वप्न में नहीं। जो भी करना चाहो करो, लेकिन ध्यान रखो कि यह काम सच में मैं कर रहा हूं या मेरे द्वारा मेरे मां बाप कर रहे हैं? क्योंकि कब के जा चुके मरे हुए लोग, मृत माता पिता, समाज, पुरानी पीढ़ियां, सब तुम्हारे भीतर अभी भी सक्रिय हैं। उन्होंने तुम्हारे भीतर ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि तुम अब भी उनको ही पूरा करने में लगे हो। तुम्हारे मां बाप अपने मृत मां बाप को पूरा करते रहे और तुम अपने मृत मां बाप को पूरा करने में लगे हो। और आश्चर्य कि कोई भी पूरा नहीं हो रहा है। तुम उसे कैसे पूरा कर सकते हो जो मर चुका? लेकिन मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं।

जब भी तुम कुछ करो तो सदा निरीक्षण करो कि यह मेरे माध्यम से मेरे पिता कर रहे हैं या मैं कर रहा हूं। जब तुम्हें क्रोध आए तो ध्यान दो कि यह मेरा क्रोध है या इसी ढंग से मेरे पिता क्रोध किया करते थे जिसे मैं दोहरा भर रहा हूं।

मैंने देखा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वही सिलसिला चलता रहता है, पुराने ढंग ढांचे दोहरते रहते हैं। अगर तुम विवाह करते हो तो वह विवाह करीब करीब वैसा ही होगा जैसा तुम्हारे मां बाप का था। तुम अपने पिता की भांति व्यवहार करोगे; तुम्हारी पत्नी अपनी मां की भांति व्यवहार करेगी। और दोनों मिलकर वही सब उपद्रव करोगे जो उन्होंने किया था।

जब क्रोध आए तो गौर से देखो कि मैं क्रोध कर रहा हूं या कि कोई दूसरा व्यक्ति क्रोध कर रहा है? जब तुम प्रेम करो तो याद रखो, तुम ही प्रेम कर रहे हो या कोई और? जब तुम कुछ बोलो तो देखो कि मैं बोल रहा हूं या मेरा शिक्षक बोल रहा है? जब तुम कोई भाव भंगिमा बनाओ तो देखो कि यह तुम्हारी भंगिमा है या कोई दूसरा ही वहा है?

यह कठिन होगा; लेकिन यही साधना है, यही आध्यात्मिक साधना है। और सारे खोटे को विदा करो। थोड़े समय के लिए तुम्हें सुस्ती पकड़ेगी, उदासी घेरेगी, क्योंकि तुम्हारे झूठ गिर जाएंगे और सत्य को आने में और प्रतिष्ठित होने में थोड़ा समय लगेगा। अंतराल का एक समय होगा; उस समय को भी आने दो। भयभीत मत होओ, आतंकित मत होओ। देर अबेर तुम्हारे मुखौटे गिर जाएंगे, तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व विलीन हो जाएगा, और उसकी जगह तुम्हारा असली चेहरा, तुम्हारा प्रामाणिक व्यक्तित्व अस्तित्व में आएगा, प्रकट होगा। और उसी प्रामाणिक व्यक्तित्व से तुम ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हो।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

स्व विकास का सूत्र

सदा ही जानने की कोशिश इस ढंग से करो कि वह सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष हो। कोई विश्वास मत पकड़ो, विश्वास तुम्हें भटका देगा। अपने पर भरोसा करो, श्रद्धा करो। और अगर तुम अपने पर ही श्रद्धा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे पर कैसे श्रद्धा कर सकते हो?

सारिपुत्र बुद्ध के पास आया और उसने कहा : ‘मैं आपमें विश्वास करने के लिए आया हूं मैं आ गया हूं। मुझे आप में श्रद्धा हो, इसमें मेरी सहायता करें।’ बुद्ध ने कहा : ‘अगर तुम्हें स्वयं में श्रद्धा नहीं है तो मुझमें श्रद्धा कैसे करोगे? मुझे भूल जाओ। पहले स्वयं में श्रद्धा करो; तो ही तुम्हें किसी दूसरे में श्रद्धा होगी।’

यह स्मरण रहे, अगर तुम्हें स्वयं में ही श्रद्धा नहीं है तो किसी में भी श्रद्धा नहीं हो सकती। पहली श्रद्धा सदा अपने में होती है; तो ही वह प्रवाहित हो सकती है, बह सकती है, तो ही वह दूसरों तक पहुंच सकती है। लेकिन अगर तुम कुछ जानते ही नहीं हो तो अपने में श्रद्धा कैसे करोगे? अगर तुम्हें कोई अनुभव ही नहीं है तो स्वयं में श्रद्धा कैसे होगी? अपने में श्रद्धा करो। और मत सोचो कि हम परमात्मा को ही दूसरों की आंखों से देखते हैं; साधारण अनुभवों में भी यही होता है। कोशिश करो कि साधारण अनुभव भी तुम्हारे अपने अनुभव हों। वे तुम्हारे विकास में सहयोगी होंगे; वे तुम्हें प्रौढ़ बनाएंगे, वे तुम्हें परिपक्वता देंगे।’’

बड़ी अजीब बात है कि तुम दूसरों की आंख से देखते हो, तुम दूसरों की जिंदगी से जीते हो। तुम गुलाब को सुंदर कहते हो। क्या यह सच में ही तुम्हारा भाव है या तुमने दूसरों से सुन रखा है कि गुलाब सुंदर होता है? क्या यह तुम्हारा जानना है? क्या तुमने जाना है? तुम कहते हो कि चांदनी अच्छी है, सुंदर है। क्या यह तुम्हारा जानना है? या कवि इसके गीत गाते रहे हैं और तुम बस उन्हें दुहरा रहे हो?

अगर तुम तोते जैसे दुहरा रहे हो तो तुम अपना जीवन प्रामाणिक रूप से नहीं जी सकते। जब भी तुम कुछ कहो, जब भी तुम कुछ करो, तो पहले अपने भीतर जांच कर लो कि क्या यह मेरा अपना जानना है? मेरा अपना अनुभव है? उस सबको बाहर फेंक दो जो तुम्हारा नहीं है; वह कचरा है। और सिर्फ उसको ही मूल्य दो, पोषण दो, जो तुम्हारा है। उसके द्वारा ही तुम्हारा विकास होगा।

 तंत्र सूत्र 

ओशो 

 

मनुष्य आशा में जीता है

क्या तुमने पडोस का डब्बा नामक यूनानी कहानी सुनी है?  किसी आदमी ने बदला लेने के लिए पडोस के पास एक डब्बा भेजा। उस डब्बे में वे सब रोग बंद थे जो अभी मनुष्यजाति के बीच फैले हैं। वे रोग उसके पहले नहीं थे; जब वह डब्बा खुला तो सभी रोग बाहर निकल आए। पडोस रोगों को देखकर डर गई और उसने डब्बा बंद कर दिया। केवल एक रोग रह गया, और वह थी आशा। अन्यथा आदमी समाप्त हो गया होता; ये सारे रोग उसे मार डालते, लेकिन आशा के कारण वह जीवित रहा।

तुम क्यों जी रहे हो? क्या तुमने कभी यह प्रश्न पूछा है? यहां और अभी जीने के लिए कुछ भी नहीं है; सिर्फ आशा है। तुम भी पडोस का डब्बा ढो रहे हो। ठीक अभी तुम क्यों जीवित हो? हरेक सुबह तुम क्यों बिस्तर से उठ आते हो? क्यों तुम रोज रोज फिर वही करते हो जो कल किया था? यह पुनरुक्ति क्यों? कारण क्या है?

तुम इसका कोई कारण नहीं बता सकते जो अभी से, वर्तमान से संबंधित हो कि तुम क्यों जी रहे हो। अगर कोई कारण ढूढोगे तो वह भविष्य से संबंधित होगा।

 वह कोई आशा होगी कि कुछ होने वाला है, किसी दिन कुछ होने वाला है। और तुम्हें यह पता नहीं है कि वह दिन कब आएगा। तुम्हें यह भी पता नहीं है कि क्या होने वाला है। लेकिन किसी दिन कुछ होने वाला है, इस उम्मीद में तुम अपने को खींचे चले जाते हो, अपने को ढोए चले जाते हो। 

मनुष्य आशा में जीता है। लेकिन यह जीवन नहीं है, क्योंकि आशा तो सपना है। जब तक तुम यहां और अभी नहीं जीते हो, तुम जीवित ही नहीं हो। तब तक तुम एक मृत बोझ हो। और वह कल तो कभी आने वाला नहीं है जब तुम्हारी सब आशाएं पूरी हो जाएंगी। और जब मृत्यु आएगी तो तुम्हें पता चलेगा कि अब कोई कल नहीं है, और अब स्थगित करने का भी उपाय नहीं है। तब तुम्हारा भ्रम टूटेगा; तब तुम्हें लगेगा कि यह धोखा था। लेकिन किसी दूसरे ने तुम्हें धोखा नहीं दिया है; अपनी दुर्गति के लिए तुम स्वयं जिम्मेवार हो।

इस क्षण में, वर्तमान में जीने की चेष्टा करो। और आशाएं मत पालो चाहे वे किसी भी ढंग की हों। वे लौकिक हो सकती हैं, पारलौकिक हो सकती हैं; इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। वे धार्मिक हो सकती हैं, किसी भविष्य में, किसी दूसरे लोक में, स्वर्ग में, मृत्यु के बाद, निर्वाण में, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कोई आशा मत करो। यदि तुम्हें थोड़ी निराशा भी अनुभव हो, तो भी यहीं रहो। यहां से और इस क्षण से मत हटो। हटो ही मत। दुख सह लो, लेकिन आशा को मत प्रवेश करने दो। आशा के द्वारा स्वप्न प्रवेश करते हैं। निराश रहो, अगर जीवन में निराशा है तो निराश रहो। निराशा को स्वीकार करो; लेकिन भविष्य में होने वाली किसी घटना का सहारा मत लो।

और तब अचानक बदलाहट होगी। जब तुम वर्तमान में ठहर जाते हो तो सपने भी ठहर जाते हैं। तब वे नहीं उठ सकते, क्योंकि उनका स्रोत ही बंद हो गया। सपने उठते हैं, क्योंकि तुम उन्हें सहयोग देते हो, तुम उन्हें पोषण देते हो। 

सहयोग मत दो; पोषण मत दो।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

सपने परिपूरक हैं.....

 ..... और मनसविद कहते हैं कि मनुष्य जैसा है, सपनों के बिना उसका जीना कठिन होगा। और वे एक अर्थ में सही हैं। जैसा मनुष्य है, सपनों के बिना उसका जीना कठिन होगा। लेकिन यदि तुम अपना रूपांतरण चाहते हो तो तुम्हें सपनों के बिना रहना होगा। सपने क्यों निर्मित होते हैं? सपने कामनाओं के कारण निर्मित होते हैं। अतृप्त कामनाएं सपने बन जाती हैं। अपनी कामनाओं को, वासनाओं को समझो; बोधपूर्वक उनका निरीक्षण करो। तुम जितना उनका निरीक्षण करोगे, वे उतनी ही विलीन हो जाएंगी। और तब तुम मन के जाले बुनना बंद कर दोगे; तब तुम अपने निजी संसार में रहना छोड़ दोगे।

सपनों की साझेदारी नहीं हो सकती है। दो घनिष्ठ मित्र भी एक दूसरे को अपने सपनों में साझेदार नहीं बना सकते; वे एक दूसरे को अपने सपनों में आमंत्रित नहीं कर सकते। क्यों? तुम और तुम्हारा प्रेमी, दोनों एक ही सपना नहीं देख सकते, तुम्हारा सपना तुम्हारा है, दूसरे का सपना दूसरे का है। सपने बिलकुल निजी हैं, वैयक्तिक हैं। सत्य उतना निजी नहीं है; केवल पागलपन निजी होता है। सत्य सार्वभौम है; तुम उसमें दूसरों को भी साझेदार बना सकते हो। लेकिन सपनों की साझेदारी नहीं हो सकती; वे तुम्हारी निजी विक्षिप्तताएं हैं, वैयक्तिक कल्पनाएं हैं। तो फिर क्या किया जाए?

एक व्यक्ति दिन में इतनी समग्रता से जी सकता है कि कुछ भी अवशेष न रहे, कुछ भी बाकी न रहे। अगर तुम भोजन कर रहे हो तो समग्रता से भोजन करो। इस समग्रता से भोजन का स्वाद लो, सुख लो कि रात में उसे किसी सपने में भोगने की जरूरत न पड़े। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो इतनी समग्रता से प्रेम करो कि फिर प्रेम को तुम्हारे सपने में प्रवेश न करना पड़े। तुम दिन में जो भी करते हो उसे इतनी समग्रता से करो कि चित्त में कुछ भी अधूरा, कुछ भी अटका न रह जाए जिसे सपने में पूरा करना पड़े।

इसे प्रयोग करो। और कुछ महीनों के भीतर तुम्हारी नींद की गुणवत्ता बदल जाएगी। सपने कम से कम होने लगेंगे और नींद गहरी से गहरी होती जाएगी। और जब रात में सपने कम होंगे तो दिन में प्रक्षेपण भी कम हो जाएंगे। क्योंकि सच्चाई यह है कि तुम्हारी नींद जारी रहती है, तुम्हारे सपने चलते रहते हैं। रात में बंद आंखों के साथ और दिन में खुली आंखों के साथ सपने जारी रहते हैं। तुम्हारे भीतर उनका सतत प्रवाह चलता रहता है। कभी एक क्षण को आंखें बंद करो और प्रतीक्षा करो। तुम देखोगे कि सपनों की फिल्म लौट आई है, सपनों का कारवां चला जा रहा है। वह सदा मौजूद ही है, तुम्हारी प्रतीक्षा करता है।

सपने वैसे ही हैं जैसे दिन में तारे होते हैं। दिन में तारे कहीं चले नहीं जाते; सिर्फ सूर्य के प्रकाश के कारण वे दिखाई नहीं पड़ते हैं। वे वहां ही हैं, और जब सूरज छिप जाता है तो वे फिर प्रकट हो जाते हैं। तुम्हारे सपने ठीक वैसे ही हैं; तुम्हारे जागरण में भी वे भीतर सरकते रहते हैं। वे प्रतीक्षा में हैं; आंखें बंद करो और वे सक्रिय हो जाते हैं।

जब रात में सपने कम होने लगेंगे तो दिन में तुम्हारे जागरण की गुणवत्ता और हो जाएगी। अगर तुम्हारी रात बदलती है तो तुम्हारा दिन भी बदल जाता है। अगर तुम्हारी नींद बदलती है तो तुम्हारा जागरण भी बदल जाता है। अब तुम ज्यादा सजग होंगे। जितने कम सपने भीतर दौड़ेंगे, तुम उतने ही कम सोए होगे। अब तुम चीजों को ज्यादा स्पष्ट, ज्यादा सीधे सीधे देख सकोगे।

तो किसी चीज को अधूरा मत छोड़ो; यह पहली बात। और तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्य में पूरे के पूरे मौजूद रहो। उससे हटो मत, कहीं और मत जाओ। अगर तुम स्नान कर रहे हो तो वहीं रहो। पूरे संसार को भूल जाओ; अभी यह स्नान ही तुम्हारा पूरा जगत है। सब समाप्त हो गया है, संसार खो गया है; बस तुम हो और स्नान है। स्नान के साथ रहो। प्रत्येक कृत्य में इस समग्रता से भाग लो कि तुम न तो उसके पीछे छूट जाओ न उससे आगे ही चले जाओ। तुम कृत्य के साथ साथ रहो। तब सपने विदा हो जाएंगे। और जैसे जैसे सपने विदा होंगे, तुम सत्य में प्रवेश करने में ज्यादा समर्थ हो सकोगे।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

शब्दों का फैलाव

भाषा उसे कभी नहीं कहती है जो है। अगर तुम कहते हो कि मैंने आंखें खोलीं तो झूठ कह रहे हो। और अगर तुम कहते हो कि आंखें अपने आप खुलीं तो भी झूठ है। क्योंकि आंखें अंश हैं, वे अपने आप नहीं खुल सकतीं। उनके खुलने में सारा शरीर सम्मिलित है। लेकिन हम जो कुछ कहते हैं वह ऐसा ही है।

अगर तुम भारत में आदिवासी समाजों में जाओ और यहां अनेक आदिवासी कबीले है तो पाओगे कि उनकी भाषा संरचना बहुत भिन्न है। उनकी भाषा संरचना में स्‍वप्‍न देखने की गुंजाइश नहीं है। अगर वर्षा होती है तो हम कहते हैं : ‘वर्षा हो रही है।’ आदिवासी पूछते हैं : ‘हो रही है का क्या अर्थ? हो रही है कहने का क्या मतलब?’ उनके पास एक ही शब्द है, वर्षा। वर्षा हो रही है, कहने की क्या जरूरत है? वर्षा कहना काफी है। वर्षा यथार्थ है। लेकिन हम उसमें कुछ न कुछ जोडते चले जाते हैं। और हम जितने शब्द जोड़ते हैं उतने ही भटक जाते हैं, सत्य से उतने ही दूर हो जाते हैं।

बुद्ध कहा करते थे कि जब तुम कहते हो कि आदमी चल रहा है तो उसका क्या अर्थ है? आदमी कहा है? केवल चलना है। आदमी से तुम्हारा क्या मतलब? जब हम कहते है कि आदमी चल रहा है तो ऐसा लगता है कि आदमी जैसा कुछ है और चलने जैसा कुछ है, और इन दो चीजों को जोड़ दिया गया है। बुद्ध कहते हैं, केवल चलना है।

जब तुम कहते हो कि नदी बह रही है तो तुम्हारा क्या मतलब है? केवल बहना है, और वह बहना ही नदी है। वैसे ही चलना आदमी है, देखना आदमी है, खड़ा होना और बैठना आदमी है। अगर तुम इन चीजों को अलग कर दो चलने, बैठने, खड़े होने, सोचने और सपने देखने को अलग कर दो तो क्या पीछे आदमी रह जाएगा? नहीं, पीछे कोई आदमी नहीं बचेगा। लेकिन भाषा एक अलग ही संसार निर्मित कर देती है। और सतत शब्दों में भटककर हम भटकते ही चले जाते हैं।

 तो पहली बात यह स्मरण रखने की है कि नाहक शब्दों के झमेले में न पड़ा जाए। जब जरूरत हो, तो तुम शब्दों का उपयोग कर सकते हो, लेकिन जब जरूरत न हो तो खाली रहो, चुप रहो, निःशब्द रहो, मौन रहो, शांत रहो। चीजों को निरंतर शब्द देते रहने की जरूरत नहीं है।

तंत्र सूत्र 

ओशो

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