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Friday, October 30, 2015

भविष्य की साधना

अब दुनिया में वर्षों और जन्मों वाले योग नहीं टिक सकते। अब लोगों के पास दिन और घंटे भी नहीं हैं। और अब ऐसी प्रक्रिया चाहिए जो तत्काल फलदायी मालूम होने लगे कि एक आदमी अगर सात दिन का संकल्प कर ले तो फिर सात दिन में ही उसे पता चल जाए कि हुआ है बहुत कुछ, वह आदमी दूसरा हो गया है। अगर सात जन्मों में पता चले, तो अब कोई प्रयोग नहीं करेगा। पुराने दावे जन्मों के थे। वे कहते थे इस जन्म में करो, अगले जन्म में फल मिलेंगे। वे बड़े प्रतीक्षावाले धैर्यवान लोग थे। वे अगले जन्म की प्रतीक्षा में इस जन्म में भी साधना करते थे। अब कोई नहीं मिलेगा। फल आज न मिलता हो तो कल तक के लिए प्रतीक्षा करने की तैयारी नहीं है।

कल का कोई भरोसा भी नहीं है। जिस दिन से हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा है, उस दिन से कल खत्म हो गया है। अमेरिका के हजारों लाखों लड़के और लड़कियां कालेज में पढ़ने जाने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं हम पढ़ लिखकर निकलेंगे तब तक दुनिया बचेगी? कल का कोई भरोसा नहीं है! तो वे कहते हैं हमारा समय जाया मत करो। जितने दिन हमारे पास हैं, हम जी लें।

हाईस्कूल से लड़के और लड़कियां स्कूल छोड्कर भागे जा रहे हैं। वे कहते हैं युनिवर्सिटी भी नहीं जाएंगे। क्योंकि छह साल में युनिवर्सिटी से निकलना.. .छह साल में दुनिया बचेगी? अब बेटा बाप से पूछ रहा है कि छह साल दुनिया का आश्वासन है? तो हम ये छह साल जो थोड़े बहुत हमारी जिंदगी में हैं, हम क्यों न उनका उपयोग कर लें।

जहां कल इतना संदिग्ध हो गया है वहां तुम जन्मों की बातें करोगे, बेमानी है; कोई सुनने को राजी नहीं; न कोई सुन रहा है। इसलिए मैं कह रहा हूं आज प्रयोग हो और आज परिणाम होना चाहिए। और अगर एक घंटा कोई मुझे आज देने को राजी है, तो आज ही, उसी घंटे के बाद ही उसको परिणाम का बोध होना चाहिए, तभी वह कल घंटा दे सकेगा। नहीं तो कल के घंटे का कोई भरोसा नहीं है। तो युग की जरूरत बदल गई है। बैलगाड़ी की दुनिया थी, उस वक्त सब धीरे धीरे चल रहा था, साधना भी धीरे धीरे चल रही थी। जेट की दुनिया है, साधना भी धीरे धीरे नहीं चल सकती; उसे भी तीव्र, गतिमान, स्पीडी होना पड़ेगा।

जिन खोज तीन पाइयाँ 

ओशो

Thursday, October 29, 2015

बड़ी अद्भुत कहानी है; सत्य वेदांत ने लिखकर मुझे भेजी है

....  बहुत प्यारी है, खूब सोचने जैसी है। और सिर्फ कबीर जैसे आदमी की जिन्दगी में हो सकती है। कबीर की कीमत आंकनी मुश्किल है।

कहानी यह है कि कबीर को तो जो भी घर में आ जाये और सुबह से बहुत से लोग आ जाते..! कबीर की मस्ती में कौन न डूबना चाहे! कबीर के आनंद में कौन न भागीदार होना चाहे! दूर दूर से लोग आ जाते। सुबह से कीर्तन छिड़ जाता। नाच होता, गीत होता। भीतर की शराब बहती। लोग मदमस्त होकर पीते! फिर भोजन का समय हो जाता। तो कबीर की आदत थी, वे लोगों से कहते कि ‘ भैया, यूं ही मत चले जाना। अरे, भोजन तो कर जाओ। अब आ ही गये, तो भोजन कर जाओ।’

कभी दो सौ आदमी, कभी तीन सौ आदमी, कभी पांच सौ आदमी! गरीब कबीर की हैसियत क्या! बामुश्किल दिनभर कपडा बुनकर कितना बुनोगे? उधारी चढ़ती जाती! पत्नी परेशान, बेटा परेशान! एक दिन यह हालत हो गई कि जब पत्नी बाजार गई और दुकानदार से उसने भोजन के लिए प्रार्थना की कि घर में दो सौ आदमी बैठे हैं और मेरे पति ने निमंत्रण दे दिया है! मैं पीछे के दरवाजे से भागकर आयी हूं। जल्दी से कुछ चावल दो, घी दो, आटा दो।’

उस दुकानदार ने कहां, ‘अब बहुत हो गया। पहले का कर्ज चुकाओ। यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। यह चुकेगा कैसे? मेरी दुकान तुम डुबा दोगे! यह कबीर का तो भोजन चले और मेरा भंडा फूटा जा रहा: है। कबीर तो हर किसी को निमंत्रण दे देते हैं! कबीर को पता है कि बरबादी मेरी हो रही है! यह चुकेगा कैसे? कर्ज इतना हो गया है कि अब मैं और नहीं दे सकता।’

पत्नी ने कहां, ‘कुछ भी करो, आज तो देना ही होगा; इज्जत का सवाल है। मैं किस मुंह से जाकर कहूं! लोग बैठे हैं। भोजन तो कराना ही होगा।’

उस दुकानदार की बहुत दिन से कबीर की पत्नी पर नजर थी। कबीर की पत्नी थी; सुंदर रही होगी। कबीर जैसे व्यक्ति की पत्नी हो असुंदर भी रही होगी, तो सुंदर हो गयी होगी। कबीर का संग साथ मिला होगा, रंग रूप निखर आया होगा। प्रसाद उतर आया होगा। जहां चौबीस घंटे कबीर के आनंद की वर्षा हो रही थी, वहां कोई कुरूप कैसे रह जायेगा! सुंदर थी बहुत सुंदर थी।

नजर तो दुकानदार की बहुत दिन से थी, आज मौका देख लिया उसने कि आज यह फंस गई। उसने कहां कि ‘अगर तेरी सच में ही ऐसी निष्ठा है, तो वायदा कर कि आज रात मेरे पास सोयेगी। तो सारा कर्ज समाप्त कर दूंगा।’

पत्नी ने कहां, ‘जैसी मरजी। भोजन तो कराना ही होगा।’

कबीर की ही पत्नी थी। कोई साधारण लौकिक साधु की पत्नी नहीं थी। कबीर की ही पत्नी थी। यह कबीर के ही योग्य थी बात। उसने कहां, ‘यह ठीक है। अगर तुझे इससे ही हल हो जाता हो, तो ठीक है। यह निपटारा हुआ। और यह अच्छा रास्ता मिल गया! तूने पहले ही क्यों न कहां! यह रोज रोज की परेशानी कभी की मिट गई होती। ठीक है, सांझ मैं आ आऊंगी।’

वह तो ले आयी। उसने सब को भोजन करवाया। सांझ वर्षा होने लगी। बड़े जोर से वर्षा होने लगी। वह सजी संवरी बैठी। कबीर ने पूछा, ‘कहीं जाना है या क्या बात है! तू सजी सवरी बैठी है। बरसा जोर से हो रही है।’

उसने कहां, ‘जाना है, और जरूर जाना है। तुमसे क्या छिपाना है…!’ इसको प्रेम कहते हैं।’तुमसे क्या छिपाना है!’

पूरी कहानी कह दी कि यूं यूं मामला है।’… कर्ज बहुत बढ़ गया है। आज दुकानदार देने को राजी न था। उसने तो कहां कि आज रात अगर तू मेरे पास आकर रुक जाये, पूरी रात, तो सारा कर्ज माफ कर दूंगा। तो कुंजी हाथ लग गई। अब कोई चिंता नहीं। अब तुम जितनों को निमंत्रण देना हो दो। यह मूरख इतने दिन तक बोला क्यों नहीं! यह बोल देता, तो कभी की बात खतम हो जाती। यह रोज—रोज की अड़चन तो न होती! तो मुझे जाना है।’

कबीर ने कहां कि ‘बरसा बहुत जोरों की हो रही है। मैं तुझे छोड़ आता हूं!’ यह सिर्फ कबीर ही कह सकते हैं। कबीर ने छाता लिया; पत्नी को छाते में छिपाया। उसे ले गये और कहां कि ‘तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं क्योंकि बरसा बंद हो नहीं रही है। जब निपट चुके, तो मैं तुझे घर वापस ले चलूंगा। रात भी अंधेरी है; बरसा भी जोर की है; तो मैं यहां बाहर छप्पर में बैठा रहूंगा।’

कबीर छप्पर में बैठे रहे। पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दुकानदार वैसे तो बड़ी उत्सुकता से राह देख रहा था, लेकिन डर भी रहा था। डर इसलिए रहा था कि पत्नी ने इतनी सहजता से हा भर दी थी कि उसे भरोसा ही न आ रहा था! कि एक दफा भी इनकार न किया। अरे, कोई सती सावित्री होती, तो फौरन चप्पल निकाल लेती! जो चप्पल निकाले, समझ लेना कि यह सती सावित्री नहीं है! वह चप्पल निकालना ही जाहिर कर रहा है कि लंपट है।

एकदम ही भर दिया! भरोसा नहीं आ रहा था। और कबीर की पत्नी ऐसा हौ भर दे! न लाज, न संकोच, न विरोध! एक, चेहरे पर बदली भी न आयी! जैसे कोई खास बात ही न हो। आयेगी भी कि नहीं यह भरोसा नहीं था। सोचता था कि धोखा दे गई। सोचता था कि ले गई सामान; आने वाने वाली नहीं है।

लेकिन जब द्वार पर उसने दस्तक दी और दरवाजा खोला और पत्नी सामने खड़ी थी! सज धज कर आयी थी। जो भी घर में सुंदर था, वह पहनकर आयी थी।

घबड़ा गया; दुकानदार घबड़ा गया! पसीना छूट गया। सोचा न था कि पत्नी आ जायेगी। एक दफा तो आंख पर भरोसा न आया। और दूसरी बात देखकर और हैरान हुआ कि इतनी धुआंधार बरसा हो रही है, मूसलाधार, और पत्नी बिलकुल भीगी नहीं है! उसने पूछा कि ‘इतनी मूसलाधार बरसा में मुझे भरोसा नहीं था कि तू आयेगी। मगर आयी यह ठीक। मगर यह चमत्कार क्या है कि तुझ पर तो बूंद भी नहीं पडी! तेरे कपड़े तो भीगे भी नहीं!’

उसने कहां, ‘भींगते कैसे। अरे, कबीर जो मुझे साथ लेकर आये; खुद भींगते रहे, छाते में मुझे छिपाये रहे। कहने लगे  मै भीग जाऊं, तो कोई बात नहीं, लेकिन तुझे तो अब उस दुकानदार के पास जाना है। उस बेचारे का क्या कसूर कि आज बरसा हो रही है।‘

वह तो दुकानदार और भी लड़खड़ा गया। उसने कहां, ‘कबीर छोड़ गये! कबीर कहां हैं? गये, कि यहीं हैं?’

उसने कहां, ‘गये नहीं। छप्पर में बैठे हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तू निपट जाये, पता नहीं, बरसा रुके न रुके। रात अंधेरी है। तो ले जाने के लिए बैठे हैं! तो जल्दी निपट लो। तुम्हें जो करना हो कर लो, क्योंकि उनको ज्यादा देर बिठाये रखना भी ठीक नहीं। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में फिर उठ आना होता है और फिर भजन कीर्तन। और भक्त इकट्ठे होंगे!’

पैरों पर गिर पड़ा वह दुकानदार। भागा; कबीर के पैर छुए। कबीर ने कहां कि ‘तू समय खराब न कर। तू अपना काम निपटा; हमें अपना काम करने दे। तू इन बातों में मत उलझ। अरे, यह पैर छूना वगैरह पीछे हो लेगा। सुबह आ जाना; भजन कीर्तन कर लेना। वहीं पैर भी छू लेना। कार अभी तू अपना काम निपटा।’

उसने कहां, ‘आप कहते क्या हैं! और मुझे न मारो। और मुझे न दुत्कारो! और मुझे गर्हित न करो। और मुझे अपमानित न करो! ‘

कबीर ने कहा, ‘नहीं, तेरा हम कोई अपमान नहीं कर रहे हैं। इन बातों का मूल्य ही क्या है?’

यह होगी ज्ञानी की दृष्टि। कबीर को मैं कहूंगा तीर्थंकर। मेरे लिए कबीर ने कितने घोड़े और कितने हाथी छोड़े, यह सवाल नहीं है। एक बात देख ली कि यह संसार और इसके मूल्यों का कोई मूल्य नहीं है। इसकी नीति कुछ नीति नहीं; इसकी अनीति कुछ अनीति नहीं। सब व्यावहारिक बातें हैं। और उस परम सत्य को कुछ भी नहीं छूता है। वह परम सत्य सदा कुंवारा है; अछूता है। वह जल में कमलवत् है।

मगर कबीर को कौन तीर्थंकर माने! कौन अवतार माने! कौन कबीर को बुद्ध माने? वही मूल्य है। एक बंधा हुआ मूल्य है  धन का।

तो जिनको तुम साधु भी कहते हो, उनको भी तुम साधु लौकिक कारणों से ही कहते हो। उन्होंने कुछ छोड़ दिया। जो तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान था, उन्होंने छोड़ दिया। बस, साधु हो गए!


अनहद में बिसराम 

ओशो 

छोड़ना नहीं है, जागना है। भागना नहीं है- जागना है।

सदियों से तुम्हें भगोड़ापन सिखाया गया है। और भागने का अर्थ है : मूल्य बदलते नहीं; मूल्य वही के वही रहते हैं। कुछ लोग धन की तरफ दौड़े जा रहे हैं, उनका मूल्य भी धन है कितना इकट्ठा कर लें। और फिर कुछ लोग हैं जो धन छोड्कर भागे जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है; उनकी कसौटी भी धन है की कितना छोड़ दें! 
 
तुम त्यागियों को भी नापते हो, तो तराजू वही। राकफेलर को और बिरला को और टाटा को भी नापते हो, तो तराजू वही। और महावीर को, और बुद्ध को नापते हो, तो भी तराजू वही! असली सवाल तराजू का है। जैन शास्त्र वर्णन करते हैं : इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना धन, इतना महल सब महावीर ने छोड़ दिया! यह हाथी घोड़ों की गिनती, ये धन के अम्बार उनकी चर्चा शास्त्र इतने रस से करते हैं, कि बात जाहिर है, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे महावीर कोई छोटे मोटे साधु नहीं थे; बड़े साधु थे! महासाधु थे! देखो, कितना छोड़ा!

मापदण्ड क्या है?

इसीलिए तो कोई गरीब आज तक, न तो हिन्दुओं ने उसे अवतार माना, न बुद्धों ने उसे बुद्ध माना, न जैनों ने उसे तीर्थंकर माना! क्योंकि कसौटी ही पूरी नहीं होती। सवाल यह है कि छोड़ा क्या? कितना छोड़ा? अब तुम कहो, ‘हमने एक लंगोटी छोड़ दी!’ तो वे कहेंगे, ‘भाग जाओ यहां से! लंगोटी छोड्कर और तीर्थंकर होने के इरादे रख रहे हो! राजपाट कहां है? हाथी घोड़े कितने हैं?’ अब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी भविष्य में! तीर्थंकर होने मुश्किल हो जायेंगे, क्योंकि राजपाट न रहे। अब तो सिर्फ इग्लैंड में ही तीर्थंकर हो सकते हैं! या ताश के पत्तों में! कहते हैं, बस, पांच ही राजा बचेंगे दुनिया में। चार तो ताश के पत्तों के, और एक इग्लैंड का। और इंग्लैंड का राजा ताश के पत्तों से भी गया बीता है। ताश के पत्तों में भी कुछ अकड़ होती है; इंग्लैड के राजा में वह भी नहीं है वह सिर्फ नाम मात्र का है। अब तो इंग्लैंड में ही आशा समझो कि बुद्ध पैदा हों; तीर्थंकर पैदा हों; अवतार पैदा हों! भारत में तो असंभव! अब तो राजपाट रहे नहीं। अब साम्राज्य नहीं, हाथी घोड़े नहीं छोड़ोगे क्या? क्या कहोगे कि ‘मैंने एक साइकिल छोड़ दी!’ कम से कम घोडा तो हो! क्या छोड़ोगे? और साइकिल छोड्कर दावा करोगे तीर्थंकर होने का! लोग कहेंगे, ‘लाजसंकोच न आयी! अरे, शरम खाओ! है क्या तुम्हारे पास!’

इसीलिए तो कोई कबीर को तीर्थंकर नहीं कहता। हालांकि कबीर में क्या कमी है किसी तीर्थंकर से! मगर कैसे कबीर को तीर्थंकर कहो? जुलाहे छोडने वगैरह को कुछ है ही नहीं। पकड़ने को ही नहीं है; छोड़ने को कहां से लाओ! रोज बुन लेते हैं कपड़ा, रोज बेच लेते हैं। बस, किसी तरह खाना पीना चल जाये। वह भी पूरा नहीं चल पाता। उसमें भी बड़ी झंझटें आ जाती हैं।

अनहद में बिसराम 

ओशो 

लौकिकानां हि साभूनामर्थं वागानुवर्तते

दो दिगंबर जैन मुनियों में मारपीट हो गई। होनी तो असंभव ही चाहिए बात। एक तो दिगंबर जैन मुनि, जिसने सब छोड़ दिया, कपड़े भी छोड़ दिये अब क्या मारपीट को बचा! लोग कहते हैं ’जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन’। वे तो तीनों ही छूट गईं, मगर गजब के लोग हैं, फिर भी झगड़ा निकाल लिया! न जर है, न जोरू है, न जमीन है। कुछ भी नहीं है। दिगंबर जैन मुनि कपड़े भी नहीं हैं, लंगोटी भी नहीं है—अब झगड़े का क्या उपाय है! उसी दिन मुझे पता चला कि वह सूत्र पर्याप्त नहीं है। अरे, झगड़ा ही करना हो तो आदमी कर लेगा। जर, जोरू, जमीन की कोई जरूरत नहीं। जर, जोरू, जमीन तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। झगड़ा टांगना है, कहीं भी टल दो। खूंटी हुई, खूंटी पर टल दो। न हुई, खीली पर टल दो। खीली न हुई, तो खिड़की पर टांग दो; कुर्सी पर टांग दो; नहीं तो अपने ही कंधे पर टांग लो मगर टांग लोगे। कुछ न कुछ उपाय…।

झगड़ा कहां हुआ? दोनों गये थे सुबह मल विसर्जन को। एकांत में झगड़ा हो गया। एक दूसरे की पिटाई कर दी। पिटाई काहे से की! और तो कुछ था नहीं; पिच्छी रखते हैं जैन मुनि।

पिच्छी रखी जाती है कि कोई चींटी भी न मर जाये। पिच्छी में ऊन का बना हुआ गुच्छा होता है। छोटी सी डंडी होती है; ऊन का गुच्छा होता है। तो जैन मुनि कहीं बैठे, तो पहले वह पिच्छी से जगह को साफ कर ले। ऊन का गुच्छा इसलिए ताकि पिच्छी की चोट भी न लगे। अगर चींटी भी हो, तो ऊन के धक्के से उसे कोई चोट न लगे; हटा दी जाये; फिर बैठे। स्थान को साफ करके बैठे। वही पिच्छी थी उनके पास। उसमें डंडा भी होता है लेकिन, पिच्छी में! यह महावीर ने सोचा ही न होगा कि पिच्छी तो ठीक है कि चींटी बच जायेगी, मगर डंडा! कभी मौका आ गया, तो काम आ जायेगा। आ गया उस दिन काम। एक दूसरे ने पिच्छी से पिटाई कर दी! वह डंडे का उपयोग हो गया!

कुछ गांव के ग्रामीण लोगों ने पकड़ लिया उनको एक दूसरे को मारते हुए। वे पुलिस थाने ले गये। बामुश्किल उनको बचाया गया। जैनियों में बड़ी हड़कंप मची, क्योंकि उनके जैन मुनि इस तरह का व्यवहार करें, जो निरंतर आत्मज्ञान की बात करते हैं! जो जीवन को तपाते, तपश्चर्या क्ररते, साधना करते!

और इनके झगडे का कारण क्या? जब पुलिस ने पूछताछ की, जो झगड़े का कारण था, वह और भी बड़ा मजेदार था! वह जो पिच्छी का डंडा था, बांस का डंडा, उसको भीतर से पोला करके उसमें सौ सौ के नोट भरे हुए थे! वह उनका बटुआ था वह जो डंडा था।

अगर जैन मुनियों की पिच्छी देखो, तो डंडा जरूर गौर से देख लेना! क्योंकि वही है उनके पास। और कोई उपाय नहीं है मगर। आदमी इतना होशियार है कि उसको डंडा को पोला करके अंदर उसमें गिड्डयों पर गिड्डयां उन्होंने भर रखी थीं!

झगड़ा यह हो गया कि बटवारा जो बड़े मुनि थे, वे ज्यादा चाहते थे, छोटे मुनि से। सीनियारिटी का सवाल था! और छोटे मुनि भी बराबर चाहते थे; नहीं तो, वे कहते, ‘हम पोलपट्टी उखाड़ देंगे! षड्यंत्र में कहीं कोई सीनियर जूनियर होता है! यह कोई सरकारी दफ्तर थोड़े ही है!

इसी पर झगड़ा हुआ। इसी पर मारपीट हो गई। रुपये भी पकडे गये। और जैनियों ने किसी तरह, रिश्वत खिलाकर मामले को दबाया कि कहीं यह पता न चल जाये सबको!

मेरे पास आये कि ‘क्या करना चाहिए!’ मैंने कहां कि ‘ अखबारों में खबर देनी चाहिए! फोटो छापने चाहिए!’

उन्होंने कहां, ‘ आप क्या कहते हो! अरे, हम यह पूछने आये हैं कि इसको किस तरह रफा दफा करना! क्योंकि मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। उसमें हमारे धर्म की भी प्रतिष्ठा का सवाल है!’

मैंने कहां कि ‘मेरे लिए भी धर्म की प्रतिष्ठा का सवाल है! और मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है! निन्यान्नबे इस तरह के मुनि उस एक मुनि को डुबाये दे रहे हैं, जो सच्चा होगा। उसको बचाना है कि इन निन्यान्नबे को बचाना है!’

लेकिन लोग निन्यान्नबे को बचाने में लगे हैं; एक डूबे, तो डूब जाये! संख्या का मूल्य है! हर जगह संख्या का मूल्य है।

तो वसिष्ठ इस अर्थ में, प्रतीक्षा, ठीक कहते हैं कि ‘लौकिकानां हि साभूनामर्थं वागानुवर्तते।’ वह जो लौकिक साधु है..! ‘लौकिक’ अर्थात् जो साधु नहीं है, बस, दिखाई पड़ते हैं; नाम मात्र को हैं; लेबल साधु का है, भीतर कुछ और है। भीतर तो लोक ही है। अभी अलोक से कोई संबंध नहीं हुआ; अलौकिक से कोई नाता नहीं हुआ।

मगर ये ही तो तुम्हें मिलेंगे। फिर चाहे मुक्तानंद हों, चाहे अखण्डानंद हों, और चाहे स्वरूपानंद हों यही तुम्हें मिलेंगे। लौकिक साधु ही तुम्हें मिलेंगे। और तब यह सूत्र बडा सार्थक है।

लौकिक साधु की बात को तुम ठीक से खयाल में ले लो, तो सूत्र में बडी सार्थकता है। सूत्र कहता है : ‘ऐसे साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’ ऐसे साधुओं के पास अपनी कोई अंतरवाणी तो होती नहीं। अपना कोई अनुभव तो होता नहीं। ऐसी तो कोई प्रतीति होती नहीं कि जिस शब्द को छू दें, वह जीवित हो जाये। ऐसा कोई जादू तो होता नहीं कि मिट्टी को छुए और सोना हो जाये। तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी तो शास्त्रों का अनुसरण करेगी। शास्त्र में उनका अर्थ है; जीवन में उनके कोई अर्थ नहीं है। अर्थ गीता में है, वेद में है, कुरान में है, बाइबिल में है, धम्मपद में है। अर्थ स्वयं में नहीं है। और जो अर्थ स्वयं में नहीं है, वह अनर्थ है। उसे अर्थ कहो ही मत। क्योंकि गीता में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ होगा; वह कृष्ण का अनुभव होगा। वह अर्जुन का भी नहीं बन सका! तो तुम्हारा क्या बनेगा?

कभी सोचो इस बात को। कितना सिर मारा कृष्ण ने, तभी तो गीता बनी! काफी सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दावपेंच लगाता रहा! बड़ी देर तक यह मल्लयुद्ध चला! और जब अर्जुन ने अंततः यह कहां कि ‘मेरे सब संदेह गिर गये; निरसन हो गया मेरे संदेहों का’ तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही लगता है कि वह घबडा गया, कि बकवास कब तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाये चला जायेगा! यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।

तर्क उसका हार गया वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की कथा इस बात को प्रगट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गये रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर और उनका कुत्ता, दो पहुंचे स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी, और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था।

महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया कि अब कब तक तर्क करो! कब तक प्रश्न करो? इससे बेहतर है निपट ही लो। उठाओ गांडीव जूझ जाओ युद्ध में। मरो मारो झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास प्रबल तर्क है। मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने सामने थे; जिनमें मैत्री थी; संबंध था; एक दूसरे के प्रति सदभाव था।

तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार साल का फासला हो गया! तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे? तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा। हौ, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल जायेगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग अलग नहीं होते हैं।

सत्य को मैं जानूं कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने कि ब जाने कि स जाने, सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का अनुभव हो जाये, तो बाइबिल और वेद और जेन्दावेस्ता सब के अर्थ एक साथ खुल जायेंगे।
लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?’ अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है, यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मानकर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।

लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?’ पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र मैंने पढ़ा अपने भीतर और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों के अर्थ प्रगट हो गये। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है, जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है!

मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीये की रोशनी में झलकेगा। और तुम कुरान लाओगे, तो कुरान झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे उस रोशनी में झलकेगा।

दीये को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने रखा है कि कुरान कि बाइबिल! दीये की रोशनी तो पड़ेगी सब पर समान, समभाव तो मैं तो यह भी नहीं कह सकता हूं कि यह वसिष्ठ का सूत्र ही है। हो या न हो, इतना साफ है कि वह जो लौकिक साधु है, जिसको वसिष्ठ ने लौकिक साधु कहां है, उसके पास कोई अपनी अनुभूति की संपदा नहीं होती। भीतर तो वह बिलकुल थोथा होता है। ईश्वर को मानता है जानता नहीं। और जब तक जाना नहीं, तब तक मानने में कुछ मूल्य है? तब तक मानना असत्य है, बेईमानी है, पाखंड है। जो जाना है, बस, उसको मानना। और जो न जाना हो, तब तक साफ रहे कि मैंने नहीं जाना है, तो कैसे मानूं? कम से कम ईमानदारी तो मत गंवा देना। धार्मिक होने के लिए कम से कम ईमानदारी तो अनिवार्य है।

और तुम्हारे तथाकथित विश्वासियों ने उतनी निष्ठा भी नहीं बरती। कोई हिन्दू बन गया, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन। किसी ने जाना नहीं। यहां तक कि जो नास्तिक बना बैठा है, उसने भी कुछ जाना नहीं; उसने नास्तिकता उधार ले ली है। किसी ने आस्तिकता उधार ले ली है!

तुम्हारा सारा जीवन उधार है! स्वभावत: तुम्हारी वाणी किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। तुम किसी और का गीत गाओगे। गीत तो गा लोगे, मगर वह थोथा होगा। उसमें कोई गहराई न होगी; ऊपर ऊपर होगा। शब्द ही शब्द होंगे; शब्दों के भीतर कोई संपदा न होगी। बुझे हुए दीयों की कतार होगी, मगर एक भी दीया जला हुआ नहीं होगा। क्योंकि अगर एक दीया भी जला हो, तो पूरी कतार ही जलाई जा सकती है; सारी दीपावली मनाई जा सकती है।

अनहद में बिसराम 

ओशो 

ओऽऽम्!!

एक महापुरुष से मेरा मिलना हो गया था। मैं आगरा से गुजर रहा था; जयपुर से लौटता था; आगरा में कोई छह घंटे का समय था गाड़ी बदलने में। एक मित्र बहुत दिन से पत्र लिखते थे कि ‘कभी आगरा से गुजरें—और आप जरूर गुजरते होंगे, क्योंकि जयपुर की खबरें मिलती हैं। और यहां छह घंटे स्टेशन पर रुकना ही होता होगा, तो मेरे घर को ही पवित्र करें।’ 
 
तो मैंने कहां, ‘ठीक।’

उन्हें खबर कर दी। जानता तो नहीं था; पहचानता तो नहीं था; पत्र से ही मुलाकात थी। जो सज्जन लेने आये थे, उन्होंने आते से ही कहां कि ‘बस, जल्दी करिये! कहीं मेरे बड़े भाई न आ जायें!’

मैंने पूछा कि ‘आप ही मुझे पत्र लिखते थे?’

उन्होंने. कहां कि ‘नहीं। पत्र तो मेरे बड़े भाई लिखते हैं। मगर मेरी और उनकी जानी दुश्मनी है। यह मौका मैं नहीं दे सकता कि आपका स्वागत वे करें। सो मैं पहले से ही हाजिर हूं! बटवारा हो गया है। आधे मकान में वे रहते हैं, आधे में मैं रहता हूं। और आपको तो मेरा ही आतिथ्य ग्रहण स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि मैं ही पहले आया हूं।’

मैंने कहां, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है! और आधा घर तुम्हारा, आधा बड़े भाई का चलो, तुम्हारे साथ ही चल पड़ता हूं तुम आ गये।’

उनको लेकर बीच रास्ते पर ही पहुंचा था कि बड़े भाई आ गये! एकदम भागे हुए चले आ रहे थे! आते ही से बोले, ‘ओऽऽम्। मैंने पत्र लिखा था’। उन्होंने कहां’ और यह छोटा भाई आपको कहां ले जा रहा है? यह दुष्ट यहां भी आ गया! चलिये, बैठिये मेरे तांगे में!’

छोटे भाई ने कहां कि ‘देखिये, मैंने पहले ही कहां था कि जल्दी करिये। अगर बड़ा भाई आ गया, तो बस, मुश्किल हो जायेगी!’

और बड़ा भाई था भी पहलवान छाप! छोटे भाई थे भी दुबले पतले। तो बड़े भाई ने आव देखा न ताव, उन्होंने तो सामान ही उतारकर मेरा भी हाथ पकड़कर अपने तांगे में बिठा लिया! लेकिन एक उनकी खूबी थी कि कोई भी काम करते थे, तो पहले ‘ओऽऽम् कहते थे! मेरा हाथ पकड़कर उतारा तो ओऽऽम्! मेरा बिस्तर उतारा तो ओऽऽम्! हालांकि कर रहे थे बिलकुल गलत काम! क्योंकि वह छोटा भाई बेचारा चुपचाप खड़ा था। अब क्या कहे! और मैं देख रहा था कि अगर वे उसकी पिटाई भी करेंगे, तो पहले ओऽऽम्!

और वही हुआ।

उनके घर पहुंच गया। बंटवारा कर लिया था घर का, लेकिन एक कक्ष बीच का, बड़ा कमरा था, वह खाली छोड़ रखा था; वह बांटा नहीं था। उसमें दोनों आ जा सकते थे। बाकी तो प्रवेश असंभव था एक दूसरे के घर में, मगर एक कमरा छोड़ रखा था। तो जैसे ही मैं बडे भाई के घर में प्रविष्ट हुआ, दरवाजे पर ही उन्होंने कहां, ‘ओऽऽम्। आइये भीतर!’

छोटे भाई ने अपने दरवाजे से कहां कि ‘देखिये, आप इतनी कृपा करिये कि कम से कम बीच के कमरे में रुकिये, वहां मैं भी आ सकता हूं बड़े भाई भी आ सकते हैं। अगर आप उनके ही घर में रुके, तो मैं नहीं आ सकूंगा। मेरे घर में रुके, तो वे नहीं आ सकेंगे!’ मैंने कहां, ‘यह बात तो ठीक है।’

लेकिन बड़े भाई ने कहां, ‘ओऽऽम्!’ और सामान उठाकर वे तो अपने घर में ही ले गये!

बड़े भाई फोटोग्राफर थे, सो उन्होंने कहां, ‘इसके पहले कि छोटा भाई उपद्रव करे, और यह आयेगा बार बार दरवाजे पर और कहेगा कि मेरे घर आइये, और भोजन करिये; यह करिये, वह करिये; मैं .आपकी तसवीर उतार लूं। इसी के लिए असल में मैंने आपको पत्र लिखा था। यही एक आकांक्षा थी।’

मैंने कहां, ‘जैसी मरजी! अब आपके हाथ में हूं छह घंटे जो करना हो करिये!’

तसवीर भी क्या उतारी…! हर चीज में ओऽऽम्! बिलकुल डोंगरे महाराज के भक्त थे! प्लग भी लगायें तो ओऽऽम्! प्लग निकालें, तो ओऽऽम्! मुझे कुर्सी पर बिठा लें तो ओऽऽम्! कैमरा घुमायें तो ओऽऽम्! प्लेट लगायें तो ओऽऽम्! ओऽऽम् से ही सब चीज शुरू हो!

एक कंघी ले आये और मेरे बाल बनाने लगे, और बोले, ‘ओऽऽम्!’

मैंने कहां, देखें, मैं जैसा हूं तुम मुझे वैसा ही छोड़ो!’ एकदम नाराज हो गये। आदमी तो गुस्सेबाज थे ही। कहां, ‘जैसी मरजी!’ओऽऽम् कहकर कंघी फेंक दी और मेरे बाल एकदम छितरा दिये!

जब यह सब चल रहा था, तभी पड़ोस के एक सज्जन आ गये। उनको भी खबर मिल गयी कि मैं आया हूं तो आकर बैठ गये। यह फोटो उतर जाये, तो फिर वे मुझसे कुछ बात करना चाहते थे। तभी बड़े भाई की नौकरानी निकली, और उन सज्जन ने कहां कि, ‘बाई, एक गिलास पानी…!’

गरमी के दिन थे। बस, एकदम बोले, ‘ओऽऽम्! अरे, मर्द बच्चा होकर शर्म नहीं आती, स्त्री से पानी मांगते हो! नल सामने लगा है, भर लो और पी लो! मर्द होकर और स्त्री से पानी मांगना!’

फिर मेरी तरफ धीरे से बोले, ‘ओऽऽम्। यह मेरे भाई का दोस्त है। साले को ठीक किया!’

ओम भी कहते जाते हैं!

ये जो तुम्हारे तथाकथित साधु हैं, ये ओम् का उच्चार भी करते रहेंगे और ‘ओम् के भीतर क्या क्या नहीं भरा होगा!

क्या क्या नहीं उपद्रव होंगे!

आचरण भी साध लेंगे, मगर ठीक आचरण से विपरीत इनका भीतर का जीवन होगा ठीक विपरीत।

अनहद में बिसराम 

ओशो 

Tuesday, October 27, 2015

तैंतीस हजार नियम और मांसाहार

बौद्ध ग्रंथों में तैंतीस हजार नियम हैं नीति के। याद भी न कर पाओगे। कैसे याद करोगे? तैंतीस हजार नियम! और जो आदमी तैंतीस हजार नियम याद करके जीएगा, वह जी पाएगा? उसकी हालत वही हो जाएगी, जो मैंने सुनी है, एक बार एक सेंटीपीड, शतपदी की हो गई।

यह शतपदी, सेंटीपीड जो जानवर होता है, इसके सौ पैर होते हैं। चला जा रहा था सेंटीपीड, एक चूहे ने देखा। चूहा बड़ा चौंका, उसने कहा: सुनिए जी, सौ पैर! कौन सा पहले रखना, कौन सा पीछे रखना, आप हिसाब कैसे रखते हो? सौ पैर मेरे हों तो मैं तो डगमगाकर वहीं गिर ही जाऊं। सौ पैर आपस में उलझ जाएं, गुत्थमगुत्था हो जाए। सौ पैर! हिसाब कैसे रखते हो कि कौन सा पहले, फिर नंबर दो, फिर नंबर तीन, फिर नंबर चार, फिर नंबर पांच…सौ का हिसाब! गिनती में मुश्किल नहीं आती?

सेंटीपीड ने कभी सोचा नहीं था; पैदा ही से सौ पैर थे, चलता ही रहा था। उसने कहा: भाई मेरे, तुमने एक सवाल खड़ा किया! मैंने कभी सोचा नहीं, मैंने कभी नीचे देखा भी नहीं कि कौन सा पैर आगे, कौन सा पहले। लेकिन अब तुमने सवाल खड़ा कर दिया, तो मैं सोचूंगा, विचारूंगा।

सेंटीपीड सोचने लगा, विचारने लगा; वहीं लड़खड़ाकर गिर पड़ा। खुद भी घबड़ा गया कि कौन सा पहले, कौन सा पीछे।

एक जीवन की सहजता है। तुम्हारे नियम, तुम्हारे कानून सारी सहजता नष्ट कर देते हैं। तैंतीस हजार नियम! कौन सा पहले, कौन सा पीछे? तैंतीस हजार का हिसाब रखोगे, मर ही जाओगे, दब ही जाओगे, प्राणों पर पहाड़ बैठ जाएंगे। मैं तो तुम्हें सिर्फ एक नियम देता हूं होश। बेहोशी छोड़ो, होश सम्हालो। और ये तैंतीस हजार नियम भी बेईमानों को नहीं रोक सकते। वे कोई न कोई तरकीब निकाल लेते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है कि जहां भी संकल्प है, वहीं मार्ग है। उस कहावत में थोड़ा फर्क कर लेना चाहिए। मैं कहता हूं जहां भी कानून है, वहीं मार्ग है। तुम बनाओ कितने कानून बनाते हो, मार्ग निकाल लेगा आदमी।

ऐसा हुआ कि बुद्ध के पास एक भिक्षु आया। बुद्ध का नियम था कि जो भी भिक्षापात्र में पड़ जाए, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। इसलिए नियम बनाया था, ताकि भिक्षु मांग न करने लगें सुस्वादु भोजनों की। जो भी पड़ जाए भिक्षापात्र में, रूखी—सूखी रोटी, या सुस्वादु भोजन, जो भी पड़ जाए भिक्षापात्र में, उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। ना—नुच नहीं करना। यह नहीं लूंगा, वह लूंगा, ऐसे इशारे नहीं करना। अपनी तरफ से कोई वक्तव्य ही नहीं देना। भिक्षापात्र सामने कर देना, जो मिल जाए। ताकि गृहस्थों पर व्यर्थ बोझ न पड़े।

एक दिन ऐसा मुश्किल हो गया, एक भिक्षु मांगकर आ रहा था कि एक चील ऊपर से मांस का एक टुकड़ा उसके भिक्षापात्र में गिरा गई। अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ा। नियम कि जो भी भिक्षापात्र में पड़ जाए! अब करना क्या? इसको छोड़ना या ग्रहण करना? अगर छोड़े, तो नियम टूटता है। अगर ग्रहण करे, तो मांसाहार होता है; वह भी नियम टूटता है। अब करना क्या? तो उसने जाकर बुद्ध से कहा। भिक्षु—संघ में खड़ा हुआ और उसने कहा कि ऐसी प्रार्थना है, बड़ी उलझन में पड़ गया; दो नियमों में विरोध आ गया है। अगर इसका स्वीकार करूं, तो मांसाहार हो जाएगा, हिंसा हो जाएगी। अगर अस्वीकार करूं, तो आपने कहा है भिक्षापात्र में जो पड़े, स्वीकार कर लेना।

बुद्ध थोड़ा सोच में पड़े; अगर कहें कि स्वीकार करो, तो खतरा है, क्योंकि मांसाहार को स्वीकृति मिलती है। अगर कहें अस्वीकार करो, तो और भी बड़ा खतरा है; क्योंकि चीलें कोई रोज रोज थोड़े ही मांस गिराएंगी, यह तो दुर्घटना है एक। अगर यह कह दें कि जो ठीक न हो छोड़ देना, तो बस अड़चन शुरू हो जाएगी कल से ही। भिक्षुओं को जो ठीक नहीं लगेगा, वह छोड़ देंगे; और जो ठीक लगेगा, वही ग्रहण करेंगे। फिर उनकी मांगें शुरू हो जाएंगी। फिर बहुत सा भोजन व्यर्थ फेंकने लगेंगे।

उन्होंने सोचा, और उन्होंने कहा: कोई फिक्र न करो, जो भी भिक्षापात्र में पड़ जाए, उसे स्वीकार कर लेना। क्योंकि चील कोई रोज रोज मांस नहीं गिराएगी, यह दुर्घटना है।

मगर बुद्ध को पता नहीं कि दुर्घटना बस नियम बन गई! आज चीन में, जापान में, सारे बौद्ध मुल्कों में मांसाहार प्रचलित है, उसी घटना के कारण! क्योंकि मांसाहार में अगर पाप होता, तो भगवान ने मना किया होता। अब सवाल यह है कि खुद मारकर नहीं खाना चाहिए, चील ने गिरा दिया तो कोई हर्जा नहीं! इसलिए चीन और जापान में तुम्हें होटलें मिलेंगी, जिन पर तख्ती लगी होती है यहां अपने आप मर गए जानवरों का मांस ही बेचा जाता है।

अब इतने जानवर अपने आप रोज कहीं नहीं मरते कि पूरा देश मांसाहार करे। इतने जानवर अपने आप! सारे देश बूचड़खानों से भरे हैं। फिर बूचड़खानों में क्या हो रहा है? फिर बूचड़खाने क्यों चल रहे हैं? मगर होटल के मालिक को इसकी फिक्र नहीं है; वह इतना भर तख्ती लगा देता है कि यहां अपने आप मर गए जानवरों का मांस बेचा जाता है। बस ग्राहक को फिक्र मिट गई! ग्राहक भी जानता है, दुकानदार भी जानता है। मगर वह एक छोटी सी घटना…चील ने बड़ी क्रांति ला दी दुनिया में! पूरा एशिया मांसाहारी है उस एक चील की वजह से।

कानून में से लोग रास्ते निकाल लेते हैं। जहां जहां कानून, वहां वहां रास्ते। मैं तुम्हें कानून नहीं देता, मैं तो तुम्हें सिर्फ बोध देता हूं; ताकि तुम अपने बोध से ही जीयो। जो तुम्हें ठीक लगे किसी क्षण में समझपूर्वक, विचारपूर्वक, जागृतिपूर्वक, वही करना।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

होशपूर्वक जो भी करो, वह ठीक है

नागार्जुन से एक चोर ने पूछा था: आप कहते हैं होशपूर्वक जो भी करो, वह ठीक है। अगर मैं होशपूर्वक चोरी करूं तो?

नागार्जुन ने कहा: तो चोरी भी ठीक है; होशपूर्वक भर करना, शर्त याद रखना!

उस चोर ने कहा: तो ठीक है, तुमसे मेरी बात बनी। मैं बहुत गुरुओं के पास गया, मैं जाहिर चोर हूं। जैसे गुरु प्रसिद्ध हैं, ऐसे ही मैं भी प्रसिद्ध हूं। सब गुरु मुझे जानते हैं। आज तक पकड़ा नहीं गया हूं। सम्राट भी जानता है; उसके महल से भी चोरियां मैंने की हैं, मगर पकड़ा नहीं गया हूं। अब तक मुझे कोई पकड़ नहीं पाया है। तो जब भी मैं किसी गुरु के पास गया, तो वे मुझसे यही कहते हैं पहले चोरी छोड़ो, फिर कुछ हो सकता है। चोरी मैं छोड़ नहीं सकता। तुमसे मेरी बात बनी। तुम कहते हो चोरी छोड़ने की जरूरत ही नहीं है?

नागार्जुन ने बड़े अदभुत शब्द कहे थे। नागार्जुन ने कहा था: तो जिन गुरुओं ने तुमसे कहा चोरी छोड़ो, वे भी चोर ही होंगे; भूतपूर्व चोर होंगे, इससे ज्यादा नहीं। नहीं तो चोरी से उनको क्या लेना देना? मुझे चोरी से क्या लेना देना? मैं तुमसे कहता हूं होश सम्हालो, फिर तुम्हें जो करना हो करो। मैं तुम्हें दीया देता हूं; फिर दीए के रहते भी तुम्हें दीवाल से निकलना हो, तो निकलो। मगर मैं जानता हूं, जिसके हाथ में दीया है, वह द्वार से निकलता है। मैं नहीं कहता कि दीवाल से मत निकलो।

अंधेरे में जो आदमी है, उससे क्या कहना कि दीवाल से मत निकलो! वह तो टकराएगा ही, वह तो गिरेगा ही। उसे तो द्वार कैसे मिलेगा? दीवाल बड़ी है; चारों तरफ दीवालें ही दीवालें हैं। हमने ही खड़ी की हैं। निकल नहीं पाओगे। और जब निकलोगे नहीं, बार बार गिरोगे। और पुजारी पंडित चिल्ला रहे हैं कि दीवाल से टकराए कि पाप हो गया। फिर टकराए, फिर पाप हो गया! और जितने तुम घबड़ाने लगोगे, उतने ज्यादा टकराने लगोगे। उतने तुम्हारे पैर कंपने लगेंगे।

नागार्जुन ने ठीक कहा मैं दीया देता हूं, अब तुझे दीवाल से निकलना हो, तेरी मर्जी; मगर दीया भर न बुझ पाए, दीए को सम्हाले रखना।

वह चोर पंद्रह दिन बाद आया, उसने कहा: मैं हार गया, तुम जीत गए। तुम आदमी बड़े होशियार हो। तुमने खूब मुझे धोखा दिया। मैं जिंदगी भर लोगों को धोखा देता रहा, तुमने मुझे धोखा दे दिया! आज पंद्रह दिन से कोशिश कर रहा हूं होशपूर्वक चोरी करने की, नहीं कर पाया। क्योंकि जब होश सम्हलता है, चोरी की वृत्ति ही चली जाती है; जब चोरी की वृत्ति आती है, तब होश नहीं होता।

तुम जरा करके देखना, तुम भी करके देखना, होशपूर्वक झूठ बोलकर देखना। होश सम्हलेगा, सच ओंठों पर आ जाएगा। होश गया, झूठ बोल सकते हो। जरा होशपूर्वक कामवासना में उतरकर देखना। होश आया, और सारी वासना ठंडी पड़ जाएगी, जैसे तुषारपात हो गया! होश गया, उत्तप्त हुए। बेहोशी में ताप है, ज्वर है। होश शीतल है। होशपूर्वक कोई कामवासना में न कभी उतरा है, न उतर सकता है। इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता कामवासना छोड़ो, मैं तुमसे कहता हूं होश सम्हालो। फिर जो छूट जाए, छूट जाए; जो न छूटे, वह ठीक है। होशपूर्वक जीवन जीने से जो बच जाए, वही पुण्य है; और जो छूट जाए, छोड़ना ही पड़े होश के कारण, वही पाप है। मगर पाप पुण्य का मैं तुम्हें ब्योरा नहीं देता, मैं तो सिर्फ दीया तुम्हारे हाथ में देता हूं।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

मैं भीतर से संन्यासी हूं!

मेरे पास होने के लिए भौतिक रूप से मेरे पास होना जरूरी नहीं है, क्योंकि पास होना प्रेम का एक नाता है, देह का नहीं। पास होने से इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा हृदय अब मेरे हृदय के साथ धड़क रहा है। तुम हजार कोस की दूरी पर रहो, अगर तुम्हारा हृदय मेरे साथ रसलीन है, तो तुम पास हो। और शरीर भी तुम्हारा मेरे पास बैठा रहे, छूते हुए हम एक—दूसरे को बैठे रहें, हाथ में हाथ लेकर बैठे रहें, और फिर भी अगर दिल साथ—साथ न धड़कें, रोएं साथ साथ न फड़कें, तो हजारों कोसों की दूरी है। पास और दूरी की बात देह की बात नहीं है। काश, देहें ही लोगों को पास लाती होतीं तो पति पत्नी हैं, सब पास होते। मगर पति पत्नियों से ज्यादा दूर आदमी न पाओगे।

तुम्हारे नाम ने मुझे मुल्ला नसरुद्दीन का नाम याद दिला दिया सलाहुद्दीन! नसरुद्दीन एक नाटक देखने गया था। नाटक में जो हीरो था, बड़ा अदभुत और बड़ा प्रेमपूर्ण अभिनय कर रहा था। नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी से कहा कि अदभुत अभिनय! बहुत देखे अभिनेता, मगर जैसा प्रेम का अभिनय यह व्यक्ति कर रहा है जितना वास्तविक प्रेम का अभिनय ऐसा मैंने कभी नहीं देखा।

नसरुद्दीन की पत्नी बोली: और तुम्हें पता है कि जिसके प्रति वह प्रेम प्रकट कर रहा है, वह वास्तविक जीवन में उसकी पत्नी है।

नसरुद्दीन ने कहा: तब तो हद्द का अभिनेता है, तब तो इसका कोई मुकाबला ही नहीं! अपनी पत्नी के प्रति और ऐसा प्रेम प्रकट कर रहा है! यह असंभव घटना है।

पति पत्नी दूर हो जाते हैं, पास रहते रहते। पास रहने से ही कोई पास नहीं होता। दूर होने से ही कोई दूर नहीं होता। पास होना और दूर होना आंतरिक घटनाएं हैं। तुम मेरे पास अनुभव कर रहे हो, यह शुभ है। लेकिन अभी और पास आना है; उतने ही पास आना है जितना परवाना शमा के पास आता है। जरा भी दूरी नहीं बचनी चाहिए। उसी पास आने का ढंग है संन्यास।

अब तुम यह मत सोच लेना कि बिना ही संन्यास के जब पास आना हो गया तो हम दूसरों से भिन्न हैं, विशिष्ट हैं। दूसरे संन्यास लेकर पास जाते हैं, हम तो वैसे ही चले गए। ऐसी चालबाजियां मत कर लेना। मन बहुत होशियार है। मन बहुत चालाक है। मन जो करना चाहता है, जो करवाना चाहता है, उसके लिए तर्क खोज लेता है। मन कहेगा कि देखो सलाहुद्दीन, न संन्यास लिया, न आशीर्वाद लिया, फिर भी इतने पास आ गए। अब क्या जरूरत है संन्यास की?

और मैं जानता हूं, मुसलमान हो तुम, अड़चन आएगी संन्यास लोगे तो; ज्यादा अड़चन आएगी, जितनी किसी और को आ सकती है। मुश्किल में पड़ोगे। मेरे मुसलमान संन्यासी हैं, बड़ी मुश्किल में पड़े हैं! लेकिन हर मुश्किल एक चुनौती बन जाती है। जितनी मुश्किल उतनी ही विकास की संभावना का द्वार खुल जाता है। तुम संन्यासी हो जाओगे, होना पड़ेगा ही, अब लौटने का मैं नहीं देखता कि कोई उपाय है, या बचने की कोई जगह है। तो अड़चनें आएंगी। और तुम्हारा मन सारी अड़चनों के जाल खड़े करेगा, कि इतनी मुसीबतें होंगी! और पास तो तुम बिना ही इसके आ रहे हो।

बहुत लोग हैं जो कहते हैं, हम तो भीतर से पास हैं। बाहर से संन्यास लेने की क्या जरूरत, हम तो भीतर से संन्यासी हैं। और मैं जानता हूं, वे सब चालबाजी की बातें कर रहे हैं। चालबाजी की इसलिए बातें कर रहे हैं, क्योंकि भीतर के संन्यास की तो वे सोचते हैं कोई कसौटी है नहीं। भीतर के संन्यास को तो जांच परख का कोई उपाय है नहीं।

जो भीतर से संन्यासी है, वह बाहर से भी क्यों डरेगा? जैसे भीतर, वैसे ही बाहर; एकरस हो जाना चाहिए। हां, अकेले बाहर से संन्यासी होने का कोई अर्थ नहीं है। जो बाहर से संन्यासी है, उससे मैं कहता हूं भीतर से संन्यासी हो जाओ। क्योंकि अकेले बाहर से संन्यासी रहे, तो व्यर्थ है। आवरण बदला तो क्या बदला, अंतस बदलना चाहिए। लेकिन जो कहता है मैं भीतर से संन्यासी हूं, उससे मैं कहता हूं: बाहर से भी हो जाओ। क्योंकि बाहर और भीतर एक हो जाने चाहिए।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

सहानुभूति की आकांक्षा

यह समाज पूरा का पूरा, सुखी आदमी को सत्कार नहीं देता। तुम्हारे घर में आग लग जाए, पूरा गांव सहानुभूति प्रगट करने आता है-आता है न? दुश्मन भी आते हैं। अपनों की तो बात ही क्या, पराए भी आते हैं। मित्रों की तो बात क्या, शत्रु भी आते हैं। सब सहानुभूति प्रगट करने आते हैं कि बहुत बुरा हुआ। चाहे दिल उनके भीतर प्रसन्न भी हो रहे हों, तो भी सहानुभूति प्रगट करने आते हैं बहुत बुरा हुआ। तुम अचानक सारे गांव की सहानुभूति के केंद्र हो जाते हो।

तुम जरा एक बड़ा मकान बनाकर गांव में देखो! सारा गांव तुम्हारे विपरीत हो जाएगा। सारा गांव तुम्हारा दुश्मन हो जाएगा। क्योंकि सारे गांव की ईष्या को चोट पड़ जाएगी। तुम जरा सुंदर गांव में मकान बनाओ, सुंदर बगीचा लगाओ। तुम्हारे घर में बांसुरी बजे, वीणा की झंकार उठें। फिर देखें, कोई आए सहानुभूति प्रगट करने! मित्र भी पराए हो जाएंगे। शत्रु तो शत्रु रहेंगे ही, मित्र भी शत्रु हो जाएंगे। उनके भीतर भी ईष्या की आग जलेगी, जलन पैदा होगी। इसलिए हम सुखी आदमी को सम्मान नहीं दे पाते। इसलिए हम जीसस को सम्मान न दे पाए, सूली दे सके। हम महावीर को सम्मान न दे पाए, कानों में खीले ठोंक सके। हम सुकरात को सम्मान न दे पाए, जहर पिला सके।

तुम देखते हो, मेरे साथ इस देश में जो व्यवहार हो रहा है, उसका कुल कारण इतना है कि मैं उनकी सहानुभूति नहीं मांग रहा। इसका कुल कारण इतना है कि मैं उनकी सहानुभूति का पात्र नहीं हूं। मैं उनकी सहानुभूति का पात्र हो जाऊं, वे सब सम्मान से भर जाएंगे। लेकिन मैं प्रसन्न हूं, आनंदित हूं, रसमग्न हूं। मैं ईश्वर के ऐश्वर्य से मंडित हूं। कठिनाई है! मैं फूलों की सेज पर सो रहा हूं और वे केवल कांटों की सेज पर सोने वाले आदमी को ही सम्मान देने के आदी हो गए हैं। इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक है। वे खुद रुग्ण हैं। उनका पूरा चित्त हजारों साल की बीमारियों से ग्रस्त है।

इस जगत ने आज तक आनंदित व्यक्ति को सम्मान नहीं दिया है। यह सिर्फ दुखी व्यक्तियों को सम्मान देता है। उनको त्यागी कहता है। उनको महात्मा कहता है। इस वृत्ति से सावधान होना, यह तुम्हारे भीतर समाज ने डाल दी है। तुम जब रूखे—सूखे वृक्ष हो जाओगे और तुम्हारे पत्ते झड़ जाएंगे और तुममें फूल न लगेंगे, तब यह समाज तुम्हें सम्मान देगा।

और मैं तुमसे कहता हूं: इस सम्मान को दो कौड़ी का समझकर छोड़ देना। चाहे यह सारा समाज तुम्हारा अपमान करे, लेकिन हरे भरे होना, फूल खिलने देना। पक्षी तुम्हारा सम्मान करेंगे, चांदत्तारे तुम्हारा सम्मान करेंगे, सूरज तुम्हारा सम्मान करेगा, आकाश तुम्हारे सामने नतमस्तक होगा। छोड़ो फिक्र आदमियों की, आदमी तो बीमार है। आदमियों का यह समूह तो बहुत रुग्ण हो गया है। और यह एक दिन की बीमारी नहीं है लंबी बीमारी है, हजारों हजारों साल की बीमारी है। इसके बाहर कोई मुश्किल से छूट पाता है।

मनुष्य ने अपने दुख में बहुत स्वार्थ जोड़ लिए हैं। तुमने देखा, इसलिए लोग अपनी व्यथा की कहानियां खूब बढ़ा चढ़ाकर कहते हैं। अपने दुख की बात लोगों को खूब बढ़ा चढ़ाकर कहते हैं। इसीलिए कि दुख की बात जितनी ज्यादा करेंगे, उतना ही दूसरा आदमी पीठ थपथपाएगा, सहानुभूति देगा। लोग सहानुभूति के लिए दीवाने हैं, पागल हैं। और सहानुभूति से कुछ मिलने वाला नहीं है। क्या होगा सार अगर सारे लोग भी तुम्हारी तरफ ध्यान दे दें?

तुमने कहानी तो सुनी है न, कि एक गरीब औरत ने बामुश्किल आटा पीस पीसकर सोने की चूड़ियां बनवाईं। चाहती थी कि कोई पूछे कितने में लीं? कहां बनवाईं? कहां खरीदीं? मगर कोई पूछे ही न; सुख को तो कोई पूछता ही नहीं! घबड़ा गई, परेशान हो गई; बहुत खनकाती फिरी गांव में, मगर किसी ने पूछा ही नहीं। जिसने भी चूड़ियां देखीं, नजर फेर ली। आखिर उसने अपने झोपड़े में आग लगा दी। सारा गांव इकट्ठा हो गया। और वह छाती पीट पीटकर, हाथ जोर से ऊंचे उठा उठाकर रोने लगी लुट गई, लुट गई! उस भीड़ में से किसी ने पूछा कि अरे, तू लुट गई यह तो ठीक, मगर सोने की चूड़ियां कब तूने बना लीं? तो उसने कहा: अगर पहले ही पूछा होता तो लुटती ही क्यों! यह आज झोपड़ा बच जाता, अगर पहले ही पूछा होता।

सहानुभूति की बड़ी आकांक्षा है कोई पूछे, कोई दो मीठी बात करे। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर की दीनता प्रगट होती है, और कुछ भी नहीं। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर के घाव प्रगट होते हैं, और कुछ भी नहीं। सिर्फ दीनऱ्हीन आदमी सहानुभूति चाहता है। सहानुभूति एक तरह की सांत्वना है, एक तरह की मलहम पट्टी है। घाव इससे मिटता नहीं, सिर्फ छिप जाता है। मैं तुम्हें घाव मिटाना सिखा रहा हूं।

 

कहे वाजिद पुकार 

ओशो 

मेरे साथ खड़े होने का मतलब है: एक आग से गुजरना

मुझे रोज पत्र आते है। मेरे खिलाफ रोज अखबारों में लेख निकलते हैं सारी दुनियां के कोने-कोने में। उन सारे विरोधों में जो सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण विरोध है, वे विचारणीय है। एक विरोध यह है कि मैंने स्‍वयं को भगवान घोषित क्‍यों किया? की मैं स्‍वयं घोषित भगवान हूं, यह भारी विरोध है।

अब सवाल ये है कि जीसस को किसने घोषित किया, ईसाई यह एतराज उठाते है। तो मैं उनसे पूछता हुं कि जीसस को किसने घोषित किया था? हिन्दू यह सवाल उठाते है, मैं उनसे पूछता हूं कृष्‍ण को किसने घोषित किया था। कोई कमेटी थी? कोई पंचायत थी? कोई पाँच जनों ने मिल कर पंचायत की थी? कोई पंचों ने घोषणा की थी?

महावीर को किसने घोषित किया था वे भगवान है? जैन सवाल उठाते है। उनसे मैं पूछता हूं कि महावीर को किसने घोषित किया था। और आसान भी न था, क्‍योंकि महावीर के समय में महावीर जैनों के चौबीसवे तीर्थकर है, तेईस हो चुके थे, चौबीसवे के लिए बहुत झगड़ा था। क्‍योंकि चौबीसवाँ हो गय कि फिर पच्‍चीसवें का तो उपाय ही नहीं था। जैन शास्‍त्रों में। तो अकेले महावीर दावेदार नहीं थे। और भी दावेदार थे। मक्‍खनी गोशालक, संजय वेलट्ठीपुत्‍त था। अजित केशकंबली था; उस सब की घोषणा थी कि हम भगवान है। कैसे तय हुआ यह। कोई चुनाव हुआ था? कोई मतदान हुआ था? कोई चुनाव अधिकारी नियुक्‍त हुआ था, जिसने तय किया कि नहीं महावीर ही तीर्थंकर है? किसने घोषणा की।

बुद्ध ने स्‍वयं घोषणा की है में परम बुद्ध हूं, मैंने परम संबोधी पा ली है। और कौन घोषण करेगा?

लेकिन बौद्ध, हिन्‍दू, मुसलमान, ईसाई, जैन, उन सबका मेरे साथ यही सवाल है कि आप स्‍वयं घोषणा किए है। तो क्‍या मैं दो-चार आदमियों के दस्‍तखत करवा लूं, करवा सकता हूं कोई अड़चन नहीं। दो लाख मेरे संन्‍यासी है, तो दो लाख आदमी दस्‍तखत कर सकते है। फिर बड़ी मुश्‍किल हो जायेगी। फिर तुम्‍हारे कृष्ण का, राम का, बुद्ध का और जीसस को कहां ठीकाना रहेगा। इनके पास तो कोई दस्‍तखत ही नहीं है। ये सब तो गए; गए काम से।
लेकिन यह दस्‍तखत की बात ही व्‍यर्थ है, क्‍या अंधों से पूछना पड़ेगा आँख वाले को कि मैं आँख वाला हूं, या नहीं? कि हे अंधे भाइयों एवं बहनो, लाज रखो मेरी; कि प्‍यारे दस्‍तखत कर दो। दस्‍तखत न बन पड़े तो अंगूठे का निशान ही लगा दो। अरे तुम्‍हारा क्‍या बिगड़ता है, तुम तो अंधे हो ही; अगर मैं आँख वाला हुआ जा रहा हूं तुम्‍हारे दस्‍तखत से या तुम्‍हारे अंगूठे की छाप से तो तुम्‍हारा क्‍या बिगड़ता है। हो जाने दो।

एक तो यह आलोचना कि भगवान की स्‍वयं घोषणा कैसे? इसमें यह बात मान ही ली गई कि भगवान होने की घोषणा किसी दूसरे को करनी पड़ेगी।

दूसरा करेगा तो गलत ही होगी। यह घोषणा तो स्‍वयं ही हो सकती है। यह घोषणा तो आत्‍मानुभव की है। मैंने अपने को जाना, अब मैं कैसे कहूं कि नहीं जाना? क्‍या झूठ बोलूं? मैंने अपने को पहचाना मैं आनंदित हूं अपने भीतर, अब कैसे कहूं कि दुःखी हूं? मैं स्‍वर्ग में हूं, क्‍या तुम्‍हें सिर्फ तृप्‍त करने को कहूं कि नरम में हूं? समाधि के रस में डूब रहा हूं, क्‍या तुमसे कहूं कुछ और, जिससे तुम राज़ी हो सको? क्‍या तुम्‍हारे लिए झूठ बोलूं? एक यह आलोचना।

दूसरी आलोचना यह है कि कोई जीवित व्‍यक्‍ति भगवान कैसे हो सकता है?

यह भी बड़े मजे की बात है। मुर्दा भगवान हो सकते है, जिंदा भगवान नहीं हो सकता। इसलिए जो मर गए है। उनके संबंध में अगर एतराज उठाओ तो लोगों की भावनाओं को बड़ी ठेस पहुँचती है। अब यह बड़े आश्‍चर्य की बात है, मुझे गालियां दी और मेरे संन्‍यासियों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचती। मैं जिंदा हूं, इसलिए मुझे गालियां दी जा सकती है और मेरे किसी संन्‍यासी को हक नहीं है कि कहे कि उसकी भावना को ठेस पहुँचती है। लेकिन अगर मैं किसी की आलोचना कर दूँ जो मर चूका और आलोचना के पूरा तर्क देने को तैयार हूं। पूरा विश्लेषण करने को राज़ी हूं तो भी भावना को ठेस पहुंच जाती है। तर्क का सवाल ही नहीं भावना को ठेस नहीं पहुंचना चाहिए। सत्‍य मत बोलों; अगर झूठ से लोगों की भावनाओं को खुब रस मिलता है तो झूठ बोलों।

अब मैं लाख उपाय करूं तो भी कुछ लोगों को तो मैं ज्ञानी स्‍वीकार नहीं कर सकता। उनके वक्‍तव्‍य, उनका जीवन, उनकी सारी चर्या, उनका सारा बोध कुछ और गवाही दे रहा है। मैं कैसे स्‍वीकार कर लूं। लेकिन किसी की भावना को ठेस न पहुंच जाये,तो भावना की फ्रिक की जाये या सत्‍य की फ्रिक की जाये। और अगर सत्‍य से तुम्‍हारी भावना को ठेस पहुँचती है तो अपनी भावना बदल लो। भावना तुम्‍हारी है। मैने कोई ठेका नहीं लिया कि तुम्‍हारी भावना को ठेस नहीं पहूंचाऊंगा। मैं तो जो है वैसा ही कहूंगा।

अब अंधे आदमी को मत कहां अंधा। सूरदास जी कहां, मगर क्‍या फर्क पड़ता है। किसी को कहो सूरदास जी वह फौरन समझ जाएगा अंधा कह रहे हो। कह कर देखो कि हे सूरदास जी, कहां जा रहे हो। वह फौरन लकड़ी लेकर खड़ा हो जाएगा। कि किससे कहा तुमने। अगर आँख वाला होगा तो कहेगा, तुमने मुझे अंधा कहां। अंधा भी जानता है सूरदास का क्‍या मतलब होता है। लेकिन बेचारा करे क्‍या, क्‍या झगड़ा खड़ा करे।

मगर अच्‍छे शब्‍दों से भी क्‍या होगा? मेरे पास पत्र आते है, कि आप सभी धर्मों की प्रशंसा करें तो अच्‍छा हो।
क्‍यों? झूठ की प्रशंसा करवाना चाहते है। मुझे अगर कुछ गलत दिखाई पड़ेगा तो मैं गलत कहूंगा। और मेरे साथ जिन्‍हें खड़ा होना है उनको तैयारी दिखानी पड़ेगी कि मुझे गालियां पड़ेगी तो उनको भी गालियां पड़ेगी। मेरे साथ खड़े होने का मतलब है: एक आग से गुजरना।

 आपुई गई हिराय

ओशो 

Monday, October 26, 2015

वास्तविक खोज

जो जानते है वे सुख तो नहीं खोजते, बल्कि दुःख को मिटाने का कोई उपाय करते है। दुःख मिटाया जा  सकता है, सुख नहीं पाया जा सकता। और जो सुख पाने में जाएगा वह ज्यादा से ज्यादा दुःख को भुलाने में समर्थ हो सकता है। थोड़ी देर के लिए विस्मरण हो सकता है, थोड़ी देर के लिए भूल सकता है, लेकिन दुःख मिटेगा नहीं। दुःख तो मिटाना है तो दुःख के कारण को जानकार, कारण को नष्ट करने से दुःख नष्ट हो जाएगा और जो दुःख तो नष्ट कर देता है, वह जरूर सुख को उपलब्ध हो जाता है, और जो सुख को खोजता है वह दुःख को कभी नहीं मिटा पाता।

मैं आपसे कहूं, हम सरे लोग सुख खोज रहे है, यह वास्तविक बात नहीं है - वास्तविक खोज नहीं है। हमारी वास्तविक खोज है की हम दुःख को मिटाना चाहते है। लेकिन उस वास्तविक खोज को हम एक भ्रांत मार्ग से पकड़ते है और हमें लगता है की हम सुख को पाना चाहते है।

क्या मैं आपको याद दिलाऊ, दुनिया में दो ही तरह के लोग होते है- एक वे जो सुख को खोजते है, एक वे लोग जो दुःख को मिटाने को खोजते है और यह ज़मीन आसमान का फर्क है दोनों मैं। ये शब्द एक से मालूम हो सकते है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगेगा जो सुख को खोज रहा है वह भी वही खोज रहा है, जो दुःख को मिटने को खोजता है वह भी वही खोज रहा है। नहीं, बिलकुल नहीं। ज़मीन और आसमान में भी इतना फर्क नहीं है जितना इन दो बातो में फर्क है। 

जो सुख खोजता है, वह दुःख में पड़ जाता है। और जो दुःख को मिटाने को खोजता है, वह सुख को उपलब्ध होता चला जाता है।  

क्या कारण है? क्यों हम इस तथ्य को नहीं देखते की हमारे भीतर दुःख है? आप क्यों सुख को खोज रहे हैं? निश्चित ही जब आप सुख को खोज रहे है, यह इस बात का प्रमाण है और सबूत है की आप दुःखी हैं।  अगर कोई आदमी दुःखी नहीं है तो सुख को क्या खोजेगा? अगर कोई आदमी निर्धन है तो धन क्यों खोजेगा? इसलिए जो आदमी जितना ज्यादा धन खोजता हो, जानना चाहिए उतना ही गहरा वह निर्धन होगा। नहीं तो क्यों खोजेगा?  जो आदमी बीमार नहीं है, वह स्वास्थ्य को क्यों खोजेगा? और जो ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्य को खोजता हो, जानना चाहिए वह उतना ही गहरा बीमार है।


आँखो देखि सांच

ओशो

जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति १०

कभी आपने खयाल किया कि अगर आपके बच्चे जैसे ही ‘सेक्यूअली मेच्योर’ होते हैं, वैसे ही उनके जीवन में अस्त व्यस्तता और परेशानी और उपद्रव और विरोध और विद्रोह और हर चीज में जिद्द और हर चीज से झगड़ा और हर चीज से छूटने की कोशिश और कुछ भी न मानने की वृत्ति खड़ी होनी शुरू हो जाती है? किसी को न मानने की। किसी का आदर न करने की। वह स्कूल शरीर का स्वाभाविक परिणाम है।

ऐसे बूढ़ा भी तीन शरीरों को पुन: उपलब्ध होता है। मरने के पहले फिर के का स्थूल शरीर सबसे पहले नष्ट होने लगता है। जवानी समाप्त होती है उसी दिन, जिस दिन हमें पता चलता है हमारा स्कूल शरीर क्षीण होने लगा। लेकिन, स्थूल शरीर क्षीण हो जाए, लेकिन वासना क्षीण नहीं होती, क्योंकि वासना सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, स्वप्र शरीर का हिस्सा है। इसलिए बूढ़े की तकलीफ एक ही है। वह तकलीफ यह है कि उसके पास वासना वही होती है जो जवान के पास होती है और शरीर उसके पास जवान का नहीं होता। उसकी पीड़ा भारी हो जाती है। इसलिए बूढ़े अक्सर जो जवानों के प्रति इतना.? इतनी निंदा से भरे रहते हैं और इतनी आलोचना से भरे रहते हैं और इतने सिद्धांत और तर्क और सिर्फ शिक्षाएं देते रहते हैं, उसका गहरा कारण उनकी बुद्धिमत्ता नहीं है, उसका गहरा कारण सौ में निव्यानबे मौके पर उनकी ईर्ष्या है। वासना उनके मन में भी वही है, लेकिन शरीर क्षीण हो गया है। स्थूल शरीर साथ नहीं देता।

फिर इसके बाद उनका रूप शरीर क्षीण होना शुरू होता है। जब बूढ़े का स्वप्र शरीर क्षीण होता है, तब उसकी स्मृति प्रभावित हो जाती है। तब चीजें उसे याद नहीं आतीं। असंगत हो जाता है, तर्क खो जाता है। अभी कुछ कहता है, घड़ी भर बाद कुछ कहने लगता है संगति नहीं रह जाती। स्वप्र शरीर क्षीण होने लगा।

और जब स्वप्र शरीर क्षीण हो जाता है, तब फिर सुषुप्ति  में मृत्यु घटित होती है। मृत्यु में सुषुप्त शरीर भी क्षीण होता है। लेकिन समाप्त नहीं होता है। और इन तीनों शरीरों की वासना लेकर सुषुप्त शरीर, कारण शरीर नयी यात्रा पर निकल जाता है। वह बीज की तरह। फिर नया जन्म, फिर नयी यात्रा, फिर वही खेल, फिर वही चक्कर। अब यह सूत्र को हम समझें।

‘पिछले जन्मों के कर्मों से प्रेरित होकर वह मनुष्य खप्त अवस्था से पुन: स्वप्र व जाग्रत अवस्था में आ जाता है। ‘पिछले जन्मों के कर्मों से प्रेरित हुआ वह मनुष्य सुषुप्त अवस्था से पुन: स्वप्र और जाग्रत अवस्था में आ जाता है’। जब भी कोई नया व्यक्ति पैदा होता है तो पिछले जन्मों के सारे कर्मों को, प्रभावों को, संस्कारों को लेकर सुषुप्त से पैदा होता है। फिर स्वप्र में आता है, फिर जाग्रत में आ जाता है। नया जीवन शुरू हो जाता है।

‘इस तरह से ज्ञात हुआ कि जीव तीन प्रकार के शरीरों में स्थूल, सूक्ष्म और कारण में रमण करता है। उसी से सारे मायिक प्रपंच की सृष्टि होती है ‘। यह जीवन का सारा का सारा प्रपंच इन तीन शरीरों पर निर्भर है। इन तीन शरीरों को इस सूत्र में पुर कहा है। तीन पुर। और इसलिए भारतीय जो शब्द है आला के लिए, वह पुर है। पुरुष का मतलब है, पुर के भीतर रहनेवाला। और ये तीन उसके नगर हैं, ये तीन उसके पुर हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन तीन में वह पुरुष रमण करता रहता है। यह तीन उसकी नगरिया हैं, जिनमें वह एक से दूसरे में यात्रा करता है। जब तीन प्रकार के शरीरों का लय हो जाता है, तभी यह जीव मायिक प्रपंच से मुक्त होकर अखंड आनंद का अनुभव करता है। जब ये तीनों शरीर लीन हो जाते हैं।

केवल्य उपनिषद 

ओशो 

जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ८

आपने कभी खयाल किया है कि छोटे बच्चों को सपने में और वास्तविकता में फर्क पता नहीं चलता है। इसलिए रात अगर सपने में उसको किसी ने मार दिया है, तो सुबह भी रोता हुआ उठता है। और वह कहता है किसी ने मुझे मारा। या सपने में किसी ने उसकी गुड़िया छीन ली तो वह सुबह रोता हुआ, सिसकता हुआ उठता है। अभी उसे स्वप्र और जाग्रत के बीच फासला नहीं है। अभी वह स्वप्र शरीर में ही जीता है। इसलिए बच्चों की आखें उतनी सपनीली मालूम पडती हैं। लेकिन इनोसेंट, निर्दोष। उसका कुल कारण इतना है कि वह सपने में आखें खोले हुए है। अभी उसकी दुनिया बड़ी रंग बिरंगी है, सपनों की दुनिया है। अभी सब तरफ तितलियां उड़ रही हैं और सब तरफ फूल खिल रहे हैं। अभी जिंदगी के यथार्थ का कोई आभास उन्हें नहीं हुआ।

उसका कारण?

उसका कारण कि अभी वह जिंदगी के जिस यथार्थ से संबंध होने का मार्ग, जो शरीर है स्थूल, उसमें उनका प्रवेश नहीं हुआ। और प्रकृति इसको जानकर ऐसा करती है। क्योंकि बच्चा अगर चौबीस घंटे सोता है मां के पेट में, तो ही उसका यह शरीर बढ़ सकता है। अगर वह इस शरीर में आ जाए तो शरीर का बढ़ना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि शरीर की बढ़ती के लिए उसकी मौजूदगी बिलकुल जरूरी नहीं है। उसकी मौजूदगी बाधा डालेगी। अभी शरीर में बड़ा आपरेशन चल रहा है। अभी चीजें बढ़ रही हैं, घट रही हैं, फैल रही हैं। अभी यह सब इतना बड़ा काम चल ‘रहा है कि इस बीच उसका जागरण ठीक नहीं है। उसे सोया रहना ठीक है।

इसलिए जो बच्चा सात महीने का पैदा हो जाता है, उसका स्थूल शरीर सदा के लिए कमजोर रह जाएगा। क्योंकि वह सुषुप्ति से स्वप्र में आ गया और अब शरीर के बनने में बाधा पड़ेगी। और जो काम मां के पेट में महीने में हो सकता था, वह बाहर छ: महीने में भी नहीं हो पाएगा। फिर बच्चे का स्वप्र शरीर चलेगा वर्षों तक। क्योंकि अभी भी उसका शरीर बड़ा हो रहा है।

ठीक रूप शरीर से पूरा छुटकारा बच्चा जब ‘सेक्यूअली मेच्योर’ होता है, चौदह साल का होता है तब होता है। और चौदह साल की उम्र में ही जैसे काम प्रौढ़ता आती है, स्थूल शरीर में पूरा प्रवेश होता है। यह जानकर आप हैरान होंगे कि काम की ग्रंथि बच्चे जन्म से ही पूरी लेकर पैदा होते हैं, लेकिन स्थूल शरीर में प्रवेश न होने से काम की ग्रंथि ऐसी ही पड़ी है। चौदह वर्ष में स्थूल शरीर में प्रवेश होगी और काम की पथि सक्रिय हो जाएगी।

इस स्थूल शरीर में प्रवेश को रोका जा सकता है। कम ज्यादा किया जा सकता है।

शायद आपको पता न हो कि हर दस बीस वर्षों में, इधर पिछले पचास वर्षों में ‘सेक्स मेव्योरिटी’ का समय नीचे सरकता जा रहा है। पंद्रह वर्ष में लड़के अगर प्रौढ़ होते थे कामवासना में, अब वे तेरह वर्ष में हो जाते हैं। लड़कियां अगर चौदह वर्ष में होती थीं, तो अब वे बारह वर्ष में हो जाती हैं। और अमरीका में वह संख्या और नीचे सरकती गयी है। अगर हिंदुस्तान में बारह वर्ष में होती हैं, तो अमरीका में ग्यारह वर्ष में होने लगीं। स्विट्जरलैंड और स्वीडन में और भी कम, दस वर्ष में होने लगी हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि जितना स्वास्थ्य बढ़ेगा, भोजन अच्छा, उतनी जल्दी ‘सेक्स मेच्योरिटी ‘ आ जाएगी। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों को इतना ही खयाल में है लेकिन जगत में जितनी कामवासना की हवा होगी और जितना कामवासना का वातावरण रहेगा  र जितनी कामुकता होगी, उतने जल्दी ही बच्चे अपने स्वप्र शरीर को छोड्कर अपने स्थूल  शरीर में आ जाएंगे....

 क्रमशः 

ओशो 

जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ७

जीसस के मामले में यह बात खुल गयी। और खुल जाने का कारण यह था कि जीसस के पिता ने कहा कि उसने तो कोई संबंध ही नहीं किया है पली से। पहली दफा जीसस के मामले में यह छिपा हुआ राज जाहिर हो गया। नहीं तो सचाई यह है कि जब भी कोई अवतार पैदा हुआ है, उसका संभोग से कोई संबंध नहीं है। भला संभोग होता रहा हो पति और पत्नी में, लेकिन उसके जन्म का संभोग से कोई संबंध ही नहीं है।

यह जो जाग्रत में पैदा हुआ व्यक्ति है, इसे मुक्ति के लिए कुछ भी नहीं करना होता, यह मुक्त ही पैदा होता है। ये तीन अवस्थाएं स्वप्र की, ब्लप्ति की, जाग्रत की हमारे जन्म और मृत्यु में भी गुंथी हैं।

एक दूसरी तरफ से भी इन तीनों अवस्थाओं का खयाल ले लें।

हिंदू चिंतना स्वप्र, सुषुप्ति   और जागृति में तीन शरीरों का भी निर्माण मानती है। वह कीमती है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण, ये तीन शरीर हिंदू चिंतन मानता है। स्थूल शरीर जाग्रत से संबंधित है। सूक्ष्म शरीर स्वप्र से संबंधित है। कारण शरीर सुषुप्ति  से संबंधित है। जब आप जागे हुए होते हैं, तो आप स्थूल शरीर हैं। इसीलिए जब आपको ‘ अएनस्थीसिया ‘ दे दिया जाता है, तो फिर इस शरीर को काटा जाता है और आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आप दूसरे शरीर में होते हैं।

किसी न किसी दिन मेडिकल साइंस इन इलाजों को हिंदू चिंतन से भी समझेगी तो उसे बड़ा उद्घाटन होगा। किसी दिन चिकित्साशास्र अनुभव करेगा कि इन शाखों में सिर्फ दर्शन नहीं है, बहुत कुछ और भी है। लेकिन वह इतना सूत्र में है कि जब तक उसे कोई खोले नहीं, तब तक वह कभी खयाल में आता नहीं। उसका खयाल में आने का कोई उपाय नहीं है। ऑपरेशन इसलिए किया जा सकता है स्कूल शरीर का कि आप, आपकी चेतना बेहोशी में स्कूल शरीर से हटकर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाए अर्थात सुषुप्त  में तो इस शरीर पर होनेवाली किसी घटना का कोई पता नहीं चलेगा। अगर स्वप्र शरीर में प्रवेश कर जाए, तो धुंधला धुंधला पता चलेगा। क्योंकि स्वप्र शरीर इसके बिलकुल करीब है। जैसे कि कभी कोई आदमी भंग खा लेता है तो वह रूप शरीर में प्रवेश कर जाता है। 

जितने एसिड्स हैं एल. एस. डी., मारिजुआना, मेस्केलीन, भांग, गांजा, अफीम, चरस, शराब, यह सब कें सब स्थूल शरीर से आदमी को तोड़कर स्वप्र शरीर में प्रवेश करा देते हैं। इनकी कुल कला इतनी है। तो भांग खाया हुआ आदमी आपने देखा है? रास्ते पर डोलता हुआ चलता है। पैर ठीक रखना चाहता है, नहीं पड़ता है। हालांकि उसे लगता है कि मैं बिलकुल ठीक रखता हूं। और फिर भी उसे लगता है कि कुछ गलत पडता है। असल में इस शरीर में वह है नहीं। वह शराबी जो रास्ते पर डोलता हुआ चल रहा है, वह दूसरे शरीर में चल रहा है। और यह शरीर सिर्फ उसके साथ घसिट रहा है। वह सूक्ष्म शरीर में चल रहा है। लेकिन फिर भी उसे इसका बोध है। अगर आप उसको डंडा मारें, तो उसको चोट लगेगी। हालांकि चोट उतनी नहीं लगेगी जितना वह स्थूल में होता तब लगती। इसलिए शराबी गिर पड़ता है रास्ते पर, आपने देखा? आप गिरकर देखें! रोज गिरता है रात नाली में, रोज घर घसिट कर पहुंचा दिया जाता है। दूसरे दिन सुबह फिर ताजा अपने दफ़र की तरफ जा रहा है। इसे चोट वगैरह नहीं लगती?

आपने देखा, बच्चे? बच्चे गिर पड़ते हैं, उनको इतनी चोट नहीं लगती। आप इतने गिरे तो हड्डी पसली तत्काल: टूट जाए। बच्चे स्वप्र शरीर में हैं। अभी उनका जाग्रत शरीर में आने का उपाय धीरे होगा। आपने देखा है? जब बच्चा पैदा होता है. मां के पेट में चौबीस घंटे सोता है, पैदा होकर तेईस घंटे सोता है। फिर बाईस घंटे सोता है। फिर बीस घंटे सोता है। फिर अठारह घंटे सोता है। यह उसके सुषुप्त शरीर से वह बाहर आ रहा है। यह सुषुप्ति शरीर से वह बाहर आ रहा है क्रमश:। धीरे धीरे नींद कम होती जाएगी। लेकिन जब वह नींद के बाहर होगा तब वह अक्सर सपने में होगा....


क्रमशः 

ओशो 

जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ६

जैसा सुषुप्ति में पैदा होता है, कोई जन्मता और मरता है; रूप में जन्मता और मरता है, वैसे ही जाग्रत में भी जन्म और मरण के उपाय हैं। वह आखिरी बात है, जब कोई जाग्रत में मरता है। अगर जाग्रत में कोई मरता है, तो आनेवाला जन्म अगर उसे लेना हो तो ही लेगा, अन्यथा जन्म नहीं होगा। क्योंकि अब चुनाव उसके हाथ में है। जो जाग्रत में मरता है, चुनाव उसके हाथ में है। वह चाहे तो ही, प्रयास करे तो ही जन्म होगा। अन्यथा उसका जन्म नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति जागा ही गर्भ में प्रवेश करेगा। जागा ही गर्भ में रहेगा। जला ही जन्मेगा। सुषुप्ति में जो बच्चा पैदा होता है, वह भी मां को प्रभावित करता है।

इसलिए मां अक्सर ऐसा होता है कि जब बच्चा मां के पेट में हो तो मां का गुणधर्म बदल जाता है। उसका व्यवहार बदल जाता है। बोलचाल बदल जाता है, अनेक बातें बदलाहट मालूम पड़ने लगती हैं। कई बार साधारण स्रियां अचानक गर्भ के साथ सुंदर हो जाती हैं। विचारशील हो जाती हैं। कई बार सुंदर स्रियां गर्भ के साथ कुरूप हो जाती हैं। विचारशील स्रियां विचारहीन हो जाती हैं। शांत स्रियां अशांत हो जाती हैं। अशांत स्त्रियां शांत हो जाती हैं। नौ महीने एक दूसरा जीवन भी भीतर होता है, वह प्रभावित करता है।

सुषुप्त बच्चा भी प्रभावित करता है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। स्वप्रवाला बच्चा बहुत प्रभावित करता है। मां के सारे स्वप्र, सारे विचार उस पर आच्छादित हो जाते हैं। लेकिन अगर जाग्रत व्यक्ति पैदा हो, तो मां पूरी तरह रूपांतरित हो जाती है। यहीं जैनों के तीर्थंकर की और हिंदुओं के अवतार की धारणा का फर्क है। हिंदू मानते हैं कि अवतार वह व्यक्ति है, जो जागा हुआ ही पैदा होता है। जागा हुआ ही पैदा होता है, इसलिए वह ईश्वर का अवतरण कहते हैं। क्योंकि वह व्यक्ति चाहता, तो अभी ईश्वर से मिल सकता था। इसको जरा ठीक से समझ लेना। पिछली मृत्यु के बाद वह चाहता तो ईश्वर से मिल सकता था। कोई बाधा न थी, कोई जमीन की तरफ खिंचने का कारण न था। नये जन्म की कोई भी वजह न रही थी। वह ईश्वर से मिलने के ही करीब खड़ा था, मिल गया था, फिर भी लौट आया। इसको हिंदू अवतरण कहते हैं। इसको जन्म नहीं कहते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, यह आदमी ऊपर से लौटा है। अवतार है। यह जाग्रत में घटेगा।

जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म ईसाइयत में भी जाग्रत में है। पूरा जाग्रत में है। यहां एक और बात ख्याल में लेनी चाहिए। 

जब भी कोई जाग्रत व्यक्ति पैदा होता है, तो स्री पुरुष का संभोग घटित नहीं होता। इसलिए ईसाइयत बड़ी मुश्किल में पड़ गयी है। क्योंकि ‘वर्जिन’ से, कुंआरी लड़की से जन्म हुआ है जीसस का। और ईसाइयत के पास इसका पूरा विज्ञान नहीं है। इसका पूरा खयाल नहीं है कि यह कैसे घटित हो सकता है। कुंआरी लड़की से बच्चा कैसे पैदा हो सकता है? 

सोया हुआ बच्चा कुंआरी लड़की से पैदा नहीं हो सकता। सोया हुआ बच्चा स्वभावत: बिलकुल ही पाशविक ढंग से, संभोग से पैदा होगा। स्वप्र में पैदा होनेवाला बच्चा साधारण संभोग से पैदा नहीं होता, यौगिक संभोग से पैदा होता है। तांत्रिक संभोग से पैदा होता है। एक विशिष्ट संभोग से पैदा होता है। जिसमें ध्यान संयुक्त होता है, मूर्छा नहीं होती। जाग्रत पुरुष संभोग से पैदा ही नहीं होता। संभोग से उसका कोई संबंध ही नहीं होता। वह कुंआरी मां से ही पैदा हो सकता है। इसे बहुत बार तो छिपा लिया गया है। छिपा इसलिए गया है कि यह भरोसे का नहीं होगा, विश्वास नहीं किया जा सकेगा और अकारण परेशानी पैदा होगी.....


क्रमशः 

ओशो 

जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्‍ति ५

इस चार घंटे में इतना सिखाया जा पाता है कि जिसकी कल्पना करनी मुश्किल है। रूसी वैज्ञानिक तो यह कह रहे हैं कि अब हम बच्चों को स्कूल की कारागृह से जल्दी ही छुटकारा दिला देंगे। वह खतरनाक है कारागृह। छोटे बच्चे न खेल पाते हैं उसकी वजह से, न मौज कर पाते हैं। न नाच पाते हैं न कूद पाते हैं। बचपन से ही उनको कारागृह में बिठा दिया जाता है। पांच छ: घंटे छोटे बच्चों को जबरदस्ती स्कूल में बिठाए रखना उनकी जिंदगी के लिए हमेशा का सबसे कीमती और स्वर्ण अवसर व्यर्थ ही स्कूल की बेंचों पर बैठकर नष्ट होता रहता है। अधिक लोगों की जिंदगी में दुख का कारण वही है। क्योंकि जब सवांधिक आनंदित होने के उपाय थे, जीवन ताजा था, प्रफुल्लता थी और जीवन से एक संबंध निर्मित हो सकता था, तब भूगोल, इतिहास और गणित, उनमें सारा समय गया। और उन सबसे जो मिलनेवाला है, वह जीवन नहीं है, आजीविका है। इसका मतलब यह हुआ कि जीवन को गंवाया आजीविका के लिए।

लेकिन रूसी वैज्ञानिक अब कहता है कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा। हम शीघ्र ही वह रास्ते खोज लिए हैं जिनसे बच्चे दिन भर खेल सकते हैं, मौज कर सकते हैं, भ्रमण पर जा सकते हैं। जो उन्हें करना हो कर सकते हैं। और रात्रि, रात्रि उनको शिक्षा दी जा सकती है। इसको वे ‘हिप्रोपीडिया’ कहते हैं, निद्रा शिक्षण। लेकिन इसमें भी वह सूत्र है कि उनको जगाया जाए। और अगर हम शिक्षा दे सकते हैं भीतर, तो ‘बारदो’ ठीक कहता है कि कान में कहकर स्वप्र भी पैदा किये जा सकते हैं।

अगर स्वप्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो तो उसे दूसरा जन्म पिछले जन्म की याददाश्त के साथ मिलेगा। ऐसा बच्चा मा के पेट में भी स्वप्र की अवस्था में रहेगा। ऐसा बच्चा नया जन्म भी स्वप्र की अवस्था में लेगा। इस तरह के बच्चे में और सुषुप्ति में जन्म लिये हुए बच्चे में जुइनयादी फर्क होगा। जन्म में फर्क होगा।

जो बच्चा मां के पेट में स्वप्र में रहेगा, उस बच्चे के कारण मां के मन में अनेक स्वप्र पैदा होंगे। बुद्ध और महावीर, विशेषकर जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के संबंध में कथा है कि जब भी वे मां के पेट में आए तो मां ने विशेष सपने देखे। चौबीस तीर्थंकरों की मां ने एक से ही सपने देखे सैकड़ों, हजारों साल के फासले पर। तो जैनों ने उसका पूरा विज्ञान ही निर्मित किया। तब उन्होंने निश्रित कर लिया कि इस तरह के सपने जब किसी मां को हों तो उसके पेट से तीर्थंकर पैदा होनेवाला है। वे सपने निश्रित हो गये। जैसे शुभ्र हाथी दिखायी पड़े, जो साधारणत: नहीं दिखायी पड़ता चेष्टा भी करें तो नहीं दिखायी पड़ता तो तीर्थंकर जन्म लेनेवाला है। तो यह ‘सिंबालिक’ हो गये। ये तीर्थंकर के प्रतीक हो गये कि जब किसी मां के पेट में तीर्थंकर का व्यक्तित्व आएगा, तो वह इन सपनों को देखेगी।

तो जैनों ने तो उनकी शोध करके सपने तय कर दिये। इतने सपने हैं। अगर ये आएं तो ही पैदा होनेवाला बच्चा तीर्थंकर होगा। बुद्धों के सपने भी तय हैं कि जब बुद्ध की चेतना का व्यक्ति कहीं पैदा होगा, तो उसके सपने क्या होंगे? ये सपने तभी पैदा हो सकते हैं, जब भीतर आया हुआ व्यक्ति स्वप्र की अवस्था में मरा हो, स्वप्र की अवस्था में जन्मा हो और स्वप्र की अवस्था में मा के पेट में हो। तो मां के सपने उस बच्चे से तीव्रता से प्रभावित होंगे। सच तो यह है कि वह मां बिलकुल आच्छादित हो जाएगी उस बच्चे से; क्योंकि बच्चा मां से बडा व्यक्तित्व लेकर आया हुआ है। ऐसा जो बच्चा पैदा जो रूप में पैदा हुआ है ऐसा बच्चा चाहे तो एक जन्म में मुक्ति को उपलब्ध हो सकता है। चाहे तो! न चाहे तो और भी जन्म ले सकता है। लेकिन मुक्ति अब उसकी किसी भी क्षण घटित हो सकती है। जब चाहे, तब घटित हो सकती है......


क्रमशः 

ओशो 

जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्‍ति ४


यह अगर स्मृति में रह जाए, तो अगला जन्म दूसरे प्रकार का होगा। उसका गुणधर्म बदल जाएगा। क्योंकि फिर वह आदमी ठीक उन्हीं वासनाओं में नहीं दौड़ सकेगा, मृत्यु सदा सामने खड़ी मालूम पड़ेगी। और फिर उन्हीं वासनाओं में दौड़ने का अर्थ होगा कि वह फिर अपने हाथ रिक्त करने जा रहा है, फिर मरने जा रहा है। नहीं, इस बार अब वह कुछ और कर सकेगा। जिंदगी को बदलने की कोई चेष्टा सघन हो जाएगी। यह चेष्टा सघन हो सके, इसलिए ‘बारदो’ का प्रयोग है।

‘बारदो’ का प्रयोग वैज्ञानिक है। व्यक्ति मर रहा होता है तब उसे जगाए रखने के सब उपाय किये जाते हैं। सुगंध से, प्रकाश से, संगीत से, कीर्तन से, भजन से, उसे जगाए रखने के प्रयोग किये जाते हैं। उसे सोने नहीं दिया जाता। और जैसे ही उसको झपकी लगती है वैसे ही उसके कान के पास ‘बारदो’ के सूत्र कहे जाते हैं। ‘बारदो’ के सूत्र ऐसे हैं, जो स्वप्र को पैदा करने में सहयोगी हैं। जैसे उसे कहा जाएगा कि वह समझ ले कि शरीर से अलग हो रहा है। अभी वह झपकी खा गया, उसे कहा जा रहा है कि वह शरीर से अलग हो गया है। मृत्यु घटित हो गयी है और वह अपनी यात्रा पर निकल रहा है। यात्रा पर मार्ग कैसा है, यात्रा पर दोनों तरफ कैसे वृक्ष लगे हैं, यात्रा पर कैसे पक्षी उड़ रहे हैं, ये सारे प्रतीक उसके कान में कहे जाएंगे।

पहले तो समझा जाता था कि यह कान में कहने से क्या होगा? लेकिन अब यह नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि रूस में बड़े पैमाने पर ‘हिप्रोपीडिया’ के प्रयोग चल रहे हैं। और रूस के वैशानिकों की धारणा है कि आनेवाली सदी में बच्चे स्कूल पढ्ने दिन में नहीं जाएंगे। रात बच्चों की नींद में ही स्कूल उन्हें शिक्षा देगा। क्योंकि रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चा जब सोया होता है तब उसके कान में एक विशेष ध्वनि पर और एक विशेष ”वेवलेंग्थ’ पर अगर कुछ बातें कही जाएं तो उसके अचेतन में प्रवेश कर जाती हैं। इस पर बहुत प्रयोग सफल हो गये हैं, और एक बच्चा जो गणित में कमजोर है और लाख उपाय करके गणित में ठीक नहीं होता, शिक्षक परेशान हो जाते हैं, वह बच्चा भी रात नींद में गणित की शिक्षा देने से कुशल हो जाता है। और उसे कभी पता भी नहीं चलता कि उसको यह शिक्षा दी गयी है।

भाषा के संबंध में तो हैरानी के अनुभव हुए, कि जो भाषा तीन साल में सीखी जा सके, वह रात में तीन महीने में सिखायी जा सकती है। और उसमें कोई समय का व्यय नहीं होगा। क्योंकि आपकी नींद में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। आप सोए ही रहेंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा। सिर्फ सुबह आपको रोज परीक्षा देनी होगी कि रात भर क्या हुआ?

तो अब तो रूस में उन्होंने कुछ संस्थाएं बनायी हैं जो हजारों बच्चों को रात शिक्षा दे रही हैं। हर बच्चे के पास छोटासा यंत्र उसके तकिये में लगा रहता है। वह सो जाता है। ठीक बारह बजे रात शिक्षा शुरू होती है। दो घंटे शिक्षा चलती है, फिर बच्चे को एक बार जगाया जाता है। वह सब यंत्र ही कर देता है। घंटी बजाकर बच्चे को जगा देता है। जगाया इसलिए जाता है ताकि जो सिखाया गया उसके बाद अगर कप्ति आ जाए तो वह भूल जाएगा। इस सूत्र को समझाने के लिए मैं कह रहा हूं नहीं तो यह सूत्र समझ में नहीं आएगा।

उसे जगाया जाएगा। दो घंटा शिक्षण चलेगा, फिर घंटी बजेगी। बच्चा जगाया जाएगा। जागकर उसे हाथ मुंह धोकर पुन: सो जाना है। कुछ और करना नहीं है। बस वह जो शिक्षा दी गयी है, उसके बाद सुषुप्‍ति की पर्त न आए। नहीं तो सुबह भूल जाएगा। फिर चार बजे उसकी शिक्षा शुरू होगी। फिर चार से छ: बजे तक वही पाठ दोहराया जाएगा। छ: बजे वह फिर उठ आएगा....

क्रमशः 

ओशो 


जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्‍ति २

मृत्यु सदा से ही बडे से बडा आपरेशन करती रही है। पूरे प्राणों को इस शरीर से बाहर निकालना है। तो गहन सुषुप्ति  में मृत्यु घटित होती है। जन्म भी सुषुप्ति में ही होता है। इसलिए हमें याद नहीं रहती। पिछले जन्म की याद न रहने का कारण सिर्फ इतना ही है कि बीच में इतनी लंबी सुषुप्ति होती है कि दोनों ओर छोर पर संबंध छूट जाते हैं। सुषुप्ति में ही मृत्यु होती है, सुषुप्ति में ही फिर पुनर्जन्म होता है। माँ के पेट में बच्चा सुषुप्ति में ही होता है।

जो बच्चे माँ  के पेट में सुषुप्ति में नहीं होते हैं, वह या के स्वप्रों को प्रभावित करने लगते हैं। कुछ बच्चे मा के पेट में स्वप्र में होते हैं। बहुत कुछ, बहुत थोड़ी संख्या में  कभी करोड़ में एकाध बच्चा माँ के पेट में स्वप्र की अवस्था में होता है। लेकिन यह वही बच्चा होता है जिसकी पिछली मृत्यु स्वप्र की अवस्था में हुई है। तिब्बत में इस पर बहुत प्रयोग किये हैं। ‘बारदो’ इसका नाम है तिब्बत में, इसके प्रयोग का।

तिब्बत में मरते हुए आदमी को सुषुप्ति में न चला जाए, इसकी चेष्टा करते हैं। अगर सुषुप्ति में चला गया तो फिर उसको इस जन्म की स्मृति मिट जाएगी। तो उसको इस जन्म की स्मृति बनी रहे, तो मरते हुए आदमी के पास विशेष तरह के प्रयोग करते हैं। उन प्रयोगों में उस आदमी को चेष्टापूर्वक जगाए रखने की कोशिश की जाती है। न केवल जगाए रखने की बल्कि उस मनुष्य के भीतर रूप को पैदा करने की भी चेष्टापूर्वक कोशिश की जाती है, ताकि स्वप्र चलता रहे, चलता रहे और उसकी मृत्यु स्वप्र की अवस्था में घटित हो जाए। यदि स्वप्र की अवस्था में मृत्यु घटित हो जाए, तो वह आदमी आनेवाले जन्म में अपने पिछले जन्म की सारी स्मृति लेकर पैदा होता है। इसे हम ऐसा समझें तो आसानी पड़ जाएगी। आप रातभर सपने देखते हैं, यह जानकर आपको शायद भरोसा नहीं हणो। अनेक लोग कहते हैं कि वे सपने देखते ही नहीं। सिर्फ उनको पता नहीं है। अनेक लोग कहते हैं मुझे कभी कभी सपना आता है।

 उन्हें सिर्फ स्मरण नहीं रहता। सपना रात भर देखते हैं। पूरी रात में करीब करीब बारह रूप औसत आदमी देखता है। इससे ज्यादा देखनेवाले लोग हैं, इससे कम देखनेवाले आदमी खोजने मुश्किल हैं। बारह स्वप्र रात्रि के करीब करीब तीन चौथाई हिस्से को घेरते हैं। एक चौथाई हिस्से में सुषुप्ति होती है। बाकी तीन चौथाई में स्वप्र होते हैं। लेकिन आपको याद नहीं रहते हैं। क्योंकि एक स्वप्र गया, उसके बाद सुषुप्ति का अगर एक क्षण भी आ गया तो संबंध टूट जाता है स्मृति का।

आपको जो सपने याद रहते हैं, वे करीब करीब भोर के सपने होते हैं, सुबह के सपने होते हैं। जिनके बाद सूषप्ति नहीं आती, जागृति आ जाती है। जिस सपने के बाद सुषुप्ति नहीं आती और सीधे आप जाग जाते हैं, वही आपको याद रहता है। अगर किसी भी सपने और जागरण के बीच में सुषुप्ति का थोड़ासा भी काल आ जाए, तो स्मृति का संबंध विच्छेद हो जाता है। उसकी स्मृति तो बनती है लेकिन आपको साधारणत: याद नहीं रहती। स्मृति बनती नहीं, ऐसा नहीं है। स्मृति तो निर्मित होती है, लेकिन अचेतन हो जाती है। स्वप्न में भी स्मृति निर्मित हौती है, लेकिन अचेतन हो जाती है। उसका आपको बोध नहीं होता है। चेष्टा की जाए तो अचेतन से उसको जगाया जा सकता है। लेकिन साधारणत: आपको खयाल में नहीं रहता। इसलिए सिर्फ सुबह के सपने याद रहते है.… 

क्रमशः 

ओशो 

जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्‍ति ३

इसलिए अधिक लोग तो ऐसा भी सोचते हैं कि मुझे सुबह ही सपना उनाता है। सपने रात भर आते हैं। अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार उपलब्ध हौ गये हैं। अब तो हमारे पास यंत्र भी उपलब्ध हो गये हैं, जो रातभर बताते रहते हैं कि कब आप सपना देख रहे हैं और कब आप नहीं देख रहे हैं, पर यह मजे की बात है कि सपना देखने में भी आपकी आंख गतिमान हो जाती है, उसी तरह तेजी से आप वस्तुत: अगर जगत में घटना देख रहे होते डे। उसी आंख से पता चलता है कि आप सपना देख रहे हैं। जैसे एक आदमी फिल्म देख रहा है तो जितनी तेजी से उसकी आंख चलती है फिल्म के साथ चलानी पड़ती है जब आदमी सपना देखता है तो उससे भी ज्यादा तेजी से उसकी आंख चलने लगती है पलक के भीतर। रेपिड आइ मूवमेंट्स’। उसको वह कह सकते हैं कि तब पता चल जाता है कि वह सपना देख रहा है।

तो आंख पर यंत्र लगा दिया जाता है। वह यंत्र बताता रहता है कि कब आंख की गति कितनी है। और जब आँख की गति तेज है, तब आपको जगाया जाए तो आप सपना पूरा बता देते हैं उसी वक्त कि क्या सपना देख रहे थे। और जब आंख की गति नहीं होती तब आपको जगाया जाए, तो आप कहते हैं मैं कोई सपना नहीं देख रहा था।
तो अब इस पर निर्णय हो गया कि आदमी सपना देखता है तो आंख उसकी भीतर चलती है जोर से। जैसे वह फिल्म देख रहा हो। तो रात भर प्रयोग करके हजारों लोगो पर जाना गया है। कोई दस हजार लोगों को अमरीका ने इसके पीछे बहुत खर्च किया रात भर सोने का प्रयोगशाला में पैसा दिया है लोगों को। क्योंकि वह अपनी नींद बेचते हैं। उनको बार बार जगाना पड़ता है और रात भर वह बंधे हुए पड़े रहते हैं। यंत्रों के बीच। दस हजार लोगों पर प्रयोग करके यह निर्णय लिया है कि कोई आदमी जो कहता है कि मैं सपने नहीं देखता, वह सच कहता है अपनी तरफ से, लेकिन झूठ कहता है।

 जो आदमी कहता है, मुझे कभी कभी सपने आते हैं, वह भी गलत कहता है। जो लोग कहते हैं हमें सुबह ही सपने आते हैं, वे भी गलत कहते हैं। लेकिन फिर भी उनकी बातों में थोड़ी सच्चाई है। सुबह के सपने याद रहते हैं, क्योंकि जागृति हो जाती है। 

यह मैंने इसलिए कहा था ताकि तिब्बत का ‘बारदो ‘ कों प्रयोग आपके खयाल में आ जाए। तिब्बत ने मनुष्य के रूप पर महत्वपूर्ण काम किया है। शायद पृथ्वी पर किसी देश ने नहीं किया। और उन्होंने यह राज पा लिया कि अगर किसी आदमी को हम सपने की अवस्था में मरने का आयोजन करवा दें, तो वह अपनी इस जन्म की सारी स्मृतियों को लेकर अगले जन्म में प्रवेश कर जाएगा। और इस जन्म की स्मृतियां जिसको अगले जन्म में रहें, उसका अगल जन्म रूपांतरित हो जाएगा। बदल जाएगा। क्योंकि फिर वही मूढूताऐ करने में उसे स्वयं ही बोध होने लगेगा, जो वह कर चुका पहले। फिर वही वासनाएं फिर वही इच्छाएं फिर वही दौड़ और फल तो कुछ भी नहीं था पूरे जीवन का। पिछला जीवन दौड़ दौड़कर रिक्त हो गया, और अंत में मौत हाथ लगी। उन सारी वासनाओं के बाद कुछ हाथ लगा नहीं, सिर्फ मौत हाथ लगी.…

क्रमशः 

ओशो 

शनैः शनैः!

जल्दी नहीं करनी है। ध्यान करो! होश को जगाओ! व्यर्थ के कूड़े करकट, से अपने को मुक्त करो! सुबह होगी, जल्दी ही होगी मगर तुम जल्दी मत करना, नहीं तो देर हो जाएगी। तुम्हें भी अनुभव है इस बात का जब भी तुम जल्दी करते हो तब देर हो जाती है। तुमने देखा ट्रेन पकड़नी है और तुम जल्दी में हो, तो कोट का बटन ऊपर का नीचे लग जाता है, फिर से खोलो, फिर से लगाओ, और देर हो गयी। इतनी जल्दी है कि सूटकेस में कुछ का कुछ रख लेते हो, फिर खोलो, निकालो, जो रखना था वह बाहर रह गया, जो नहीं रखना था वह भीतर चला गया। इतनी जल्दी है कि सामान लेकर नीचे भागते हो, कुछ सामान धर ही छूट गया। वह स्टेशन पर जाकर पता चलता है कि टिकट तो घर ही भूल आये। जितनी जल्दी करोगे…जल्दी का मतलब होता है तुम बेचैन हो गये और बेचैनी में भूलचूक हो जानी बिलकुल स्वाभाविक है।

जितना धैर्य रखोगे, जितने शांत, उतनी ही जल्दी होगी। और जितनी जल्दी करोगे, उतनी ही जल्दी की संभावना कम है। फिर जीवन अनंत है, क्या जल्दी? आज जागे, कल जागे। कब जागे कोई फर्क नहीं पड़ता, अनंत काल है। 

जिस दिन जागोगे उस दिन ऐसा थोड़े ही लगेगा कि बुद्ध पच्चीस सौ साल पहले जागे और तुम पच्चीस सौ साल बाद जागे। पच्चीस सौ साल की क्या गणना है, इस अंतहीन समय की यात्रा में! पृथ्वी को बने वैज्ञानिक कहते हैं चार अरब वर्ष हो गये। चार अरब वर्षों में पच्चीस सौ साल की क्या गणना है! और पृथ्वी बहुत नया—नया ग्रह है। सूरज को बने कोई हजार अरब वर्ष हो गये। और सूरज कोई बहुत पुराना सूरज नहीं है, उससे भी पुराने सूर्य हैं। ऐसे भी सूर्य हैं जिनकी अब तक गणना नहीं बिठायी जा सकी कि वे कितने पुराने हैं! इस अंतहीन विस्तार में पच्चीस सौ साल का क्या हिसाब पलक मारते बीत गये ऐसा लगेगा। जब तुम जागोगे तब तुम्हें ऐसा लगेगा कि बुद्ध जागे और मैं जागा, बीच में पलक शायद झपकी।

इस विस्तीर्ण जगत में तुम्हारी जल्दबाजी सिर्फ नासमझी है। और तुम अपनी जल्दबाजी में सब खराब कर लोगे; कुछ का कुछ हो जाएगा।

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन बाथरूम से जोर से आवाज दी अपनी पत्नी को कि दौड़, जल्दी आ; जिसका डर था वह बात हो गयी। पत्नी आयी तो मुल्ला बिलकुल झुका खड़ा है, कमर झुकी हुई है। किसी तरह सम्हाल कर मुल्ला को ले जाकर बिस्तर पर लिटाया। पूछा कि हुआ क्या?

मुल्ला ने कहा कि डॉक्टर ने कहा था कभी न कभी यह होने वाला है, लकवा लग जाएगा, लकवा लग गया।
डॉक्टर को फोन किया। डॉक्टर भागा हुआ आया। जांच पड़ताल की। सब ठीक मालूम पड़े। नाड़ी देखी! सब ठीक है। ब्लड—प्रेशर ठीक है। फिर जरा गौर से देखा, फिर हंसने लगा। उसने कहा कि बड़े मियां, कोई और मामला नहीं है, तुमने कोट की बटन पेंट की बटन से लगा ली है इसलिए तुम उठ नहीं पा रहे, घबड़ाओ मत।


जल्दी न करना; कोई जल्दी नहीं है आहिस्ता चलो, हौले हौले चलो, शनैः शनैः।

गुरु प्रताप साध की संगती 

ओशो 

Saturday, October 24, 2015

बंधन

मैं एक संन्यासी को जानता हूं जो किसी स्त्री को नहीं देख सकते। वे बहुत घबड़ा जाते है। अगर कोई स्‍त्री मौजूद हो तो वे आंखें झुकाए रखते है, वे सीधे नहीं देखते। क्या समस्या है? निश्चित ही, वे अति कामुक रहे होंगे, कामवासना से बहुत ग्रस्त रहे होंगे। वह ग्रस्तता अभी भी जारी है, लेकिन पहले वे स्त्रियों के पीछे भागते थे और अब वे स्त्रियों से दूर भाग रहे हैं। पर स्त्रियों से ग्रस्तता बनी हुई है; चाहे वे स्त्रियों की ओर भाग रहे हों या स्त्रियों से दूर भाग रहे हों, उनका मोह बना ही हुआ है।

वे सोचते हैं कि अब वे स्त्रियों से मुक्त हैं, लेकिन यह एक नया बंधन है। तुम प्रतिक्रिया करके मुक्त नहीं हो सकते। जिस चीज से तुम भागोगे वह पीछे के रास्ते से तुम्हें बांध लेगी; उससे तुम बच नहीं सकते। यदि कोई व्यक्ति संसार के विरोध में मुक्त होना चाहता है तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकता, वह संसार में ही रहेगा। किसी चीज के विरोध में होना भी एक बंधन है।

लोग पूछते हैं : ‘इस संसार से कैसे छूटा जाए?’

संसार उन पर बहुत भारी पड़ रहा है। वे संसार के बोझ के नीचे दबे जा रहे हैं। और वे संसार से बुरी तरह चिपके भी हैं, क्योंकि जब तक तुम संसार से चिपकते नहीं हो तब तक संसार तुम्हें बोझिल नहीं कर सकता। यह बोझ तुम्हारे सिर में है; और उसका कारण तुम हो, बोझ नहीं। तुम इसे ढो रहे हो। और लोग सारा संसार उठाए हैं; और फिर वे दुखी होते हैं। और दुख के इसी अनुभव से विपरीत कामना का उदय होता है, और वे विपरीत के लिए लालायित हो उठते हैं।

पहले वे धन के पीछे भाग रहे थे, अब वे ध्यान के पीछे भाग रहे हैं। पहले वे इस लोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे थे; अब वे परलोक में कुछ पाने के लिए भाग दौड़ कर रहे हैं। लेकिन भाग दौड़ जारी है। और भाग दौड़ ही समस्या है, विषय अप्रासंगिक है। कामना समस्या है; चाह समस्या है। तुम क्या चाहते हो, यह अर्थपूर्ण नहीं है; तुम चाहते हो, यह समस्या है।

और तुम चाह के विषय बदलते रहते हो। आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते हो, और तुम समझते हो कि मैं बदल रहा हूं। और फिर परसों तुम ‘ग’ की चाह करते हो, और तुम सोचते हो कि मैं रूपांतरित हो गया। लेकिन तुम वही हो। तुमने ‘क’ की चाह की, तुमने ‘ख’ की चाह की, तुमने ‘ग’ की चाह की; लेकिन यह क-ख-ग तुम नहीं हो; तुम तो वह हो जो चाहता है, जो कामना करता है। और वह वही का वही रहता है। 

तुम बंधन चाहते हो और फिर उससे निराश हो जाते हो, ऊब जाते हो। और तब तुम मोक्ष की कामना करने लगते हो। लेकिन तुम कामना करना जारी रखते हो। और कामना बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष की कामना नहीं कर सकते। चाह ही बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष नहीं चाह सकते। जब कामना विसर्जित होती है तो मोक्ष है; चाह का छूट जाना ही मोक्ष है।

तंत्र सूत्र 

ओशो 


मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं?

मुझे याद आता है कि मेरे एक मित्र, जो बौद्ध भिक्षु हैं, स्टैलिन के दिनों में सोवियत रूस गए थे। उन्होंने लौटकर मुझे बताया कि वहा जब भी कोई व्यक्ति उनसे हाथ मिलाता था तो तुरंत झिझककर पीछे हट जाता था और कहता था कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं।

उनके हाथ सचमुच सुंदर थे; भिक्षु होकर उन्हें कभी काम नहीं करना पड़ा था। वे फकीर थे, शाही फकीर; उनका श्रम से वास्ता नहीं पड़ा था। उनके हाथ बहुत कोमल, सुंदर और स्त्रैण थे। भारत में जब कोई उनके हाथ छूता तो कहता कि कितने सुंदर हाथ हैं। लेकिन सोवियत रूस में जब कोई उनके हाथ अपने हाथ में लेता तो तुरंत सिकुड़कर पीछे हट जाता, उसकी आंखों में निंदा भर जाती और वह उन्हें कहता कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं। वे वापस आकर मुझसे बोले कि मैंने इतना निंदित महसूस किया कि मेरा मन होता था कि मजदूर हो जाऊं।

रूस से साधु महात्मा विदा हो गए, क्योंकि आदर न रहा। सब साधुता दिखावटी थी, प्रदर्शन की चीज थी। आज रूस में केवल सच्चा संत ही संत हो सकता है। झूठे नकली संतों के लिए वहां कोई गुंजाइश नहीं है। आज तो वहा संत होने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ेगा, क्योंकि सारा समाज विरोध में होगा। भारत में तो जीने का सबसे सुगम ढंग साधु महात्मा होना है, सब लोग आदर देते हैं। यहां तुम झूठे हो सकते हो, क्योंकि उसमें लाभ ही लाभ है।

तो इसे स्मरण रखो। सुबह से ही, जैसे ही तुम आंख खोलते हो, सच्चे और प्रामाणिक होने की चेष्टा करो। ऐसा कुछ भी मत करो जो झूठ और नकली हो। सिर्फ सात दिन के लिए यह स्मरण बना रहे कि कुछ भी झूठ और नकली, कुछ भी अप्रामाणिक नहीं करना है। जो भी गंवाना पड़े, जो भी खोना पड़े, खो जाए; जो भी होना हो, हो जाए; लेकिन सच्चे बने रही। और सात दिन के भीतर तुम्हारे भीतर नए जीवन का उन्मेष अनुभव होने लगेगा। तुम्हारी मृत पर्तें टूटने लगेंगी, और नयी जीवंत धारा प्रवाहित होने लगेगी। तुम पहली बार पुनर्जीवन अनुभव करोगे, फिर से जीवित हो उठोगे।

कृत्य का पोषण करो, ज्ञान का पोषण करो यथार्थ में, स्वप्न में नहीं। जो भी करना चाहो करो, लेकिन ध्यान रखो कि यह काम सच में मैं कर रहा हूं या मेरे द्वारा मेरे मां बाप कर रहे हैं? क्योंकि कब के जा चुके मरे हुए लोग, मृत माता पिता, समाज, पुरानी पीढ़ियां, सब तुम्हारे भीतर अभी भी सक्रिय हैं। उन्होंने तुम्हारे भीतर ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि तुम अब भी उनको ही पूरा करने में लगे हो। तुम्हारे मां बाप अपने मृत मां बाप को पूरा करते रहे और तुम अपने मृत मां बाप को पूरा करने में लगे हो। और आश्चर्य कि कोई भी पूरा नहीं हो रहा है। तुम उसे कैसे पूरा कर सकते हो जो मर चुका? लेकिन मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं।

जब भी तुम कुछ करो तो सदा निरीक्षण करो कि यह मेरे माध्यम से मेरे पिता कर रहे हैं या मैं कर रहा हूं। जब तुम्हें क्रोध आए तो ध्यान दो कि यह मेरा क्रोध है या इसी ढंग से मेरे पिता क्रोध किया करते थे जिसे मैं दोहरा भर रहा हूं।

मैंने देखा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वही सिलसिला चलता रहता है, पुराने ढंग ढांचे दोहरते रहते हैं। अगर तुम विवाह करते हो तो वह विवाह करीब करीब वैसा ही होगा जैसा तुम्हारे मां बाप का था। तुम अपने पिता की भांति व्यवहार करोगे; तुम्हारी पत्नी अपनी मां की भांति व्यवहार करेगी। और दोनों मिलकर वही सब उपद्रव करोगे जो उन्होंने किया था।

जब क्रोध आए तो गौर से देखो कि मैं क्रोध कर रहा हूं या कि कोई दूसरा व्यक्ति क्रोध कर रहा है? जब तुम प्रेम करो तो याद रखो, तुम ही प्रेम कर रहे हो या कोई और? जब तुम कुछ बोलो तो देखो कि मैं बोल रहा हूं या मेरा शिक्षक बोल रहा है? जब तुम कोई भाव भंगिमा बनाओ तो देखो कि यह तुम्हारी भंगिमा है या कोई दूसरा ही वहा है?

यह कठिन होगा; लेकिन यही साधना है, यही आध्यात्मिक साधना है। और सारे खोटे को विदा करो। थोड़े समय के लिए तुम्हें सुस्ती पकड़ेगी, उदासी घेरेगी, क्योंकि तुम्हारे झूठ गिर जाएंगे और सत्य को आने में और प्रतिष्ठित होने में थोड़ा समय लगेगा। अंतराल का एक समय होगा; उस समय को भी आने दो। भयभीत मत होओ, आतंकित मत होओ। देर अबेर तुम्हारे मुखौटे गिर जाएंगे, तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व विलीन हो जाएगा, और उसकी जगह तुम्हारा असली चेहरा, तुम्हारा प्रामाणिक व्यक्तित्व अस्तित्व में आएगा, प्रकट होगा। और उसी प्रामाणिक व्यक्तित्व से तुम ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हो।

तंत्र सूत्र 

ओशो 

स्व विकास का सूत्र

सदा ही जानने की कोशिश इस ढंग से करो कि वह सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष हो। कोई विश्वास मत पकड़ो, विश्वास तुम्हें भटका देगा। अपने पर भरोसा करो, श्रद्धा करो। और अगर तुम अपने पर ही श्रद्धा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे पर कैसे श्रद्धा कर सकते हो?

सारिपुत्र बुद्ध के पास आया और उसने कहा : ‘मैं आपमें विश्वास करने के लिए आया हूं मैं आ गया हूं। मुझे आप में श्रद्धा हो, इसमें मेरी सहायता करें।’ बुद्ध ने कहा : ‘अगर तुम्हें स्वयं में श्रद्धा नहीं है तो मुझमें श्रद्धा कैसे करोगे? मुझे भूल जाओ। पहले स्वयं में श्रद्धा करो; तो ही तुम्हें किसी दूसरे में श्रद्धा होगी।’

यह स्मरण रहे, अगर तुम्हें स्वयं में ही श्रद्धा नहीं है तो किसी में भी श्रद्धा नहीं हो सकती। पहली श्रद्धा सदा अपने में होती है; तो ही वह प्रवाहित हो सकती है, बह सकती है, तो ही वह दूसरों तक पहुंच सकती है। लेकिन अगर तुम कुछ जानते ही नहीं हो तो अपने में श्रद्धा कैसे करोगे? अगर तुम्हें कोई अनुभव ही नहीं है तो स्वयं में श्रद्धा कैसे होगी? अपने में श्रद्धा करो। और मत सोचो कि हम परमात्मा को ही दूसरों की आंखों से देखते हैं; साधारण अनुभवों में भी यही होता है। कोशिश करो कि साधारण अनुभव भी तुम्हारे अपने अनुभव हों। वे तुम्हारे विकास में सहयोगी होंगे; वे तुम्हें प्रौढ़ बनाएंगे, वे तुम्हें परिपक्वता देंगे।’’

बड़ी अजीब बात है कि तुम दूसरों की आंख से देखते हो, तुम दूसरों की जिंदगी से जीते हो। तुम गुलाब को सुंदर कहते हो। क्या यह सच में ही तुम्हारा भाव है या तुमने दूसरों से सुन रखा है कि गुलाब सुंदर होता है? क्या यह तुम्हारा जानना है? क्या तुमने जाना है? तुम कहते हो कि चांदनी अच्छी है, सुंदर है। क्या यह तुम्हारा जानना है? या कवि इसके गीत गाते रहे हैं और तुम बस उन्हें दुहरा रहे हो?

अगर तुम तोते जैसे दुहरा रहे हो तो तुम अपना जीवन प्रामाणिक रूप से नहीं जी सकते। जब भी तुम कुछ कहो, जब भी तुम कुछ करो, तो पहले अपने भीतर जांच कर लो कि क्या यह मेरा अपना जानना है? मेरा अपना अनुभव है? उस सबको बाहर फेंक दो जो तुम्हारा नहीं है; वह कचरा है। और सिर्फ उसको ही मूल्य दो, पोषण दो, जो तुम्हारा है। उसके द्वारा ही तुम्हारा विकास होगा।

 तंत्र सूत्र 

ओशो 

 

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