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Tuesday, March 28, 2017

कामवासना का फैलाव



यह जो कामवासना है, अगर आप इसके साथ चलें, इसके पीछे दौड़े, तो जो एक नई वृत्ति पैदा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभ कामवासना के फैलाव का नाम है। एक स्त्री से हल नहीं होता, हजार स्त्रिया चाहिए! तो भी हल नहीं होगा।

सार्त्र ने अपने एक उपन्यास में उसके एक पात्र से कहलवाया है कि जब तक इस जमीन की सारी स्त्रियां मुझे न मिल जाएं, तब तक मेरी कोई तृप्ति नहीं।

आप भोग न सकेंगे सारी स्त्रियों को, वह सवाल नहीं है; लेकिन मन की कामना इतनी विक्षिप्त है।

जब तक सारे जगत का धन न मिल जाए, तब तक तृप्ति नहीं है। धन की भी खोज आदमी इसीलिए करता है। क्योंकि धन से कामवासना खरीदी जा सकती है; धन से सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं, सुविधाएं कामवासना में सहयोगी हो जाती हैं।

लोभ कामवासना का फैलाव है। इसलिए लोभी व्यक्ति कामवासना से कभी मुक्त नहीं होता। यह भी हो सकता है कि वह लोभ में इतना पड़ गया हो कि कामवासना तक का त्याग कर दे। एक आदमी धन के पीछे पड़ा हो, तो हो सकता है कि वर्षों तक स्त्रियों की उसे याद भी न आए। लेकिन गहरे में वह धन इसीलिए खोज रहा है कि जब धन उसके पास होगा, तब स्त्रियों को तो आवाज देकर बुलाया जा सकता है। उसमें कुछ अड़चन नहीं।

यह भी हो सकता है कि जीवनभर उसको ख्याल ही न आए वह धन की दौड़ में लगा रहे। लेकिन धन की दौड़ में गहरे में कामवासना है।

सब लोभ काम का विस्तार है। इस काम के विस्तार में, इस लोभ में जो भी बाधा देता है, उस पर क्रोध आता है। कामवासना है फैलता लोभ, और जब उसमें कोई रुकावट डालता है, तो क्रोध आता है।

काम, लोभ, क्रोध एक ही नदी की धाराएं हैं। जब भी आप जो चाहते हैं, उसमें कोई रुकावट डाल देता है, तभी आप में आग जल उठती है, आप क्रोधित हो जाते हैं। जो भी सहयोग देता है, उस पर आपको बड़ा स्नेह आता है, बड़ा प्रेम आता है। जो भी बाधा डालता है, उस पर क्रोध आता है। मित्र आप उनको कहते हैं, जो आपकी वासनाओं में सहयोगी हैं। शत्रु आप उनको कहते हैं, जो आपकी वासनाओं में बाधा हैं।

लोभ और क्रोध से तभी छुटकारा होगा, जब काम से छुटकारा हो। और जो व्यक्ति सोचता हो कि हम लोभ और क्रोध छोड़ दें काम को बिना छोड़े, वह जीवन के गणित से अपरिचित है। यह कभी भी होने वाला नहीं है।

इसलिए समस्त धर्मों की खोज का एक जो मौलिक बिंदु है, वह यह है कि कैसे अकाम पैदा हो। उस अकाम को हमने ब्रह्मचर्य कहा है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कैसे मेरे जीवन के भीतर वह जो दौड़ है एक विक्षिप्त और जीवन को पैदा करने की, उससे कैसे छुटकारा हो। कृष्ण कहते हैं, ये तीन नरक के द्वार हैं।

हमें तो ये तीन ही जीवन मालूम पड़ते हैं। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, कृष्ण उसे नरक का द्वार कह रहे हैं।

आप इन तीन को हटा दें, आपको लगेगा फिर जीवन में कुछ बचता ही नहीं। काम हटा दें, तो जड़ कट गई। लोभ हटा दें, फिर क्या करने को बचा! महत्वाकांक्षा कट गई। क्रोध हटा दें, फिर कुछ खटपट करने का उपाय भी नहीं बचा। तो जीवन का सब उपक्रम शून्य हुआ, सब व्यवहार बंद हुए।
अगर लोभ नहीं है, तो मित्र नहीं बनाएंगे आप। अगर क्रोध नहीं है, तो शत्रु नहीं बनाएंगे। तो न अपने बचे, न पराए बचे, आप अकेले रह गए। आप अचानक पाएंगे, ऐसा जीवन तो बहुत घबड़ाने वाला हो जाएगा। वह तो नारकीय होगा। और कृष्ण कहते हैं कि ये तीन नरक के द्वार हैं! और हम इन तीनों को जीवन समझे हुए हैं।

हमें खयाल भी नहीं आता कि हम चौबीस घंटे काम से भरे हुए हैं। उठते—बैठते, सोते—चलते, सब तरफ हमारी नजर का जो फैलाव है, वह कामवासना का है।

गीता दर्शन

ओशो

मृत्यु के पार



जीवेषणा की तरफ अगर थोड़ी—सी भी ध्यान की प्रक्रिया लौटे, थोड़ा—सा आपका होश बढ़े, तो सवाल साफ ही हो जाएगा कि यह जीवन कहीं नहीं ले जा रहा है सिवाय मौत के। यह कहीं नहीं जा रहा है सिवाय मौत के। जैसे सभी नदियां सागर में जा रही हैं, सभी जीवन मौत में जा रहे हैं।

तब दूसरा बोध स्पष्ट होना चाहिए कि जो जीवन मौत में ले जाता है, जो अनिवार्यरूपेण मौत में ले जाता है, अपरिहार्य जिसमें मृत्यु है, मृत्यु से बचने का जिसमें कोई उपाय नहीं, वह आकांक्षा के योग्य नहीं है, वह एषणा के योग्य नहीं है, वह कामना के योग्य नहीं है।

ये दो बातें अगर गहन होने लगें आपके भीतर, इनकी सघनता बढ़ने लगे, तो जीवेषणा की निर्जरा हो जाती है। और जिस दिन व्यक्ति जीने की आकांक्षा से मुक्त होता है, उसी दिन जीवन का द्वार खुलता है। क्योंकि जब तक हम जीवन की इच्छा से भरे रहते हैं, तब तक हम इस बुरी तरह उलझे रहते हैं जीवन में कि जीवन का द्वार हमारे लिए बंद ही रह जाता है, खुल नहीं पाता।

हम इतने व्यस्त होते हैं जीवित होने में, जीवित बने रहने में, कि जीवन क्या है, उससे परिचित होने का हमें न समय होता है, न सुविधा होती है। उस मंदिर के द्वार अटके ही रह जाते हैं, बंद ही रह जाते हैं।

जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने जीवन का राज जाना। वे ही परम बुद्धत्व को प्राप्त हुए। और जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने अमृत को पकड़ लिया, अमृत को पा लिया। जिन्होंने जीवेषणा पकड़ी, वे मौत पर पहुंचे।

इतना तो तय है कि जो जीवेषणा से चलता है, वह मृत्यु पर पहुंचता है। इससे उलटा भी सच है—लेकिन वह कभी आपका अनुभव बने तभी—कि जो जीवेषणा छोड़ता है, वह अमृत पर पहुंचता है। इसको हम निरपवाद नियम कह सकते हैं। अब तक इस जगत में जितने लोगों ने जीवेषणा की तरफ से दौड़ की, वे मृत्यु पर पहुंचते हैं। कुछ थोड़े—से लोग जीवेषणा को छोड्कर चले, वे अमृत पर पहुंचे हैं।

उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, वे उन्हीं व्यक्तियों की घोषणाएं हैं जिन्होंने जीवेषणा छोड्कर अमृत को उपलब्ध किया है।

मृत्यु के पार जाना हो, तो जीवन की इच्छा को छोड़ देना जरूरी है। यह बड़ा उलटा लगेगा। जीवन बड़ा जटिल है। जीवन निश्चित ही काफी जटिल है और विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल है।

इसका मतलब यह हुआ कि जो जीवन को पकड़ता है, वह मृत्यु को पाता है। इसका यह अर्थ हुआ कि जो जीवन को छोड़ता है, वह महाजीवन को पाता है। यह बिलकुल विरोधाभासी लगता है, लेकिन ऐसा है। यह विरोधाभास ही जीवन का गहनतम स्वरूप है।

आप करके देखें। धन को पकड़े और आप दरिद्र रह जाएंगे। कितना ही धन हो, दखि रह जाएंगे। धन को छोड्कर देखें। और आप भिखमंगे भी हो जाएं, तो भी सम्राट आपके सामने फीके होंगे। आप शरीर को जोर से पकड़े। और शरीर से सिर्फ दुख के आप कुछ भी न पाएंगे। और शरीर से आप तादाक्य तोड़ दें, शरीर को पकड़ना छोड़ दें। और आप अचानक पाएंगे कि शरीर को पकड़ने की वजह से आप सीमा में बंधे थे, अब असीम हो गए।

यहां जो छीनने चलता है, उसका छिन जाता है। यहां जो देने चल पड़ता है, उससे छीनने का कोई उपाय नहीं। यह जो विरोधाभास है, यह जो जीवन का पैराडाक्स है, यह जो पहेली है, इसको हल करने की व्यवस्था ही साधना है।

दो काम करें। जीवन ने क्या दिया है, इसकी परख रखें। क्या मिला है जीवन से, क्या मिल सकता है, इसका हिसाब रखें। पाएंगे कि सब हाथ खाली हैं। आशा भी टूट जाएगी कि कल भी कुछ मिल सकता है। क्योंकि जो अतीत में नहीं हुआ, वह भविष्य में भी नहीं होगा। जो कभी नहीं हुआ, वह आगे भी कभी नहीं होगा। और फिर देखें कि सब जीवन मृत्यु के सागर में उंडलते चले जाते हैं। कोई आज, कोई कल। हम सब क्यू में खड़े हैं। आज नहीं कल, बारी आ जाती है और मृत्यु में उतर जाते हैं।

तो यह सारा जीवन मृत्यु में पूरा होता है, निश्चित ही यह मृत्यु का ही छिपा हुआ रूप है। क्योंकि अंत में वही प्रकट होता है, जो प्रथम से ही छिपा रहा हो। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मौत है। और जीवेषणा को छोड़ेंगे, तो ही यह मौत छूटेगी। तब हमें उस जीवन का अनुभव होना शुरू होगा, जिसका मिटना कभी भी नहीं होता है।

उस जीवन को ही परमात्मा कहें, उस जीवन को मोक्ष कहें, उस जीवन को आत्मा कहें, उस जीवन को जो भी नाम देना हो, वह हम दे सकते हैं।

गीता दर्शन 

ओशो 


जीवेषणा...





... लस्ट फार लाइफ का अर्थ ठीक से समझ लें। हम जीना चाहते हैं। लेकिन यह जीने की आकांक्षा बिलकुल अंधी है। कोई आपसे पूछे, क्यों जीना चाहते हैं, तो उत्तर नहीं है। और इस अंधी दौड़ में हम पौधे, पक्षियों, पशुओं से भिन्न नहीं हैं। पौधे भी जीना चाहते हैं, पौधे भी जीवन की तलाश करते हैं।

मेरे गांव में मेरे मकान से कोई चार सौ कदम की दूरी पर एक वृक्ष है। चार सौ कदम काफी फासला है। और मकान में जो नल का पाइप आता है, वह अचानक एक दिन फूट पड़ा, तो जमीन खोदकर पाइप की खोजबीन करनी पड़ी कि क्या हुआ! चार सौ कदम दूर जो वृक्ष है, उसकी जड़ें उस पाइप की तलाश करती हुई पाइप के अंदर घुस गई थीं, पानी की खोज में।

वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्ष बड़े हिसाब से अपनी जडें पहुंचाते हैं—कहां पानी होगा? चार सौ कदम काफी फासला है और वह भी लोहे के पाइप के अंदर पानी बह रहा है। लेकिन वृक्ष को कुछ पकड़ है। उसने उतने दूर से अपनी जड़ें पहुंचाईं। और ठीक उन जड़ों ने आकर अपना काम पूरा कर लिया, कसते—कसते उन्होंने पाइप को तोड़ दिया लोहे के। वे अंदर प्रवेश कर गईं और वहां से पानी पी रही थीं; वर्षों से वे उपयोग कर रही होंगी।

वृक्ष को भी पता नहीं कि वह क्यों जीना चाहता है। अफ्रीका के जंगल में वृक्ष काफी ऊंचे जाते हैं। उन्हीं वृक्षों को आप यहां लगाएं, उतने ऊंचे नहीं जाते। ऊंचे जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है। अफ्रीका में जंगल इतने घने हैं कि वैज्ञानिक कहते हैं, जिस वृक्ष को बचना हो, उसको ऊंचाई बढ़ानी पड़ती है। क्योंकि वह ऊंचा हो जाए, तो ही सूरज की रोशनी मिलेगी। अगर वह नीचा रह गया, तो मर जाएगा।

वही वृक्ष अफ्रीका में ऊंचाई लेगा तीन सौ फीट की। वही वृक्ष भारत में सौ फीट पर रुक जाएगा। जीवेषणा में यहां संघर्ष उतना नहीं है।

वैज्ञानिक कहते हैं, जिराफ़ है, ऊंट है, उनकी जो गर्दनें इतनी लंबी हो गई हैं, वह रेगिस्तानों के कारण हो गई हैं। जितनी ऊंची गर्दन होगी, उतना ही जानवर जी सकता है, क्योंकि इतने ऊपर वृक्ष की पत्‍तियों को वह तोड़ सकता। सुरक्षा है जीवन में, तो गर्दन बड़ी होती चली गई है।

चारों तरफ जीवन का बचाव चल रहा है। छोटी सी चींटी भी अपने को बचाने में, खुद को बचाने में लगी है। बड़े से बड़ा हाथी भी अपने को बचाने में लगा है। हम भी उसी दौड़ में हैं।

और सवाल यह है—और यहीं मनुष्य और पशुओं का फर्क शुरू होता है कि हमारे मन में सवाल उठता है—कि हम जीना क्यों चाहते हैं? आखिर जीवन से मिल क्या रहा है जिसके लिए आप जीना चाहते हैं?

जैसे ही पूछेंगे कि मिल क्या रहा है, तो हाथ खाली मालूम पड़ते हैं। मिल कुछ भी नहीं रहा है। इसलिए कोई भी विचारशील व्यक्ति उदास हो जाता है, मिल कुछ भी नहीं रहा है।

रोज सुबह उठ आते हैं, रोज काम कर लेते हैं; खा लेते हैं; पी लेते हैं; सो जाते हैं। फिर सुबह हो जाती है। ऐसे पचास वर्ष बीते, और पचास वर्ष बीत जाएंगे। अगर सौ वर्ष का भी जीवन हो, तो बस यही कम दौड़ता रहेगा। और अभी तक कुछ नहीं मिला, कल क्या मिल जाएगा?

और मिलने जैसा कुछ लगता भी नहीं है। मिलेगा भी क्या, इसकी कोई आशा भी बांधनी मुश्किल है। धन मिल जाए, तो क्या मिलेगा? पद मिल जाए, तो क्या मिलेगा? जीवन रिक्त ही रहेगा। जीवेषणा अंधी है, पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है। और इसलिए जीवेषणा से उठने का जो पहला प्रयोग है, वह आंखों के खोलने का प्रयोग है कि मैं अपने जीवन को देखूं कि मिल क्या रहा है! और अगर कुछ भी नहीं मिल रहा है, यह प्रतीति साफ हो जाए, तो जीवेषणा क्षीण होने लगेगी।

मैं जीना इसलिए चाहता हूं कि कुछ मिलने की आशा है। अगर यह स्पष्ट हो जाए कि कुछ मिलने वाला नहीं है, कुछ मिल नहीं रहा है, तो जीने की आकांक्षा से छुटकारा हो जाएगा, उसकी निर्जरा हो जाएगी।

गीता दर्शन 

ओशो

भीतर से बाहर



धार्मिक उसे भीतर से शुरू करता है और फिर बाहर की तरफ जाता है। और भीतर जिसने उसे छू लिया, वह तरंग पर सवार हो गया, उसने लहर पकड़ ली; उसके हाथ में नाव आ गई। अब कोई जल्दी भी नहीं है। वह दूसरा किनारा न भी मिले, तो भी कुछ खोता नहीं है। वह दूसरा किनारा कभी भी मिल जाएगा, अनंत में कभी भी मिल जाएगा, तो भी कोई प्रयोजन नहीं है। कोई डर भी नहीं है उसके खोने का। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। लेकिन आप ठीक नाव पर सवार हो गए।
जिसने अंतस में पहचान लिया, उसकी यात्रा कभी भी मंजिल पर पहुंचे या न पहुंचे, मंजिल पर पहुंच गई। वह बीच नदी में डूबकर मर जाए, तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। अब उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अब नदी का मध्य भी उसके लिए किनारा है।


धार्मिक व्यक्ति भीतर से बाहर की तरफ फैलता है। और जीवन का सभी विस्तार भीतर से बाहर की तरफ है। आप एक पत्थर फेंकते हैं पानी में; छोटी—सी लहर उठती है पत्थर के किनारे, फिर फैलना शुरू होती है। भीतर से उठी लहर पत्थर के पास, फिर दूर की तरफ जाती है। आपने कभी इससे उलटा देखा कि लहर किनारों की तरफ पैदा होती हो और फिर सिकुड़कर भीतर की तरफ आती हो!


एक बीज को आप बो देते हैं। फिर वह फैलना शुरू हो जाता है, फिर वह फैलता जाता है, फिर एक विराट वृक्ष पैदा होता है। और उस विराट वृक्ष में एक बीज की जगह करोड़ों बीज लगते हैं। फिर वे बीज भी गिरते हैं। फिर फूटते हैं, फिर फैलते हैं।


हमेशा जीवन की गति बाहर से भीतर की तरफ नहीं है। जीवन की गति भीतर से बाहर की तरफ है। यहां बूंद सागर बनती देखी जाती है, यहां बीज वृक्ष बनते देखा जाता है। धर्म इस सूत्र को पहचानता है। और आपके भीतर जहां लहर उठ रही है हृदय की, वहीं से पहचानने की जरूरत है। और वहीं से जो पहचानेगा, वही पहचान पाएगा।


लेकिन जैसा मैंने कहा कि हम नियमित रूप से बंधी—बधाई भूलें दोहराते हैं। आदमी बड़ा अमौलिक है। हम भूल तक ओरिजिनल नहीं करते, वह भी हम पुरानी पिटी—पिटाई करते हैं।


मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उस पर नाराज थी। बात ज्यादा बढ़ गई और पत्नी ने चाबियों का गुच्छा फेंका और कहा कि मैं जाती हूं। अब बहुत हो गया और सहने के बाहर है। मैं अपनी मां के घर जाती हूं और कभी लौटकर न आऊंगी।


नसरुद्दीन ने गौर से पत्नी को देखा और कहा कि अब जा ही रही हो, तो एक खुशखबरी सुनती जाओ। कल ही तुम्हारी मां तुम्हारे पिता से लड़कर अपनी मां के घर चली गई है। और जहां तक मैं समझता हूं वहां वह अपनी मां को शायद ही पाए।


एक वर्तुल है भूलों का। वह एक सा चलता जाता है। एक बंधी हुई लकीर है, जिसमें हम घूमते चले जाते हैं। हर पीढ़ी वही भूल करती है, हर आदमी वही भूल करता है, हर जन्म में वही भूल करता है। भूलें बड़ी सीमित हैं।


धर्म की खोज की दृष्टि से यह बुनियादी भूल है कि हम बाहर से भीतर की तरफ चलना शुरू करते हैं। क्योंकि यह जीवन के विपरीत प्रवाह है, इसमें सफलता कभी भी मिल नहीं सकती। सफलता उसी को मिल सकती है, जो जीवन के ठीक प्रवाह को समझता है और भीतर से बाहर की तरफ जाता है।

गीता दर्शन 

ओशो 

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