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Sunday, November 20, 2016

निर्भयता से स्वयं के मन को एकांत में जानने की कोशिश

आधा घंटे के लिए कम से कम रोज, मन जैसा है उसको वैसा ही सहज रूप से प्रकट होने का मौका देना चाहिए। बंद कर लें उस सम्राट की तरह एक कमरे में अपने को, और मन में जो भी उठता हो उसे मुक्त कर दें और उससे कहें कि जो भी तुझे सोचना है और जो भी तुझे विचारना है, वह सब उठने दें। सारा सेंसर जो हम बिठाए हुए हैं अपने ऊपर कि कोई चीज बाहर न निकल आए, वह सब छोड़ दें। और मन को एक फ्रीडम, एक मुक्ति दे दें कि जो भी उठता हो उठे, जो भी प्रकट होना चाहता हो प्रकट हो। न तो हम कुछ दबाके, न हम कुछ रोकेंगे। हम तो यह जानने को तत्पर हुए हैं कि भीतर क्या है! बुरे और भले का निर्णय भी नहीं करना है, क्योंकि निर्णय करते ही दमन शुरू हो जाता है। जिस चीज को आप बुरा कहते हैं उस चीज को मन दबाने लगता है और जिसको आप अच्छा कहते हैं उसको ओढ़ने लगता है।



तो न तो बुरा कहना है, न भला कहना है। जो भी है मन में, जैसा भी है, उसे वैसा ही जानने के लिए हमारी तैयारी होनी चाहिए। तो इस भांति अगर मन को पूरा मुक्त छोड़ दिया जाए और वह जो भी सोचना चाहता हो, वह जो भी विचारना चाहता हो, जिन भी भावों में बहना चाहता हो, उनमें उसे बहने दिया जाए। बहुत घबड़ाहट होगी, लगेगा कि हम पागल हैं क्या?


लेकिन जो भीतर छिपा है, उसे जान लेना अत्यंत जरूरी है, उससे मुक्त हो जाने के लिए। उससे मुक्त हो जाने के लिए पहली बात उसकी जानकारी और उसकी पहचान है। और उसकी पहचान न हो, उसकी जानकारी न हो, तो जिस शत्रु को हम जानते नहीं उससे हम जीत भी नहीं सकते हैं। उससे जीतने का कोई रास्ता नहीं है। छिपा हुआ शत्रु, पीठ के पीछे खड़ा हुआ शत्रु खतरनाक है उस शत्रु से जो आख के सामने हो, जिससे हम परिचित हों, जिसे हम पहचानते हों।


पहली बात है, मन के ऊपर से सारा सेंसर, सारा प्रतिबंध, जो हमने लगा रखा है सब तरफ से कि मन को हम कहीं उसकी सहजता में प्रकट नहीं होने देते। मन की जितनी स्पांटेनिटी है, जितनी सहजता है, सब रोक रखी है। सब असहज हो गया है, सब झूठा कर डाला है, सब पर्दे ओढ़ लिए हैं, सब झूठे मुंह पहन लिए हैं, और कहीं से भी उसकी सीधी बात को हम प्रकट नहीं होने देते। तो उसे उसकी सीधी बात में प्रकट होने देना, अपने सामने कम से कम शुरू में, ताकि हम परिचित हो सकें एक—एक अंश से मन के, जो भीतर छिपे हैं और दबा दिए गए हैं।


मन का बहुत हिस्सा अंधकार में दबाया हुआ है। वहां हम कभी दीया नहीं ले जाते। अपने ही घर के बाहर के बरामदे में जीते हैं, भीतर के सारे कमरों में अंधकार छाया हुआ है और वहां कितने कीड़े—मकोड़े और कितने जाल और कितने सांप—बिच्छू इकट्ठे हो गए हैं, इसका कोई सवाल नहीं। अंधकार में वे इकट्ठे हो ही जाते हैं। और हम डरते हैं वहां रोशनी ले जाने से कि हमारा घर ऐसा है, यह हम सोचना भी नहीं चाहते, यह हम कल्पना भी नहीं करना चाहते। यह भय छोड़ देना अत्यंत आवश्यक है साधक के लिए।


मस्तिष्क, मन और विचारों के जगत में क्रांति लाने के लिए पहला काम है, वह भय छोड़ कर, निर्भय होकर स्वयं को जानने के लिए तैयार हो जाए।

अंतरयात्रा शिविर 

ओशो 

भीतर कुछ और , बाहर कुछ और



एक रात ऐसा हुआ। एक घर में एक मां थी और उसकी बेटी थी। और उन दोनों को रात में उठ कर नींद में चलने की बीमारी और आदत थी। कोई तीन बजे होंगे रात में, तब वह मां उठी और मकान के पीछे बगिया में पहुंच गई। नींद में ही स्लीप वॉकिंग की आदत थी, नींद में चलने की और बात करने की। वह मकान के पीछे बगिया में पहुंच गई। उसकी लड़की भी उठी, और वह भी थोड़ी देर बाद बगिया में पहुंच गई। जैसे ही उस बूढ़ी ने अपनी लड़की को देखा, वह जोर से चिल्लाई. चांडाल, तूने ही मेरी युवा अवस्था छीन ली है। तूने ही मेरी जवानी छीन ली है। तू जब से पैदा हुई तब से मैं की होनी शुरू हो गई। तू मेरी शत्रु है, तू न होती तो मैं अभी भी जवान होती।


उस लड़की ने जैसे ही अपनी बूढ़ी मां को देखा, वह जोर से चिल्लाई कि दुष्ट, तेरे ही कारण मेरा जीवन एक संकट और बंधन बन गया है। मेरे जीवन के हर प्रवाह में तू रोड़े की तरह खड़ी हुई है। मेरे जीवन के लिए तू एक जंजीर बन गई है।


और तभी मुर्गे ने बांग दी और उन दोनों की नींद खुल गई। लड़की को देखते ही कहा. बेटी, इतनी सुबह क्यों उठ आई? कहीं तुझे सर्दी न लग जाए। चल, भीतर चल! और उस लड़की ने जल्दी से अपनी की मां के पैर पड़े। सुबह से पैर पड़ने का उसका रोज का नियम था। और उसने कहा कि मां, तुम इतनी जल्दी उठ आईं? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती है। इतनी जल्दी नहीं उठना चाहिए। आप चलिए और विश्राम करिए। और नींद में उन्होंने यह कहा और जाग कर उन्होंने यह कहा!


नींद में आदमी जो कहता है वह जागने के बजाय ज्यादा सच्चा होता है, क्योंकि ज्यादा भीतरी होता है। सपने में जो आप देखते हैं, वह आपकी कहीं ज्यादा असलियत है, बजाय उसके जो रोज आप बाजार और भीड़ में देखते हैं। भीड़ का चेहरा बनाया हुआ कृत्रिम चेहरा है। आप अपने गहरे में बिलकुल दूसरे आदमी हैं।


ऊपर से आप कुछ अच्छे अच्छे विचार चिपका कर काम चला लेते हैं, लेकिन भीतर विचारों की आग जल रही है। ऊपर से आप बिलकुल शांत और स्वस्थ मालूम होते हैं, भीतर सब अस्वस्थ और विक्षिप्त है। ऊपर से आप मुस्कुराते मालूम होते हैं, और हो सकता है कि सारी मुस्कुराहट भीतर आंसुओ के ढेर पर खड़ी हो। बल्कि बहुत संभावना यही है कि भीतर जो आंसू हैं, उनको छिपाने के लिए ही मुस्कुराहट का आपने अभ्यास कर लिया हो। आमतौर से आदमी यही करता है।


नीत्शे से किसी ने एक बार पूछा कि तुम हमेशा हंसते रहते हो! इतने प्रसन्न हो! सच में ही क्या? नीत्शे ने कहा अगर तुमने पूछ ही लिया है तो मैं असलियत भी बता दूं। मैं इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग। इसके पहले कि रोना शुरू हो जाए, मैं हंसी से उसको दबा लेता हूं भीतर ही रोक लेता हूं। मेरी हंसी दूसरों को धोखा दे देती होगी कि मैं खुश हूं। और मैं सिर्फ इसलिए हंसता हूं कि मैं इतना दुखी हूं कि हंसने से ही राहत मिल जाती है। अपने को समझा लेता हूं।


बुद्ध को किसी ने हंसते नहीं देखा, महावीर को किसी ने हंसते नहीं देखा, क्राइस्ट को किसी ने हंसते नहीं देखा। कोई बात होनी चाहिए। शायद भीतर अब आंसू नहीं रहे जिन्हें छिपाने के लिए हंसने की जरूरत हो। शायद भीतर दुख नहीं रहा, जिसे ढांकने के लिए मुस्कुराहट सीखनी पड़ती हो। भीतर जो उलटा था, वह विसर्जित हो गया है, इसलिए बाहर अब हंसी के फूल लगाने की कोई जरूरत नहीं रह गई।


जिसके शरीर से दुर्गंध आती हो, उसे सुगंध छिड़कने की जरूरत पड़ती है। और जिसका शरीर कुरूप हो, उसे सुंदर दिखाई पड़ने के लिए चेष्टा करनी पड़ती है। और जो भीतर दुखी है, उसे हंसी सीखनी पड़ती है। और जिसके भीतर आंसू भरे हैं, उसे मुस्कुराहट लानी पड़ती है। और जो भीतर कांटे ही कांटे से भरा है, उसे बाहर से फूल चिपकाने पड़ते हैं।


आदमी बिलकुल वैसा नहीं है जैसा दिखाई पड़ता है, उससे बिलकुल उलटा है। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है। और यह बाहर जो हमने चिपका लिया है इससे दूसरे धोखे में आ जाते तो भी ठीक था, हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं। यह जो बाहर हम दिखाई पड़ते हैं इससे दूसरे लोग धोखे में आते तो ठीक था, वह कोई बड़े आश्चर्य की बात न थी, क्योंकि लोग बाहर से ही देखते हैं। लेकिन हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं, क्योंकि हम भी दूसरों की आंखों में अपनी बनी हुई तस्वीर को अपना होना समझ लेते हैं। हम भी दूसरों के जरिए अपने को देखते हैं, कभी सीधा नहीं देखते— जैसा कि मैं हूं- जैसा कि मेरे भीतर मेरा वास्तविक होना है।

अंतरयात्रा शिविर 

ओशो

ध्यान क्या है?

इस छोटी सी घटना को समझें। चांग चिंग के संबंध में कहा जाता है, वह बड़ा कवि था, बड़ा सौंदर्य-पारखी था। कहते हैं, चीन में उस जैसा सौंदर्य का दार्शनिक नहीं हुआ। उसने जैसे सौंदर्य-शास्त्र पर, एस्थेटिक्स पर बहुमूल्य ग्रंथ लिखे हैं, किसी और ने नहीं लिखे। वह जैसे उन पुराने दिनों का क्रोशे था। बीस साल तक वह ग्रंथों में डूबा रहा। सौंदर्य क्या है, इसकी तलाश करता रहा।

एक रात, आधी रात, किताबों में डूबा-डूबा उठा, पर्दा सरकाया, द्वार के बाहर झाँका-पूरा चांद आकाश में था। चिनार के ऊंचे दरख्त जैसे ध्यानस्थ खड़े थे। मंद समीर बहती थी। और समीर पर चढ़कर फूलों की गंध उसके नासापुटों तक आयी। कोई एक पक्षी, जलपक्षी जोर से चीखा, और उस जलपक्षी की चीख में कुछ घटित हुआ-कुछ घट गया। चांग चिंग अपने आपसे ही जैसे बोला-हाउ मिस्टेकन आइ वाज! हाउ मिस्टेकन आइ वाज! रेज द स्क्रीन एंड सी द वल्र्ड। कैसी मैं भूल में भरा था! कितनी भूल में था मैं! पर्दा उठाओ और जगत को देखो! बीस साल किताबों में से उसे सौंदर्य का पता न चला। पर्दा हटाया और सौंदर्य सामने खड़ा था, साक्षात।

तुम पूछते हो, ‘ध्यान क्या है?’

ध्यान है पर्दा हटाने की कला। और यह पर्दा बाहर नहीं है, यह पर्दा तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारे अंतस्तल पर पड़ा है। ध्यान है पर्दा हटाना। पर्दा बुना है विचारों से। विचार के ताने-बानों से पर्दा बुना है। अच्छे विचार, बुरे विचार, इनके ताने-बाने से पर्दा बुना है। जैसे तुम विचारों के पार झांकने लगो, या विचारों को ठहराने में सफल हो जाओ, या विचारों को हटाने में सफल हो जाओ, वैसे ही ध्यान घट जाएगा। निर्विचार दशा का नाम ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है, ऐसी कोई संधि भीतर जब तुम तो हो, जगत तो है और दोनों के बीच में विचार का पर्दा नहीं है। कभी सूरज को ऊगते देखकर, कभी पूरे चांद को देखकर, कभी इन शांत वृक्षों को देखकर, कभी गुलमोहर के फूलों पर ध्यान करते हुए-तुम हो, गुलमोहर है, सजा दुल्हन ही तरह, और बीच में कोई विचार नहीं है। इतना भी विचार नहीं कि यह गुलमोहर का वृक्ष है, इतना भी विचार नहीं; कि फूल सुंदर हैं, इतना भी विचार नहीं-शब्द उठ ही नहीं रहे हैं-अवाक, मौन, स्तब्ध तुम रह गए हो, उस घड़ी का नाम ध्यान है।

पहले तो क्षण-क्षण को होगा, कभी-कभी होगा, और जब तुम चाहोगे तब न होगा, जब होगा तब होगा। क्योंकि यह चाह की बात नहीं, चाह में तो विचार आ गया। यह तो कभी-कभी होगा।

इसलिए ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना-यह तुम्हारी चाहत से नहीं होता है। यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहने से नहीं होती है। यह तो कभी-कभी, अनायास, किसी शांत क्षण में हो जाती है।

तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या? यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?

ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़धाप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चौबीस घंटे में सब आपाधापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर, टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर लीं; पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर-मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं, क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो। इसलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहां प्रकृति नाचती चारों तरफ। चौबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी-तुम्हारे बावजूद-किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी। एक क्षण को संस्पर्श हो जाएं, एक क्षण को द्वार खुल जाएं, एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला अनुभव हुआ।

मेरी बात को खयाल में ले लेना। ध्यान को सीधा-सीधा नहीं किया जाता, बाधा न दो। इसीलिए तो मैं कहता हूं, नाचो, गाओ। नाचने और गाने में तुम लीन हो जाओ, अचानक तुम पाओगे, हवा के झोंके की तरह ध्यान आया, तुम्हें नहला गया, तुम्हारा रोआं-रोआं पुलकित कर गया, ताजा कर गया। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे इस कला को-ध्यान का कोई विज्ञान नहीं है, कला है। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे कि किन घड़ियों में ध्यान घटता है, उन घड़ियों में मैं कैसे अपने को खुला छोड़ दूं। जैसे ही तुम इतनी सी बात सीख गए, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गयी।

इसलिए मेरे सूत्र अनूठे हैं। मैं तुमसे कहता हूं, जब तुम्हारा मन बहुत सुखी मालूम पड़े। कोई मित्र आया है, बहुत दिनों बाद मिले हैं, गले लगे हैं, गपशप हुई है, मन ताजा है, हलका है, खूब प्रसन्न हो तुम, इस मौके को छोड़ना मत। बैठ जाना एकांत में। इस घड़ी में सुख का सुर बज रहा है, परमात्मा बहुत करीब है।

सुख का अर्थ ही होता है, जब तुम्हारे जाने-अनजाने परमात्मा करीब होता है; चाहे जानो, चाहे न जानो! सुख जब तुम्हारे भीतर बजता है, तो उसका अर्थ हुआ कि परमात्मा तुमसे बहुत करीब आ गया। तुम किसी अनजाने मार्ग से घूमते-घूमते परमात्मा के पास पहुंच गए हो, मंदिर करीब है, इसीलिए सुख बज रहा है। इस घड़ी को चूकना मत। इसी घड़ी में तो जल्दी से खोजना, कहीं किनारे पर ही, हाथ के बढ़ाने से ही मंदिर का द्वार मिल जाएगा।

लेकिन जीवनभर याद करते हैं कि बचपन में बड़ा सुख था। किस सुख की याद है यह? क्या तुम सोचते हो बचपन में तुम्हारे पास बहुत धन था? नहीं था, जरा भी नहीं था, दो-दो पैसे के लिए रोना पड़ता था! एक-एक पैसे के लिए बाप और मां के मोहताज होना पड़ता था! धन तो नहीं था। कोई बड़ा पद था? कहां से होता पद! सब तरह की झंझटें थीं, स्कूल कारागृह था, जहां रोज-रोज बांधकर भेज दिए जाते थे; जहां बैठे-बैठे परेशान होते थे और कुछ समझ में न पड़ता था। और हर कोई दबा देता था, बल भी नहीं था। हर एक छाती पर सवार था।

तो बचपन में सुख कैसा था? न धन था, न पद था, न प्रतिष्ठा थी; न कोई सम्मान देता था, सुख हो कैसे सकता था? सुख कुछ और था। तितलियों के पीछे भागने में ध्यान की किरण उतर आयी थी। सागर के किनारे शंख-सीप बीनने में परम आनंद का क्षण उतरा था। कंकड़-पत्थर बीन लाए थे और समझे थे कि हीरे ले आए, और किस चाल से मस्त होकर आए थे! कुछ भी न था हाथ में, लेकिन कुछ ध्यान की सुविधा थी।

यहूदियों में एक कथा है कि जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो देवता आते हैं और उस बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हैं; ताकि वह भूल जाए उस सुख को जो सुख परमात्मा के घर उसने जाना था, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी-दयावश ऐसा करते हैं वे, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी। अगर वह सुख याद रहे, तो बड़ी कठिन हो जाएगी, तुलना में। तुम फिर कुछ भी करो, व्यर्थ मालूम पड़ेगा। धन कमाओ, पद कमाओ, सुंदर से सुंदर पत्नी और पति ले आओ, अच्छे से अच्छे बच्चे हों, बड़ा मकान हो, कार हो, कुछ भी सार न मालूम पड़ेगा, अगर वह सुख याद रहे। तो यहूदी कथा कहती है कि एक देवता उतरता है करुणावश और हर बच्चे के माथे पर सिर्फ हाथ फेर देता है। उस हाथ के फेरते ही पर्दा बंद हो जाता है, उसे भूल जाता है परमात्मा। सुख भूल गया, फिर यह जीवन के दुखों में ही सोचने लगता है, सुख होगा।

उस पर्दे को फिर से खोलना है, जो देवताओं ने बंद कर दिया है। मुझे तो नहीं लगता कि कोई देवता बंद करते हैं। देवता ऐसी मूढ़ता नहीं कर सकते। लेकिन समाज बंद कर देता है। शायद कहानी उसी की सूचना दे रही है। मां-बाप, परिवार, समाज, स्कूल बंद कर देते हैं, पर्दे को डाल देते हैं। ऐसा डाल देते हैं कि तुम भूल ही जाते हो कि यहां द्वार है, तुम समझने लगते हो दीवार है। ध्यान का अर्थ है, इस पर्दे को हटाना।

और इसे अनायास होने दो, इसे कभी-कभी तुम्हें पकड़ लेने दो-और जब तुम्हें यह तरंग पकड़े तो लाख काम छोड़कर बैठ जाना। क्योंकि इससे बहुमूल्य कोई और काम ही नहीं है। रात हो कि दिन, सुबह हो कि सांझ, फिर मत देखना। कुछ चूकोगे नहीं तुम, कुछ खोएगा नहीं। और अपूर्व होगी तुम्हारी संपदा फिर। और यह संपदा तुम्हारे भीतर पड़ी है, बस पर्दा हटाने की बात है।

‘ध्यान क्या है?’

ध्यान भीतर पड़े पर्दे को हटाना है।
 
एस धम्मो सनंतनो 
 
ओशो

Monday, November 14, 2016

जीवन के बंधनों से मुक्ति कैसे हो? आवागमन कैसे मिटे?





यह प्रश्न इसीलिए उठ आता है कि तुम सुनते हो संतों की वाणी। वे सभी कहते हैं: आवागमन से छूटो, मुक्त हो जाओ बंधनों से। उनकी बात सुन कर तुम भी सोचने लगते हो कि मुक्त हो जाएं बंधनों से, आवागमन से छूट जाएं। परम आनंद होगा। प्रभु का मिलन होगा। मोक्ष होगा। तुम्हारे भीतर वासना पैदा हो जाती है। संतों की बात सुन कर तुम्हारे भीतर मोक्ष के आनंद की वासना पैदा हो जाती है। यह एक नया बंधन हुआ। वासना बंधन है। यह एक नई तृष्णा हुई। तुम चूक गए बात। तुम संतों की बात नहीं समझे। 


संतों की बात अगर ठीक से समझो तो यही समझ में आएगा कि जब तृष्णा न रह जाएगी, वासना न रह जाएगी, तब जो शेष रहेगा वह मोक्ष है। मोक्ष की कोई वासना नहीं हो सकती।


अब तुम पूछते हो: "जीवन के बंधनों से मुक्ति कैसे हो?' 


क्यों? क्या जरूरत पड़ी है? तुम कहोगे: मोक्ष का सुख पाना है। लेकिन सुख पाने की आकांक्षा ही तो बंधन है। 


तुम कहते हो: "आवागमन कैसे मिटे?' 

क्यों? अमृत की उपलब्धि करनी है? लेकिन क्यों? तुम्हारे भीतर एक नई वासना का सूत्रपात हुआ। यह तो संसार का फैलाव है। चूक गए, ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाए बात। और जिस ढंग से पकड़ी, उस ढंग से पकड़ने में ही सब गलत हो गया।


संत कुछ कहते हैं, तुम कुछ समझते हो। तुम्हारी व्याख्या विकृत कर देती है। बुद्ध ने कहा, वासनाओं से छूट जाओ, तो लोग उनसे जाकर पूछते हैं कि ठीक, चलो वासना ही से छूट जाएं। कैसे छूटें? अब यह नई वासना पैदा हो गई कि वासना से कैसे छूटें! अब यह सताएगी। अब यह प्राण में कांटे की तरह चुभेगी। अब यह घाव बनाएगी कि वासना से कैसे छूटें। यह एक नई वासना पैदा हो गई। और यह बड़ी खतरनाक वासना है। पहली वासनाएं तो ऐसी थीं कि शायद पूरी भी हो जाती हैं, लगे ही रहते धुन में तो हो ही जातीं। कोई धन के पीछे लगा ही रहे, लगा ही रहे, एक न एक दिन धन पा ही लेता है। फिर सिर पीटता है कि पा लिया, अब? वह दूसरी बात है। कोई पद के पीछे लगा ही रहे, लगा ही रहे, तो एक दिन पा ही लेता है।


इस संसार में सभी कुछ पाया जा सकता है। लेकिन यह निर्वासना कैसे पाई जाएगी? यह तो बिलकुल नहीं पाई जा सकती। पाने की भाषा ही वहां गलत है। वहां तो समझ ही काम आती है, पाना काम नहीं आता। तुम वासनाओं को समझ लो कि उनमें कष्ट है। मेरे कहने से नहीं। मेरे कहने से समझे तो समझे नहीं। अपनी वासनाओं को ही अनुभव करो। तुम धन के पीछे दौड़-दौड़ कर कितना कष्ट पा रहे हो। फिर धन तुम्हें मिल भी गया, क्या मिला? देखो, निरीक्षण करो! जाग कर अपने जीवन की प्रक्रिया को समझो। अपने मन के ढांचे को पहचानो। जैसे-जैसे तुम्हें कष्ट साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे ही तुम पाओगे कि तुम्हारी मुट्ठी संसार पर खुलने लगी। त्याग नहीं करना पड़ेगा--त्याग हो जाएगा। और यह बड़ी अलग बात है। इसलिए मैं कहता हूं: त्याग तो करना ही मत, क्योंकि त्याग करने का मतलब है कच्चा। त्याग हो जाए। 


तुम हाथ में एक पत्थर लिए चल रहे थे, सोचते थे हीरा है, तो खूब मुट्ठी कस कर बांधी थी। फिर तुम्हें समझ में आना शुरू हुआ, जौहरियों के पास बैठे--जौहरि की गति जौहरि जाने--जौहरियों के पास बैठे, साधु-संग किया, पहचान आनी शुरू हुई, अपनी मुट्ठी का पत्थर गौर से देखने लगे, समझ में आया कि यह तो हीरा नहीं है। क्या तुम सोचते हो फिर मुट्ठी खोलने के लिए कोई आयोजन करना होगा? फिर मुट्ठी कैसे न बांधूं, यह तुम पूछने जाओगे? तुम किसी से कहोगे कि हे गुरुदेव, अब मुझे कुछ रास्ता बताएं कि इस पत्थर को कैसे छोडूं? यह तो बात ही अब व्यर्थ होगी। जिस दिन तुम्हें समझ में आ गया यह पत्थर है, कि कांच का टुकड़ा है, हीरा नहीं है--उसी क्षण मुट्ठी खुल जाएगी, खोलनी नहीं पड़ेगी। खोलने के लिए श्रम नहीं करना पड़ेगा। मुट्ठी खुल जाएगी, पत्थर हाथ से छूट जाएगा। छोड़ना पड़े, तो गलत। छूट जाए, ठीक।


फर्क समझ लेना, बारीक फर्क है। बाहर से जो देखेगा उसको तो कुछ फर्क नहीं दिखाई पड़ेगा। तुम छोड़ रहे हो कि छूट गया, बाहर से तो कुछ पता नहीं चलेगा। बाहर से तो दोनों एक से मालूम होंगे: मुट्ठी खुली, यह पत्थर गिरा। मगर तुम भीतर तो जान सकते हो, भेद बड़ा है। छोड़ा कि छूटा? जो छूटा तो मुक्ति हो गई। जो छोड़ा, फिर लौट आओगे। क्योंकि छोड़ने का मतलब ही यह होता है: अभी दिखा न था कि पत्थर है। मन में तो अभी यही लगा था कि है तो हीरा। मगर अब ये साधु लोग कह रहे हैं कि पत्थर है। ये जौहरी कहते हैं कि पत्थर है, है तो हीरा। मैं तो पचास साल से जानता हूं कि हीरा है। लेकिन ये कहते हैं कि पत्थर है। शायद ठीक कहते हों। शायद मैं गलत होऊं।


लेकिन शायद! पक्का नहीं है। साफ नहीं हुआ है। तुम अभी जौहरी नहीं हो गए हो। अभी तुम्हारी आंख में पहचान नहीं आई है। तो छोड़ना पड़ेगा। तो तुम उपाय करोगे, आसन लगाओगे, सिर के बल खड़े होओगे, माला जपोगे, दौड़ोगे, उछलोगे, कूदोगे--लाख उपाय करोगे कि कैसे इसको छोड़ दूं! पकड़े हो और भीतर मन कह रहा है कि पता नहीं, कहीं धोखा-धड़ी न हो जाए; हीरा हाथ लगा था, कहीं छूट न जाए! कभी-कभी छोड़ भी दोगे, फिर उठा लोगे। छोड़ कर दो कदम जाओगे, फिर लौट आओगे कि छोड़ो भी, किनकी बातों में पड़े हो, पता इनको भी न हो! कौन जाने, या कौन जाने कि मैं इधर छोड़ कर जाऊं और साधु महाराज खुद उठा लें! कोई धोखाधड़ी हो! सिर्फ मुझे समझा रहे हों कि यह पत्थर है, सिर्फ इसलिए कि मैं छोड़ दूं! कौन जाने!


फिर उठा लेते हो। फिर-फिर उठा लेते हो।


कच्चा फल जैसे वृक्ष से अटका रहता है, ऐसे तुम अटके हो। जब फल पक जाता है, छूट जाता है, अपने से छूट जाता है। पका फल गिर जाता है, चुपचाप गिर जाता है।


तुमने पके पत्तों को गिरते देखा! कहीं कोई चोट नहीं लगती। वृक्ष पर कोई घाव नहीं छूटता। वृक्ष को पता ही नहीं चलता। वृक्ष हो सकता है अपनी शांति में डूबा हो; कब सूखा पत्ता गिर गया, वृक्ष को शायद महीनों बाद पता चले जब गौर से देखे कि कहां गया एक पत्ता, यहां हुआ करता था! वह तो अब तक मिट्टी में मिल चुका होगा। लेकिन कच्चा पत्ता जब तुम तोड़ते हो तो वृक्ष को चोट लगती है, घाव लगता है, रेखा छूट जाती है। जो पक जाता है, अपने से छूट जाता है।


तो मैं तुमसे कहूंगा: जीवन को छोड़ने की आकांक्षा मत करो। जीवन को समझो! मैं तुमसे यह नहीं कहता: हीरा छोड़ दो। मैं तुमसे यह कहता हूं: हीरा पहचानो! छोड़ने की जल्दी क्या है? जिस दिन पहचान तुम्हारी पूरी हो जाएगी, जिस दिन तुम जौहरी हो जाओगे, उस दिन तुम पूछने न जाओगे कैसे छोड़ दूं, छूट जाएगा। छोड़ने के लिए कोई आयोजन न करना पड़ेगा।


इसी को मैं परम संन्यास कहता हूं--जो समझ से फलित हो। फिर तुम्हें घर से भागने की जरूरत नहीं है। घर में रहते घर छूट जाता है। पत्नी के पास बैठे-बैठे पत्नी विलीन हो जाती है। बेटे के पास बैठे-बैठे बेटा तुम्हारा नहीं रह जाता। मेरे का भाव विलीन हो जाता है। जहां मेरे का भाव गया वहीं संसार गया।

कठोपनिषद 

ओशो 

ज्योतिषी के पास क्यों जाते हैं?



मैंने सुना है, एक युवक ज्योतिष का अध्ययन करके लौटा। उसका पिता पुराना अनुभवी ज्योतिषी था। उसने अपने बेटे से कहा कि जल्दी मत करना। क्योंकि यह ज्योतिष बडी गहरी कला है। इसमें सत्य कहना आवश्यक नहीं है। इसमें सत्य कहने से बचना पड़ता है। और इसमें सत्य भी कहना हो तो ऐसे ढंग से कहना होता है कि उसका पता न चल पाए। इसमें असत्य भी बोलने पड़ते हैं। यह बड़ी मीठी कला है। इसमें सिर्फ शास्त्र के शान से कुछ न होगा। तू ठहर। हर किसी को ज्योतिष का ज्ञान मत दिखाने लगना।


लेकिन उस युवक ने कहा, कि मैं काशी से लौटा हूं और सब शान पूरा पा लिया हूं और अब रुकना मुझसे नहीं हो सकता। मैं जाता हूं सम्राट के पास। और जितना मैं जानता हूं उससे मैं घोषणा कर सकता हूं कि क्या होने वाला है। उसने कहा, तेरी मर्जी। मैं भी पीछे आता हूं।


बाप ने कहा कि पहले मैं सम्राट को कुछ कहूं उसका हाथ देखूं फिर तू देखना। बाप ने हाथ देखा, और उसने कहा कि साम्राज्य और बढ़ेगा; तेरे जीवन में सूर्योदय होने के करीब है। युवक थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि रेखाए कुछ और कहती हैं, यह आदमी मरने के करीब है।


बाप को सम्राट ने सम्मानित किया, धन दिया, कीमती वस्तुएं भेंट कीं। बेटे ने हाथ देखकर कहा कि एक बात भर निश्चित है कि तुम सात दिन से ज्यादा नहीं जीओगे। सम्राट ने उसे पकड़वाकर कोड़े लगवाए। बाप खड़ा देखता हंसता रहा। पिटे हुए लड़के को लेकर घर लौटा'। उससे कहा कि देख, शास्त्र में जो लिखा है वह समझदारों के लिए है। समझदार कहां हैं लेकिन! वह मुझे भी दिख रहा था कि सात दिन में मरेगा, लेकिन उसके पहले अपने को मरना हो तो इसकी घोषणा करनी है। सत्य कहना काफी नहीं है। वह क्या चाहता है? उसकी वासना क्या है? उसकी हाथ की रेखा से ज्यादा उसकी इच्छाओं की रेखाओं को पहचानना जरूरी है।


इसलिए जब आप ज्योतिषी के पास जाते हैं, तो वह आपकी इच्छाओं की रेखाएं पहचानता है। वह कोशिश करता है, वासनाएं कहां दौड़ रही हैं, उनमें जितनी दूर तक सहयोग दे सके, देता है।

मरते दम तक भी आदमी यह सुनना नहीं चाहता है कि वह मर रहा है, या मरने वाला है।

कठोपनिषद 

ओशो

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