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Tuesday, October 27, 2015

मैं भीतर से संन्यासी हूं!

मेरे पास होने के लिए भौतिक रूप से मेरे पास होना जरूरी नहीं है, क्योंकि पास होना प्रेम का एक नाता है, देह का नहीं। पास होने से इतना ही अर्थ है कि तुम्हारा हृदय अब मेरे हृदय के साथ धड़क रहा है। तुम हजार कोस की दूरी पर रहो, अगर तुम्हारा हृदय मेरे साथ रसलीन है, तो तुम पास हो। और शरीर भी तुम्हारा मेरे पास बैठा रहे, छूते हुए हम एक—दूसरे को बैठे रहें, हाथ में हाथ लेकर बैठे रहें, और फिर भी अगर दिल साथ—साथ न धड़कें, रोएं साथ साथ न फड़कें, तो हजारों कोसों की दूरी है। पास और दूरी की बात देह की बात नहीं है। काश, देहें ही लोगों को पास लाती होतीं तो पति पत्नी हैं, सब पास होते। मगर पति पत्नियों से ज्यादा दूर आदमी न पाओगे।

तुम्हारे नाम ने मुझे मुल्ला नसरुद्दीन का नाम याद दिला दिया सलाहुद्दीन! नसरुद्दीन एक नाटक देखने गया था। नाटक में जो हीरो था, बड़ा अदभुत और बड़ा प्रेमपूर्ण अभिनय कर रहा था। नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी से कहा कि अदभुत अभिनय! बहुत देखे अभिनेता, मगर जैसा प्रेम का अभिनय यह व्यक्ति कर रहा है जितना वास्तविक प्रेम का अभिनय ऐसा मैंने कभी नहीं देखा।

नसरुद्दीन की पत्नी बोली: और तुम्हें पता है कि जिसके प्रति वह प्रेम प्रकट कर रहा है, वह वास्तविक जीवन में उसकी पत्नी है।

नसरुद्दीन ने कहा: तब तो हद्द का अभिनेता है, तब तो इसका कोई मुकाबला ही नहीं! अपनी पत्नी के प्रति और ऐसा प्रेम प्रकट कर रहा है! यह असंभव घटना है।

पति पत्नी दूर हो जाते हैं, पास रहते रहते। पास रहने से ही कोई पास नहीं होता। दूर होने से ही कोई दूर नहीं होता। पास होना और दूर होना आंतरिक घटनाएं हैं। तुम मेरे पास अनुभव कर रहे हो, यह शुभ है। लेकिन अभी और पास आना है; उतने ही पास आना है जितना परवाना शमा के पास आता है। जरा भी दूरी नहीं बचनी चाहिए। उसी पास आने का ढंग है संन्यास।

अब तुम यह मत सोच लेना कि बिना ही संन्यास के जब पास आना हो गया तो हम दूसरों से भिन्न हैं, विशिष्ट हैं। दूसरे संन्यास लेकर पास जाते हैं, हम तो वैसे ही चले गए। ऐसी चालबाजियां मत कर लेना। मन बहुत होशियार है। मन बहुत चालाक है। मन जो करना चाहता है, जो करवाना चाहता है, उसके लिए तर्क खोज लेता है। मन कहेगा कि देखो सलाहुद्दीन, न संन्यास लिया, न आशीर्वाद लिया, फिर भी इतने पास आ गए। अब क्या जरूरत है संन्यास की?

और मैं जानता हूं, मुसलमान हो तुम, अड़चन आएगी संन्यास लोगे तो; ज्यादा अड़चन आएगी, जितनी किसी और को आ सकती है। मुश्किल में पड़ोगे। मेरे मुसलमान संन्यासी हैं, बड़ी मुश्किल में पड़े हैं! लेकिन हर मुश्किल एक चुनौती बन जाती है। जितनी मुश्किल उतनी ही विकास की संभावना का द्वार खुल जाता है। तुम संन्यासी हो जाओगे, होना पड़ेगा ही, अब लौटने का मैं नहीं देखता कि कोई उपाय है, या बचने की कोई जगह है। तो अड़चनें आएंगी। और तुम्हारा मन सारी अड़चनों के जाल खड़े करेगा, कि इतनी मुसीबतें होंगी! और पास तो तुम बिना ही इसके आ रहे हो।

बहुत लोग हैं जो कहते हैं, हम तो भीतर से पास हैं। बाहर से संन्यास लेने की क्या जरूरत, हम तो भीतर से संन्यासी हैं। और मैं जानता हूं, वे सब चालबाजी की बातें कर रहे हैं। चालबाजी की इसलिए बातें कर रहे हैं, क्योंकि भीतर के संन्यास की तो वे सोचते हैं कोई कसौटी है नहीं। भीतर के संन्यास को तो जांच परख का कोई उपाय है नहीं।

जो भीतर से संन्यासी है, वह बाहर से भी क्यों डरेगा? जैसे भीतर, वैसे ही बाहर; एकरस हो जाना चाहिए। हां, अकेले बाहर से संन्यासी होने का कोई अर्थ नहीं है। जो बाहर से संन्यासी है, उससे मैं कहता हूं भीतर से संन्यासी हो जाओ। क्योंकि अकेले बाहर से संन्यासी रहे, तो व्यर्थ है। आवरण बदला तो क्या बदला, अंतस बदलना चाहिए। लेकिन जो कहता है मैं भीतर से संन्यासी हूं, उससे मैं कहता हूं: बाहर से भी हो जाओ। क्योंकि बाहर और भीतर एक हो जाने चाहिए।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

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