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Sunday, July 26, 2015

स्थिर ज्ञान

स्थिर ज्ञान–नॉन–वेवरिंग नॉलिज क्या है? यह एक गहरे से गहरा रहस्य है, इसलिए इसे समझने के लिए हमें मन की जो बनावट है, उसकी गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा।
तो हम शुरू करें मन से। मन में कई प्रकार के विचार होते हैं। प्रत्येक विचार एक कंपन है प्रत्येक विचार एक लहर है। जब कोई भी विचार न हो, तभी मन निश्‍चल होगा। एक भी विचार उठा और आप कंप गए। एक विचार आया और आप स्थिर नहीं रहे। और एक विचार भी केवल एक विचार ही नहीं है, वह एक बड़ी जटिल घटना है। एक अकेला विचार भी कई तरंगों से बनता है। एक शब्द भी अनेक तरंगों से निर्मित होता है। अतः एक शब्द भी तब बनता है, जब मन में अनेक तरंगें उठ रही हों, और एक अकेले विचार में ऐसे कितने ही शब्द होते हैं।
हजारों-हजारों तरंगों से कहीं एक विचार निर्मित होता है। विचार सब से अधिक बाह्य वस्तु है, परन्तु तरंगें उसके भी पहले हैं। उन्हें आप तभी जान पाते हैं, जब तरंगें विचारों में परिवर्तित हो गई होती हैं, क्योंकि आपकी सजगता बहुत स्थूल है। हम तब सजग नहीं होते, जब तरंगें शुद्ध तरंगें हों, और वे विचार बनने की प्रक्रिया में हों। जितने अधिक आप सजग होंगे, उतना ही अधिक आप अनुभव करेंगे कि विचार की बहुत सी परतें होती हैं। विचार अंतिम परत है। विचार के पहले बीज-तरंगें होती हैं, जो कि विचार को पैदा करती हैं, और बीज-तरंगों के पूर्व उनसे भी ज्यादा गहरी जड़ें होती हैं जो कि बीजों को उपजाती हैं।
बीज विचारों की रचना करते हैं। कम से कम तीन परतें बहुत आसानी से दिखलाई पड़ती है किसी भी जागरूक चित्त के लिए। परन्तु हम सीधे जागरूक नहीं हो जाते, अतः हम तभी सजग होते हैं, जब तरंगें सर्वाधिक स्थूल रूप ले सकती हैं–विचार बन जाती है। जहां तक हम जानते हैं, विचार सब से अधिक सूक्ष्म चीज है। किंतु वह है नहीं। विचार, वास्तव में, एक वस्तु बन गया है। जब शुद्ध तरंगें होती हैं, तब आप उन्हें नहीं पहचान सकते कि क्या होने वाला है, कौन सा विचार आप में पैदा होने वाला है। अतः हम तभी जान पाते हैं जब कि तरंगें विचार बन चुकती हैं। एक अकेले विचार का मतलब होता है हजारों-हजारों तरंगें।

कितना हम कंप रहे हैं! हम निरंतर विचारों से घिरे हैं। एक भी क्षण ऐसा नहीं होता जब हमारे भीतर कोई विचार न चल रहा हो। एक विचार के पीछे दूसरा विचार लगातार आता चला जाता है, बिना किसी अंतराल के। इसलिए हम वस्तुतः एक अस्थिर, कांपते हुए विचार-चक्र हैं। सोरेन किकगार्ड ने कहा है कि आदमी सिर्फ एक कंपन है–एक कंपन–और ज्यादा कुछ नहीं। और वह एक तरह से सही है। जहां तक हमारा संबंध है, मनुष्य एक कंपन ही है, पर एक बुद्ध वैसे नहीं हैं, क्योंकि बुद्ध एक आदमी नहीं हैं। यह विचार की प्रक्रिया कंपन की प्रक्रिया है। अतः स्थिर का अर्थ हैः एक निर्विचार मन की स्थिति।

सूत्र कहता है, निश्‍चल जानना। मन की भी बात नहीं की गई। इसलिए मन की तीन परतों को ठीक से समझ लेना चाहिए। प्रथम है चेतन मन, और एक प्रकार के विचार चेतन मन से संबंधित हैं। ये विचार सब से कम महत्वपूर्ण होते हैं। ये विचार प्रतिपल हो रही बाह्य प्रतिक्रियाओं से बनते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं, एक सांप गुजरता है, और आप कूद जाते हैं, सांप एक उत्तेजक विषय बन जाता है और आप प्रतिक्रिया करते हैं।
अतः एक इस तरह का विचार होता हैः एक बाह्य विषय टकराया और एक प्रतिक्रिया बाहरी परिधि पर घट गई। सचमुच आप कुछ सोचते नहीं, आप सिर्फ सक्रिय होते हैं। सांप वहां है और आप कुछ करते हैं। आप सजग होते हैं और आप कर्म करते हैं। आप भीतर प्रवेश नहीं करते और पूछते नहीं कि क्या करना चाहिए।
घर में आग लगी है और आप भागते हैं। यह बाहरी परिधि पर हो रही प्रतिक्रिया है। अतः एक ऐसा विचार जो क्षणानुक्षणिक है, रिफ्रलेक्स टाइप का है। एक बुद्ध भी ऐसे ही प्रतिक्रिया करेंगे। यह नैसर्गिक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यदि आप क्षण-क्षण प्रतिक्रिया करें, तो कुछ भी गलत नहीं है। परन्तु यही एक परत तो नहीं है।
एक दूसरी परत भी है। यह दूसरी परत अर्धचेतन की है। धर्म उसे अतः करण, कॉन्सिएन्स कहते हैं। वास्तव में, यह दूसरी परत समाज द्वारा नि£मत की गई होती है। यह भी आपके भीतर घुस गया समाज ही है। समाज प्रत्येक के भीतर घुस जाता है, क्योंकि जब तक समाज भीतर प्रवेश नहीं करता, वह आपको नियंत्रित नहीं कर सकता।

इसलिए वह आपका एक अंग बन जाता है। आपका लालन-पालन, आपकी शिक्षा, आपके माता-पिता, शिक्षक आदि: ये सब क्या कर रहे हैं, वे एक ही बात कर रहे हैं–वे एक अर्धचेतन मन निर्मित कर रहे हैं। वे सब आपको विचार, ढांचे, आदर्श, मूल्य आदि दे रहे हैं। ये सारे विचार दूसरी परत से संबंधित हैं। वे सहायक हैं, उनकी उपादेयता है, किंतु वे हानिप्रद भी हैं। वे समाज में सुगमता से विचारने के लिए साधन हैं। परन्तु वे बाधाएं भी हैं।
यह दूसरी परत ठीक से ध्यान में रख लेनी चाहिए। यह दूसरी परत भीतर विचार व पक्की धारणाओं आदि से बनती है। इसलिए जब कभी आपका उपरी चेतन मन क्षण-क्षण काम कर रहा हो, तब वह शुद्ध नहीं होता।

ओशो 

मृत्यु से भय

कोई भी पशु मृत्यु से भयभीत नहीं है, क्योंकि किसी भी पशु की भविष्य के लिए कोई योजना नहीं होती। इसके अलावा कोई भी दूसरा कारण नहीं है–भविष्य के लिए कोई योजना नहीं। भविष्य नहीं है, अतः मृत्यु नहीं है। मृत्यु से क्यों भयभीत हों, यदि भविष्य के लिए कोई योजना नहीं है? मृत्यु से कुछ भी छिन्‍न-भिन्‍न नहीं होगा। जितनी बड़ी योजनाएं होती हैं, उतना ही अधिक भय होता है। मृत्यु, वास्तव में, इस बात का भय नहीं है कि आप मर जाएंगे बल्कि इस बात का भय है कि आप अपरिपूर्ण ही मर जाएंगे और यह संभव नहीं है कि इच्छाओं को परिपूर्णता तक ले जाया जा सके और मृत्यु कभी भी आ सकती है।
यदि मैं अपरिपूर्ण ही मरता हूं, तो सचमुच भय है। मैं अभी तक अपरिपूर्ण हूं। मैंने एक क्षण भी परिपूर्णता का नहीं जाना, और मृत्यु आ सकती है। अंत मैं निरर्थक ही जीया। जिंदगी बेकार गई, बिना किसी शिखर के, बिना एक भी क्षण सत्य, शांति, सौंदर्य, मौन के जाने। मैं सिर्फ एक अर्थहीन निष्प्रयोजनता में जीया, और मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। तब मृत्यु एक भय बन जाती है। यदि मैं परिपूर्ण हूं, यदि मैंने वह जाना है जो कि जीवन किसी को अवगत करा सकता है, यदि मैंने वह जाना है जो कि वस्तुतः जीवंत है, यदि मैंने एक भी क्षण सौंदर्य का, प्रेम का, परिपूर्णता का जाना है तो फिर मृत्यु का भय कहां है? कहां है भय? मृत्यु आ सकती है वह कुछ भी छिन्‍न-भिन्‍न नहीं कर सकती। वह कुछ भी नहीं कर सकती। मृत्यु सिर्फ भविष्य को गड़बड़ कर सकती है। मेरे लिए अब भविष्य नहीं है। मैं इसी क्षण भरा हुआ हूं। तब मृत्यु कुछ नहीं कर सकती। मैं उसे स्वीकार कर सकता हूं। यहां तक कि वह आनंद भी साबित हो सकती है। इसलिए वह, जो कि मृत्यु के लिए खुला है, परमात्मा के लिए, भी खुला हो सकता है। खुला होने का मतलब होता है अभय। निर्दोषता आपको खुलापन, निर्भयता, एक जीते न जा सकने की स्थिति बिना किसी भी सुरक्षा के प्रबंध के दे देती है। वही आवाहन है।
और यदि आप ऐसे क्षण में हैं तब कि मृत्यु भी यदि आए तो आप उसका स्वागत कर सकते हैं, उसे गले लगा सकते हैं, उसका आतिथ्य कर सकते हैं तो फिर आपने परमात्मा का आवाहन किया है। अब मृत्यु कभी भी नहीं आ सकती: केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा होगा। मृत्यु अब वहां नहीं होगी, केवल परमात्मा ही होगा।

मारपा

मारपा–एक तिब्बती रहस्यवादी मर रहा है। हर एक रो रहा है और मारपा चिल्लाता है, रुको! ऐसे शुभ अवसर पर तुम क्यों रो रहे हो? मैं परमात्मा से मिलने जा रहा हूं। वह अभी और यहां है। और वह हंसता है, और मुस्कुराता है और अंतिम गीत गाता है, और हर एक रोता जा रहा है क्योंकि परमात्मा वहां किसी को भी दिखलाई नहीं पड़ता है।
मारपा कहता है–परमात्मा यहां और अभी है और तुम क्यों रो रहे हो? इतना आनंदोत्साह मनाने का अवसर!
इतना शुभ अवसर! गाओ और नाचो और खुशियां मनाओ! मारपा अपने मित्र से मिलने जा रहा है। परमात्मा बस अभी और यहीं है। मैंने लंबी प्रतीक्षा की है और अब वह क्षण आया है। तुम क्यों रो रहे हो? मारपा को समझ में नहीं आता कि क्यों रो रहे हैं। वे भी नहीं समझ पाते कि मारपा गीत क्यों गा रहा है? क्या वह पागल हो गया है? हां, सचमुच, वह हमारे लेखे पागल ही हो गया है। मृत्यु वहां खड़ी है और ऐसा लगता है कि वह पागल हो गया है। मारपा कुछ और देख रहा है। मारपा वस्तुतः मनुष्य जाति में एक सर्वाधिक खिला हुआ व्यक्ति था।
जब मारपा अपने गुरु के पास आता है। गुरु कहता है, श्रद्धा ही कुंजी है। तब मारपा कहता है–तो फिर मुझे मेरी श्रद्धा की परीक्षा का उपाय बताओ। यदि श्रद्धा ही कुंजी है तो मेरी श्रद्धा की परीक्षा का कोई उपाय बताओ। वे एक पहाड़ी पर बैठे थे और गुरु ने कहा, कूद जाओ। और मारपा कूद जाता है। यहां तक कि गुरु भी सोचता है कि वह मर जाएगा। कई अनुयायी वहां मौजूद हैं और वे भी सोचते हैं कि वह पागल हो गया है और उन्हें उसकी एक ही का पता नहीं चलेगा।

वे सब दौड़ कर नीचे जाते हैं और मारपा वहां पर बैठा हुआ है और गाना गा रहा है और नाच रहा है। अतः गुरु पूछता है कि क्या हुआ? ऐसा लगता है कि वह एक घटना संयोग था। गुरु भी अपने मन में चुपचाप सोचता है कि वह कोई घटना संयोग था: ऐसा असंभव है। ऐसा कैसे हो सकता है? यह एक संयोग की बात है। मुझे किसी दूसरी तरह से इसकी परीक्षा लेनी पड़ेगी? गुरु ने कितने ही ढंग से उसकी परीक्षा ली। गुरु उसे एक जलते हुए मकान में जाने के लिए कहता है। वह भीतर चला जाता है और वह बाहर निकल आता है बिना लपटों में झुलसे हुए। उसे समुद्र में कूदने के लिए कहा जाता है और वह कूद जाता है।
कितनी ही परीक्षाएं ली जाती हैं और अब गुरु नहीं कह सकता कि यह मात्र घटना संयोग है। इसलिए वह मारपा से पूछता है–तुम्हारा गुप्त रहस्य क्या है? मारपा कहता है–मेरा गुप्त रहस्य। आपने कहा था कि श्रद्धा ही कुंजी है और मैंने आपकी बात मान ली।
गुरु कहता है, अब रुक जाओ, क्योंकि डर है, कुछ भी हो सकता है। अतः मारपा कहता है, अब कुछ भी हो सकता है, क्योंकि मैंने मात्र आपका शब्द पकड़ लिया था। अब मैं आपका शब्द नहीं पकड़ सकता, यदि आप स्वयं ही निश्‍चित नहीं हैं। मैंने सोचा था कि श्रद्धा ही कुंजी है, परन्तु अब यह काम न पड़ेगी, इसलिए कृपया दुबारा मुझे कोई आज्ञा न दें। अगली बार मैं मर जाउंगा, इसलिए फिर से मुझे कोई आज्ञा न दें! यही शुद्धता है, बच्चों जैसी पवित्रता तिब्बत में, मारपा को वफादार मारपा के नाम से जाना जाता है। यह एक बच्चों जैसी श्रद्धा है।
अतः कहानी कहती है कि मारपा अपने गुरु का भी गुरु बन गया। उसका गुरु उसके सामने झुका और बोला–अब वह श्रद्धा की कुंजी मुझे दो, क्योंकि मुझमें कोई श्रद्धा नहीं है। मैं तो सिर्फ बात कर रहा था। मैंने केवल सुना है कि श्रद्धा ही कुंजी है, इसलिए मैं तो सिर्फ बात कर रहा था। अब वह तुम मुझे दो। अतः मारपा अपने गुरु का भी गुरु हो गया।


मारपा का मन शुद्ध, निर्दोष व हिसाब न लगाने वाला है। एक भी क्षण गणना करने का या चालाकी करने का नहीं है। उसे इतना भी नहीं देखना है कि खाई कितनी गहरी है। वह गुरु से इतना भी नहीं पूछता है–क्या मैं आपकी बात को शब्दों में लूं अथवा यह मात्र एक प्रतीकात्मक है अथवा आप कोई रहस्य की भाषा में कुछ कह रहे हैं? क्या मैं कूद ही जाउं वास्तव में, या आप किसी आंतरिक छलांग की बात कर रहे हैं? बिना किसी हिसाब के, चालाकी के वह कूद जाता है। गुरु कहता है, कूद जाओ और वह कूद जाता है। दोनों के बीच अंतराल नहीं है। एक क्षण का भी अंतराल पड़ा और आपने हिसाब लगाया।

ऐसी ही अंतराल-रहित शुद्धता आपको खोलती है। आप एक खुला द्वार हो जाते हैं। वही आवाहन है।

ओशो 

मन की शुद्धता

मन की शुद्धता का अर्थ होता है पाने की इच्छा का बिलकुल अभाव–मात्र देना। वही प्रौढ़ चित्त है। एक बच्चा, एक अप्रौढ़ चित्त सदैव पाने में रहता है। एक बुद्ध, एक जीसस सदैव देने में होते हैं। वह दूसरा छोर है–दे रहे हैं। कुछ भी पाने को नहीं, परन्तु फिर भी दे रहे है क्योंकि देना एक खेल है, एक आनंद है अपने में। जब मैं कहता हूं इच्छा को समझो, तो मेरा आशय है–पाने की समझो और देने को समझो। समझो कि तुम्हारी जो स्थिति है वह है पाने की, पाने की और पाने की, और कभी भी तुम भरे-पूरे नहीं हो पाओगे, क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है।
इसे समझे–क्या मिला तुम्हें इस सतत शाश्‍वत पाने से? क्या पाया आपने? आप जितने गरीब कभी पहले थे वैसे ही आज है। उतने ही भिखारी हैं, जितने पहले कभी थे, बल्कि ज्यादा ही। जितना अधिक तुम्हें मिलता है, उतने ही बड़े भिखारी तुम हो जाते हो और उतनी ही अधिक पाने की आकांक्षा बढ़ जाती है। अतः आप पाने से सिर्फ और अधिक पाना ही सीखते हो। कहां पहुंचे आप? क्या पाया आपने? इस विक्षिप्त व सतत पाने की क्या उपलब्धि हुई? कुछ भी तो नहीं? यदि आप इसे समझ जाएं, तो इसकी समझ ही रूपांतरण हो जाता है। पाना गिर जाता है, और उसके गिरने के साथ, एक नया आयाम खुलता है और आप देना प्रारंभ करते हैं। और यही विरोध है सबसे बड़ा–कि आपने तब पाने से कुछ भी नहीं पाया: परन्तु जब आप देते हैं, तो निरंतर पाते हैं, परन्तु वह पाना आपके पाने से संबंधित नहीं है जरा भी। देना ही अपने में एक भारी उपलब्धि है, एक गहरी परिपूर्णता है।

ओशो 

समय वर्तमान है

एक युवा आदमी वर्तमान में है। इसलिए एक युवा आदमी बच्चों को नहीं समझ पाता और वह एक बूढ़े आदमी को भी नहीं समझ पाता। वे दोनों ही उसे मूर्ख दिखते हैं। बच्चे उसे मूर्ख दिखते हैं क्योंकि वे व्यर्थ ही अपना समय नष्ट कर रहे हैं खिलौनों से खेलते हुए। एक बूढ़ा आदमी मृतवत दिखलाई पड़ता है, व्यर्थ की चिंताओं के कारण। एक युवा आदमी यथार्थतः नहीं समझ पाता: क्योंकि वह देख ही नहीं पाता कि बूढ़े को क्या हो गया है–कि अब वह केवल एक अतीत है। ऐसा होता है।
वे सब दूसरे को मूर्ख समझते हैं। बच्चे युवा एवं वृद्धों को नहीं समझ सकते। युवा बच्चों और वृद्धों को नहीं समझ सकते। और वृद्ध युवकों और बच्चों को नहीं समझ सकते। क्यों? क्योंकि उनकी समय की समझ भिन्‍न है–इसलिए उनकी भाषा भी।
परन्तु प्रत्येक युवा बूढ़ा होगा, और प्रत्येक बच्चा युवा होगा और हर एक बूढ़ा कभी जवान था और एकबच्चा था, और मन चलता है, चलता चला जाता है इसी तरह। बच्चों में उसका एक बड़ा वस्तुतः स्थान होता है, जिसमें कि वह चल सकता है, बूढ़े मन के पास कोई स्थान नहीं होता, जिसमें कि वह चल सके। परन्तु यह एक मन की गति है, न कि समय की।
हम सोचते हैं कि समय चलता है। वस्तुतः हम चल रहे हैं। हम मात्र चलते चले जाते हैं। समय बिलकुल ही नहीं चलता। समय वर्तमान है। समय सदैव यहीं और अभी है वह तो हमेशा ही यही और अभी था। वह सदैव ही यही और अभी होगा। हम चलते चले जाते हैं हम अतीत से भविष्य में यात्रा करते हैं और हमारे लिए समय मात्र एक सेतु की तरह है–अतीत से भविष्य में जान के लिए, एक इच्छा से दूसरी इच्छा में जाने के लिए। समय मात्र एक पथ है हमारे लिए। समय केवल मार्ग है एक इच्छा से दूसरी में जाने के लिए। यदि इच्छाएं समाप्त हो जाएं, तो आपकी गति रुक जाएगी और यदि आपकी गति रुक जाती है, तो आप समय से भेंट करेंगे, अभी और यही, और वह भेंट ही द्वार है। वह मुलाकात ही द्वार है, वह मिलन ही आवाहन है।

धर्म

धर्म कोई कर्म-कांड नहीं है, कोई शास्त्र-विधि नहीं है। वास्तव में, जब कोई धर्म मृत हो जाता है, वह कर्म-कांड हो जाता है। धर्म का मृत शरीर ही कर्म-कांड हो जाता है, परन्तु सब जगह कर्म-कांड ही पाया जाता है। यदि आप धर्म को खोजने जाएं, तो आप कर्म-कांड ही पाएंगे। ये सारे नाम–हिंदू, मुसलमान, ईसाई–ये धर्मों के नाम नहीं हैं। ये विशेष कर्म-कांडो के नाम हैं। कर्म-कांड से मेरा तात्पर्य है कि कुछ बाहर की ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह विश्‍वास, कि कोई बाह्य क्रिया आंतरिक क्रांति उत्पन्‍न कर सकती है, कर्म-कांडो को जन्म देता है। यह विश्‍वास क्यों पैदा होता है? यह इसलिए पैदा होता है, क्योंकि यह एक बिलकुल प्राकृतिक घटना है। जब कभी आंतरिक क्रांति होती है, जब कभी अंतस में परिवर्तन होता है, जब कभी भीतर रूपांतरण होता है, तो
उसके पीछे-पीछे बहुत सी बाह्य बातें व चिन्ह प्रकट होते हैं। ये बाहरी चिन्ह अपरिहार्य हैं क्योंकि अंतस में जो होता है, वह बाहर से जुड़ा होता है। भीतर ऐसा कुछ भी घटित नहीं हो सकता, जो कि बाह्य को प्रभावित न करे। उसका प्रभाव होगा, परिणाम होंगे, परछाइयाँ बनेंगी, बाह्य व्यवहार पर भी। यदि आप भीतर क्रोध अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर विशेष भाव-भंगिमा बनाने लगता है। यदि आप भीतर शांति का अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर दूसरी भाव-भंगिमा बनाने लगता है। जब भीतर शांति होती है, तो शरीर इस शांति को, उस आंतरिक शांति, को व स्थिरता को कई प्रकार से प्रदर्शित करता है। परन्तु यह सदैव द्वितीय बात है, प्राथमिक नहीं बाह्य परिणामस्वरूप है, यह कारण नहीं हैं।
यदि बुद्ध अभी यहां हों, तो हम यह नहीं देख सकते कि उनके भीतर क्या हो रहा है। परन्तु हम यह देख सकते हैं और देखेंगे कि उनके बाहर क्या हो रहा है। बुद्ध के स्वयं के लिए भीतर जो है कारण है और बाह्य है परिणाम। हमारे लिए, बाह्य पहले होगा देखने को और तब अंतस के बारे में अनुमान लगाया जाएगा। इसलिए दर्शकों के लिए बाह्य, द्वितीय आधारभूत बन जाता है, प्राथमिक बन जाता है। हम कैसे जान सकते हैं कि बुद्ध की अंतश्‍चेतना में क्या हो रहा है? हम उनके शरीर को देख सकते हैं उनके चलने-फिरने को, उनके हाव-भावों को। वे सब अंतस से संबंधित हैं। वे कुछ दर्शाते हैं, परन्तु वे कारण की तरह नहीं, वरन परिणाम स्वरूप हैं।
यदि आंतरिक है, तो बाह्य भी पीछे-पीछे आएगा। इसका उल्टा ठीक नहीं है। यदि बाह्य है तो अनिवार्य नहीं है कि उसका अनुगमन करेगा। कोई जरूरी नहीं! उदाहरण के लिए यदि मैं क्रोध में हूं, तो मेरा शरीर क्रोध प्रकट करेगा, परन्तु मैं अपने शरीर में क्रोध दिखला सकता हूं बिना भीतर बिलकुल भी क्रोधित हुए। एक अभिनेता यही कर रहा है। वह अपनी आंखों से क्रोध प्रकट कर रहा है, हाथों से क्रोध प्रकट कर रहा है। वह प्रेम व्यक्त कर रहा है। भीतर बिना जरा भी प्रेम अनुभव किए। वह भय प्रकट कर रहा है, उसका सारा शरीर कांप रहा है, हिल रहा है, परन्तु भीतर कोई भय नहीं। बाह्य हो सकता है बिना आंतरिक के। हम उसे आरोपित कर सकते हैं। कोई कारण, आधार, आवश्‍यकता अथवा अनिवार्यता नहीं है कि अंतस बाह्य का अनुगमन करे। बाह्य हमेशा अंतस का अनुगमन करता है, परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता। कर्म-कांड इसी भ्रम के कारण पैदा होता है।

ओशो 

भगवान, बुद्ध और महावीर जो कि समकालीन थे, फिर वे कभी भी क्यों नहीं मिले? शारीरिक रीति से भी नहीं मिले?


वे नहीं मिल सकते। वे कभी नहीं मिल सकते, शारीरिक रीति से भी नहीं। वे कई बार मिलने के बहुत करीब भी आ गए। एक बार वे दोनों एक ही सराय में ठहरे हुए थे–एक हिस्से में महावीर और दूसरे हिस्से में बुद्ध, परन्तु कोई मिलना नहीं होता, मुलाकात नहीं होती। वे उन्हीं गांवों से कई बार गूजरें अपनी जिंदगी में। वे बिहार, जो कि बहुत छोटा सा प्रांत है, उसमें रहे। वे उन्हीं गांवों में गए भी। वे उन्हीं गांवों में रहे भी। उन्होंने उन्हीं लोगों से बात भी की। उनके अनुयायी बुद्ध से महावीर और महावीर से बुद्ध के बीच आते जाते रहे। बहुत विरोध भी रहा, बहुत बार लोगों का धर्म परिवर्तन भी हुआ, परन्तु वे कभी न मिले। वे मिल ही नहीं सकते। उनके अपने मूल स्वरूप ही अब कुछ ऐसे शिखर हैं कि उनका मिलना अब संभव नहीं है। यहां तक कि यदि वे एक-दूसरे के आस-पास में भी बैठे हों, तो भी मिलना नहीं हो सकता। यहां तक कि हमें वे मिलते हुए भी नजर आए और छाती से छाती लगाए हुए दिखलाई पड़े, तो भी वे नहीं मिल सकते। उनकी मीटिंग असंभव हो गई है। वे इतने अपूर्व हैं, वे इतने शिखर की तरह हैं, कि आंतरिक मिल संभव नहीं हैं। इसलिए फिर बाह्य मिलन का क्या अर्थ है? वह बेकार है, वह अर्थहीन है।

यह बात हमें समझ में नहीं आती। हम सोचते हैं कि दो अच्छे आदमी आपस में मिलने ही चाहिए। हमारे लिए यह जो न मिलने वाला रुख है, यह ठीक नहीं है। वास्तव में, कोई न मिलने, का भाव अभाव रुख नहीं है बस वह असंभव है। ऐसा नहीं है कि बुद्ध महावीर से मिलना न चाहेंगे। ऐसा नहीं है कि महावीर मना करेंगे। बस वह सिर्फ असंभव है। बस, वह हो नहीं सकता। कोई रुख नहीं है वैसा। इसलिए वास्तव में यह आश्‍चर्यजनक बात है। एक ही गांव में रहे, वे एक ही सराय में ठहरे, परन्तु न तो बौद्धों के साहित्य में और न जैनों के शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख है कि किसी ने कहा हो कि वे मिले–एक भी उल्लेख नहीं है! यहां तक कि ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं है कि किसी ने सुझाव दिया हो कि यह अच्छा होगा यदि वे दोनों मिलें। यह वाकई आश्‍चर्यजनक बात है। दोनों में से किसी ने भी मना नहीं किया है। न तो बुद्ध ने, न महावीर ने कभी ऐसा कहा है कि मैं नहीं मिलूंगा। फिर वे क्यों नहीं मिले? क्योंकि वह एक असंभावना है वह संभव ही नहीं है। हमारे लिए, जो कि पृथ्वी पर खड़े हैं, बड़ा अजीब लगता है, परन्तु यदि आप शिखर पर खड़े हों, तो कुछ अजीब नहीं लगेगा। क्यों नहीं हिमालय के एक शिखर से कहते कि दूसरे शिखर से मिले? वे इतने निकट हैं–इतने पास हैं। वे क्यों नहीं मिल सकते! उनके मूल स्वरूप, उनका अपना शिखर स्वरूप ही यह असंभावना उत्पन्‍न करता है। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि वे कभी न मिले हों, बल्कि वे मिल ही नहीं सकते। वे कभी न मिलेंगे। वह द्वार ही बंद हो गया। और फिर भी मैं कहता हूं कि वे एक हैं। कितने भी शिखर एक दूसरे से भिन्‍न हों, अपनी जड़ों में वे सदैव एक हैं। वे दोनों पृथ्वी के एक ही हिस्से से जुडे हैं, लेकिन केवल जड़ों में ही वे एक हैं।

यहां पर एक बात और सोचने जैसी है। चूंकि वे जड़ में एक ही हैं, इसलिए कोई ऐसी आवश्‍यकता नहीं है कि वे मिलें। केवल वे ही, जो कि जड़ों में एक नहीं हैं मिलने का प्रयत्न करेंगे, क्योंकि आधारित वे जानते हैं कि कोई मिलने नहीं है। मुझसे कई लोगों ने पूछा कि मैं क्यों सभी धर्मों का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं करता? गाँधीजी ने किया है, कई थियोसाफी के लोगों ने किया है–उन्होंने सभी धर्मों का महान समन्वय करने का प्रयत्न किया है। मैं कहता हूं कि यदि आप प्रयत्न करते हैं, तो आप यह बतलाते हैं कि कोई समन्वय नहीं है ऐसा प्रयत्न नहीं बतलाता है कि कहीं पर सभी धर्म विभाजित हैं। मैं ऐसा बिलकुल भी अनुभव नहीं करता। अपने मूल में, जड़ों में वे सब एक हैं। शिखर पर, चोटी पर वे बंटे हुए हैं, और वे बंटे हुए होने चाहिए। प्रत्येक शिखर की अपनी सुंदरता है। उसे क्यों नष्ट करें? क्यों एक असत्य बात खड़ी करें, जो कि नहीं है! एक शिखर एक शिखर ही रहे–अकेला, अविभाज्य। पृथ्वी पर वे एक हैं। इसलिए कुरान को केवल कुरान ही होना चाहिए। कुछ भी गीता अथवा रामायण में से उस पर आरोपित नहीं करना चाहिए—कुछ भी अंतर-प्रवेश नहीं, कोई मिश्रण नहीं होना चाहिए। कुरान अपनी पूरी शुद्धता में कुरान ही है। वह एक शिखर है, एक अनुपम शिखर, क्यों उसे नष्ट करें?
यह आरोपण न करना तभी संभव है, जबकि आप जड़ों में, पृथ्वी में उनकी गहरी एकता से अवगत हैं। सभी धर्म अपनी मूल जड़ों में एक ही हैं, परन्तु अपनी अभिव्यक्ति में कभी भी नहीं और वे होने भी नहीं चाहिए। और इस तरह संसार और अधिक विकास करता है। जैसे-जैसे मनुष्य चेतना ज्यादा चेतन होती है, वह ज्यादा अखंड होती है। तब और अधिक धर्म होंगे, न कि कम। अंततः यदि प्रत्येक मनुष्य एक शिखर हो जाए, तो उतने ही धर्म होंगे, जितने कि मनुष्य होंगे। क्या जरूरत है किसी को मोहम्मद का अनुगमन करने की, यदि वह स्वयं ही एक शिखर हो सकता हो? क्या आवश्‍यकता है किसी को कृष्ण का अनुकरण करने की, यदि वह स्वयं ही एक शिखर हो सके? यह बड़ा दुर्भाग्य है कि किसी को भी किसी अन्य का अनुकरण करना पड़ता है।

यह एक अनिवार्य बुराई है। यदि आप शिखर नहीं हो सकते, तो आपको अनुकरण करना पड़ेगा, परन्तु अनुकरण इस प्रकार करें कि जितनी जल्दी हो सके आप स्वयं ही एक शिखर हो जाएं, वही अच्छा है। हमारे पास एक सुंदर संसार होगा, एक बहत्तर जगत और अधिक मानवता के साथ, यदि प्रत्येक एक अपूर्व शिखर हो जाए। परन्तु वह शिखर केवल अविभाज्यता के द्वारा ही आ सकता है अहंकार को व झूठे व्यक्तित्व को गला कर अपने सच्चे स्वभाव में केंद्रित होने से अपने सच्चे शुद्ध स्वरूप में स्थित होने से ही वह उपलब्ध हो सकता है। तब आप एक घाटी की भांति हो जाते हैं, और तब प्रति ध्वनियां होती हैं।


ओशो

प्रेम व मृत्यु

एक सड़क के किनारे बैठ जाऐं, और लोगों की घूमती हुई आंखों की ओर देखें। तब तुम्हें मालूम होता है कि हर एक मनुष्य अपने में बंद है। उसे बिलकुल ही होश नहीं है कि उसके चारों तरफ क्या हो रहा है। कोई अपने से बात कर रहा है, कोई अपने हाथ हिला रहा है, शक्लें बना रहा है, जैसे वह किसी सपने में। हो सकता है। होंठ हिल रहे हैं प्रत्येक अपने भीतर बात कर रहा है। किसी को भी होश नहीं कि बाहर उसके चारों तरफ क्या हो रहा है। सब लोग यंत्रवत चले जा रहे हैं। वे अपने घरों को लौट रहे हैं। उन्हें यह स्मरण रखने की आवश्‍यकता नहीं कि उनके घर कहां हैं। वे यंत्रवत चलते हैं। उनकी टांगें चलती हैं उनके हाथ कार के पहिए को घुमाते हैं, वे अपने घर पहुंच जाते हैं, परन्तु यह सारी प्रक्रिया सोते में हो रही है—एक यांत्रिक क्रिया है रोज की। रास्ते बने हैं और उन रास्तों पर वे चढ़े चले जाते हैं। इसीलिए हम सदैव नये से घबड़ाते हैं, क्योंकि तब हमें नए रास्ते बनाने पड़ते हैं। हम नए से डरते हैं, क्योंकि नए के साथ रोजमर्रा की बात नहीं चलेगी और कुछ समय के लिए हमें सावधान होना पड़ेगा। हम हमेशा ही अपने मृत दैनिक कार्यों में गड़े हुए रहते हैं और एक तरफ से मरे हुए होते हैं। एक सोया हुआ आदमी, वास्तव में, मृत होता है, उसे जीवित नहीं कह सकते।
पूरे जीवन में मात्र कुछ ही क्षणों के लिए हम जागते हैं और वे क्षण गहरे प्रेम के क्षण होते हैं जो कि बहुत ही मुश्‍किल से होता है। यह केवल कुछ ही लोगों को होता है–बहुत ही कम लोगों को। और जब यह होता है, प्रत्येक यह समझेगा कि वह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि वह इतना भिन्‍न हो गया होता है—क्योंकि उसने वस्तुओं को दूसरे रंग में देखीं होती हैं, एक भिन्‍न ही संगीत में, एक अलग ही रोशनी में। वह अपने चारों ओर देखता है और एक भिन्‍न ही दुनिया को देखता है। सचमुच ही वह व्यक्ति हमारे लिए पागल हो गया है, इसलिए हम उसे क्षमा कर सकते हैं, क्योंकि वह पागल है। वह एक स्वप्न में है!
वास्तव में, ठीक इसके विपरीत, मामला उल्टा ही है। हम सोए हुए हैं, और एक क्षण के लिए वह एक गहरी वास्तविकता के प्रति जाग गया है। परन्तु वह अकेला है और वह जागरूकता लगातार नहीं रह सकती: क्योंकि वह एक आकस्मिक घटना है। वह उसके प्रयत्न से नहीं हुआ जो कुछ उसने पाया। वह एक अकस्मात घटना है। वह फिर सो जाएगा, और जब वह सो जाएगा, तब वह अनुभव करेगा कि उसे अपने प्रेमी या प्रेयसी द्वारा धोखा हुआ है क्योंकि वह जादू अब वहां नहीं है। वह जादू आया, क्योंकि वह एक नए ही संसार के प्रति जागा। इस संसार में कितने ही संसार हैं। वह अवगत हुआ, और अब फिर से सो गया, इसलिए वह अनुभव करता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। हर एक प्रेम करने वाला यह सोचता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। किसी ने उसे धोखा नहीं दिया है। केवल एक अचानक जागरण में उसने एक अलग ही संसार के दर्शन कर लिए, एक अलग ही सौंदर्य से भरे, अलग-अलग ध्वनियों से भरे, और अब वह फिर से सौ गया है। वह झलक खो गई और अब ऐसा अनुभव करता है कि उसे धोखा दिया गया। किसी ने उसे धोखा नहीं दिया है। केवल इतना ही हुआ कि अचानक वह जाग गया था।
कोई या तो प्रेम में, अथवा मृत्यु में सजग हो पाता है। आप मृत्यु की मुट्टी में आ गए हैं, तो आप जाग जाएंगे। आकस्मिक दुर्घटनाओं में–कार काबू से बाहर पहाड़ी के नीचे आ रही है–आप जाग जाएंगे क्योंकि अब कोई भविष्य नहीं है और अतीत समाप्त हो गया है। केवल यह वर्तमान क्षण, यह पहाड़ी से नीचे गिरने का क्षण ही सब कुछ है। अब एक अलग ही समय का आयाम खुलता है। आप यहां और अभी में है, पहली बार, क्योंकि कोई भविष्य नहीं है। आप भविष्य के बार में नहीं सोच सकते, अतीत समाप्त हो ही रहा है। इन दोनों के बीच, एक क्षण के लिए, इस संकट में, आप सजग हो गए हैं। इसलिए प्रेम व मृत्यु ही ऐसे क्षण हैं, जब कि हम जागरूक होते हैं, लेकिन वे हमारे हाथ में नहीं हैं।

ओशो 

ओम्

जब कोई अस्तित्व में गहरे जाता है जड़ों तक, बहुत गहरे, तो वहां विचार नहीं होते। विचार करने वाला भी वहां नहीं होता। विषय-बोध भी वहां नहीं होता, और न कर्ता का बोध ही होता है, परन्तु फिर भी, सब कुछ होता है। उस विचारशून्य, कर्ताशून्य क्षण में, एक ध्वनि सुनाई पड़ती है, वह ध्वनि ओम की ध्वनि से मिलती है–मात्र मिलती है। वह ओम नहीं है इसीलिए वह मात्र एक संकेत है। हम उसे फिर से उत्पन्‍न नहीं कर सकते। वह करीब-करीब मिलती-जुलती ध्वनि है। इसलिए वह कितनी ही ध्वनियों का समस्वर है, परन्तु सदैव ही ओम के सबसे अधिक पास है।
मुसलमानों व ईसाइयों ने उसे आमीन की तरह पहचाना है। वह ध्वनि जो कि सुनाई देती है, जब कि सब कुछ खो जाता है और केवल ध्वनि गूंजती रह जाती है ओम् से मिलती-जुलती होती है वह आमीन से भी मिल सकती है। अंग्रेजी में बहुत से शब्द हैं–ओम्निप्रजेंट, ओम्निशियन्ट, ओम्निपोटेंट–यह ओम्नि मात्र ध्वनि है। वास्तव में ओम्निशियन्ट का अर्थ होता हैः वह जिसने कि ओम् को देखा हो, और ओम् सब के लिए ही संकेत है। ओम्निपोटेंट का अर्थ होता है वह जो कि ओम् के साथ एक हो गया है, क्योंकि वही सब से बड़ी संभावना है सारे ब्रह्म की ध्वनि में भी मौजूद है। और वह ध्वनि सब को चारों तरफ से घेरे है, सर्व के उपर से बह रही है। ओमनिशियेन्ट, ओम्निप्रजेंट व ओम्निपोटेंट में जो ओम्नि है वह ओम् है। आमीन भी ओम् है। अलग-अलग साधक, अलग-अलग लोग भिन्‍न-भिन्‍न पहचान को पहुंचे हैं। परन्तु वे सब किसी भी प्रकार से ओम् से मिलते-जुलते हैं।

ओशो 

शब्दों का उपयोग

आदमी अकेला ऐसा प्राणी है जो कि अपने से ही झूठ बोल सकता है और धोखों में जी सकता है। यदि आप हिंदू हैं और उपनिषदों के बारे में सोच रहे हैं, या आप मुसलमान हैं और कुरान के बारे में सोच रहे हैं, अथवा ईसाई हैं और बाइबिल के बारे में सोच रहे हैं, तो आपको कभी पता ही नहीं चलेगा कि आप कभी सच्चे नहीं हो सकते। किसी को किसी का न होना पड़े, केवल तभी प्रतिसंवेदन सच्चा हो सकता है। जुड़ा होना गड़गड़ी करता है और मस्तिष्क को विकृत कर देता है और ऐसी बातें दिखलाता है, जो कि हैं ही नहीं अथवा मना कर देता है उन्हें जो कि हैं। इसलिए मेरे लिए वह मुसीबत नहीं है। आपके लिए भी मेरा सुझाव है कि जब भी आप कुरान पढ़ रहे हों, या उपनिषद सुन रहें हों, अथवा बाइबिल–तो हिंदू न हों, ईसाई न हों
या मुसलमान बिलकुल न हों। मात्र होना पर्याप्त है। आप गहरे में उतरने में समर्थ हो सकेंगे। मतों के साथ, सिद्धांतों के साथ, आप कभी खुले नहीं रह सकते। और एक बंद दिमाग समझ के धोखे कर सकता है, लेकिन कभी कुछ समझ नहीं सकता। इसलिए मैं किसी का भी नहीं हूं। और यदि मैं इस उपनिषद के प्रति प्रतिसंवेदन करता हूं। वह केवल इसलिए कि मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं। यह जो सब से छोटा उपनिषद है आत्म-पूजा, यह एक बहुत ही अपूर्व घटना है। इसलिए थोड़ा इस अनोखे उपनिषद के बारे में–कि मैंने क्यों इसको विषय रूप में बोलने के लिए चुना है?
प्रथम–यह सब से छोटा है यह बिलकुल बीज की तरह है–प्रबल, विशेष–जिसमें सब कुछ भरा हो। प्रत्येक शब्द एक बीज है, जिसमें कि अनंत संभावनाएं हैं। इसलिए आप अनंतकाल के लिए ध्वनि व प्रतिध्वनि पैदा कर सकते हैं, और जितना आप इसके बारे में सोचते हैं उतना ही आप इसे गहरे में जाने देने में मदद करते हैं, व नए-नए अर्थ इसमें से प्रकट होते हैं। ये जो बीज की तरह शब्द हैं, ये गहरे मौन में पाए जाते हैं। सच ही यह बड़ा अजीब लगता है, परन्तु यह एक तथ्य है। यदि आपके पास बहुत कम कहने के लिए हो, तो ही आप ज्यादा कहेंगे। और यदि आपके पास वास्तव में ही कुछ कहने के लिए है, तो आप उसे कुछ ही पंक्तियों में, कुछ ही शब्दों में–यहां तक कि एक ही शब्द में कह सकते हैं। जितना कम आपको कहना हो, उतने ही अधिक शब्दों का उपयोग आपको करना पड़ेगा। जितना अधिक आपको कहना है, उतने ही कम शब्दों का आपको उपयोग करना होता है।

ओशो 

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