Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Wednesday, July 20, 2022

दासता ही दुख है

एक संध्या एक पहाड़ी सराय में एक नया अतिथि आकर ठहरा। सूरज ढलने को था, पहाड़ उदास और अंधेरे में छिपने को तैयार हो गए थे। पक्षी अपने निबिड़ में वापस लौट आए थे। तभी उस पहाड़ी सराय में वह नया अतिथि पहुंचा। सराय में पहुंचते ही उसे एक बड़ी मार्मिक और दुख भरी आवाज सुनाई पड़ी। पता नहीं कौन चिल्ला रहा था? पहाड़ की सारी घाटियां उस आवाज से भर गई थी। कोई बहुत जोर से चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।वह अतिथि सोचता हुआ आया, किन प्राणों से यह आवाज उठ रही है? कौन प्यासा है स्वतंत्रता को? कौन गुलामी के बंधनों को तोड़ देना चाहता है? कौन सी आत्मा यह पुकार कर रही? प्रार्थना कर रही?



और जब वह सराय के पास पहुंचा, तो उसे पता चला, यह किसी मनुष्य की आवाज नहीं थी, सराय के द्वार पर लटका हुआ एक तोता स्वतंत्रता की आवाज लगा रहा था।


वह अतिथि भी स्वतंत्रता की खोज में जीवन भर भटका था। उसके मन को भी उस तोते की आवाज ने छू लिया।


रात जब वह सोया, तो उसने सोचा, क्यों न मैं इस तोते के पिंजड़े को खोल दूं, ताकि यह मुक्त हो जाए। ताकि इसकी प्रार्थना पूरी हो जाए। अतिथि उठा, सराय का मालिक सो चुका था, पूरी सराय सो गई थी। तोता भी निद्रा में था, उसने तोते के पिंजड़े का द्वार खोला, पिंजड़े के द्वार खोलते ही तोते की नींद खुल गई, उसने जोर से सींकचों को पकड़ लिया और फिर चिल्लाने लगा--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।


वह अतिथि हैरान हुआ। द्वार खुला है, तोता उड़ सकता था, लेकिन उसने तो सींकचे को पकड़ रखा था। उड़ने की बात दूर, वह शायद द्वार खुला देख कर घबड़ा आया, कहीं मालिक न जाग जाए। उस अतिथि ने अपने हाथ को भीतर डाल कर तोते को जबरदस्ती बाहर निकाला। तोते ने उसके हाथ पर चोटें भी कर दीं। लेकिन अतिथि ने उस तोते को बाहर निकाल कर उड़ा दिया।


निश्चिंत होकर वह मेहमान सो गया उस रात। और अत्यंत आनंद से भरा हुआ। एक आत्मा को उसने मुक्ति दी थी। एक प्राण स्वतंत्र हुआ था। किसी की प्रार्थना पूरी करने में वह सहयोगी बना। वह रात सोया और सुबह जब उसकी नींद खुली, उसे फिर आवाज सुनाई पड़ी, तोता चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।


वह बाहर आया, देखा, तोता वापस अपने पिंजड़े में बैठा हुआ है। द्वार खुला है और तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। वह अतिथि बहुत हैरान हुआ। उसने सराय के मालिक को जाकर पूछा, यह तोता पागल है क्या? रात मैंने इसे मुक्त कर दिया था, यह अपने आप पिंजड़े में वापस आ गया है और फिर भी चिल्ला रहा, स्वतंत्रता?



सराय का मालिक पूछने लगा, उसने कहा, तुम भी भूल में पड़ गए। इस सराय में जितने मेहमान ठहरते हैं, सभी इसी भूल में पड़ जाते हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी आकांक्षा नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी प्रार्थना नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। तोता स्वतंत्रता नहीं चाहता, केवल मैंने सिखाया है वही चिल्ला रहा है। तोता इसीलिए वापस लौट आता है। हर रात यही होता है, कोई अतिथि दया खाकर तोते को मुक्त कर देता है। लेकिन सुबह तोता वापस लौट आता है।


मैंने यह घटना सुनी थी। और मैं हैरान होकर सोचने लगा, क्या हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं--मोक्ष चाहिए, स्वतंत्रता चाहिए, सत्य चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए? लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं। हम चिल्लाते हैं, मुक्ति चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारागृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।


सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है। आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं। शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।


दासता ही दुख है। यह जो स्प्रिचुअल स्लेवरी है, यह जो हमारी मानसिक गुलामी है, वही हमारा दुख, वही हमारी पीड़ा, वही हमारे जीवन का संकट है। शायद हम सबके मन में उससे मुक्त होने का खयाल भी पल रहा हो। लेकिन हमें पता नहीं कि जिन बातों को हम पकड़े हुए बैठे रहते हैं वे ही हमारे बंधन को पुष्ट करने वाली बातें हैं। उन थोड़े से बंधनों पर मैं चर्चा करूंगा। और उन्हें तोड़ने के संबंध में भी। ताकि मनुष्य की आत्मा मुक्ति का कोई मार्ग खोज सके।


आनंद की खोज

ओशो 

अर्धनारीश्वर


अगर किसी व्यक्ति की जीवन-चेतना में तुम गौर से देखने की कला समझ जाओ, तो तुम देख सकते हो कि पिता और मां--कैसे अलग-अलग रंगों की दो धाराएं बह रही हैं। स्त्री है उसके भीतर, पुरुष है उसके भीतर। और वह जो भीतर छिपी स्त्री हैं पुरुष के भीतर, वही तो पुरुष का आकर्षण है बाहर की स्त्री में। भीतर का तो उसे पता नहीं है। एक पुकार है, एक प्यास है, एक तड़फन है। और भीतर का उसे पता नहीं है, भीतर जाने का भी उसे कुछ पता नहीं है, भीतर जैसी कोई चीज है, इसका भी उसे पता नहीं है। वह अपने घर के पोर्च के ही पास खड़ा जी रहा है। उसे घर भीतर क्या है, उसका पता भी नहीं है। द्वार इतने दिन से बंद हैं, कि दीवाल जैसा लगता है। पोर्च को ही घर समझ लिया। वहीं जीता है। और नजर उसकी सड़क पर लगी है। क्योंकि आंख बाहर ही देख रही है। भीतर देखने को तुम्हें कुछ अंदाज ही नहीं है। 


वह भीतर देखना ही तो ध्यान है। वह महुआ तुम्हें अभी मिला नहीं।



तो भीतर एक नारी है पुरुष के; वही आकर्षण है बाहर की नारी में। और भीतर एक पुरुष है नारी में, वही आकर्षण है बाहर के पुरुष में। इसलिए बड़ी अड़चन भी है। आकर्षण भी; अड़चन भी, उपद्रव भी।



क्योंकि जब तक तुम्हें तुम्हारी भीतर की नारी जैसी नारी बाहर न मिल जाए, तब तक तृप्ति न होगी। क्योंकि उसे तुम खोज रहे हो। और यह असंभव है। करीब-करीब असंभव है। अगर कुछ प्रतिशत भी बाहर की नारी मिल जाए तो भी तृप्ति मालूम होगी, लेकिन पूरा मिल जाना तो असंभव है। इसीलिए सुंदरतम जोड़े भी, पूर्णतम जोड़े भी अपूर्ण रह जाते हैं। कुछ कमी रह जाती है।


जिसकी खोज है, वह भीतर छिपी है। उसे तुम बाहर खोज रहे हो। थोड़ा-बहुत तालमेल बैठ जाए तो काफी है। इसलिए सौ में निन्यानबे विवाह असफल होते हैं। वे सफल हो ही नहीं सकते। उनकी बुनियाद में ही सफलता संभव नहीं है।


कैसे खोजोगे उस नारी को?



तुम एक प्रतिमा लिए हो भीतर, उसकी ही तलाश है। किसी स्त्री में वह झलक मिल जाती है किसी दिन; तुम प्रेम में पड़ जाते हो। जिसको तुम प्रेम में पड़ना कहते हो वह कुछ और नहीं है, तुम्हारी भीतर की नारी की झलक तुमने किसी स्त्री में देख ली है। कोई स्त्री तुम्हारे लिए दर्पण बन गई और तुमने अपनी भीतर की नारी का थोड़ा सा प्रतिबिंब उसमें पा लिया, थोड़ी छवि पकड़ ली। तुम प्रेम में पड़ गए।



अब तुम पागल हो गए कि जब तक यह स्त्री नहीं मिलेगी, शांति नहीं। यह तुम्हें मिल भी जाएगी; लेकिन थोड़े ही दिन शांति और सुख रहेगा। क्योंकि जैसे-जैसे तुम इसे ज्यादा पहचानोगे, वैसे-वैसे पाओगे, तुम्हारी भीतर की नारी से मेल खाता नहीं। फर्क है। रोज-रोज फर्क बड़ा होता जाएगा। जैसी पहचान बढ़ेगी, वैसे-वैसे फर्क बड़ा होता जाएगा। दूर से लगता था जो, वह पास से आकर ठीक नहीं पाया जाएगा। जितनी निकटता होगी, उतनी दूरी बढ़ जाएगी और इसलिए स्त्री और पुरुष के संबंध बड़े ही दुखद हैं--होंगे ही। कामचलाऊ हो सकते हैं।


तंत्र की यह बड़ी पुरानी खोज है। जुंग ने तो इस सदी में पश्चिम में यह कहा; लेकिन तंत्र की यह सदियों पुरानी खोज है; हजारों वर्ष पुरानी खोज है। हमने शिव की मूर्ति बनाई है अर्धनारीश्वर। आधे शिव पुरुष हैं और आधे स्त्री हैं। वह हमारी खोज है। उस मूर्ति में हमने कह दिया मनुष्य का यह सत्य।


और जब तक तुम्हारे भीतर की नारी तुम्हारे भीतर के पुरुष से मिल न जाए, आलिंगनबद्ध न हो जाए--उसको तंत्र कहता है, "युगनद्ध"; जब तुम अपने भीतर अपने द्वैत को मिला न लो, भीतर संभोग घटित न हो जाए, तब तक तुम अतृप्त रहोगे।


कहै कबीर दीवाना


ओशो 

Popular Posts