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Tuesday, March 27, 2018

सच्चा प्रेम हो गया है!

एक और सज्जन ने भी ऐसा ही प्रश्न लिखा है कि मेरी पत्नी भी है, मगर मैं एक दूसरी लड़की के "सच्चे प्रेम में पड़ गया हूं! आप ऐसा आशीर्वाद दें कि मेरा "सच्चा प्रेम', मेरा हृदय से आया हुआ प्रेम, उसके हृदय में भी मेरे प्रति प्रेम पैदा कर दे!
 
अब इन सज्जन को मैं क्या कहूं? कौन-सा आशीर्वाद दूं?

सच्चा प्रेम!--और एक लड़की से हो गया है! तो फिर सुंदरदास को जो हुआ था, वह झूठा प्रेम था? फिर रज्जब को जो हुआ, वह झूठा प्रेम था? फिर मीरा को जो हुआ, वह झूठा प्रेम था?

और इतना ही नहीं कि उन्हें सच्चा प्रेम हो गया है; अब उनके सच्चे प्रेम के बल पर उस स्त्री को भी सच्चा प्रेम इनके प्रति होना चाहिए!

सत्याग्रह करो! जाकर उसके घर के सामने बिस्तर लगाकर लेट जाओ। और गांव में तो लफंगे तो बहुत हैं ही, वे आ जाएंगे। अखबारों में खबर भी छप जाएगी। ऐसी ही अखबारों में तो खबरें छपती ही हैं। सत्याग्रह कर दो सच्चे प्रेम के लिए, कि जब तक इस स्त्री का प्रेम मुझसे नहीं होगा, भोजन ग्रहण नहीं करेंगे; जब तक यह स्त्री मुसंबी का रस लेकर खुद ही नहीं आयेगी।...तो तुम्हारा नाम भी जग-जाहिर हो जायेगा, बड़े नेताओं में भी गिनती हो जायेगी, और मौका लगा तो कभी कोई प्रधानमंत्री भी हो सकते हो। ऐसे ही तो लोग प्रधानमंत्री हो जाते हैं। सत्याग्रह करो, चुको मत।

ऐसा हुआ एक गांव में। हो चुका है, इसलिए कह रहा हूं। एक सज्जन को ऐसा ही सच्चा प्रेम हो गया था जैसा तुम्हें हुआ है। ऐसे दुर्भाग्य कई का घटते हैं। ऐसी मुसीबतें सभी को आती हैं। पहुंच गया किसी राजनैतिक नेता से सलाह लेने कि अब क्या करूं, अब आप ही बताओ, कि आप तो हर चीज का उपाय निकाल लेते हो। और राजनेता क्या जाने, उसने कहा, सत्याग्रह के सिवाय और कोई उपाय नहीं! और अगर प्रेम सच्चा है तो सत्याग्रह करना ही चाहिये। तुम बिस्तर लगा दो उसके सामने, डटकर बैठ जाओ और दस-पांच लोगों को इकट्ठा कर लो जो शोरगुल पीटें और गांव में खबर करें कि सत्याग्रह हो रहा है। और जब तक वह स्त्री विवाह के लिए राजी नहीं होगी, सत्याग्रह जारी रखो। बदनामी से घबड़ायेगा बाप, मां, और यह भी डर लगेगा कि अब यह सारे गांव में खबर हो गई, अब दूसरे किसी और से विवाह करना भी मुश्किल हो जायेगा। मुसीबत खड़ी कर दो। और बिलकुल पड़ रहना आंखें बंद करके कि मर ही जाओगे।

उस आदमी ने यही किया। बाप घबड़ाया, भीड़-भाड़ इकट्ठी होनी लगी, और लोग नारे लगाने लगे सच्चे प्रेम की जीत होनी चाहिए!...जो सच्चा प्रेम हो तो जीत होनी ही चाहिये। बेचारे बाप की कौन सुने! उस स्त्री की कौन सुने! यह प्रेमी बिलकुल मर रहा है। जब भी कोई आदमी मरने लगे तो फिर लोग इसकी फिकर नहीं करते कि क्या है सही, क्या है गलत--मरनेवाले की सुनते हैं। यही तो सत्याग्रह की कुंजी है। मरनेवाले एकदम ठीक हो जाता है। जब दांव पर लगा रहा है अपनी पूरी जिंदगी, तो इसकी बात ठीक होगी ही। देखो तो बेचारा! मजनू और फरिहाद ने भी जो नहीं किया, यह आधुनिक मजनू कर रहा है। मजनू, फरिहाद को सत्याग्रह का पता नहीं था। गांधी बाबा तब तक हुए नहीं थे।

बाप बहुत घबड़ाया। उसने कहा, अब करना क्या है? अपने मित्रों से पूछा, अब मैं करूं क्या? अखबारों में खबर छपने लगी, दबाव पड़ने लगा, फोन आने लगे और घर के चारों तरफ लोग घेरा डालने लगे, कि यह तो अब सत्याग्रह तो पूरा करना ही पड़ेगा, आदमी की जान का सवाल है। उसने पूछा कि इसको सलाह किसने दी है? पता चला, फलां राजनेता ने, तो उसने...उसके विरोधी के पास जाकर सलाह ले लेनी चाहिए कि अब क्या करना? क्योंकि राजनेताओं को पता होता है एक-दूसरे की तरकीबें। उसके विरोधी ने कहा, कुछ फिकर मत कर। एक वेश्या को मैं जानता हूं। बस मरने के करीब ही है वह। मर भी गई तो कुछ हर्जा नहीं। और वेश्या है, सड़ चुकी है। उसको ले आ, दस-पांच रुपये का खर्चा है। उसका भी बिस्तर लगवा दे। और यह आदमी पूछे कि भई, माई, तू यहां बिस्तर क्यों लगा रही है, तो उससे कहना कि मुझे तुझसे सच्चा प्रेम हो गया है। तू भी सत्याग्रह करवा दे, अब इसे सिवा कोई उपाय नहीं है। यह आदमी भाग जायेगा रात में ही, क्योंकि अगर दो सत्याग्रह हो जायें तो बड़ा मुश्किल हो जाता है।

यही हुआ। जब माई ने आकर बिस्तर लगा दिया, उस आदमी ने पूछा कि माई तू यह क्या कर रही है? उसने कहा कि मुझे तुझसे प्रेम हो गया है। तेरे सत्याग्रह की खबर मैंने क्या सुनी, सच्चा प्रेम मेरे हृदय जग गया।

उसने कहा, तेरे में तो मैं प्रेम जगाना भी नहीं चाहता था। यह तो तीर कुछ गलत जगह लग गया।
पर उस स्त्री ने कहा कि जब तक तुम मुसंबी का रस न पिलाओगे, तब तक मैं अब हटनेवाली नहीं, चाहे मर ही न जाऊं। वह तो मरने के करीब थी। रात को बोरिया-बिस्तर बांध कर वह युवक भाग गया। उस गांव से ही भाग गया, क्योंकि अब वह सारा पासा पलट गया।

तुम पूछ रहे हो कि तुम्हारा सच्चा प्रेम किसी स्त्री से हो गया है।...सत्याग्रह करो भाई! तुम्हें मेरी बात अच्छी नहीं लगेगी। तुम अपनी बीमारियों से छूटना ही नहीं चाहते। तुम तो अपनी बीमारियों को अच्छे-अच्छे नाम देते हो।

तुम्हारा प्रेम कितना प्रेम है? तुम्हारे प्रेम की गहराई क्या, सच्चाई क्या? आज है, कल हवा हो जाता है। कपूर की तरह उड़ जाता है। क्षणभंगुर है। पानी का बबूला है। बड़े-बड़े प्रेम यहां मिट्टी में पड़े सड़ गये हैं। सच्चा ही प्रेम अगर हो तो प्रार्थना बनता है। और कोई दूसरा उपाय नहीं।

हरि बोलो हरि बोल 

ओशो

संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?

संसार का स्वभाव। स्वप्न का स्वभाव। स्वप्न यथार्थ नहीं है। इसलिए स्वप्न में कोई सहलता नहीं हो सकती।
 
तुम ऐसा प्रश्न पूछ रहे हो, जैसे कोई आदमी कागज पर लिखे हुए भोजन को "भोजन' समझ ले; पाकशास्त्र की किताब से पन्ने फाड़ ले और चबा जाये, और कहे कि पाकशास्त्र में तो सभी तरह के भोजन लिखें हैं, फिर पाकशास्त्र के पन्ने चबाने से तृप्ति क्यों नहीं होती?

कागज पर लिखा हुआ "भोजन' भोजन नहीं है। सपने में मिला हुआ धन धन नहीं है। संसार में जो भी मिलता है, मिलता नहीं, बस मिलता मालूम पड़ता है। क्योंकि तुम सोये हुए हो--तुम्हारे सोये हुए होने का नाम संसार है।


संसार का क्या अर्थ है? ये वृक्ष, ये चांद, ये तारे, ये सूरज, ये लोग--यह संसार है? तो तुम गलत समझ गये। संसार का मतलब है तुम्हारी आकांक्षाओं का जोड़; तुम्हारे सपनों का जोड़। संसार तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। तुम्हारी निद्रा, तुम्हारी घनीभूत मूर्च्छा का नाम संसार है। मूर्च्छा में तुम जो भी कर रहे हो उससे कोई तृप्ति नहीं होगी। मूर्च्छा में तुम्हें होश ही नहीं कि तुम क्या कर रहे हो। तुम बेहोशी में चले जा रहे हो। तुम्हारी हालत एक शराबी जैसी है।
 
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात ज्यादा पीकर घर आया। रास्ते में कई जगह गिरा, बिजली के खंभे से टकरा गया, चेहरे पर कई जगह चोप आ गयी, खरोंच लग गयी। आधी रात घर पहुंचा, सोचा पत्नी सुबह परेशान करेगी, कि तुम ज्यादा पीये। और प्रमाण साफ है, कि चोटें लगी हैं, खरोंचें लगी हैं चेहरे पर, चमड़ी छिल गई है। तो उसने सोचा कि कुछ इंतजाम कर लें। तो वह गया बाथरूम में, बेलाडोना की पट्टी उसने लगाई सब चेहरे पर कि सुबह तक कुछ तो राहत हो जायेगी। और इतना तो मैं सिद्ध कर ही सकूंगा कि अगर पीये होता तो बेलाडोना लगाने की याद रहती? गिर पड़ा था रास्ते पर, पैर फिसल गया छिलके पर। घर आकर मैंने मलहम पट्टी कर ली।
 
बड़ा प्रसन्न सोया। सुबह पत्नी ने कहा कि यह हालत चेहरे की कैसे हुई? उसने कहा: मैं गिर गया था, एक केले के छिलके पर पैर फिसल गया। और देख ख्याल रखना, मैं कोई ज्यादा वगैरह नहीं पिया था। प्रमाण है साफ कि मैंने सारे चेहरे की मलहम-पट्टी की।
 
उसने कहा, हां, प्रमाण है, आओ मेरे साथ। आईने पर की थी उसने मलहम पट्टी। चेहरा तो आईने में दिखाई पड़ रहा था। प्रमाण हैं--उसकी पत्नी ने कहा--कि मलहम-पट्टी तुमने जरूर की है, पूरा आईना खराब कर दिया है। अब दिन-भर मुझे सफाई में लगेगा।
 
बेहोश आदमी जो करेगा, उसका क्या भरोसा! कुछ न कुछ भूल होगी ही।

संसार तुम्हारी बेहोशी का नाम है। और इसलिए अनिवार्य है असफलता। 

एक और रात मुल्ला नसरुद्दीन ज्यादा पी कर आ गया। जो-जो ज्यादा पीकर आते हैं, उनको बेचारों को घर आकर कुछ इंतजाम करना पड़ता है। सरकता हुआ किसी तरह कमरे में घुस गया। आवाज न हो, लेकिन फिर भी आवाज हो गई। पत्नी ने पूछा, क्या कर रहे हो? उसने कहा, कुरान पढ़ रहा हूं। अब ऐसी अच्छी बात कोई कर रहा हो, आधी रात में भी करे तो रोक तो नहीं सकते। धार्मिक कृत्य तो रोका ही नहीं जा सका। पत्नी उठी और उसने सोचा कि कुरान और आधी रात, और कभी कुरान इसे पढ़ता देखा नहीं! जाकर देखी, सिर हिला रहा है और सामने सूटकेस खोल रखे हैं।

"कुरान कहां है?'

उसने कहा, सामने रखी है।

आदमी बेहोशी में जो भी करेगा, गलत होगा।

तुम पूछते हो, संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?

क्योंकि संसार तुम्हारी बेहोशी का नाम है। फिर बेहोशियां कई तरह की हैं। कोई शराब की ही बेहोशी नहीं होती। शराब की बेहोशी तो सबसे कम बेहोशी है। असली बेहोशियां तो बड़ी गहरी हैं। जैसे पद की बेहोशी होती है, पद की शराब होती है--पद-मद। जो आदमी पद बैठ जाता है, उसका देखो उसके पैर फिर जमीन पर नहीं लगते। कोई हो गया प्रधान मंत्री, कोई हो गया राष्ट्रपति, फिर वह जमीन पर नहीं चलता, उसको पंख लग जाते हैं। पद-मद! किसी को धन मिल गया तो धन का मद। ये असली शराबें हैं। शराब तो कुछ भी नहीं इनके मुकाबले। पियोगे, घड़ी-दो घड़ी में उतर जाएगा नशा। ये नशे ऐसे हैं कि टिकते हैं, जिंदगी-भर पीछा करते हैं। चढ़े ही रहते हैं।
 
बहुत नशे हैं। और जिसे जागना हो उसे प्रत्येक नशे से सावधान होना पड़ता है। जागने के दो ही उपास हैं--या तो ध्यान की तलवार लेकर अपने सारे नशों की जड़ें काट दो; या परमात्मा के प्रेम से अपनी आंखें भर लो। शेष नशे अपने-आप भाग जायेंगे। उसकी मौजूदगी में नहीं टिकते हैं। या तो परमात्मा के बार प्रेम से भर जाओ, आत्मा के ध्यान से भर जाओ। ये दो ही उपाय है। संसार के जाने के ये दो ही द्वार हैं। तुम्हें रुच जाये।

तुम पूछते हो: संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?

संसार का स्वभाव ऐसा।

हरी बोलो हरी बोल 

ओशो

प्यास नहीं जगती, द्वार नहीं खुलते।




प्यास को कोई जगा भी नहीं सकता। जल तो खोजा जा सकता है, प्यास को जगाने का कोई उपाय नहीं है। प्यास हो तो हो, न हो तो प्रतीक्षा करनी पड़े। जबरदस्ती प्यास को पैदा करने की कोई भी संभावना नहीं है। और जरूरत भी नहीं है। जब समय होगा, प्राण पके होंगे, प्यास जगेगी। और अच्छा है कि समय के पहले कुछ भी न हो।

मन तुम्हारा लोभी है। 

जैसे छोटा बच्चा है, प्रेम की बात सुने, संभोगी चर्चा सुने कि वात्स्यायन का कामसूत्र उसके हाथ में लग जाए और सोचने लगे कि ऐसी कामवासना मुझे कैसे जगे, लोभ पैदा हो जाए। लेकिन छोटे बच्चे में कामवासना पैदा हो नहीं सकती। प्रतीक्षा करनी होगी। पकेगी वीर्य-ऊर्जा, तभी कामवासना उठेगी। और जैसे कामवासना पकती है, ऐसे ही प्रभु-वासना भी पकती है। कोई उपाय नहीं है। जल्दी जगाने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन सुन कर बातें लोभ पैदा होता है; मन में लगता है, कब ईश्वर से मिलन हो जाए। देखा कि दया ईश्वर का गुणगान गा रही है, मस्ती में डोलते देखा मीरा को--तुम्हारे भीतर भी लोभ सुगबुगाया। तुम्हारे भीतर भी लगा, ऐसी मस्ती हमारी भी हो। तुम्हें ईश्वर का प्रयोजन नहीं है। तुम्हें यह जो मस्ती दिखाई पड़ रही है, यह मस्ती तुम्हें आकर्षित कर रही है। मस्ती के तुम खोजी हो। शराबी को राह पर देख लिया डोलते डांवाडोल होते, तो तुम्हारे मन में भी आकांक्षा होती है, ऐसी भावविभोर दशा हमारी भी हो। शराब से तुम्हें मतलब नहीं है। शराब का शायद तुम्हें पता भी नहीं है, लेकिन इस आदमी की मस्ती तुम्हारे मन में ईष्या जगाती है। 


खयाल रखना; संतों के पास जा कर ईष्या भी जग सकती है, प्रार्थना भी जग सकती है। ईष्या जगी तो अड़चन आएगी। तब तुम्हारे भीतर एक बड़ी बेचैनी पैदा होगी कि प्यास तो है नहीं। और प्यास न हो तो जलधार बहती रहे, करोगे क्या? कंठ ही सूखा न हो तो जलधार का करोगे क्या? और बिना प्यास के जल पी भी लो तो तृप्ति न होगी, क्योंकि तृप्ति तो अतृप्ति हो, तभी होती है। तो पानी पी कर शायद वमन करने का मन होने लगे। 


नहीं, जल्दी करना ही न। धैर्य रखना, भरोसा रखना। जब समय होगा, जब तुम राजी हो जाओगे, पकोगे। और पकने का अर्थ समझ लेना। पकने का अर्थ है: जब तुम्हें संसार के सारे रस व्यर्थ मालूम होने लगेंगे, तब रस जगेगा प्रभु का। तुमने अभी संसार के रसों की व्यर्थता नहीं जानी। मैंने कह दिया व्यर्थ हैं, इससे थोड़े ही व्यर्थ हो जाएंगे। मेरे कहने से तुम्हारे लिए कैसे व्यर्थ होंगे? बूढ़े तो समझाए जाते हैं बच्चों को कि खिलौने व्यर्थ हैं। क्या बैठे फिजूल के खिलौनों के साथ समय खराब कर रहे हो! इनमें कुछ सार नहीं है। लेकिन बच्चों को तो खिलौनों में सार दिखाई पड़ता है। 

जगत तरैया भोर की 

ओशो

Wednesday, March 21, 2018

चमत्कार


भगवान, थोड़े दिन पहले जैन मंदिर की प्रतिमा से पानी टपक रहा था। जैन कहते हैं कि अमृत झर रहा है, अब आनंद ही आनंद होगा। तथाकथित धर्मस्थानों में ऐसा चमत्कार होता ही रहता है। यह प्रतिमा मानव जीवन की रुग्णता देखकर आंसू बहाती है अथवा अमृतवर्षा करती है--यह कैसे पता चले? कृपया, समझाने की अनुकंपा करें। 


न तो अमृत झर रहा है, न आंसू झर रहे हैं। प्रतिमा तो पत्थर है, रोएगी भी क्या, करुणा भी क्या करेगी? लेकिन बड़े चालबाजों के हाथ में धर्म पड़ गया है। ऐसे पत्थर होते हैं जो पानी सोख लेते हैं। ऐसे पत्थर हैं--अफ्रीका में भी होते हैं, कश्मीर में भी होते हैं--जो हवा से भाप को सोख लेते हैं। और वही भाप ठंडक पाकर पानी के बूंद बनकर प्रतिमा पर जम जाती है। और तब बुद्धुओं की जमात एक से एक बातें कहेंगी। ये तरकीबें पंडित-पुरोहित सदियों से काम में लाते रहे हैं लोगों को अंधा करने के लिए।


मगर कभी तुम यह जो सोचो, जब खुद महावीर जिंदा थे तब भी आनंद ही आनंद नहीं हुआ, अमृत नहीं बरसा, अब क्या खाक पत्थर की प्रतिमा से बरसेगा? जब महावीर मौजूद थे स्वयं, तब कितना आनंद बरसा? कितने जीवन आंदोलित हुए? और तुमने महावीर के साथ क्या किया? कानों में खिले ठोंके, सताया, मारा, एक गांव से दूसरे गांव भगाया, पागल कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े, खूंख्वार कुत्ते महावीर के पीछे लगाए। क्योंकि महावीर की नग्नता तुम्हें सालती थी, अखरती थी। महावीर की नग्नता उनकी सरलता की उदघोषणा थी; जैसे छोटा बच्चा। लेकिन उनकी नग्नता तुम्हें, अड़चन देती थी। उनकी नग्नता तुम्हें भी खबर देती थी कि हो तो तुम भी नग्न, वस्त्रों में कितना ही अपने को छिपाओ, सचाई छिपेगी नहीं छिपाने से, उघड़ो। तुम्हें बेचैनी होती थी, घबड़ाहट होती थी। तुम समझते थे यह आदमी हमें भ्रष्ट कर रहा है, हमारे बच्चों को भ्रष्ट कर रहा है। गांव में टिकने नहीं देते थे, महावीर को।


महावीर जब जीवित थे तब आनंद ही आनंद नहीं बरसा, अमृत नहीं बरसा, अब किसी पत्थर की प्रतिमा पर पानी की बूंदें जम जाएंगी और आनंद ही आनंद हो जाएगा! कुछ तो गणित भी याद करो! ये तो सीधे-से गणित हैं। लोग कहते हैं कि जब धर्म की हानि होती है तो भगवान का अवतार होता है। कृष्ण के वचन का लोग उद्धरण करते हैं: "संभवामि युगे युगे', आऊंगा, युग-युग में आऊंगा; "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत', जब भी ग्लानि होगी धर्म की, आऊंगा। मगर तब आए थे, तब कौन-से धर्म की पुनर्स्थापना हो सकी? महाभारत हुआ, धर्म की कोई पुनर्स्थापना तो नहीं हुई। हिंदुओं का हिसाब से कोई एक अरब आदमी महाभारत के युद्ध में मरे, कटे। धर्म का कोई अवतरण तो नहीं हो गया। सच तो यह है कि महाभारत में भारत की जो रीढ़ टूटी, वह फिर आज तक ठीक नहीं हुई। महाभारत में जो भारत की आत्मा मरी, वह अब तक पुनरुज्जीवित नहीं हो सकी। महाभारत के बाद भारत फिर उठ नहीं पाया, अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया। फिर टूटता ही गया, बिखरता ही गया, खंडित ही होता गया।


ईसाई कहते हैं कि जीसस का अवतरण हुआ था मनुष्य के उद्धार के लिए। वे आए ही इसलिए थे, परमात्मा ने भेजा ही इसलिए था...एकमात्र बेटे हैं वे परमात्मा के, इकलौते पुत्र! अपने इकलौते बेटे को परमात्मा भेजा कि जाओ, अब मनुष्य का उद्धार करो। ये तो सब बातें ठीक, मगर मनुष्य का उद्धार कहां हुआ!--यह तो कोई देखता ही नहीं, यह तो कोई पूछता ही नहीं। मनुष्य का तो उद्धार नहीं हुआ है, जीसस को सूली लग गयी। यही अगर मनुष्य का उद्धार है तो बात अलग। और ईसाइयत भी फैल गयी दुनिया में तो कोई मनुष्य का उद्धार हो गया!


लेकिन लोग इसी तरह की व्यर्थ की बातें फैलाते फिरते हैं। और आश्चर्य तो यह है कि हम सदियों-सदियों से इन्हीं घनचक्करों के चक्कर में पड़े रहते हैं। हमें होश भी नहीं आता। हम फिर-फिर उन्हीं मूढ़ताओं में पड़ जाते हैं।


न तो कोई चमत्कार है इसमें, न कुछ विशेषता है। जरा उस पत्थर की परीक्षा करवा लेना पत्थर के विशेषज्ञों से और तुम्हें पता चल जाएगा। कि वह पोरस पत्थर है। उसमें छोटे-छोटे छेद हैं, जिन छेदों से वाष्प भीतर प्रवेश कर जाती है। और जब भी ठंडक मिलती है, तो स्वभावतः वाष्प पानी में बदल जाती है। पानी में बदली तो छिद्रों के बाहर आकर बहने लगती है। अब तुम्हारी जो मर्जी हो आरोपित करने की, गरीब पत्थर पर आरोपित कर दो। और अगर अमृत है यह, तो चाट क्यों नहीं जाते? तो कम-से-कम जैन ही अमर हो जाएं। और ज्यादा जैन भी नहीं हैं, कोई पैंतीस लाख हैं ही, मुल्क में इतनी मूर्तियां हैं, चाट जाओ सारी मूर्तियों को! कम-से-कम तुम्हीं अमर हो जाओ। जब अमृत ही मिल रहा है तो क्यों चूक रहे हो?


और ये तो हर साल घटनाएं घटती हैं। और आनंद तो कहीं दिखायी पड़ता नहीं, बस सपने ही सपने हैं। इन सपनों में ही अपने को भुलाए रखोगे तो आज नहीं कल रोओगे, जार-जार रोओगे। फिर आंसू बहेंगे। 


इसमें कसूर किसका है, दीपक शर्मा!


कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे


सब झूठे! अगर सच्चे होते तो आज भी होते। कल ही क्यों? झूठ होते हैं तो कल होते हैं तो आज नहीं होते, आज होते हैं तो कल नहीं होते। इस जगत में जो झूठ है, वह बदलता रहता है; सत्य है, वह शाश्वत है। लेकिन हम झूठ में खूब उलझ जाते हैं। हम झूठ से बहुत प्रभावित होते हैं। सच तो यह है, हम बदलाहट से ही आकर्षित होते हैं।


देखा तुमने किसी कुत्ते को बैठे हुए? बैठा है चुपचाप। कोई चीज हिलती-डुलती नहीं, तो चुपचाप बैठ रहेगा। फिर जरा-सा कोई चीज को हिला-डुला दो, एक पत्थर में धागा बांधकर उसे जरा खींच दो दूर बैठकर और कुत्ता एकदम चौंककर खड़ा हो जाएगा। जब तक पत्थर जगह पर पड़ा था एक, कुत्ता निश्चिंत था। पत्थर हिला कि कुत्ता जागा। कि भौंका। कि आकर्षित हुआ कि मामला क्या है?


यह कुत्ते का ही नहीं लक्षण है, यह सारे मन का लक्षण है। इसलिए जो चीज बदलती नहीं, वह दिखायी नहीं पड़ती। तुम अपनी पत्नी का देखते हो? वह तुम्हें दिखायी नहीं पड़ती। वह बदलती ही नहीं। वह वही की वही पत्नी--कल भी थी और आज भी है, कल भी होगी। लेकिन पड़ोसी की पत्नी, पड़ोसी की पत्नियां, उन्हें तुम टकटकी लगाकर देखते हो। तुम्हें अपना घर दिखायी पड़ता है? कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तुम परिचित हो। सब चीजें अपनी जगह होती हैं तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता। हां,कोई अदल-बदल हो जाए, रात कोई चोर घर में घुस जाए, सामान इधर का उधर कर दे; कुर्सी सरकी मिले, दरवाजा खुला मिले, ताला टूटा मिले, तो तुम चौंकते हो। परिवर्तन आकर्षित करता है। अगर चीजें थिर हों, तो आकर्षित नहीं करतीं। 

साहिब मिले साहिब भये 

ओशो

 

मान्यता का संसार


एक फकीर हुआ--नागार्जुन। बौद्ध फकीर था। इस पृथ्वी पर जो थोड़े-से अनूठे लोग हुए हैं, उन थोड़े-से लोगों में नागार्जुन भी एक है। उसके पास एक आदमी ने आकर कहा कि मुझसे संसार नहीं छूटता है, मैं क्या करूं

नागार्जुन ने उसे गौर से देखा और कहा, तूने भी गजब की बात कही! मैं पकड़ना चाहता हूं और पकड़ नहीं पाता हूं और तू कहता है कि तू छोड़ना चाहता है और छूटता नहीं! हम तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए। तूने भी कैसा सवाल उठा दिया! मैं लाख उपाय किया हूं पकड़ने का और पकड़ में नहीं आता और तू कहता है कि छूटता नहीं है। तू एक काम कर। यह सामने मेरे गुफा है, तू इसमें भीतर बैठ जा और तीन दिन तक तू एक ही बात की रट लगा...। 

बातचीत में नागार्जुन ने पता लगा लिया था कि वह काम क्या करता है। अहीर था। भैंसों का दूध बेचता था। तो नागार्जुन ने पूछा था, तुझे सबसे ज्यादा प्रेम किससे है? पत्नी से है, बच्चे से है? उसने कहा, मुझे किसी से नहीं है, मुझे अपनी भैंस से प्रेम है।

तो नागार्जुन ने कहा, तू एक काम कर। यह सामने की गुफा में अंदर चला जा, भीतर बैठ जा, तीन दिन तक खाना-पीना बंद, बस एक ही बात सोच कि मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं।

उसने कहा, इससे क्या होगा?

तीन दिन के बाद तय करेंगे। तीन दिन में तेरा कुछ बिगड़ा नहीं जा रहा है। जिंदगी यूं ही चली गई, तीन दिन और समझना मुझे दे दिए।

सीधा-सादा आदमी था। चला गया गुफा में। और सच में ही भैंस से उसे प्रेम था; वही उसकी जिंदगी थी, वही उसका संसार, वही उसकी धन-दौलत, वही उसकी प्रतिष्ठा। यूं भी भैंस से बिछड़ गया था तो बड़ी तकलीफ हो रही थी। इस बात से बहुत राहत भी मिली कि मैं भैंस हूं। दोहराता रहा, दोहराता रहा, तीन दिन सतत दोहराया। सीधा भोला-भाला आदमी। 

तीन दिन बाद नागार्जुन उसके द्वार पर गया और कहा कि बाहर आ! उसने निकलने की कोशिश की, लेकिन निकल न सका। नागार्जुन ने कहा, क्या अड़चन है? निकलता क्यों नहीं

उसने कहा, निकलूं कैसे? ये जो मेरे सींग हैं, गुफा का दरवाजा छोटा, सींग अटक-अटक जाते हैं।

न कहीं कोई सींग थे, न कुछ अटक रहा था। लेकिन वह आदमी अटका हुआ था। नागार्जुन भीतर गया, उसे खूब हिलाया, झकझोरा, कहा, आंख खोल! तीन दिन तक निरंतर दोहराने से कि मैं भैंस हूं, भ्रांति खड़ी हो गई। गौर से देख! यह आईना रहा, इसमें अपनी तस्वीर देख। कहां सींग हैं?

उस आदमी ने आईना देखा--न कोई सींग थे, न कोई भैंस थी। हंसने लगा। नागार्जुन के चरणों पर गिर पड़ा और कहा कि खतम हुआ। मैं सोचता था, संसार छूटता नहीं। आप ठीक कहते थे, पकड़ना भी चाहो तो कैसे पकड़ोगे? सींग हैं ही नहीं, सिर्फ खयाल है, सिर्फ विचार हैं, सिर्फ कामनाएं हैं, सिर्फ वासनाएं हैं।

बुल्लेशाह कहते हैं: "ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां है, अनहोना नजर आ रहा है।'
आदमी को सींग ऊग गए हैं--भैंस के सींग! अनहोना नजर आ रहा है।

ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे।

जरा गौर से तो देख, इस सारे संसार का स्रोत कहां है? यह है भी या नहीं? इसकी जड़ें भी हैं कहीं या नहीं? या सिर्फ एक कल्पना का वृक्ष है, कल्पवृक्ष है, जो होता नहीं, सिर्फ मान लिया जाता है। और मान लो तो हो जाता है। हम मान्यता से एक संसार खड़ा कर लेते हैं।

 
साँच साँच सो साँच 

ओशो

ओशो

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