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Tuesday, March 13, 2018

यह प्रत्याहार तो असंभव प्रयोग मालूम होता है। गंगा का गंगोत्री में लौट जाना और वृक्ष का लौट कर पौधे और बीज में समाना क्या संभव है?



गंगा का गंगोत्री में लौटना या वृक्ष का वापस बीज में समाना तुम्हें असंभव मालूम पड़ता है? यही रोज घट रहा है! बीज रोज फिर वृक्ष बन जाता है। वह पास लगे हुए गुलमोहर में लटके हुए बीज देखो--सारा वृक्ष बीज बन गया है। और गंगा रोज गंगोत्री लौटती है--चढ़ कर बादलों में, घटाओं में--फिर बरसती है हिमालय पर, फिर गंगोत्री में लौट आती है। यह रोज ही घट रहा है। 

 
फिर तुम कहोगे, फिर करने की क्या बात है?


करने की बात इतनी है, इस घटती घटना को जाग कर देखना है। यह सोते-सोते घट रहा है। अनेक बार तुम अपने घर लौट आते हो, लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम सरायों में ठहरने के इतने आदी हो गए हो कि तुम घर भी लौट आते हो तो उसे भी सराय समझते हो। 


मेरे एक मित्र हैं, उनका धंधा ऐसा है कि उन्हें दिन-रात यात्रा करनी पड़ती है; महीने में चार-पांच दिन ही घर लौटते हैं। घर लौटते हैं तो उन्हें नींद नहीं आती, क्योंकि रेल की खड़बड़ में उनकी सोने की आदत हो गई है; जब तक वे ट्रेन में न सोएं, उन्हें नींद नहीं आती। वे मुझसे कहने लगे, बड़ी मुसीबत है। कोई बीस साल से यही काम करते हैं। तो जब तक शोरगुल न मचता हो, और हर घड़ी, आधा घड़ी के बाद फिर स्टेशन न आता हो, और फिर आवाजें और फिर धूम-धक्का--उन्हें नींद नहीं आती! तो मैंने उन्हें कहा, तुम एक काम करो, तुम रेलवे लाइन के पास क्यों नहीं मकान किराए से ले लेते? उन्होंने कहा, यह बात जंची; मैं बड़े-बड़े डाक्टरों के पास हो आया! 


अब उन्होंने रेलवे लाइन के पास मकान ले लिया है। अब वे बड़े मजे में हैं। अब वे घर में भी सो जाते हैं, क्योंकि फिर ट्रेन निकली, हर दस-पंद्रह मिनट में ट्रेन निकल रही है। वे बड़े प्रसन्न हैं। 


तुम्हें कठिनाई लगेगी उनकी सोचने में, क्योंकि तुम जब पहली दफा ट्रेन में जाओगे तो नींद न आएगी। आदत! सभी आदतें बांधने वाली हो जाती हैं। 


तुम अपने घर के बाहर इतने रहे हो कि जब तुम घर भी आते हो, तो तुम घर नहीं आते; पहचान ही नहीं होती; प्रतिभिज्ञा नहीं होती। लगता है, यह भी कोई सराय है--ठहरे रात, सुबह चल पड़े।


गंगोत्री में रोज गंगा लौटती है, और तुम पूछते हो कठिन! तुम अपने मूल स्रोत पर बने ही हो, और तुम पूछते हो कठिन! तुम अपने मूल स्रोत से दूर जाओगे भी कैसे? जाओगे भी कहां? खयालों में गए होओगे, असलियत में नहीं जा सकते। ऐसे ही, जैसे रात तुम पूना में सो जाओ और सपना देखो कलकत्ते का। तो क्या सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ कर पूना वापस लौटना पड़ेगा? सपने में कलकत्ते में थे, तो सुबह उठ कर क्या भागोगे कि अब ट्रेन पकड़ें, घर जाएं! न, सुबह तुम जाग कर पाओगे कि पूना में ही सो रहे हो। अपने से दूर जाना सिर्फ एक खयाल है, सिर्फ एक विचार है। 


अगर तुम मुझसे पूछो, और तुम्हें अड़चन न हो, तो मैं कहना चाहूंगा: गंगा गंगोत्री से कभी गई ही नहीं; बीज कभी वृक्ष बना ही नहीं--एक सपना देखा है कि वृक्ष हो गए; एक सपना देखा है कि गंगोत्री से गंगा निकल आई, सागर की तरफ चली। क्योंकि अपने स्वभाव से बाहर जाने का उपाय कहां? तुम मुझसे पूछते हो कि स्वभाव में लौटना बड़ा कठिन है! मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि स्वभाव से बाहर जाना कठिन ही नहीं, असंभव है; कोई कभी गया नहीं। तुम इसी क्षण बुद्ध हो, इसी क्षण जिन हो, इसी क्षण परमात्मा हो। लेकिन तुम्हारे खयाल! तुम्हारे खयाल कुछ और हैं। तुम कहते हो, यह बात जंचती नहीं; मैं तो पान की दुकान करता हूं--कैसे बुद्ध हो सकता हूं?


पान की दुकान करने से कुछ बाधा है? कोई बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से ही बुद्ध होता है? पान की दुकान पर बैठे भी तुम बुद्ध हो, मैं कह रहा हूं। क्योंकि तुम कुछ भी करो--पान की दुकान करो, कि बूचड़खाना चलाओ--तुम कुछ भी करो, तुम बुद्धत्व के बाहर जा नहीं सकते। 


मछली तो शायद कभी सागर के बाहर आ भी जाए, तुम परमात्मा के बाहर कैसे जाओगे? क्योंकि सागर की कोई सीमा है, किनारा है; परमात्मा का तो कोई किनारा नहीं और कोई सीमा नहीं। तो यह तुम्हारा खयाल है कि तुम पान की दुकान कर रहे हो--करो मजे से, मगर इससे तुम यह मत सोच लेना कि तुम बुद्ध न रहे। बस इतना ही होश आ जाए, तो गंगा लौट गई गंगोत्री। होश का आ जाना...


हजार उपद्रव आएंगे रास्ते पर। संसार रोकेगा तुम्हें पहले--दुकान रोकेगी, धन रोकेगा, पद रोकेगा। किसी तरह इनसे छूटे तो मंदिर-मस्जिद रोकेंगे, वेद-पुराण रोकेंगे, गीता-कुरान रोकेंगे। अगर तुम सबसे बच कर निकल आए, तो ही तुम आ पाओगे। 

भज गोविन्दम मूढ़मते 

ओशो

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