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Tuesday, November 10, 2015

लड़ो मत वासना से

झेन फकीरों की कथा है : एक बूढ़ा फकीर और एक युवक फकीर आश्रम वापिस लौट रहे हैं। छोटी-सी नदी पड़ती है। और एक सुंदर युवती नदी पार करने को खड़ी है, लेकिन डरती है। अनजानी नदी है, पहाड़ी नदी है, गहरी हो, खतरनाक हो, बड़ी तेज धार है। बूढ़ा संन्यासी तो नीचे आंख करके जल्दी से नदी में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि वह समझ जाता है कि यह पार होना चाहती है, हाथ का सहारा मांगती है, लेकिन वह डर जाता है। हाथ का सहारा! इस बात में पड़ना ठीक नहीं! लेकिन युवक संन्यासी उसके पीछे ही चला आ रहा है। वह युवती से पूछता है कि क्या कारण है। सांझ हुई जा रही है, जल्दी ही सूरज डूब जाएगा और युवती अकेली छूट जाएगी। युवती कहती है : मैं बहुत डरी हुई हूं। पानी में उतरते घबड़ाती हूं। मुझे उस पार जाना है।

तो वह युवक संन्यासी उसे कंधे पर ले लेता है। बूढ़ा संन्यासी उस पार पहुंच गया, तब उसे याद आती है कि मेरे पीछे एक युवा संन्यासी भी आ रहा है, कहीं वह इस झंझट में न पड़ जाए! लौटकर देखता है तो उसकी आंखों को भरोसा ही नहीं आता है : वह कंधे पर बिठाए हुए लड़की को नदी पार कर रहा है! बूढ़ा तो आग से जल-भुन गया। युवक संन्यासी ने युवती को दूसरे किनारे उतार दिया, फिर दोनों चुपचाप चलने लगे। दो मील तक कोई बात न हुई। दो मील बाद बूढ़े को बर्दाश्त के बाहर हो गया। उसने कहा : यह ठीक नहीं हुआ और मुझे गुरु को जाकर कहना ही पड़ेगा; नियम का उल्लंघन हुआ है। तुमने उस सुंदर युवती को कंधे पर क्यों बिठाया!

उस युवक ने जो कहा, वह याद रखना। युवक ने कहा : “आप बहुत थक गए होंगे। मैं तो युवती को नदी के तट पर ही उतार आया; आप अभी कंधे पर बिठाए हुए हैं! आप बहुत थक गए होंगे! बात आई और गई भी हो गई, अभी तक आप भूले नहीं!’

जिसको तुम महात्मा कहते हो, वह आंख तो झुका लेगा; लेकिन आंख झुकाने से कहीं वासनाएं समाप्त होती हैं! आंख फोड़ भी लो तो भी वासनाएं समाप्त नहीं होती। आंखों पर पट्टियां बांध लो, तो भी वासनाएं समाप्त नहीं होती, वासनाओं का आंखों से क्या संबंध है? क्या तुम सोचते हो, अंधे को वासना नहीं होती? अंधे को इतनी ही वासना होती है, जितनी तुमको; शायद थोड़ी ज्यादा ही होती है। क्योंकि उसके पास, बेचारे के पास, उपाय भी नहीं; असहाय है, वह तड़फता है। उसके भीतर भी प्रबल आकांक्षा है, प्रबल वेग है। तो आंख बंद कर लेने से, आंख झुका लेने से क्या होगा? किसको धोखा दे रहे हो?

तो एक तो साधारण आदमी है, जिसके शरीर में ज्वर उठता है वासना का, सौंदर्य को देखकर। और एक तुम्हारा तथाकथित महात्मा है; उसके भीतर भी ज्वर उठता है, लेकिन वह आंख झुका लेता है। दोनों के भीतर शरीर भागना चाहता है। एक भागने देता है, दूसरा शरीर को जबरदस्ती रोक लेता है। शायद लौटकर वह दो दिन उपवास करेगा पश्चात्ताप में, या शरीर पर कोड़े मारेगा।

सूफी फकीर, ईसाई फकीर, झेन फकीर, सारी दुनिया में हजारों किस्म के फकीर हुए, जिनमें न मालूम कितने-कितने ढंग के रोग व्याप्त हो गए। कोड़े मारनेवालों की जमात रही है। उपवास करने वालों की जमात रही है रात-रात भर जागन वालों की जमात रहती है। कमर में कीले चुभाने वाले, बैल्ट बांध लेनेवालों की जमात रही है। जूतों में कीले अंदर की तरफ निकालकर घाव पैरों में बनाकर चलनेवालों की जमात रही है। आंखें फोड़ लेनेवाले, जननेंद्रियां काट देनेवालों की जमात रही है। मगर ये रुग्ण जमातें हैं। पलटू इसके समर्थन में नहीं हैं।

पलटू कहते हैं : एक और रास्ता है। लड़ो मत वासना से। लड़कर कहां जाओगे? घाव बन जाएंगे। कुछ और बड़ी वासना को जगा लो–परमात्मा की वासना। किसी और बड़े प्रेम से थोड़े भर जाओ। थोड़ी आंख ऊपर उठाओ। इस सौंदर्य में भी इसीलिए रस है कि इस सौंदर्य में क्षणभर को परमात्मा के सौंदर्य की थोड़ी-सी छाया पड़ी है। तुम छाया से ग्रसित हो जाते हो, क्योंकि मूल को नहीं देखा है। तुम तस्वीर से जकड़ जाते हो, क्योंकि जिसकी तसवीर है उसको तुमने नहीं देखा है। उसको देख लो : मिल गई जागीर। फिर लड़ना नहीं पड़ता। फिर जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती। फिर एक मालकियत आती है, जो बड़ी सहज है।

अजहुँ चेत  गंवार 

ओशो 

Friday, October 9, 2015

सहज विद्या

आत्मज्ञान दूसरे से सीखने की कोई सुविधा नहीं है; वह भीतर सफुरित होता है। जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, जैसे झरने बहते हैं ऐसा तुम्हारे भीतर जो बह रहा है, कलकल नाद कर रहा है, वह तुम्हारा ही है सहज उसे किसी से लेना नहीं। कोई गुरु उसे दे नहीं सकता; सभी गुरु उस तरफ इशारा करते हैं। जब तुम पाओगे, तब तुम पाओगे कि यह भीतर ही छिपा था; यह अपनी ही संपदा है। इसलिए ‘सहज विद्या’ कहा है।

दो तरह की विद्याएं है। संसार की विद्या सीखनी है तो दूसरे से सीखनी पड़ेगी; वह सहज नहीं है। कितना ही बुद्धिमान आदमी हो, संसार की विद्या दूसरे से सीखनी पड़ेगी। और, कितना ही छू आदमी हो, तो भी आत्मविद्या दूसरे से नहीं सीखनी पड़ेगी। वह तुम्हारे भीतर है। बाधा मोह की है। मोह कट जाता है—बादल छंट जाते हैं, सूर्य निकल आता है!

ऐसे जागृत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का परित्कृरण है  ‘ऐसा बोध होता है। और, जिस दिन सहज विद्या का जन्म होता है, जागृति आती है तो दिखाई पड़ता है कि ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है।’
तब तुम केंद्र हो जाते हो। तुम बहुत चाहते थे कि सारे जगत के केंद्र हो जाओ, लेकिन अहंकार के सहारे वह हीं  हो पाया। हर बार हारे। और अहंकार खोते ही तुम केंद्र हो जाते हो। तुम जिसे पाना चाहते हो, वह तुम्हें मिल जायेगा; लेकिन तुम गलत दिशा में खोज रहे हो। तुम प्रांत मार्ग पर चल रहे हो। तुम जो पाना चाहते हो, वह मिल सकता है; लेकिन जिसके सहारे तुम पाना चाहते हो, उसके सहारे नहीं मिल सकता; क्योंकि तुमने गलत सारथी चुना है। तुमने वाहन गलत चुन लिया है। 

अहंकार से तुम कभी भी विश्व के केंद्र न बन पाओगे। और, निरहंकारी व्यक्ति तख्ता विश्व का केंद्र बन जाता है। बुद्धत्व प्रगट होता है बोधिवृक्ष के नीचे, सारी दुनियां परिधि हो जाती है; सारा जगत परिधि हो जाता है; बुद्धत्व केंद्र हो जाता है। सारा जगत फिर मेरा ही फैलाव है। फिर सभी किरणें मेरी हैं। सारा जीवन मेरा है लेकिन, यह ‘मेरा’ तभी फलित होता हैं, जब ‘मैं’ नहीं बचता। यही जटिलता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक तुम कितना ही बड़ा कर लो ‘मेरे’ के फैलाव को; कितना ही बड़ा साम्राज्य बना लो तुम धोखा दे रहे हो।
 
काफी चल चुके हो। अनेक अनेक जन्मों में भटक चुके हो, फिर भी सजग नहीं हो! 

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन हवाई जहाज में सवार हुआ। अपनी कुर्सी पर बैठते ही उसने परिचारिका को बुलाया और कहा कि ‘सुनो! तेल, पानी, हवा, पेट्रोल, सब ठीक ठीक हैं न? ‘उस परिचारिका ने कहा कि ‘तुम अपनी जगह शांति से बैठो। यह तुम्हारा काम नहीं। यह हमारी चिंता है।’ नसरुद्दीन ने कहा कि ‘फिर बीच में उतरकर धक्का देने के लिए मत कहना।’

मुझे किसी ने बताया तो मैंने नसरुद्दीन को पूछा, ‘ऐसी बात घटी?’ उसने कहा, ‘घटी। दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। बस का जला हवाई जहाज में भी चिंता रखता है बीच में उतरकर धक्का न देना पड़े।’ तुम बहुत बार जल चुके हो। छाछ को भी फूंक फूंक कर पीना तो दूर, तुमने अभी दूध को भी फूंक फूंक कर पीना नहीं सीखा।

जीवन की बड़ी से बड़ी दुविधा यही है कि हम अनुभव से सीख नहीं पाते। लोग कहते हैं कि हम अनुभव से सीखते हैं; लेकिन दिखाई नहीं पडता। कोई अनुभव से सीखता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। फिर फिर तुम वही भूलें करते हो। नयी भी करो, तो भी कुछ कुशलता है। नयी भी करो तो भी कुछ जीवन में गति आए, प्रौढ़ता आए। वही वही भूलें बार बार करते हो, पुनरुक्ति करते हो।

चित्त एक वर्तुल है। तुम उसी उसी में घुमते रहते हो चाक की तरह और वह चाक चलता है तुम्हारे मोह से। मोह को तोड़ो, चाक रुक जायेगा। चाक के रुकते ही तुम पाओगे कि तुम केंद्र हो। तुम्हें केंद्र बनने की जरूरत नहीं है, तुम हो। तुम्हें परमात्मा बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम हो ही। इसलिए वह विद्या सहज है।

ऐसे जाग्रत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्कुरण है’ ऐसा बोध होता है। और, इस बोध का परम आनंद है। इस बोध में परम अमृत है। इस बोध के आते ही तुम्हारे जीवन से सारा अंधकार खो जाता है सारा सुख, सारी चिंता; तुम एक हर्षोन्माद से भर जाते हो; एक मस्ती, एक गीत का जन्म होता है तुम्हारे जीवन में; तुम्हारी श्वांस श्वांस पुलकित हो जाती है, सुगंधित हो जाती है किसी अज्ञात के स्रोत से।

वह सहज विद्या है; कोई शास्त्र उसे सिखा नहीं सकता। कोई गुरु उसे सिखा नहीं सकता। लेकिन, गुरु तुम्हें बाधाएं हटाने में सहयोगी हो सकता है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना।

उस परम विद्या को सीखने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन परम विद्या के मार्ग में जो जो बाधाएं है, उनको दूर करने का उपाय सीखना पड़ता है। ध्यान से वह परम संपदा नहीं मिलेगी; ध्यान से केवल दरवाजे की चाबी मिलेगी। ध्यान से केवल दरवाजा खुलेगा। वह परम संपदा तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो वह तत्वमसि! वह ब्रह्म तुम ही हो।

सब उपाय बाधाएं हटाने के लिए हैं मार्ग के पत्थर हट जाएं। मंजिल, मंजिल तुम अपने साथ लिए चल रहे हो। सहज है ब्रह्म; कठिनाई है तुम्हारे मोह के कारण। कठिनाई यह नहीं है कि ब्रह्म को मिलने में देर है; कठिनाई यह है कि संसार को तुमने इतने जोर से पक्का है कि जितनी देर तुम छोड़ने में लगा दोगे, उतनी ही देर उसके मिलने में हो जाएगी। इस क्षण छोड़ सकते हो इसी क्षण उपलब्धि है। रुकना चाहो जन्मों जन्मों से तुम रुके हो, और भी जन्म जन्म रुक सकते हो। वैसे काफी हो गया, जरूरत से ज्यादा रुक लिये। अब और रुकना जरा भी अर्थपूर्ण नहीं है।

समय पक गया है; अब संसार के वृक्ष से तुम्हें गिर जाना चाहिए। और, डरो मत कि वृक्ष से गिरेंगे तो खो जाएंगे। खो जाओगे, लेकिन तुम्हारा जो व्यर्थ है वही खोएगा जो सार्थक है, वह अनंत गुना होकर उपलब्ध हो जाता है।



शिव सूत्र 

ओशो 

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