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Friday, September 25, 2020

भगवान, मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं। प्रभु से क्या कहूं, क्या न कहूं, कुछ भी सूझता नहीं है। फिर सोचता हूं कि यह कैसी प्रार्थना! आप मार्ग दिखावें।



प्रार्थना भाव है। और भाव शब्द में बंधता नहीं। इसलिए प्रार्थना जितनी गहरी होगी उतनी निःशब्द होगी। कहना चाहोगे बहुत, पर कह न पाओगे। प्रार्थना ऐसी विवशता है, ऐसी असहाय अवस्था है। शब्द भी नहीं बनते। आंसू झर सकते हैं। आंसू शायद कह पाएं लेकिन नहीं कह पाएंगे कुछ। पर शब्दों पर हमारा बड़ा भरोसा है। उन्हीं के सहारे हम जीते हैं। हमारा सारा जीवन भाषा है।






तो स्वभावतः प्रश्न उठता है कि परमात्मा के सामने भी कुछ कहें। जैसे कि परमात्मा से भी कुछ कहने की जरूरत है! हां, किसी और से बोलोगे तो बिना बोले न कह पाओगे। किसी और से संबंधित होना हो तो संवाद चाहिए।



परमात्मा से संबंधित होना हो तो शून्य चाहिए। संवाद नहीं, वहां मौन ही भाषा है। जो कहने चलेगा, चूक जाएगा। जो न कह पाएगा वही कह पाएगा।



इसे खूब गहराई से हृदय में बैठ जाने दो; नहीं तो बस तोतों की तरह रटे हुए शब्द दोहराओगे। कोई गायत्री पढ़ेगा, कोई नमोकार पढ़ेगा। ओंठ तो दोहराते रहेंगे मंत्रों को और भीतर भीतर कुछ भी न होगा, क्योंकि भीतर कुछ होता तो ओंठ चुप हो जाते। भीतर कुछ होता तो कहां गायत्री, कहां नमोकार, कहां कुरान! कब के खो गए होते! भीतर शून्य होता, शब्दों को पी जाता। भीतर शून्य होता, शब्द शून्य में लीन हो जाते। जब तक गायत्री न भूले, गायत्री पूरी न होगी। जब तक नमोकार याद रहा तब तक नमोकार याद ही नहीं। जब तक कुरान की आयत तुम दोहराते रहे तब तक जानना अभी कुरान के जगत् से तुम्हारा संबंध नहीं हुआ। वह तो उतरता है शून्य में, वह तो बोलता है मौन में।

परमात्मा से तो केवल एक ही नाता बन सकता है हमारा, एक ही सेतु--वह है, चुप्पी का। परमात्मा और कोई भाषा जानता नहीं। जमीन पर तो हजारों भाषाएं बोली जाती हैं। फिर एक ही जमीन नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, कम-से-कम पांच हजार जमीनों पर जीवन होना चाहिए। होना ही चाहिए पांच हजार पर तो। इससे ज्यादा पर हो सकता है, कम पर नहीं। फिर उन जमीनों पर और हजारों-हजारों भाषाएं होंगी। इन सारी भाषाओं को परमात्मा जानेगा भी तो कैसे जानेगा? एक ही भाषा तो विक्षिप्त करने को काफी होती है। इतनी भाषाएं, एक अकेला परमात्मा! बहुत बोझिल हो जाएंगी।



भाषा सामाजिक घटना है, भाषा नैसर्गिक घटना नहीं है। भाषा प्राकृतिक घटना नहीं है, मनुष्य की ईजाद है। बड़ी ईजाद है, महत्त्वपूर्ण ईजाद है, पर प्रार्थना के जगत् में उसका कोई उपयोग नहीं है। जैसे नाव को पानी में चलाओ तो ठीक, जमीन पर घसीटो तो पागल हो। नाव पानी में ठीक है, जमीन पर खींचोगे तो व्यर्थ बोझ ढोओगे। ऐसे ही भाषा को प्रार्थना में मत ले जाओ। नाव को जमीन पर मत खींचो। भाषा को छोड़ दो। और तुम सौभाग्यशाली हो। यह अपने से हो रहा है। यह किए-किए नहीं होता।



तुम पूछते हो मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं। यही तो प्रार्थना है। पहचानो, प्रत्यभिज्ञा करो, यही प्रार्थना है। यह चुप हो जाना ही प्रार्थना है। मैं तुम्हारी अड़चन समझता हूं। तुम सोचते होओगे गायत्री पढ़ूं, नमोकार पढ़ूं, कुरान पढ़ूं, कुछ कहूं। प्रभु की स्तुति करूं। कुछ प्रशंसा करूं परमात्मा की। कुछ निवेदन करूं हृदय का। और नहीं कर पाते हो निवेदन; जैसे जबान पर जंजीर पड़ गयी, जैसे ओंठ किसी ने सी दिए। तो चिंता उठती है, यह कैसी प्रार्थना! न बोले न चाले, तो उस तक आवाज कैसे पहुंचेगी? उस तक आवाज पहुंचाने की जरूरत ही नहीं है। 


दूलनदास ने कहा न अभी कुछ दिन पहले कि वह परमात्मा बहरा नहीं है! तुम चिल्लाओ इसकी कोई जरूरत नहीं है। सच तो यह है, इसके पहले कि भाव तुम्हारे हृदय में उठे, उस तक पहुंच जाता है। इसके पहले कि प्रार्थना की जाए, सुन ली जाती है। कहने का उपाय ही नहीं है। कहने के पहले ही बात पहुंच गयी। होनी चाहिए बात, हृदय में भाव होना चाहिए सघन, प्रेमसिक्त! तुम भाव से मग्न होकर मौन रह जाओ, प्रार्थना हो गयी। उसी मौन में निवेदन हो जाएगा। वही मौन निवेदन है। उस मौन में ही जो नहीं कहा जा सकता, नहीं कभी कहा गया है, नहीं कभी कहा जाएगा--कह दिया जाएगा।


प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया


ओशो


संबोधि का स्वप्न





अभी उस दिन ही मैं एक सुंदर कथा पढ़ रहा था:

एक पादरी के पास एक तोता था और उसे बोलना सिखाने के हर संभव प्रयत्न और प्रयास के बाद भी वह तोता चुप ही रहा। इस बात का जिक्र पादरी ने एक दिन एक वृद्धा से किया, जो उस से मिलने के लिए आई थी। उसे वृद्धा को कुछ दिलचस्पी हुई इस बात में और उसने तुरंत कहा: ‘मेरे पास भी एक तोता है जो कि बोलता नहीं। यह अच्छा रहेगा यदि हम इन दोनों पक्षियों को साथ-साथ रख दें और फिर देखे कि क्या होता है।

और फिर उन दोनों ने ऐसा ही किया। दोनों तोतो को एक बड़े पींजड़े में रख दिया गया, और दोनों कुछ दूरी पर जाकर बैठ गए जहां से वह उनकी बात को सून सके। शुरू में तो कुछ देर शांति छाई रही, उसके बाद कुछ पंख पड़फड़ाने की आवाज आई, और फिर वृद्ध महिला के तोते को कहते सूना गया, ‘कुछ थोड़ा सा प्रेम-श्रेम के विषय में क्या इरादा है, प्रिय आपका? जिसके उत्तर में पादरी के तोते ने कहा, ‘इसी सबके लिए तो मैं वर्षों से मौन प्रतीक्षा और प्रार्थना करता आया हूं--आज मेरा सपना पूरा हुआ। आज मैं बोल सकता हूं।’

यदि तुम प्रेम और प्रसिद्धि के लिए प्रतीक्षा और प्रार्थना कर रहे हो, सपने देख रहे हो, एक दिन यह घटना घटेगी ही। यह कोई मुश्किल बात नहीं है। बस जरा सी हठधर्मिता चाहिए...और यह होता है। व्यक्ति बस प्रयत्न करता जाए, करता ही चला जाए...यह घटेगी ही, क्योंकि यह तुम्हारा सपना है। आखिर तुम कोई न कोई ऐसा स्थान पा ही लोगे जहां तुम इसका प्रक्षेपण कर सको और तुम इसे देख सकते हो, और मानों कि यह सच ही हो गया है।

जब तुम किसी स्त्री या पुरुष के प्रेम में पड़ते हो, तुम सच में कर क्या रहे हो? तुम एक सपना अपने भीतर संजो रहे हो, उस सपने को लिए चल रहे हो, अब अचानक यह स्त्री एक पर्दे का काम करती है। और आप को लगता है कि आपका स्वप्न पूरा हुआ है। यदि तुम सपने देखते ही जाओ, एक न एक दिन तुम्हें कोई पर्दा मिल ही जाएगा, कोई न कोई तुम्हारे लिए पर्दा बन ही जाएगा और तुम्हारा सपना वहां चित्रित बन उभर आयेगा। एक सजीव सी प्रतिछाया मात्र।

परंतु संबोधि कोई सपना नहीं है। यह तो सब सपनों को छोड़ना है। इसलिए कृपया संबोधि के विषय में सपना मत देखो। प्रेम सपने के द्वारा संभव है, सच तो यह है कि यह केवल सपने के द्वारा ही देखा जा सकता है, उसी के द्वारा ही संभव है। प्रेम स्वप्नदर्शियों के लिए ही है। परंतु संबोधि सपने के द्वारा संभव नहीं है--सपने के कारण ही तो यह असंभव हो जाती है।

संबोधि का सपना देखा और आप इससे चुकते चले जाते हो। इसके लिए प्रतीक्षा करो और तुम इससे चूक जाओगे। फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें करना यह चाहिए कि तुम सपने की कार्य विधि को ठीक से समझ लो। तुम संबोधि को तो अलग ही उठा कर रख दो। यह तुम्हारा काम नहीं है। तुम तो बस सपनों की कार्य प्रणाली को ठीक से समझ लो। और तुम यह देखो कि सपने किस से काम करते हैं। उसकी समझ ही तुम्हारे भीतर एक तरह की स्पष्टता लाएगी। उस स्पष्टता में तुम्हारे सपने धीरे-धीरे कम होते चले जाएंगे, और एक दिन वह अदृश्य हो जाते है।

जब सपना नहीं होता, हमारा मन सफटिक परदर्शी होता है, हमारी आंखें निर्मल हाती है, तब संबोधि का कमल खिलता है। 

 

तंत्र विज़न 

 

ओशो 

 

 

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