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Friday, February 19, 2016

परित्राणाय साधुनाम ,विनाशायच दुष्कृताम

मैं एक सभा में था। एक बड़े साधु करपात्री जी बोले। बोलने के बाद उन्होंने जनता से कुछ नारे लगवाए। उन्होंने पहला नारा लगवाया, धर्म की जय हो। तीन बार लोग चिल्लाए, धर्म की जय हो। फिर पीछे उन्होंने नारा लगवाया, अधर्म का नाश हो।

मैंने उनके साथ बैठे साधु से कहा, जब धर्म की जय हो गई, तो अधर्म बचेगा कैसे? धर्म की जय हो गई, अधर्म का नाश हो गया। यह तो ऐसे ही हुआ कि लोगों से हम कहें कि दीए जलाओ, और फिर कहें, अंधेरा हटाओ। दोनों बातें बेमानी हैं। दीया जल गया, तो बात खतम हो गई। जब धर्म की जय हो गई तीन बार, अब कृपा करके अधर्म का नाश मत करवाएं। अधर्म नाश हो गया। और अगर धर्म की जय से नाश नहीं हुआ, तो अधर्म के नाश के नारे लगाने से नाश होने वाला नहीं है।
 
धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म के लिए भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। धर्म को भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। वह जगह साधुओं के हृदय हैं। अगर साधु न हों, तो धर्म को पैर रखने की जगह नहीं मिलती। धर्म तब अटक जाता है, त्रिशंकु हो जाता है, आकाश में भटक जाता है।


धर्म को पैर रखने के लिए साधुओं के हृदय चाहिए, अधर्म को पैर रखने के लिए असाधुओं के हृदय चाहिए। अधर्म भी खड़ा नहीं हो सकता; अधर्म भी हमारे सहारे खड़ा होता है, हमारे सहारे प्रकट होता है। धर्म भी हमारे सहारे प्रकट होता है। साधु हों, तो धर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। असाधु हों, अधर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। और जब अधर्म होता है, दुष्ट होते हैं; साधु नहीं होते, धर्म नहीं होता; तो कृष्ण कहते हैं कि मैं, अर्थात कोई भी चेतना जो अपनी सब वासनाओं से मुक्त हो जाती है, लौट आती है करुणावश–साधुओं के उद्धार के लिए, असाधुओं के विनाश के लिए।


 गीता दर्शन 

ओशो 

संभवामि युगे युगे

  जैसा मैंने कहा, कृष्ण जैसे लोग करुणा से पैदा होते हैं। वासना से नहीं, करुणा से। वासना और करुणा का थोड़ा भेद समझें, तो यह सूत्र समझ में आ जाएगा।

वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए। वासना का लक्ष्य होता हूं मैं, करुणा का लक्ष्य होता है कोई और। वासना अहंकार केंद्रित होती है, करुणा अहंकार विकेंद्रित होती है। ऐसा समझें कि वासना मैं को केंद्र बनाकर भीतर की तरफ दौड़ती है; करुणा पर को परिधि बनाकर बाहर की तरफ दौड़ती है।


करुणा, जैसे फूल खिले और उसकी सुवास चारों ओर बिखर जाए। करुणा ऐसी होती है, जैसे हम पत्थर फेंकें झील में; वर्तुल बने, लहर उठे और दूर किनारों तक फैलती चली जाए।


करुणा एक फैलाव है, वासना एक सिकुड़ाव है। वासना संकोच है, करुणा विस्तार है।


कृष्ण कहते हैं, करुणा से; युगों-युगों में जब धर्म विनष्ट होता है, तब धर्म की पुनर्संस्थापना के लिए; जब अधर्म प्रभावी होता है, तब अधर्म को विदा देने के लिए मैं आता हूं।


यहां ध्यान रखें कि यहां कृष्ण जब कहते हैं, मैं आता हूं, तो यहां वे सदा ही इस मैं का ऐसा उपयोग कर रहे हैं कि उस मैं में बुद्ध भी समा जाएं, महावीर भी समा जाएं, जीसस भी समा जाएं, मोहम्मद भी समा जाएं। यह मैं व्यक्तिवाची नहीं है। असल में वे यह कह रहे हैं कि जब भी धर्म के जन्म के लिए और जब भी अधर्म के विनाश के लिए कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। इसे ऐसा समझें, जब भी कहीं प्रकाश के लिए और अंधकार के विरोध में कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। यहां इस मैं से उस परम चेतना का ही प्रयोजन है।


जो भी व्यक्ति अपनी वासनाओं को क्षीण कर लेता है, तब वह करुणा के कारण लौट आ सकता है; युगों-युगों में, कभी भी, जब भी जरूरत हो उसकी करुणा की, कोई लौट आ सकता है। उस व्यक्ति का कोई नाम नहीं रह जाता, कि वह कौन है। क्योंकि सब नाम वासनाओं के नाम हैं। जब तक मेरी वासना है, तब तक मेरा नाम है, तब तक मेरी एक आइडेंटिटी है।


इसलिए कृष्ण मुझसे नहीं कह सकते कि तुम कृष्ण हो। लेकिन अगर मेरे भीतर कोई वासना न रह जाए, निर्वासना हो जाए, तो कोई अहंकार भी नहीं रह जाएगा, मेरा कोई नाम भी नहीं रह जाएगा। तब मेरा जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है। अगर आपके भीतर कोई वासना न रह जाए, तो आपका जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है।
असल में ठीक से समझें, तो हमारी अशुद्धियां, हमारे व्यक्तित्व हैं। और जब हम शुद्धतम रह जाते हैं, तो हमारा कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। इसलिए कहीं भी कोई पैदा हो…।


मोहम्मद ने कहा है कि मुझसे पहले भी आए परमात्मा के भेजे हुए लोग और उन्होंने वही कहा। उनके ही वक्तव्य को पूरा करने मैं भी आया हूं।


गीता दर्शन

ओशो

योगमाया

कृष्ण कहते हैं, अजन्मा हूं मैं। यहां जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह परम मैं, परमात्मा का मैं। मेरा कोई जन्म नहीं; फिर भी उतरा हूं इस शरीर में। तो फिर इस शरीर में उतरना क्या है? उसको वे कहते हैं, योगमाया से।
इस शब्द को समझना जरूरी होगा, क्योंकि यह बहुत की, बहुत कुंजी जैसे शब्दों में से एक है, योगमाया। योगमाया से, इसका क्या अर्थ है? इसका क्या अर्थ है? थोड़ा-सा सम्मोहन की दो-एक बातें समझ लें, तो यह समझ में आ सकेगा।

योगमाया का अर्थ है–या ब्रह्ममाया कहें या कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता: अर्थ यही है कि अगर आत्मा चाहे, आकांक्षा करे, तो वह किसी भी चीज में प्रवेश कर सकती है। आकांक्षा करे, तो किसी भी चीज के साथ संयुक्त हो सकती है। आकांक्षा करे, तो जो नहीं होना चाहिए वस्तुतः, वह भी हो सकता है। संकल्प से ही हो जाता है।


सम्मोहन के मैंने कहा एक-दो सूत्र समझें, तो योगमाया समझ में आ सके। वह भी एक ग्रेटर हिप्नोसिस है। कहें कि स्वयं परमात्मा अपने को सम्मोहित करता है, तो संसार में उतरता है, अन्यथा नहीं उतर सकता। परमात्मा को भी संसार में उतरना है–हम भी उतरते हैं, तो सम्मोहित होकर ही उतरते हैं। एक गहरी तंद्रा में उतरें, तो ही पदार्थ में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए जाग जाएं, तो पदार्थ के बाहर हो जाते हैं। और सम्मोहन में डूब जाएं, तो पदार्थ के भीतर हो जाते हैं।


अगर किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाए जो कि दुनिया में हजारों जगह प्रयोग किए गए हैं, खुद मैंने भी प्रयोग किए हैं और पाया कि सही हैं आपको अगर सम्मोहित करके बेहोश किया जाए, फिर आपके हाथ में एक कंकड़ रख दिया जाए साधारण सड़क का उठाकर और कहा जाए, अंगारा रखा है आपके हाथ में। आप चीख मारकर उस कंकड़ को मेरे लिए और आपके लिए उस अंगारे को फेंक देंगे और चीख मारेंगे, जैसे अंगारे में हाथ जल गया।


यहां तक तो हम कहेंगे, ठीक है। आदमी गहरी बेहोशी में है। उसे भ्रम हुआ कि अंगारा है। लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि उस बेहोश आदमी के हाथ पर फफोला भी आ जाएगा। फफोला होश में आने पर भी रहेगा, उतनी ही देर, जितनी देर असली अंगारे से पड़ा हुआ फफोला रहता है। यह फफोला क्या है? यह योगमाया है। यह फफोला सिर्फ संकल्प से पैदा हुआ है, क्योंकि अंगारा हाथ पर रखा नहीं गया था, सिर्फ सोचा गया था।


ठीक इससे उलटा भी हो जाता है। अलाव भरे जाते हैं और लोग अंगारों पर कूद जाते हैं और जलते नहीं। वह भी संकल्प है। वह भी गहरा संकल्प है, इससे उलटा। सम्मोहन में अंगारा हाथ पर रख दिया जाए और कहा जाए, ठंडा कंकड़ रखा है, तो फफोला नहीं पड़ेगा। भीतर हमारी चेतना जो मान ले, वही हो जाता है।


कृष्ण कहते हैं कि मैं परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं कि मैं अपनी योगमाया से शरीर में उतरता हूं।


शरीर में उतरना तो सदा ही सम्मोहन से होता है। लेकिन सम्मोहन दो तरह के हो सकते हैं। और यही फर्क अवतार और साधारण आदमी का फर्क है। अगर आप जानते हुए, कांशसली, सचेत, शरीर में उतरें–जानते हुए–तो आप अवतार हो जाते हैं। और अगर आप न जानते हुए शरीर में उतरें, तो आप साधारण व्यक्ति हो जाते हैं। सम्मोहन दोनों में काम करता है। लेकिन एक स्थिति में आप सम्मोहित होते हैं प्रकृति से और दूसरी स्थिति में आप आत्म-सम्मोहित होते हैं, आटो-हिप्नोटाइज्ड होते हैं। आप खुद ही अपने को सम्मोहित करके उतरते हैं। कोई दूसरा नहीं, कोई प्रकृति आपको सम्मोहित नहीं करती।


साधारणतः हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है। मैं मरूंगा। हजार इच्छाएं मुझे पकड़े होंगी, वे पूरी नहीं हो पाई हैं। वे मेरे मन-प्राण पर अपने घोंसले बनाए हुए बैठी हैं। वे मेरे मन-प्राण को कहती हैं कि और शरीर मांगो, और शरीर लो; शीघ्र शरीर लो, क्योंकि हम अतृप्त हैं; तृप्ति चाहिए। जैसे रात आप सोते हैं। और अगर आप सोचते हुए सोए हैं कि एक बड़ा मकान बनाना है, तो सुबह आप पुनः बड़ा मकान बनाना है, यह सोचते हुए उठते हैं। रातभर आकांक्षा प्रतीक्षा करती है कि ठीक है, सो लो। उठो, तो वापस द्वार पर खड़ी है कि बड़ा मकान बनाओ।


रात आखिरी समय, सोते समय जो आखिरी विचार होता है, वह सुबह के समय, उठते वक्त पहला विचार होता है। खयाल करना तो पता चलेगा। अंतिम विचार, सुबह का पहला विचार होता है। मरते समय आखिरी विचार, जन्म के समय पहला विचार बन जाता है। बीच में नींद का थोड़ा-सा वक्त है। वह खड़ा रहता है; इच्छा पकड़े रहती है। और वह इच्छा आपको सम्मोहित करती है और नए जन्म में यात्रा करवा देती है।


जब कृष्ण कह रहे हैं, औरों की भांति, तो फर्क इतना ही है कि और अपनी-अपनी इच्छाओं के सम्मोहन में नए जन्म में प्रविष्ट हुए हैं। उन्हें कुछ पता नहीं है। जानवरों की तरह गलों में रस्सियां बंधी हों, ऐसे बंधे हुए खींचे गए हैं इच्छाओं से। इच्छाओं के पाश में बंधे पशुओं की भांति बेहोश, मूर्च्छित वे नए जन्मों में प्रविष्ट हुए हैं। न उन्हें याद है मरने की, न उन्हें याद है नए जन्म की; उन्हें सिर्फ याद हैं अंधी इच्छाएं। और वे फिर जैसे ही शक्ति मिलेगी, शरीर मिलेगा, अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लग जाएंगे। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने पिछले जन्म में भी पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने और भी पिछले जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने जन्मों-जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं को वे पुनः पूरा करने में लग जाएंगे। एक वर्तुल की भांति, एक विसियस सर्कल की भांति, दुष्टचक्र घूमता रहेगा।


कृष्ण जैसे व्यक्ति जानते हुए जन्मते हैं, किसी इच्छा के कारण नहीं, कोई अंधी इच्छा के कारण नहीं। फिर किसलिए जन्मते होंगे? जब इच्छा न बचे, तो कोई किसलिए जन्मेगा? जब इच्छा न बचे, तो नए जन्म को धारण करने का कारण क्या रह जाएगा? इच्छा तो मूर्च्छित-जन्म का कारण है। फिर क्या कारण रहेगा? अकारण तो कोई पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अकारण कोई पैदा होता भी नहीं। लेकिन जब इच्छा विलीन हो जाती है–और जब इच्छा विलीन हो जाती है तभी–करुणा का जन्म होता है, कम्पैशन का जन्म होता है।


कृष्ण, बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति करुणा के कारण पैदा होते हैं। जो उन्होंने जाना, जो उनके पास है, उसे बांट देने को पैदा होते हैं। लेकिन यह जन्म कांशस बर्थ, सचेष्ट जन्म है। इसलिए उनकी पिछली मृत्यु जानी हुई होती है; यह जन्म जाना हुआ होता है। और जो व्यक्ति अपनी एक मृत्यु और एक जन्म को जान लेता है, उसे अपने समस्त जन्मों की स्मृति वापस उपलब्ध हो जाती है। वह अपने समस्त जन्मों की अनंत शृंखला को जान लेता है।


गीता दर्शन 

ओशो 

ध्यान को शास्त्रों से जो जानेगा...

एक साध्वी ने योग पर एक किताब लिखी, मुझे भेजी। देखा, किताब मुझे बहुत पसंद पड़ी; बहुत अच्छी लिखी। लेकिन दो-चार जगह मुझे ऐसा लगा कि उस साध्वी को योग का या ध्यान का कोई भी अनुभव नहीं है। क्योंकि जो फिजूल बातें थीं, वह तो उसने बड़े बलपूर्वक कहीं, और जो सार्थक बातें थीं, उनमें बड़ी झिझक थी।

फिर दो-चार वर्ष के बाद वह साध्वी मुझे मिली। मैंने कुछ बात न की उस किताब की। थोड़ी देर के बाद उसने कहा, मुझे अकेले में कुछ बात करनी है। मैंने कहा, पूछें। उसने कहा, मुझे ध्यान के संबंध में कुछ बताएं कि कैसे करूं? मैंने कहा, चार वर्ष हुए तुम्हारी किताब देखी थी, तब भी मुझे लगा था कि ध्यान का तुम्हें कुछ पता नहीं होना चाहिए। क्योंकि जो-जो गहरी बात थी, उसमें झिझक थी। और जो-जो बेकार बात थी, बहुत बोल्ड, बहुत साहस से कही गई थी! उसने कहा, मुझे तो कुछ भी पता नहीं। फिर, मैंने कहा, वह किताब क्यों लिखी? उसने कहा, वह तो मैंने दस-पचास किताबें पढ़कर लिखी–लोगों के लाभ के लिए। मैंने कहा, जिस किताब को लिखने से भी तुम्हें लाभ नहीं हुआ, उस किताब को पढ़ने से लोगों को लाभ होगा? तुम लिखने के चार साल बाद भी अभी ध्यान कैसे करें, यह पूछती हो; और तुमने उसमें ध्यान के चार प्रकार होते हैं और क्या-क्या होता है, सब गिनाया हुआ है! उसने कहा, वह सब शास्त्रों में लिखा है।


पर ध्यान को शास्त्रों से जो जानेगा, उसने सूरज नहीं देखा, सूरज की तस्वीर देखी। तस्वीर को हाथ में रखा जा सकता है, सूरज को हाथ में नहीं रखा सकता। तस्वीर जला नहीं सकती, सूरज के पास जाना बड़ा कठिन है। जिसने शास्त्र से ध्यान सीखा, उसने कागज की नाव में यात्रा करने का विचार किया है। खतरनाक है वह यात्रा।
उधार है ज्ञान, इसलिए झिझकता हुआ है। ज्ञान ने साहस खो दिया। बल्कि और मजे की बात है, अज्ञान बहुत साहसी है आज। अज्ञान इतना साहसी कभी भी न था।


ध्यान रहे, अगर चार्वाक को कहना पड़ता था कि ईश्वर नहीं है, तो हजार दलीलें देनी पड़ती थीं, तब चार्वाक कहता था, ईश्वर नहीं है। ईश्वर नहीं है, एक कनक्लूजन था, एक निष्पत्ति थी। हजार दलील देता था और फिर कहता था, देखो, यह दलील, यह दलील, यह दलील; तब मैं कहता हूं कि ईश्वर नहीं है। हजार दलील देता था, तब कहता था कि देखो, मैं कहता हूं, आत्मा नहीं है। ज्ञान बहुत शक्तिशाली था, वह कहता था, ब्रह्म है–बिना दलील के। और अज्ञान बहुत कमजोर था; वह हजार दलील जुटाता था, तब कहता था कि शक होता है आत्मा पर।


आज हालत बिलकुल उलटी है। आज जिसको कहना है, आत्मा नहीं है, बिना दलील के कहता है, आत्मा नहीं है, ईश्वर नहीं है; कोई दलील देने की जरूरत नहीं है। और जिसको कहना है, ईश्वर है, वह हजार दलीलें इकट्ठी करता है कि यह कारण, यह कारण, इसलिए। जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसे भगवान जगत को बनाता है। कुम्हार, भगवान को सिद्ध करने के लिए दलील है। बेचारा कुम्हार, उसका कोई हाथ नहीं! इतनी कमजोर दलीलों पर कहीं ज्ञान खड़ा हुआ है?


ज्ञान अनुभव है।


गीता दर्शन 

ओशो 
 



मैत्री

सत्य को जब भी किसी के पास समझने कोई गया हो, तो एक मैत्री का संबंध अनिवार्य है। अन्यथा सत्य को पहचाना नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता।

जिसके प्रति मैत्री का भाव नहीं, उसे हम अपने भीतर प्रवेश नहीं देते हैं। और सत्य बड़ा सूक्ष्म प्रवेश है। उसके लिए एक रिसेप्टिविटी, एक ग्राहकता चाहिए।

जब आप अपरिचित आदमी के पास होते हैं, तो शायद आपने खयाल किया हो, न किया हो; न किया हो, तो अब करें; जब आप अपरिचित, अजनबी आदमी के पास होते हैं, तो क्लोज्ड हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं। आपके सब द्वार-दरवाजे चेतना के बंद हो जाते हैं। आप संभलकर बैठ जाते हैं; किसी हमले का डर है। अनजान आदमी से किसी आक्रमण का भय है। न हो आक्रमण, तो भी अनजान आदमी अनप्रेडिक्टिबल है। पता नहीं क्या करे! इसलिए तैयार होना जरूरी है। इसलिए अजनबी आदमी के साथ बेचैनी अनुभव होती है। मित्र है, प्रिय है, तो आप अनआर्म्ड हो जाते हैं। सब शस्त्र छोड़ देते हैं रक्षा के। फिर भय नहीं करते। फिर सजग नहीं होते। फिर रक्षा को तत्पर नहीं होते। फिर द्वार-दरवाजे खुले छोड़ देते हैं।

मित्र है, तो अतिथि हो सकता है आपके भीतर। मित्र नहीं है, तो अतिथि नहीं हो सकता। सत्य तो बहुत बड़ा अतिथि है। उसके लिए हृदय के सब द्वार खुले होने चाहिए। इसलिए एक इंटिमेट ट्रस्ट, एक मैत्रीपूर्ण श्रद्धा अगर बीच में न हो, एक भरोसा अगर बीच में न हो, तो सत्य की बात कही तो जा सकती है, लेकिन सुनी नहीं जा सकती। और कहने वाला पागल है, अगर उससे कहे, जो सुनने में समर्थ न हो।

 

गीता दर्शन

ओशो

जब भी हम भोगना चाहते हैं, तब हमें कुछ त्यागना पड़ता है

आदमी का जो स्वभाव है, वह उसका बीइंग है। और आदमी का जो स्वभाव नहीं है; वह उसका कर्म है, वह उसका डूइंग है।

और हमारे दो हिस्से हैं, एक हमारा स्वभाव, जो मैं हूं; और एक मेरे कर्म का जगत, जो मैं करता हूं।

एक आदमी से पूछें, आप कौन हैं? वह कहता है कि मैं चित्रकार हूं। असल में चित्रकार होना, उसके होने की खबर नहीं है; इस बात की खबर है कि वह क्या करता है। चित्र बनाता है।

एक आदमी कहता है कि मैं दुकानदार हूं। दुकानदार कोई हो सकता है दुनिया में? दुकानदार कर्म है, होना नहीं है। वह आदमी यह कह रहा है कि मैं दुकानदारी करता हूं। उसको कहना यह चाहिए कि मैं दुकानदारी करता हूं। पर वह कहता है, मैं दुकानदार हूं।

हम कर्म के जोड़ को ही अपनी आत्मा बनाए हुए बैठे हैं। इसलिए हर आदमी अपने कर्म से ही अपना परिचय देता है–हर आदमी! किसी से भी पूछो, कौन हो? वह फौरन बताता है कि मेरा कर्म क्या है। पूछा ही नहीं आपसे कि आपका कर्म क्या है। लेकिन अगर नहीं पूछा कि कर्म क्या है, तो बड़ी मुश्किल है। उसका तो हमें पता ही नहीं कि मैं कौन हूं। कर्म का ही लेखा-जोखा है।


तो हर आदमी अपना खाता-बही लिए अपने साथ चलता है। वह कहता है, यह मैं हूं। कोई आदमी अपनी तिजोड़ी ढोता है, वह कहता है, यह मैं हूं। कोई आदमी अपनी पोथियां लेकर चलता है कि यह मैं हूं। कोई आदमी अपना त्याग लिए चलता है कि यह मैं हूं। देखो, मैंने बारह साल तपश्चर्या की; यह मैं हूं।


कर्म को ही हम कहते हैं कि यह मैं हूं। अगर कर्म छीन लिया जाए, तो भी आप होंगे या नहीं होंगे? अगर त्यागी से त्याग छीन लिया जाए, धनी से धन छीन लिया जाए, चित्रकार से उसकी चित्रकला छीन ली जाए, उसके हाथ काट दिए जाएं कि वह चित्र भी न बना सके, तो भी चित्रकार, जो कह रहा था कि मैं चित्रकार हूं, वह होगा कि नहीं?


वह होगा ही। हाथ काट डालो, तूलिका छीन लो; धन छीन लो, त्याग छीन लो, ज्ञान छीन लो; कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा होना तो होगा ही। मेरा होना मेरा करना नहीं है। मेरा होना नितांत अकर्म की अवस्था है, नान क्शन की; जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, सिर्फ हूं।

स्वाभाविक है कि कृष्ण तत्काल कर्म की बात कहें। और अर्जुन ने भी पूछा है, कर्म क्या है? उसने भी नहीं पूछा, वैदिक कर्मकांड क्या है? पूछा कि कर्म क्या है? कृष्ण भी नहीं कहते कि वैदिक कर्म क्या है। वे कहते हैं, कर्म, भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है।


बड़ा ही महत्वपूर्ण सूत्र है।

इस जगत में हमारे मन में, जब भी हम कुछ पाने की इच्छा से चलते हैं, जब भी हम भोगना चाहते हैं, तब हमें कुछ त्यागना पड़ता है। और ध्यान रहे, जब भी हम जगत में कुछ भोगना चाहते हैं, तो हमें स्वयं को त्यागना पड़ता है, दि वेरी मोमेंट। अगर मैं चाहता हूं कि मैं धनी हो जाऊं, तो हर धन की तिजोड़ी भरने के साथ-साथ मुझे अपनी आत्मा को क्षीण करते जाना पड़ेगा। अगर मैं चाहता हूं कि बड़े यश के सिंहासनों पर प्रतिष्ठित हो जाऊं, तो जैसे-जैसे मैं यश के सिंहासन की सीढ़ियां चढूंगा, वैसे-वैसे मेरा अस्तित्व, मेरा बीइंग, मेरी आत्मा नर्क की सीढ़ियां उतरने लगेगी।


 गीता दर्शन 

ओशो 

मौन का अर्थ

 मौन का अर्थ यह नहीं कि होंठ बंद हो गए। मौन का अर्थ है, भीतर भाषा बंद हो गई, भाषा गिर गई। जैसे कोई भाषा ही पता नहीं है। और अगर आदमी स्वस्थ हो, तो जब अकेला हो, उसे भाषा पता नहीं होनी चाहिए। क्योंकि भाषा दूसरे के साथ कम्युनिकेट करने का साधन है, अकेले में भाषा के जानने की जरूरत नहीं है। अगर वह भाषा गिर जाए, तो जो मौन भीतर बनेगा, वह स्वभाव है, वह किसी ने सिखाया नहीं है।


मैं किसी भी भाषा वाले घर में पैदा हो जाऊं, हिंदी बोलूं कि मराठी कि गुजराती, कुछ भी बोलूं, लेकिन जिस दिन मैं मौन में जाऊंगा, उस दिन मेरा मौन न गुजराती होगा, न हिंदी होगा, न मराठी होगा। सिर्फ मौन होगा; वह स्वभाव है।


हम इतने लोग यहां बैठे हैं। अगर हम शब्दों में जीएं, तो हम सब अलग-अलग हैं। और अगर हम मौन में जीएं, तो हम सब एक हैं। अगर इतने बैठे हुए लोग यहां मौन हो जाएं क्षणभर को, तो यहां इतने लोग नहीं, एक ही व्यक्ति रह जाएगा। एक ही! बिकाज लैंग्वेज इज़ दि डिवीजन। भाषा तोड़ती है। मौन तो जोड़ देगा। हम एक ही हो जाएंगे।


और ऐसा ही नहीं कि हम व्यक्तियों से एक हो जाएंगे। भाषा के कारण हम मकान से एक नहीं हो सकते। भाषा के कारण हम वृक्ष से एक नहीं हो सकते। भाषा के कारण हम चांदत्तारों से एक नहीं हो सकते। लेकिन मौन में तो हम उनसे भी एक हो जाएंगे। आखिर मौन में क्या बाधा है कि मैं चांद से बोल लूं! मौन में क्या बाधा है कि चांद से हो जाए बातचीत–बातचीत मुझे कहनी पड़ रही है–कि चांद से हो जाए संवाद, मौन में! भाषा में तो नहीं हो सकता; मौन में हो सकता है।


इसलिए जो लोग गहरे मौन में गए, जैसे महावीर। इसलिए महावीर का जो सर्वाधिक प्रख्यात नाम बन गया, वह बन गया मुनि, महामुनि। मौन में गए। इसलिए आज भी महावीर का संन्यासी जो है, मुनि कहा जाता है, हालांकि मौन में बिलकुल नहीं है।


महा मौन में चले गए। और इसीलिए महावीर कह सके कि वनस्पति को भी चोट मत पहुंचाना। रास्ते पर चलते वक्त कीड़ी भी न दब जाए, इसका खयाल रखना। यह महावीर को पता कैसे चला कि कीड़ी की इतनी चिंता करनी चाहिए!


जो भी आदमी मौन में जाएगा, उसके संबंध चींटी से भी उसी तरह जुड़ जाते हैं, वृक्ष से भी उसी तरह जुड़ जाते हैं, पत्थर से भी उसी तरह जुड़ जाते हैं, जैसे आदमियों से जुड़ते हैं। अब उसके लिए जीवन सर्वव्यापी हो गया। अब सबमें एक का ही विस्तार हो गया। अब यह चींटी नहीं है, जो दब जाएगी, जीवन है। और यह वृक्ष नहीं है, जो कट जाएगा, जीवन है। अब जहां भी कुछ घटता है, वह जीवन पर घटता है। और मौन में होकर जिसने इस विराट जीवन को अनुभव किया, जब भी कहीं कुछ कटता है, तो मैं ही कटता हूं फिर, फिर कोई दूसरा नहीं कटता है।


गीता दर्शन 

ओशो 

कहां है वह ब्रह्म?

विज्ञान कहता है, कोई भी चीज विनष्ट नहीं होती। यह बहुत मजे की बात है। विज्ञान की तीन सौ वर्षों की खोज कहती हैं कि कोई भी चीज विनष्ट नहीं होती। और कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो विनष्ट नहीं होता, वही ब्रह्म है। क्या विज्ञान को कहीं से कोई गंध मिलनी शुरू हो गई ब्रह्म की? क्या कहीं से कोई झलक विज्ञान को पकड़ में आनी शुरू हुई उसकी, जो विनष्ट नहीं होता?


झलक नहीं मिली, लेकिन अनुमान मिला है। नाट ए ग्लिम्प्स, बट जस्ट एन इनफरेंस। एक अनुमान विज्ञान के हाथ में आ गया है। उसको एक बात खयाल में आ गई है कि सिर्फ रूप ही बदलता है।


ध्यान रहे, विज्ञान को अभी उसका कोई पता नहीं चला जो नहीं बदलता है, लेकिन एक बात पता चल गई कि सिर्फ रूप ही बदलता है। लेकिन रूप के पीछे कुछ है जरूर, जो नहीं बदलता है। उसका कोई पता नहीं है। इसलिए विज्ञान की खोज निगेटिव है, नकारात्मक है। उसे एक बात पता चल गई कि जो बदलता है, वह रूप है।


लेकिन रूप के भीतर कुछ न बदलने वाला भी सदा मौजूद है, अन्यथा रूप भी बदलेगा कैसे? किस पर बदलेगा? बदलाहट के लिए भी एक न बदलने वाला आधार चाहिए। परिवर्तन के लिए भी एक शाश्वत तत्व चाहिए। और दो परिवर्तन के बीच में जोड़ने के लिए भी कोई अपरिवर्तित कड़ी चाहिए।


क्या आपने कभी खयाल किया कि जब पानी भाप बनता है, तो जरूर बीच में एक क्षण होता होगा, एक गैप, इंटरवल, जब पानी भी नहीं होता और भाप भी नहीं होती। लेकिन अभी विज्ञान को उस गैप का, उस अंतराल का कोई पता नहीं है। विज्ञान कहता है, पानी हम जानते हैं; गर्म करते हैं; फिर एक क्षण आता है कि भाप को हम जानते हैं।


लेकिन पानी और भाप के बीच में कोई एक क्षण जरूरी है; क्योंकि जब तक पानी पानी है, तो पानी है; और जब वह भाप हो गया, तो भाप हो गया। लेकिन कोई एक क्षण चाहिए, जब पानी के भीतर की जो वस्तु है, जो कंटेंट है, जो आत्मा है, वह पानी भी न हो। क्योंकि अगर वह पानी होगी, तो भाप न हो सकेगी। और भाप भी न हो, क्योंकि अगर वह भाप हो चुकी होगी, तो पानी न होगी। एक क्षण के लिए न्यूट्रल…


जैसे कोई आदमी गाड़ी के गेयर बदलता है, तो अगर पहले गेयर से दूसरे गेयर में गाड़ी डालता है, तो चाहे कितनी ही त्वरा से डाले, कितनी ही तेजी से डाले, चाहे आटोमैटिक ही क्यों न हो गेयर, आदमी को डालना भी न पड़े, पर बीच में एक न्यूट्रल, एक तटस्थ क्षण है, जब गेयर ऐसी जगह से गुजरता है, जहां वह पहले गेयर में नहीं होता और दूसरे में पहुंचा नहीं होता। यह जरूरी क्षण है, यह कड़ी है।

लेकिन इस कड़ी का विज्ञान को अनुमान भर होता है। और वही कड़ी ब्रह्म है। लेकिन इंद्रियों के द्वारा अनुमान भी हो जाए तो बहुत है।

कृष्ण कहते हैं, वह जो नहीं नाश को उपलब्ध होता है, वही ब्रह्म है।

कहां है वह ब्रह्म? अगर आप रूप को देखते रहेंगे, तो वह ब्रह्म कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन अरूप को कैसे देखें? कहां देखें?

पानी दिखता है, भाप दिखती है, बीच का वह अरूप तो दिखाई नहीं पड़ता। अगर उसे देखना हो, तो सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं में ही उस अरूप को देखना पड़ता है।

जब आपका एक विचार जाता है और दूसरा आता है, तो दोनों विचारों के बीच में भी फिर वही कड़ी होती है, जब कोई विचार नहीं होता। विचार एक रूप है, दूसरा विचार दूसरा रूप है–थाट फार्म है–विचार की अपनी आकृतियां हैं।

यह जानकर आप हैरान होंगे कि विचार भी आकृतिहीन नहीं हैं। जब आप क्रोध में होते हैं, तब आपके चित्त की आकृति भिन्न होती है। जब आप प्रेम में होते हैं, तब आपके चित्त की आकृति भिन्न होती है।

कभी आपने खयाल किया, जब आप कंजूसी से भरे होते हैं, तो सिर्फ कंजूसी नहीं होती, भीतर भी कोई चीज सिकुड़ जाती है। जब आप किसी को प्रेम से कुछ देते हैं, तो सिर्फ देना बाहर ही नहीं घटता, भीतर भी कुछ फैल जाता है। आकार है। जब हम कहते हैं कंजूस, तो उस शब्द में भी सिकुड़ने का भाव है; कोई चीज सिकुड़ गई है। जब हम कहते हैं दानी, देने वाला, प्रेमी, बांटने वाला, तो कोई चीज बंटती है और फैल जाती है।

प्रत्येक विचार का आकार है। और आपके भीतर प्रतिपल आकार बदलते रहते हैं। आपके चेहरे पर भी आकार छप जाते हैं। जो आदमी निरंतर क्रोध करता है, वह जब नहीं भी क्रोध करता है, तब भी लगता है, क्रोध में है। वह निरंतर क्रोध की जो आकृति है, उसके चेहरे पर स्थायी हो जाती है और फिर चेहरा उसको छोड़ता नहीं। क्योंकि चेहरे को पता है कि कभी भी अभी थोड़ी देर में फिर जरूरत पड़ेगी। वह पकड़े रखता है, जस्ट टु बी इफिशिएंट, कुशल होने की दृष्टि से। अब ठीक है, जब बार-बार जरूरत पड़ती है, तो उसको हटाने की आवश्यकता भी क्या है! जब तक हटाएंगे, तब तक पुनः आवश्यकता आ जाएगी। तो रहने दो। तो फिक्स्ड इमेज बैठ जाती है चेहरे पर, सभी लोगों के। और कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि पीछा ही नहीं छोड़ता।


जिसका विनाश नहीं है

साक्रेटीज के पास अगर कोई पूछने जाता था, तो फिर दुबारा पूछने नहीं जाता था। क्यों? क्योंकि साक्रेटीज उत्तर तो देता ही नहीं था। आप पूछकर अगर फंस बैठे, तो आपसे इतने प्रश्न पूछता था कि दुबारा आप कभी उस रास्ते नहीं निकलते, जहां साक्रेटीज रहता है। साक्रेटीज को एथेंस के लोगों ने जहर दिया, उसमें सबसे बड़ा कारण यही था कि साक्रेटीज ने एथेंस के हर आदमी को अज्ञानी सिद्ध कर दिया था, प्रश्न पूछ-पूछकर।

अगर आप पूछते कि ईश्वर है? तो साक्रेटीज पहले पूछता, ईश्वर से आपका क्या अर्थ है? अब आप फंसे। आप कहेंगे, अर्थ ही मालूम होता, तो हम पूछते ही क्यों? साक्रेटीज कहता है, जिस शब्द का अर्थ ही नहीं मालूम, उसका तुम प्रश्न कैसे बनाओगे?

एथेंस के एक-एक आदमी को उसने उलझन में डाल दिया था। आखिर एथेंस गुस्से में आ गया। उस नगर ने कहा कि यह आदमी इस तरह का है कि जवाब तो देता नहीं, और उलटे हम सबको अज्ञानी सिद्ध कर दिया है।
छोटी-मोटी बातों पर अज्ञान सिद्ध हो जाता है। कोई पूछता नहीं, इसीलिए आपका ज्ञान चलता है। इसलिए छोटे बच्चे बहुत परेशान करने वाले मालूम पड़ते हैं। इसलिए नहीं कि वे आपसे कुछ भी अनर्गल पूछते हैं। असल में वे ऐसे सवाल पूछते हैं कि पूछते से ही आपके जवाब डगमगा जाते हैं। कोई पूछता नहीं है, इसलिए चलता है।

संत अगस्तीन कहता था कि कई सवाल ऐसे हैं कि जब तक तुम नहीं पूछते, तब तक मुझे जवाब मालूम होते हैं। तुमने पूछा कि जवाब गया! वह कहता था, मुझे अच्छी तरह पता है कि व्हाट इज़ टाइम–समय क्या है, मैं जानता हूं। बट दि मोमेंट यू आस्क मी; पूछा नहीं तुमने कि सब गड़बड़ हुआ!

आप भी जानते हैं कि समय क्या है। लेकिन आपको पता होना चाहिए, आइंस्टीन भी उत्तर नहीं दे सकता कि व्हाट इज़ टाइम? समय क्या है? और आप सब जानते हैं कि समय क्या है। हम सबको पता है। समय से ट्रेन पर पहुंचते हैं, समय से घर आते हैं, दफ्तर जाते हैं। कौन ऐसा आदमी होगा जिसको पता नहीं कि समय क्या है! लेकिन आइंस्टीन भी जवाब नहीं दे सकता कि समय क्या है। पूछ लो, तो मुश्किल खड़ी हो जाती है।

अज्ञान छिपा-छिपा चलता है, जब तक कोई पूछता नहीं। पूछना कोई शुरू कर दे, अज्ञान के अतिरिक्त हाथ में कुछ नहीं रह जाता।

सुकरात ने लोगों को पूछकर दिक्कत में डाल दिया। जवाब तो दिए नहीं। शायद सुकरात बुद्ध से भी ज्यादा अनुभवी हो चुका था। उसने सोचा कि इसके पहले कि तुम पूछो, बेहतर है कि हम ही पूछ लें!


लेकिन कृष्ण इस लिहाज से अदभुत हैं। शायद गैर-अनुभव के कारण ही, क्योंकि वे ज्यादा प्राचीन हैं! वे उत्तर दिए चले जाते हैं। वे अर्जुन को टोकते भी नहीं कि तू क्या पूछ रहा है? क्यों पूछ रहा है? और इसका जवाब मैं दे चुका हूं। नहीं, वे फिर से उत्तर देने को राजी हो जाते हैं। कृष्ण ने जो उत्तर दिया है, वह हम समझें।

अर्जुन का पहला प्रश्न है, ब्रह्म क्या है? कृष्ण ने कहा, जिसका कभी नाश न हो।

फिर तो साफ हो गई बात कि इस जगत में ब्रह्म कहीं भी नहीं है। यहां तो जो भी है, सभी का नाश है। आपने कोई ऐसी चीज देखी है, जिसका कभी नाश न हो? कभी कोई ऐसी चीज सुनी है, जिसका कभी नाश न हो? कभी कोई ऐसा अनुभव हुआ है, जिसका कभी नाश न हो?

यहां तो जो भी है, सभी नाशवान है। यहां तो होने की शर्त ही विनाश है। होने की एक ही शर्त है, न होने की तैयारी। जन्म होने के साथ मृत्यु के साथ समझौता करना पड़ता है। जन्म के साथ ही दस्तखत कर देने होते हैं मौत के सामने कि मरने को तैयार हूं।

यहां तो कुछ पाया कि खोने के अतिरिक्त और अब कुछ होने वाला नहीं है। यहां तो कोई मिला, तो बिछुड़ना होगा। यहां गले मिलने का इंतजाम, सिर्फ गले को अलग कर लेने के लिए है। यहां सभी कुछ नाशवान है। यहां जो बनता हुआ दिखाई पड़ रहा है, एक तरफ से देखो तो मालूम होता है बन रहा है, दूसरी तरफ से देखो तो मालूम होता है कि बिगड़ रहा है।


एक धर्मगुरु के एक छोटे लड़के ने उससे पूछा है एक दिन कि यह आदमी कैसे बना? और यह आदमी जब मिटता है, तो क्या हो जाता है? तो उस धर्मगुरु ने कहा, डस्ट अनटु डस्ट; मिट्टी में मिट्टी मिल जाती है। मिट्टी से ही आदमी बनता है, मिट्टी में ही आदमी गिर जाता है।


दूसरे ही दिन सुबह वह धर्मगुरु अपने तख्त पर बैठकर अपनी किताब पढ़ता है। उसका छोटा बेटा आया, तख्त के नीचे घुस गया, और उसने वहां से चिल्लाया कि पिताजी, जरा नीचे आइए। ऐसा लगता है कि या तो कोई बन रहा है, या तो कोई मिट रहा है! एक मिट्टी का ढेर लगा हुआ है। तख्त के नीचे धूल इकट्ठी हो गई है। बेटे ने कहा कि या तो कोई बन रहा है, या कोई मिट रहा है; जल्दी नीचे आइए!


धूल के ढेर को, अगर आदमी सिर्फ धूल है, तो दोनों तरह से देखा जा सकता है–या तो कोई बन रहा है, या कोई मिट रहा है। असल में जब भी कोई बन रहा है, तभी कोई मिट भी रहा है। और कहीं दूर नहीं, वहीं। जहां बनना चल रहा है, वहीं मिटना चल रहा है।


यहां तो सभी कुछ विनाश है। यहां ठहराव नहीं है। यहां तो सभी कुछ नदी की धार की तरह बह रहा है। छू भी नहीं पाते किनारा कि छूट जाता है। मिलन हो भी नहीं पाता कि विदा की घड़ी आ जाती है।

और कृष्ण कहते हैं, वह जिसका विनाश नहीं है, वह है ब्रह्म।

गीता दर्शन

ओशो

 

अर्जुन पूछता है, ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है? अधिदैव क्या है? यहां अधियज्ञ कौन है? इस शरीर में वह कैसे है? और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आ जाते हो?

ऐसा भी नहीं लगता कि किसी भी एक प्रश्न में उसकी बहुत उत्सुकता होगी! वह इतनी त्वरा से, इतनी तीव्रता से सवाल पूछ रहा है कि लगता है, सवाल पूछने के लिए ही सवाल पूछे जा रहे हैं। अन्यथा ब्रह्म के बाद कोई सवाल नहीं है। और ब्रह्म के बाद जो सवाल पूछता है, वह कहता है, ब्रह्म में उसकी बहुत उत्सुकता और जिज्ञासा नहीं है। अन्यथा एक सवाल काफी है कि ब्रह्म क्या है? दूसरा सवाल उठाने की अब कोई और जरूरत नहीं है। इस एक का ही जवाब सबका जवाब बन जाएगा। एक को ही जानने से तो सब जान लिया जाता है। लेकिन जो सबको जानने की विक्षिप्तता से भरे होते हैं, वे एक को भी जानने से वंचित रह जाते हैं।


ब्रह्म के बाद भी अर्जुन के लिए सवाल हैं। इससे एक बात साफ है कि कोई भी जवाब मिल जाए, अर्जुन के सवाल हल होने वाले दिखाई नहीं पड़ते हैं। जो ब्रह्म के बाद भी सवाल पूछ सकता है, वह हर सवाल के बाद, हर जवाब के बाद, नए सवाल खड़े करता चला जाएगा।


असल में हमारा मन जब भी एक जवाब पाता है, तो उस जवाब का एक ही उपयोग करना जानता है, उससे दस सवाल बनाना जानता है।


पूरे मनुष्य जाति के मन का इतिहास नए-नए प्रश्नों का इतिहास है। एक भी उत्तर आदमी खोज नहीं पाता। हालांकि हर दिए गए उत्तर के साथ दस नए सवाल खड़े हो जाते हैं।


अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी के उत्तर जितने आज हैं, उतने ही सदा थे। कृष्ण के समय में भी उत्तर वही था; बुद्ध के समय में भी उत्तर वही था; आज भी उत्तर वही है। लेकिन सवाल आज ज्यादा हैं। अगर कोई प्रगति हुई है, तो वह एक कि हमने और ज्यादा सवाल पैदा कर लिए हैं; जवाब नहीं। और ज्यादा सवालों की भीड़ में जो हाथ में जवाब थे, वे भी छूट गए हैं और खोते चले जाते हैं।


यह बात उलटी मालूम पड़ेगी कि जहां बहुत सवाल होते हैं, वहां जवाब कम हो जाते हैं; और जहां सवाल बिलकुल नहीं होते, वहीं जवाब, उत्तर, दि आंसर, एक ही उत्तर सारी ग्रंथियों को, सारी उलझनों को तोड़ जाता है।


बादरायण का ब्रह्म-सूत्र एक छोटे-से सूत्र से शुरू होता है। और एक छोटे-से सवाल का ही जवाब पूरे बादरायण के ब्रह्म-सूत्र में है। छोटे-से दो शब्दों से शुरू होता है ब्रह्म-सूत्र, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा–यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू होती है। पर यह आखिरी सवाल है; अब इसके आगे सवाल नहीं हो सकते। हेंस दि इंक्वायरी आफ दि ब्रह्म; यहां से शुरू होती है ब्रह्म की जिज्ञासा। बस, अब कोई सवाल नहीं उठ सकते; आखिरी सवाल पूछ लिया गया।


अर्जुन भी पूछता है, ब्रह्म क्या है? लेकिन क्षणभर रुकता नहीं, जरा-सा अंतराल नहीं है। पूछता है, अध्यात्म क्या है? अगर कृष्ण ने लौटकर पूछा होता कि अर्जुन, अपने सवाल को फिर दोहरा, तो जैसे मुझे उसका कागज हाथ में रखना पड़ा, ऐसा उसे भी रखना पड़ता। बहुत संभावना तो यही है कि वह दुबारा अपना सवाल वैसा का वैसा न दोहरा पाता। और यह भी संभावना बहुत है कि उसमें ब्रह्म और अध्यात्म चूक सकते थे, भूल जा सकते थे।



ऐसा मेरा रोज का अनुभव है। आता है कोई, कहता है, ईश्वर के संबंध में कुछ कहें। अगर मैं दो क्षण उसकी बात को टाल-मटोल कर जाता हूं, पूछता हूं, कब आए? कैसे हैं? वह फिर घंटेभर बैठकर बात करता है, दुबारा नहीं पूछता उस ईश्वर के संबंध में, जिसे पूछते हुए वह आया था!


ऐसे सवाल भी हम कहां से पूछते होंगे? ये हमारे हृदय के किसी गहरे तल से आते हैं या हमारी बुद्धि की पर्त पर धूल की तरह जमे हुए होते हैं? ये हमारे प्राणों की किसी गहरी खाई से जन्मते हैं या बस हमारी बुद्धि की खुजलाहट हैं? अगर यह बुद्धि की खुजलाहट है, तो खाज को खुजला लेने से जैसा रस आता है, वैसा रस तो आएगा, लेकिन बीमारी घटेगी नहीं, बढ़ेगी।


अर्जुन की बीमारी घटती हुई मालूम नहीं पड़ती। वह पूछता ही चला जाता है। वह यह भी फिक्र नहीं करता कि जो मैं पूछ रहा हूं, वह बहुत बार पहले भी पूछ चुका हूं। वह यह भी फिक्र नहीं करता कि मैं केवल नए शब्दों में पुरानी ही जिज्ञासाओं को पुनः-पुनः खड़ा कर रहा हूं। वह इसकी भी चिंता नहीं करता कि कृष्ण उत्तर देते जा रहे हैं, लेकिन मैं उत्तर नहीं सुन रहा हूं।


शायद वह इस खयाल में है कि कोई ऐसा सवाल पूछ ले कि कृष्ण अटक जाएं! शायद वह इस प्रतीक्षा में है कि कोई तो वह सवाल होगा, जहां कृष्ण भी कह देंगे कि कुछ सूझता नहीं अर्जुन, कुछ समझ नहीं पड़ता। इस प्रतीक्षा में उसका गहरा मन है। उसका अनकांशस माइंड, उसका अचेतन मन इस प्रतीक्षा में है कि कहीं वह जगह आ जाए, या तो कृष्ण कह दें कि मुझे नहीं मालूम; या कृष्ण ऊब जाएं, थक जाएं और कहें कि जो तुझे करना हो कर; मुझसे इसका कुछ लेना-देना नहीं है! तो अर्जुन जो करना चाहता है, उसे कर ले।


लेकिन कृष्ण जैसे लोग थकते नहीं। यद्यपि यह बिलकुल चमत्कार है। अर्जुन जैसे थकाने वाले लोग हों, तो कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी थक ही जाना चाहिए। लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति थकते नहीं हैं। और क्यों नहीं थकते हैं? न थकने का कुछ राज है, वह मैं आपसे कहूं, फिर हम कृष्ण के उत्तर पर चलें।


न थकने का एक राज तो यह है कि कृष्ण यह भलीभांति जानते हैं कि अर्जुन, तुझे तेरे प्रश्नों से कोई भी संबंध नहीं है। और अगर अर्जुन इस दौड़ में लगा है कि हम प्रश्न खड़े करते चले जाएंगे, ताकि किसी जगह तुम्हें हम अटका लें कि अब उत्तर नहीं है। कृष्ण भी उसके साथ-साथ एक कदम आगे चलते चले जाते हैं कि हम तुझे उत्तर दिए चले जाएंगे। कभी तो वह क्षण आएगा कि तेरे प्रश्न चुक जाएंगे और उत्तर तेरे जीवन में क्रांति बन जाएगा।


गीता दर्शन 

ओशो 

प्रश्नोत्तर

र्जुन के प्रश्नों का कोई अंत नहीं है। किसी के भी प्रश्नों का कोई अंत नहीं है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मनुष्य के मन में प्रश्न लगते हैं। और जैसे झरने नीचे की तरफ बहते हैं, ऐसा मनुष्य का मन प्रश्नों के गङ्ढों को खोजता है।


कृष्ण जैसा व्यक्ति भी मौजूद हो, तो भी प्रश्न उठते ही चले जाते हैं। और शायद उन्हीं प्रश्नों के कारण अर्जुन कृष्ण को भी देख पाने में समर्थ नहीं है। और शायद उन्हीं प्रश्नों के कारण अर्जुन कृष्ण के उत्तर को भी नहीं सुन पाता है।


जिस मन में बहुत प्रश्न भरे हों, वह उत्तर को नहीं समझ पाता है। क्योंकि वस्तुतः जब उत्तर दिए जाते हैं, तब वह उत्तर को नहीं सुनता; अपने प्रश्नों को ही, अपने प्रश्नों को ही भीतर गुंजाता चला जाता है।


कृष्ण कहते हैं जरूर; अर्जुन तक पहुंच नहीं पाता है। दुविधा है; लेकिन ऐसी ही स्थिति है। जब तक प्रश्न होते हैं मन में, तब तक उत्तर समझ में नहीं आता। और जब प्रश्न गिर जाते हैं, तो उत्तर समझ में आता है। और प्रश्न से भरा हुआ मन हो, तो कृष्ण भी सामने खड़े हों, साक्षात उत्तर ही सामने खड़ा हो, तो भी समझ के बाहर है। और मन से प्रश्न गिर जाएं, तो पत्थर भी पड़ा हो सामने, तो भी उत्तर बन जाता है।


निष्प्रश्न मन में उत्तर का आगमन होता है। प्रश्न भरे चित्त में उत्तर को आने की जगह भी नहीं होती। इतनी भीड़ होती है अपनी ही कि उत्तर के लिए प्रवेश का मार्ग भी नहीं मिलता है।


 
गीता दर्शन 

ओशो 

पीछे लौटकर देखो

अगर पचास साल की उम्र हो गई, तो लौटकर पीछे देखें कि पचास साल में इतना पाने की कोशिश की, इतना पा भी लिया, फिर भी पहुंचे कहां? पाया क्या? और अगर पचास साल और मिल जाएं, तो भी हम क्या करेंगे? हम वही पुनरुक्त कर रहे हैं। जिसके पास दस रुपए थे, उसने सौ कर लिए हैं। सौ की जगह वह हजार कर लेगा। हजार होंगे, दस हजार कर लेगा। दस हजार होंगे, लाख कर लेगा। लेकिन दस हजार जब कोई सुख न दे पाए! और जब एक रुपया पास में था, तो खयाल था कि दस रुपए भी हो जाएं, तो बहुत सुख आ जाएगा। दस हजार भी कोई सुख न ला पाए, तो दस लाख भी कैसे सुख ला पाएंगे?


लौटकर पीछे देखें। और अपने अतीत को समझकर, अपने भविष्य को पुनः धोखा न देने दें। नहीं तो भविष्य रोज धोखा देता है। भविष्य रोज विश्वास दिलाता है कि नहीं हुआ कल, कोई बात नहीं; कल हो जाएगा। वही उसका सीक्रेट है आपको पकड़े रखने का। कहता है, कोई फिक्र नहीं; हजार रुपए से नहीं हो सका, हजार में कभी होता ही नहीं; लाख में होता है। जब लाख हो जाएंगे, तब यही मन कहेगा, लाख में कभी होता ही नहीं; दस लाख में होता है। यह मन कहे चला जाएगा। इस मन ने कभी भी नहीं छोड़ा कि कहना बंद किया हो। जिनको पूरी पृथ्वी का राज्य मिल गया, उनसे भी इसने नहीं छोड़ा कि तुम तृप्त हो गए हो। उनको भी कहा कि इतने से क्या होगा?

गीता दर्शन 

ओशो 


संन्यास एक विज्ञान है

हुबार्ड करके एक विचारक है। उसने एक छोटा-सा अभ्यास विकसित किया है साधकों के लिए। और वह अभ्यास यह है कि दिन में तुम खयाल रखो कि कितनी बार मैं का उपयोग किया; इसे नोट करते रहो। तो हुबार्ड के साधक अपनी जेब में एक नोट बुक लिए रहते हैं और दिनभर वे आंकड़े लगाते रहते हैं कि कितना मैं का उपयोग किया। दंग रह जाते हैं देखकर कि दिनभर में इतना मैं! इतनी बार मैं बोले!


फिर हुबार्ड कहता है, इसका होश रखो। होश रखने से मैं का उपयोग कम होता चला जाता है। आज सौ दफे हुआ। कल नब्बे दफे हुआ। दो-चार महीने में वह दो-चार दफे होता है। चार-छः महीने में वह शून्यवत हो जाता है। लेकिन तब साधक को पता चलता है कि मैं का उपयोग न भी करो, तो भी भीतर मैं खड़ा है। तब पता चलता है, तब खयाल में आता है कि मैं का उपयोग मत करो, तो भी मैं खड़ा है।


रास्ते पर आप चले जा रहे हैं। कोई नहीं है, तो आप और ढंग से चलते हैं। फिर दो आदमी रास्ते पर निकल आए, आपका मैं मौजूद हो गया। भीतर कुछ हिला; भीतर कुछ तैयार हो गया। टाई वगैरह उसने ठीक कर ली; कपड़े उसने ठीक किए; चल पड़ा। बाथरूम में आप होते हैं तब? कल खयाल करना। बाथरूम में वही आदमी रहता है, जो बैठकखाने में रहता है? तब आपको पता चलेगा कि बाथरूम में और कोई स्नान करता है; बैठकखाने में और कोई बैठता है! आप ही। आप ही जब बैठकखाने में होते हैं, तो कोई और होते हैं। आप ही जब बाथरूम में होते हैं, तो कोई और होते हैं।


बाथरूम में कोई देख नहीं रहा है, इसलिए मैं को थोड़ी देर के लिए छुट्टी है। अभी इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि मैं का सदा दूसरे के सामने मजा है, दूसरे के सामने लिया गया मजा है। बाथरूम में छुट्टी दे देते हैं। लेकिन बाथरूम में अगर आईना लगा है, तो आपको जरा मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि आईने में देखकर आप दो काम करते हैं। दिखाई पड़ने वाले का भी और देखने वाले का भी। दो हो जाते हैं, दो मौजूद हो जाते हैं आईने के साथ। आईने के सामने खड़े होकर फिर सब बदल जाता है।


सूक्ष्म, भीतर, चौबीस घंटे बोलें, न बोलें, मैं की एक धारा सरक रही है। एक बहुत अंतर्धारा, अंडर करेंट है। उसके प्रति सजग होना जरूरी है। उसके प्रति सजग हो जाएं, तो धीरे-धीरे आप समझ सकते हैं कि वही धारा संकल्पों को पैदा करवाती है। क्योंकि बिना संकल्प के वह धारा एक्चुअलाइज नहीं हो सकती।


ऐसा समझें कि जैसे आकाश में भाप के बादल उड़ रहे हैं। जब तक उनको ठंडक न मिले, तब तक वे पानी न बन सकेंगे, आकाश में उड़ते रहेंगे। ठंडक मिले, तो पानी बन जाएंगे। और ठंडक मिले, तो बर्फ बन जाएंगे।


ठीक हमारे मन में भी अंतर्धारा बड़ी बारीक बहती रहती है, भाप की तरह, अहंकार की। इस भाप की तरह बहने वाली अहंकार की जो बदलियां हमारे भीतर हैं, उनका हमें तब तक मजा नहीं आता, जब तक कि वे प्रकट होकर पानी न बन जाएं। पानी ही नहीं, जब तक वे बर्फ की तरह सख्त, जमकर दिखाई न पड़ने लगें सारी दुनिया को, तब तक हमें मजा नहीं आता।


तो अहंकार ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा बादल पानी बन जाएं। ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा पानी सख्त बर्फ, पत्थर बन जाए; तब लोगों को दिखाई पड़ेगा। तो अगर आप अकेले हैं, तब आपके भीतर अहंकार बादलों की तरह होता है। जब आप दूसरों के साथ हैं, तब पानी की तरह हो जाता है। और अगर आप कुछ धन पाने में समर्थ हो गए, कुछ पद पाने में सफल हो गए, कुछ स्कूल से शिक्षा जुटा ली, कुछ कूड़ा-कबाड़ इकट्ठा करने में अगर आप सफल हो गए, तो फिर आपका पानी बिलकुल बर्फ, ठोस पत्थर के बर्फ की तरह जम जाता है, फ्रोजन। फिर वह साफ दिखाई पड़ने लगता है। दिखाई ही नहीं पड़ने लगता है, गड़ने लगता है दूसरों को।


और जब तक अहंकार दूसरे को गड़ने न लगे, तब तक आपको मजा नहीं आता। तब तक मजा आ नहीं सकता। जब तक आपका अहंकार दूसरे की छाती में चुभने न लगे, तब तक मजा नहीं आता। मजा तभी आता है, जब दूसरे की छाती में घाव बनाने लगे। और दूसरा कुछ भी न कर पाए, तड़फकर रह जाए, और आपका अहंकार उसकी छाती में घाव बनाए। तब आप बिलकुल विनम्र हो सकते हैं। तब आप कह सकते हैं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। भीतर मजा ले सकते हैं उसकी छाती में चुभने का, और ऊपर से हाथ जोड़कर कह सकते हैं कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, सीधा-सादा आदमी हूं!


यह जो हमारे संकल्पों की, अहंकारों की, वासनाओं की अंतर्धारा है, इस अंतर्धारा को ही विसर्जित कोई करे, तो संन्यास उपलब्ध होता है। इसलिए संन्यास एक विज्ञान है। एक-एक इंच विज्ञान है। संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि आप कहीं अंधेरे में पड़ी कोई चीज है कि बस उठा लिए। संन्यास एक विज्ञान है, एक साइंस है। और आपके पूरे चित्त का रूपांतरण हो, एक-एक इंच आपका चित्त बदले, आधार से बदले शिखर तक, तभी संन्यास फलित होता है।


गीता दर्शन 

ओशो 

कृष्ण कहते हैं, संकल्पों को छोड़ देता है जो, वही योगी है।


लेकिन एक आदमी कहता है कि मैंने संकल्प किया है कि मैं परमात्मा को पाकर रहूंगा। फिर यह आदमी संन्यास नहीं पा सकेगा। अभी इसका संकल्प है। यह तो परमात्मा को भी एक एडीशन बनाना चाहता है अपनी संपत्ति में। इसके पास एक मकान है, दुकान है, इसके पास सर्टिफिकेट्स हैं, बड़ी नौकरी है, बड़ा पद है। यह कहता है कि सब है अपने पास, अपनी मुट्ठी में भगवान भी होना चाहिए! ऐसे नहीं चलेगा। ऐसे नहीं चलेगा, ऐसे सब तरह का फर्नीचर अपने घर में है; यह भगवान नाम का फर्नीचर भी अपने घर में होना चाहिए! ताकि हम मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को दिखा सकें कि पोर्च में देखो, बड़ी कार खड़ी है। घर में मंदिर बनाया है, उसमें भगवान है। सब हमारे पास है। भगवान भी हमारा परिग्रह का एक हिस्सा है।


जो भी संकल्प करेगा, वह भगवान को नहीं पा सकेगा। क्योंकि संकल्प का मतलब ही यह है कि मैं मौजूद हूं। और जहां तक मैं मौजूद है, वहां तक परमात्मा को पाने का कोई उपाय नहीं है। बूंद कहे कि मैं बूंद रहकर और सागर को पा लेना चाहती हूं, तो आप उससे क्या कहिएगा, कि तुझे गणित का पता नहीं है। बूंद कहे, मैं बूंद रहकर सागर को पा लेना चाहती हूं! बूंद कहे, मैं तो सागर को अपने घर में लाकर रहूंगी! तो सागर हंसता होगा। आप भी हंसेंगे। बूंद नासमझ है। लेकिन जहां आदमी का सवाल है, आपको हंसी नहीं आएगी। आदमी कहता है, मैं तो बचूंगा और परमात्मा को भी पा लूंगा। यह वैसा ही पागलपन है, जैसे बूंद कहे कि मैं तो बचूंगी और सागर को पा लूंगी।

 
अगर बूंद को सागर को पाना हो, तो बूंद को मिटना पड़ेगा, उसे खुद को खोना पड़ेगा। वह बूंद सागर में गिर जाए, मिट जाए, तो सागर को पा लेगी। और कोई उपाय नहीं है। अन्यथा कोई मार्ग नहीं है। आदमी भी अपने को खो दे, तो परमात्मा को पा ले। बूंद की तरह है, परमात्मा सागर की तरह है। आदमी अपने को बचाए और कहे कि मैं परमात्मा को पा लूं–पागलपन है। बूंद पागल हो गई है। लेकिन बूंद पर हम हंसते हैं, आदमी पर हम हंसते नहीं हैं। जब भी कोई आदमी कहता है, मैं परमात्मा को पाकर रहूंगा, तो वह आदमी पागल है। वह पागल होने के रास्ते पर चल पड़ा है। मैं ही तो बाधा है।


कबीर ने कहा है कि बहुत खोजा। खोजते-खोजते थक गया; नहीं पाया उसे। और पाया तब, जब खोजते-खोजते खुद खो गया। जिस दिन पाया कि मैं नहीं हूं, अचानक पाया कि वह है। ये दोनों एक साथ नहीं होते। इसलिए कबीर ने कहा, प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय। वह दो नहीं समा सकेंगे वहां। या तो वह या मैं।


संकल्प है मैं का बचाव। वह जो ईगो है, अहंकार है, वह अपने को बचाने के लिए जो योजनाएं करता है, उनका नाम संकल्प है। वह अपने को बचाने के लिए जिन फलों की आकांक्षा करता है, उन आकांक्षाओं को पूरा करने की जो व्यवस्था करता है, उसका नाम संकल्प है।


गीता दर्शन 

ओशो 

फलाकांक्षा छोड़ना

निष्क्रिय पड़ी हुई इच्छाएं धीरे-धीरे सपने बनकर खो जाती हैं। जिसके पीछे हम अपनी शक्ति लगा देते हैं, अपने को लगा देते हैं, वह इच्छा संकल्प बन जाती है।

संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा को पूरा करने के लिए हमने अपने को दांव पर लगा दिया। तब वह डिजायर न रही, विल हो गई। और जब कोई संकल्प से भरता है, तब और भी गहन खतरे में उतर जाता है। क्योंकि अब इच्छा, मात्र इच्छा न रही कि मन में उसने सोचा हो कि महल बन जाए। अब वह महल बनाने के लिए जिद्द पर भी अड़ गया। जिद्द पर अड़ने का अर्थ है कि अब इस इच्छा के साथ उसने अपने अहंकार को जोड़ा। अब वह कहता है कि अगर इच्छा पूरी होगी, तो ही मैं हूं। अगर इच्छा पूरी न हुई, तो मैं बेकार हूं। अब उसका अहंकार इच्छा को पूरा करके अपने को सिद्ध करने की कोशिश करेगा। जब इच्छा के साथ अहंकार संयुक्त होता है, तो संकल्प निर्मित होता है।


अहंकार, मैं, जिस इच्छा को पकड़ लेता है, फिर हम उसके पीछे पागल हो जाते हैं। फिर हम सब कुछ गंवा दें, लेकिन इस इच्छा को पूरा करना बंद नहीं कर सकते। हम मिट जाएं। अक्सर ऐसा होता है कि अगर आदमी का संकल्प पूरा न हो पाए, तो आदमी आत्महत्या कर ले। कहे कि इस जीने से तो न जीना बेहतर है। पागल हो जाए। कहे कि इस मस्तिष्क का क्या उपयोग है! संकल्प।


लेकिन साधारणतः हम सभी को सिखाते हैं संकल्प को मजबूत करने की बात। अगर स्कूल में बच्चा परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पा रहा है, तो शिक्षक कहता है, संकल्पवान बनो। मजबूत करो संकल्प को। कहो कि मैं पूरा करके रहूंगा। दांव पर लगाओ अपने को। अगर बेटा सफल नहीं हो पा रहा है, तो बाप कहता है कि संकल्प की कमी है। चारों तरफ हम संकल्प की शिक्षा देते हैं। हमारा पूरा तथाकथित संसार संकल्प के ही ऊपर खड़ा हुआ चलता है।


कृष्ण बिलकुल उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, संकल्पों को जो छोड़ दे बिलकुल। संकल्प को जो छोड़ दे, वही प्रभु को उपलब्ध होता है। संकल्प को छोड़ने का मतलब हुआ, समर्पण हो जाए। कह दे कि जो तेरी मर्जी। मैं नहीं हूं। समर्पण का अर्थ है कि जो हारने को, असफल होने को राजी हो जाए।


ध्यान रखें, फलाकांक्षा छोड़ना और असफल होने के लिए राजी होना, एक ही बात है। असफल होने के लिए राजी होना और फलाकांक्षा छोड़ना, एक ही बात है। जो जो भी हो, उसके लिए राजी हो जाए; जो कहे कि मैं हूं ही नहीं सिवाय राजी होने के, एक्सेप्टिबिलिटी के अतिरिक्त मैं कुछ भी नहीं हूं। जो भी होगा, उसके लिए मैं राजी हूं। ऐसा ही व्यक्ति संन्यासी है।


गीता दर्शन 

ओशो 

वरदान

सुना है मैंने, एक आदमी ने यह कहावत पढ़ ली कि परमात्मा आकांक्षाएं पूरी कर दे आदमियों की, तो आदमी बड़ी मुसीबत में पड़ जाएं। उसकी बड़ी कृपा है कि वह आपकी आकांक्षाएं पूरी नहीं करता। क्योंकि अज्ञान में की गई आकांक्षाएं खतरे में ही ले जा सकती हैं। उस आदमी ने कहा, यह मैं नहीं मान सकता हूं। उसने परमात्मा की बड़ी पूजा, बड़ी प्रार्थना की। और जब परमात्मा ने आवाज दी कि तू इतनी पूजा-प्रार्थना किसलिए कर रहा है? तो उसने कहा कि मैं इस कहावत की परीक्षा करना चाहता हूं। तो आप मुझे वरदान दें और मैं आकांक्षाएं पूरी करवाऊंगा; और मैं सिद्ध करना चाहता हूं, यह कहावत गलत है।

परमात्मा ने कहा कि तू कोई भी तीन इच्छाएं मांग ले, मैं पूरी कर देता हूं। उस आदमी ने कहा कि ठीक। पहले मैं घर जाऊं, अपनी पत्नी से सलाह कर लूं।

अभी तक उसने सोचा नहीं था कि क्या मांगेगा, क्योंकि उसे भरोसा ही नहीं था कि यह होने वाला है कि परमात्मा आकर कहेगा। आप भी होते, तो भरोसा नहीं होता कि परमात्मा आकर कहेगा। जितने लोग मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हैं, किसी को भरोसा नहीं होता। कर लेते हैं। शायद! परहेप्स! लेकिन शायद मौजूद रहता है।

तय नहीं किया था; बहुत घबड़ा गया। भागा हुआ पत्नी के पास आया। पत्नी से बोल कि कुछ चाहिए हो तो बोल। एक इच्छा तेरी पूरी करवा देता हूं। जिंदगीभर तेरा मैं कुछ पूरा नहीं करवा पाया। पत्नी ने कहा कि घर में कोई कड़ाही नहीं है। उसे कुछ पता नहीं था कि क्या मामला है। घर में कड़ाही नहीं है; कितने दिन से कह रही हूं। एक कड़ाही हाजिर हो गई। वह आदमी घबड़ाया। उसने सिर पीट लिया कि मूर्ख, एक वरदान खराब कर दिया! इतने क्रोध में आ गया कि कहा कि तू तो इसी वक्त मर जाए तो बेहतर है। वह मर गई। तब तो वह बहुत घबड़ाया। उसने कहा कि यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। तो उसने कहा, हे भगवान, वह एक और जो इच्छा बची है; कृपा करके मेरी स्त्री को जिंदा कर दें।

ये उनकी तीन इच्छाएं पूरी हुईं। उस आदमी ने दरवाजे पर लिख छोड़ा है कि वह कहावत ठीक है।

हम जो मांग रहे हैं, हमें भी पता नहीं कि हम क्या मांग रहे हैं। वह तो पूरा नहीं होता, इसलिए हम मांगे चले जाते हैं। वह पूरा हो जाए, तो हमें पता चले। नहीं पूरा होता, तो कभी पता नहीं चलता है।

कृष्ण कहते हैं, मांगो ही मत। क्योंकि जिसने तुम्हें जीवन दिया, वह तुमसे ज्यादा समझदार है। तुम अपनी समझदारी मत बताओ। डोंट बी टू वाइज। बहुत बुद्धिमानी मत करो। जिसने तुम्हें जीवन दिया और जिसके हाथ से चांदत्तारे चलते हैं और अनंत जीवन जिससे फैलता है और जिसमें लीन हो जाता है, निश्चित, इतना तो तय ही है कि वह हमसे ज्यादा समझदार है। और अगर वह भी नासमझ है, तो फिर हमें समझदार होने की चेष्टा करनी बिलकुल बेकार है।

गीता दर्शन 

ओशो 

 

गुड्डा-गुड्डी का विवाह

मेरे एक मित्र जापान के एक घर में मेहमान थे। सुबह घर के बच्चों ने उनको आकर खबर दी कि हमारे घर में विवाह हो रहा है, आप शाम सम्मिलित हों। उन्हें थोड़ी हैरानी हुई, क्योंकि बहुत छोटे बच्चे थे। तो उन्होंने सोचा कि कुछ गुड्डा-गुड्डी का विवाह करते होंगे। उन्होंने कहा, मैं जरूर सम्मिलित होऊंगा। लेकिन सांझ के पहले घर के बड़े-बूढ़ों ने भी आकर निमंत्रण दिया कि घर में विवाह है, आप सम्मिलित हों। तब वे समझे कि मुझसे भूल हो गई।

लेकिन जब सांझ को घर के हाल में गए, जहां कि सब बैंड-बाजा सजा था, तो देखा कि वहां दूल्हा तो नहीं है। वहां तो गुड्डा ही रखा है और बारात तैयार हो रही है! गांव के आस-पास के बूढ़े भी इकट्ठे हुए हैं; बारात बाहर निकल आई है। तब उन्होंने एक बूढ़े से पूछा कि यह क्या मामला है? मैं तो सोचता था कि बच्चों के खेल बच्चों के लिए शोभा देते हैं, आप लोग इसमें सब सम्मिलित हैं!

तो उस बूढ़े ने हंसकर कहा कि अब हमें बड़ों के खेल भी बच्चों के खेल ही मालूम पड़ते हैं। बड़ों के खेल भी! अब तो जब असली दूल्हा भी बारात लेकर चलता है, तब भी हम जानते हैं कि खेल ही है। तो इस खेल में गंभीरता से सम्मिलित होने में हमें कोई हर्ज नहीं है। दोनों बराबर हैं।

गांव के बूढ़े भी सम्मिलित हुए हैं। मेरे मित्र तो परेशान ही रहे। सोचा कि सांझ खराब हो गई। मैंने उनसे पूछा कि आप करते क्या सांझ को, अगर खराब न होती तो? रेडियो खोलकर सुनते, सिनेमा देखते, राजनीति की चर्चा करते? सुबह जो अखबार में पढ़ा था, उसकी जुगाली करते? क्या करते? करते क्या? कहा, नहीं, करता तो कुछ नहीं। तो फिर मैंने कहा कि बेकार चली गई, यह खयाल कैसे पैदा हो रहा है? बेकार जरूर चली गई, क्योंकि उस घंटेभर में आपको एक मौका मिला था, जब कि आकांक्षा फल की कोई भी न थी, तब आपको एक खेल में सम्मिलित होने का मौका मिला था, वह आप चूक गए। मैंने कहा, दोबारा जाना। कोई निमंत्रण न भी दे, तो भी सम्मिलित हो जाना। और उस घंटेभर इस बारात को आनंद से जीना, तो शायद एक क्षण में वह दिखाई पड़े, जो कि फलहीन कर्म है।
 
खेल में कभी फलहीन कर्म की थोड़ी-सी झलक मिलती है। लेकिन नहीं मिलती है, हमने खेलों को नष्ट कर दिया है। हमने खेलों को भी काम बना दिया है। उनमें भी हम तनाव से भर जाते हैं। जीतने की आकांक्षा इतनी प्रबल हो जाती है कि खेल का सब मजा ही नष्ट हो जाता है।

नहीं, कभी चौबीस घंटे एक प्रयोग करके देखें, और वह प्रयोग आपकी जिंदगी के लिए कीमती होगा। उस प्रयोग को करने के पहले इस सूत्र को पढ़ें, फिर प्रयोग को करने के बाद इस सूत्र को पढ़ें, तब आपको पता चलेगा कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। और एक काम भी अगर आप फल के बिना करने में समर्थ हो जाएं, तो आपकी पूरी जिंदगी पर फलाकांक्षाहीन कर्मों का विस्तार हो जाएगा। वही विस्तार संन्यास है।

होगा क्या? अगर आप फल की आकांक्षा न करें, तो क्या बनेगा, क्या मिट जाएगा?

नहीं, प्रत्येक को ऐसा लगता है कि सारी पृथ्वी उसी पर ठहरी हुई है! अगर उसने कहीं फल की आकांक्षा न की, तो कहीं ऐसा न हो कि सारा आकाश गिर जाए। छिपकली भी घर में ऐसा ही सोचती है मकान पर टंगी हुई कि सारा मकान उस पर सम्हला हुआ है। अगर वह कहीं जरा हट गई, तो कहीं पूरा मकान न गिर जाए!

हम भी वैसा ही सोचते हैं। हमसे पहले भी इस जमीन पर अरबों लोग रह चुके और इसी तरह सोच-सोचकर मर गए। न उनके कर्मों का कोई पता है, न उनके फलों का आज कोई पता है। न उनकी हार का कोई अर्थ है, न उनकी जीत का कोई प्रयोजन है। सब मिट्टी में खो जाते हैं। लेकिन थोड़ी देर मिट्टी बहुत पागलपन कर लेती है। थोड़ी देर बहुत उछल-कूद; जैसे लहर उठती है सागर में, थोड़ी देर बहुत उछल-कूद; उछल-कूद हो भी नहीं पाती कि गिर जाती है वापस।

ऐसे ही हम हैं।


गीता दर्शन 

ओशो 

कर्म की परिभाषा

आज तक पृथ्वी पर ऐसा एक भी आदमी नहीं हुआ, जिसने कहा हो कि मैं बुरा आदमी हूं। वह इतना ही कहता है, आदमी तो मैं अच्छा हूं, लेकिन दुर्भाग्य कि परिस्थितियों ने मुझे बुरा करने को मजबूर कर दिया।

लेकिन परिस्थितियां! उसी परिस्थिति में बुद्ध भी पैदा हो जाते हैं; उसी परिस्थिति में एक डाकू भी पैदा हो जाता है; उसी परिस्थिति में एक हत्यारा भी पैदा हो जाता है। एक ही घर में भी तीन लोग तीन तरह के पैदा हो जाते हैं। बिलकुल एक-सी परिस्थिति भी एक-से आदमी पैदा नहीं कर पाती।

परिस्थिति भेद कम डालती है; इच्छाएं भेद ज्यादा डालती हैं।

इच्छाएं इतनी मजबूत हों, तो हम सोचते हैं कि एक इच्छा पूरी होती है, थोड़ा-सा बुरा भी करना हो, तो कर लो। इच्छा की गहरी पकड़ बुरा करने के लिए राजी करवा लेती है। बुरा काम भी कोई आदमी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए करता है। बुरा काम भी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए अपने मन को समझा लेता है कि इच्छा इतनी अच्छी है, साध्य इतना अच्छा है, इसलिए अगर थोड़े गलत मार्ग भी पकड़े गए, तो बुरा नहीं है। और ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे साधारणजन ऐसा सोचते हैं, बड़े बुद्धिमान कहे जाने वाले लोग भी ऐसा ही सोचते हैं। माक्र्स या लेनिन जैसे लोग भी ऐसा ही सोचते हैं कि अगर अच्छे अंत के लिए बुरा साधन उपयोग में लाया जाए, तो कोई हर्जा नहीं है; ठीक है। लेकिन हम जो करना चाहते हैं, वह तो अच्छा ही करना चाहते हैं।

बुरे से बुरे आदमी की भी तर्क-शैली यही है कि जो मैं करना चाहता हूं, वह तो अच्छा ही है। अगर मैं एक मकान बना लेना चाहता हूं और उसकी छाया में दोपहर विश्राम करना चाहता हूं, तो बुरा क्या है! सहज, स्वाभाविक, मानवीय है। फिर इसके लिए थोड़ी कालाबाजारी करनी पड़ती है, थोड़ी चोरी करनी पड़ती है, थोड़ी रिश्वत देनी पड़ती है, वह मैं दे लेता हूं। क्योंकि उसके बिना यह नहीं हो सकेगा।

कृष्ण कहते हैं कि जिस आदमी की इच्छाएं छूट जाएं, उस आदमी के बुरे कर्म तत्काल छूट जाते हैं। लेकिन अच्छे कर्म नहीं छूटते।

अच्छा कर्म वही है उसकी परिभाषा अगर मैं देना चाहूं, तो ऐसी देना पसंद करूंगा:

अच्छा कर्म वही है, जो बिना इच्छा के भी चल सके। और बुरा कर्म वही है, जो इच्छा के पैरों के बिना न चल सके।

 जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा जरूरी हो, वह बुरा है; और जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा बिलकुल भी गैर-जरूरी हो, वह कर्म अच्छा है। अच्छे का एक ही अर्थ है, जीवन के स्वभाव से निकले, जीवन से निकले।

कृष्ण कहते हैं, अगर इच्छाएं छोड़ दे कोई और सिर्फ कर्म करे, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं।




गीता दर्शन 

ओशो

संन्यास जीवन का त्याग नहीं है

कर्म को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। आलसी भी कर्म को छोड़कर बैठ जाते हैं। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा ने आलसियों को आकर्षित किया हो, तो बहुत आश्चर्य नहीं है। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा को मानने वाले समाज धीरे-धीरे आलसी हो गए हों, तो भी आश्चर्य नहीं है। जो कुछ भी नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए पुराने संन्यास में बड़ा रस मालूम होता है। कुछ न करना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है।



इस जगत में कोई भी कुछ नहीं करना चाहता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो कुछ करना चाहता है। लेकिन सारे लोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं, इसलिए नहीं कि कर्म में बहुत रस है, बल्कि इसलिए कि फल बिना कर्म के नहीं मिलते हैं। हम कुछ चाहते हैं, जो बिना कर्म के नहीं मिलेगा। अगर यह तय हो कि हमें बिना कर्म किए, जो हम चाहते हैं, वह मिल सकता है, तो हम सभी कर्म छोड़ दें, हम सभी संन्यासी हो जाएं! लेकिन चाह पूरी करनी है, तो कर्म करना पड़ता है। यह मजबूरी है, इसलिए हम कर्म करते हैं।


कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, कर्म तो तुम करो और फल की आशा छोड़ दो। हम कर सकते हैं आसानी से, कर्म न करें और फल की आशा करें। जो आसान है, वह यह मालूम पड़ता है कि हम कर्म तो न करें और फल की आशा करें। और अगर कोई फल पूरा कर दे, तो हम कर्म छोड़ने को सदा ही तैयार हैं। कृष्ण इससे ठीक उलटी ही बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि कर्म तो तुम करो ही, फल की आशा छोड़ दो। यह फल की आशा छूट जाए, तो कृष्ण के अर्थों में संन्यास फलित होगा।


फल की आशा के बिना कर्म कौन कर पाएगा? कर्म करेगा ही कोई क्यों? दौड़ते हैं, इसलिए कि कहीं पहुंच जाएं। चलते हैं, इसलिए कि कोई मंजिल मिल जाए। आकांक्षाएं हैं, इसलिए श्रम करते हैं; सपने हैं, इसलिए संघर्ष करते हैं। कुछ पाने को दूर कोई तारा है, इसलिए जन्मों-जन्मों तक यात्रा करते हैं।


वह तारा तोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, वह तारा तोड़ दो। नाव तो खेओ जरूर, लेकिन उस तरफ कोई किनारा है, उसका खयाल छोड़ दो। पहुंचना है कहीं, यह बात छोड़ दो; पहुंचने की चेष्टा जारी रखो।

असंभव मालूम पड़ेगा। अति कठिन मालूम पड़ेगा। फिर नाव किसलिए चलानी है, जब कोई तट पर पहुंचना नहीं!

पर कृष्ण बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे यह कहते हैं कि नाव चलाने से कोई तट पर नहीं पहुंचता, जन्मों-जन्मों तक चलकर भी कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता, आकांक्षाएं करने से कोई आकांक्षाएं पूरी होती नहीं हैं। लेकिन जो आदमी नाव चलाए और किनारे पर पहुंचने का खयाल छोड़ दे, उसे बीच मझधार भी किनारा बन जाती है। और जो आदमी कल की आशा छोड़ दे और आज कर्म करे, कर्म ही उसका फल बन जाता है, कर्म ही उसका रस बन जाता है। फिर कर्म और फल में समय का व्यवधान नहीं होता। फिर अभी कर्म और अभी फल।

संन्यास जीवन का त्याग नहीं है कृष्ण के अर्थों में, जीवन का परम भोग है।
 
 
गीता दर्शन 
 
ओशो 

अर्जुन कह रहा है, यदि ज्ञान बिना कर्म के मिलता है, तो मुझे फिर कर्म में धक्का क्यों देते हैं?

ज्ञान पाने के लिए अगर अर्जुन यह कहे, तो कृष्ण पहले आदमी होंगे, जो उससे राजी हो जाएंगे। लेकिन वह फाल्स जस्टीफिकेशन, एक झूठा तर्क खोज रहा है। वह कह रहा है कि मुझे भागना है, मुझे निष्‍क्रिय होना है। और आप कहते हैं कि ज्ञान ही काफी है, तो कृपा करके मुझे कर्म से भाग जाने दें। उसका जोर कर्म से भागने में है, उसका जोर ज्ञान को पाने में नहीं है। यह फर्क समझ लेना एकदम जरूरी है, क्योंकि उससे ही कृष्ण जो कहेंगे आगे, वह समझा जा सकता है।


अर्जुन का जोर इस बात पर नहीं है कि ज्ञान पा ले, अर्जुन का जोर इस बात पर है कि इस कर्म से कैसे बच जाए। अगर सांख्य कहता है कि कर्म बेकार है, तो अर्जुन कहता है कि सांख्य ठीक है, मुझे जाने दो। सांख्य ठीक है, इसलिए अर्जुन नहीं भागता है। अर्जुन को भागना है, इसलिए सांख्य ठीक मालूम पड़ता है। और इसे, इसे अपने मन में भी थोड़ा सोच लेना आवश्यक है।

 
हम भी जिंदगीभर यही करते हैं। जो हमें ठीक मालूम पड़ता है, वह ठीक होता है इसलिए मालूम पड़ता है? सौ में निन्यानबे मौके पर, जो हमें करना है, हम उसे ठीक बना लेते हैं। हमें हत्या करनी है, तो हम हत्या को भी ठीक बना लेते हैं। हमें चोरी करनी है, तो हम चोरी को भी ठीक बना लेते हैं। हमें बेईमानी करनी है, तो हम बेईमानी को भी ठीक बना लेते हैं। हमें जो करना है, वह पहले है, और हमारे तर्क केवल हमारे करने के लिए सहारे बनते हैं।


फ्रायड ने अभी इस सत्य को बहुत ही प्रगाढ़ रूप से स्पष्ट किया है। फ्रायड का कहना है कि आदमी में इच्छा पहले है और तर्क सदा पीछे है, वासना पहले है, दर्शन पीछे है। इसलिए वह जो करना चाहता है, उसके लिए तर्क खोज लेता है। अगर उसे शोषण करना है, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। अगर उसे स्वच्छंदता चाहिए, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। अगर अनैतिकता चाहिए, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। आदमी की वासना पहले है और तर्क केवल वासना को मजबूत करने का, स्वयं के ही सामने वासना को सिद्ध, तर्कयुक्त करने का काम करता है।


इसलिए फ्रायड ने कहा है कि आदमी रेशनल नहीं है। आदमी बुद्धिमान है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। आदमी उतना ही बुद्धिहीन है, जितने पशु। फर्क इतना है कि पशु अपनी बुद्धिहीनता के लिए किसी फिलासफी का आवरण नहीं लेते। पशु अपनी बुद्धिमानी को सिद्ध करने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। वे अपनी बुद्धिहीनता में जीते हैं और बुद्धिमानी का कोई तर्क का जाल खड़ा नहीं करते। आदमी ऐसा पशु है, जो अपनी पशुता के लिए भी परमात्मा तक का सहारा खोजने की कोशिश करता है।

अर्जुन यही कर रहा है। कृष्ण की आंख से बचना मुश्किल है। अन्यथा अगर सांख्य की दृष्टि अर्जुन की समझ में आ जाए कि ज्ञान ही काफी है, तो अर्जुन पूछेगा नहीं कृष्ण से एक भी सवाल। बात खतम हो गई; वह उठेगा, नमस्कार करेगा और कहेगा, जाता हूं।


झेन फकीरों की मोनेस्ट्रीज में, आश्रम में एक छोटासा नियम है। जापान में जब भी कोई साधक किसी गुरु के पास ज्ञान सीखने आता है, तो गुरु उसे बैठने के लिए एक चटाई दे देता है। और कहता है, जिस दिन बात तुम्हारी समझ में आ जाए, उस दिन अपनी चटाई को गोल करके दरवाजे से बाहर निकल जाना। तो मैं समझ जाऊंगा, बात समाप्त हो गई। और जब तक समझ में न आए, तब तक तुम बाहर चले जाना, चटाई तुम्हारी यहीं पड़ी रहने देना। रोज लौट आना; अपनी चटाई पर बैठना, पूछना, खोजना। जिस दिन तुम्हें लगे, बात पूरी हो गई, उस दिन धन्यवाद भी मत देना। क्योंकि जिस दिन ज्ञान हो जाता है, कौन किसको धन्यवाद दे! कौन गुरु, कौन शिष्य? और जिस दिन ज्ञान हो जाता है, उस दिन कौन कहे कि मुझे ज्ञान हो गया, क्योंकि मैं भी तो नहीं बचता है। तो उल दिन तुम अपनी चटाई गोल करके चले जाना, तो मैं समझ लूंगा कि बात पूरी हो गई।


अगर अर्जुन को सांख्य समझ में आ गया हो, तो वह चटाई गोल करेगा और चला जाएगा। उसकी समझ में कुछ आया नहीं है। ही, उसे एक बात समझ में आई कि मैं जो एस्केप, जो पलायन करना चाहता हूं, कृष्ण से ही उसकी दलील मिल रही है। 


कृष्ण कहते हैं, ज्ञान ही काफी है, ऐसी सांख्य की निष्ठा है। और सांख्य की निष्ठा परम निष्ठा है। श्रेष्ठतम जो मनुष्य सोच सका है आज तक, वे सांख्य के सार सूत्र हैं। क्योंकि ज्ञान अगर सच में ही घटित हो जाए, तो जिंदगी में कुछ भी करने को शेष नहीं रह जाता है, फिर कुछ भी ज्ञान के प्रतिकूल करना असंभव है। लेकिन तब अर्जुन को पूछने की जरूरत न रहेगी; बात समाप्त हो जाती है।

गीता दर्शन 

ओशो 

अहंकार की भाषा

मैंने सुना है कि एक आदमी परदेश में गया है। वहा की भाषा नहीं जानता, अपरिचित है, किसी को पहचानता नहीं। एक बहुत बड़े महल के द्वार पर खड़ा है। लोग भीतर जा रहे हैं, वह भी उनके पीछे भीतर चला गया है। वहां देखा कि बड़ा साज सामान है, लोग भोजन के लिए बैठ रहे हैं, तो वह भी बैठ गया है। भूख उसे जोर से लगी है। बैठते ही थाली बहुत बहुत भोजनों से भरी उसके सामने आ गई, तो उसने भोजन भी कर लिया है। उसने सोचा कि ऐसा मालूम पड़ता है, सम्राट का महल है और कोई भोज चल रहा है। अतिथि आ-जा रहे हैं।


वह उठकर धन्यवाद देने लगा है। जिस आदमी ने भोजन लाकर रखा है, उसे बहुत झुक झुककर सलाम करता है। लेकिन वह आदमी उसके सामने बिल बढ़ाता है। वह एक होटल है। वह आदमी उसे बिल देता है कि पैसे चुकाओ। और वह सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद का प्रत्युत्तर दिया जा रहा है! वह बिल लेकर खीसे में रखकर और फिर धन्यवाद देता है कि बहुत बहुत खुश हूं कि मेरे जैसे अजनबी आदमी को इतना स्वागत, इतना सम्मान दिया, इतना सुंदर भोजन दिया। मैं अपने देश में जाकर प्रशंसा करूंगा।


लेकिन वह बैरा कुछ समझ नहीं पाता, वह उसे पकड़कर मैनेजर के पास ले जाता है। वह आदमी सोचता है कि शायद मेरे धन्यवाद से सम्राट का प्रतिनिधि इतना प्रसन्न हो गया है कि शायद किसी बड़े अधिकारी से मिलने ले जा रहा है। जब वह मैनेजर भी उससे कहता है कि पैसे चुकाओ, तब भी वह यही समझता है कि धन्यवाद का उत्तर दिया जा रहा है। वह फिर धन्यवाद देता है। तब मैनेजर उसे अदालत में भेज देता है।


तब वह समझता है कि अब मैं सम्राट के सामने ही मौजूद हूं। मजिस्ट्रेट उससे बहुत कहता है कि तुम पैसे चुकाओ, तुम यह क्या बातें करते हो? या तो तुम पागल हो या किस तरह के आदमी हो? लेकिन वह धन्यवाद ही दिए जाता है, वह कहता है, मेरी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं। तब वह मजिस्ट्रेट कहता है कि इस आदमी को गधे पर उलटा बिठाकर, इसके गले में एक तख्ती लगाकर कि यह आदमी बहुत चालबाज है, गांव में निकालो।


जब उसे गधे पर बिठाया जा रहा है, तो वह सोचता है कि अब मेरा प्रोसेशन, अब मेरी शोभायात्रा निकल रही है। निकलती है शोभायात्रा। दस पांच बच्चे भी ढोल ढमाल पीटते हुए पीछे हो लेते हैं। लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, भीड़ लग जाती है। वह सबको झुक झुककर नमस्कार करता है। वह कहता है कि बड़े आनंद की बात है, परदेशी का इतना स्वागत!


फिर भीड़ में उसे एक आदमी दिखाई पड़ता है, जो उसके ही देश का है। उसे देखकर वह आनंद से भर जाता है। क्योंकि जब तक अपने देश का कोई देखने वाला न हो, तो मजा भी बहुत नहीं है।


घर जाकर कहेंगे भी, तो कोई भरोसा भी करेगा कि नहीं करेगा! एक आदमी भीड़ में दिखाई पड़ता है, तो वह चिल्लाकर कहता है कि अरे भाई, ये लोग कितना स्वागत कर रहे हैं! लेकिन वह आदमी सिर झुकाकर भीड़ से भाग जाता है। क्योंकि उसे तो पता है कि यह क्या हो रहा है! लेकिन वह गधे पर सवार आदमी समझता है, ईर्ष्या से जला जा रहा है। ईर्ष्या से जला जा रहा है।


करीब करीब अहंकार पर बैठे हुए हम इसी तरह की भ्रांतियों में जीते हैं।


 उनका जीवन के तथ्य से कोई संबंध नहीं होता, क्योंकि जीवन की भाषा हमें मालूम नहीं है। और हम जो अहंकार की भाषा बोलते हैं, उसका जीवन से कहीं कोई तालमेल नहीं होता।

गीता दर्शन 

ओशो 


कर्मोन्द्रियाणि संयम्य य आस्ति मनसास्मरन् । ड़न्द्रियार्थांन्यिमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते

कृष्ण कह रहे हैं कि जो मूढ़ व्यक्ति,  खयाल रखना: जो नासमझ, जो अज्ञानी इंद्रियों को हठपूर्वक रोककर मन में काम के चिंतन को चलाए चला जाता है, वह दंभ में, पाखंड में, अहंकार में पतित होता है। मूढ़ कहेंगे! कह रहे हैं, ऐसा व्यक्ति मूढ़ है, जो इंद्रियों को दमन करता है, सप्रेस करता है!

काश! फ्रायड को यह वचन गीता का पढ़ने मिल जाता, तो फ्रायड के मन में धर्म का जो विरोध था, वह न रहता। लेकिन फ्रायड को केवल ईसाई दमनवादी संतों के वचन पढ़ने को मिले। उसे केवल उन्हीं धार्मिक लोगों की खबर मिली, जिन्होंने जननेंद्रियां काट दीं, ताकि कामवासना से मुक्ति हो जाए। फ्रायड को उन सूरदासों की खबर मिली, जिन्होंने आंखें फोड़ दीं, ताकि कोई सौंदर्य आकर्षित न कर सके। उन विक्षिप्त, न्यूरोटिक लोगों की खबर मिली, जिन्होंने अपने शरीर को कोड़े मारे, लहू बहाया, ताकि शरीर कोई मांग न करे। जो रात रात सोए नहीं, कि कहीं कोई सपना मन को वासना में न डाल दे। जो भूखे रहे, कि कहीं शरीर में शक्ति आए, तो कहीं इंद्रियां बगावत न कर दें।


स्वभावत:, अगर फ्रायड को लगा कि इस तरह का सब धर्म न्यूरोटिक है, पागल है और मनुष्य जाति को विक्षिप्त करने वाला है, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन कृष्ण का एक वचन भी फ्रायड के मन की सारी ग्रंथियों को खोल देता।
 
कृष्ण कह रहे हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति, फ्रायड से पांच हजार साल पहले; जो अपनी इंद्रियों को दबाता है। क्योंकि इंद्रियों को दबाने से मन नहीं दबता, बल्कि इंद्रियों को दबाने से मन और प्रबल होता है। इसलिए मूढ़ है वह व्यक्ति। क्योंकि इंद्रियों का कोई कसूर ही नहीं, इंद्रियों का कोई सवाल ही नहीं है। असली सवाल भीतर छिपे मन का है। वह मन मांग कर रहा है, इंद्रियां तो केवल उस मन के पीछे चलती हैं। वे तो मन की नौकर चाकर, मन की सेविकाएं, इससे ज्यादा नहीं हैं।

कृष्ण कह रहे हैं कि बाहर से दबा लोगे इंद्रियों को  इंद्रियों का तो कोई कसूर नहीं, इंद्रियों का कोई हाथ नहीं। इररेलेवेंट हैं इंद्रियां, असंगत हैं, उनसे कोई वास्ता ही नहीं है। सवाल है मन का। रोक लोगे इंद्रियों को, न करो भोजन आज, कर लो उपवास। मन, मन दिनभर भोजन किए चला जाएगा। ऐसे मन दो ही बार भोजन कर, लेता है दिन में, उपवास के दिन दिनभर करता रहता है। यह जो मन है, मूढ़ है वह व्यक्ति, जो इस मन को समझे बिना, इस मन को बदले बिना, केवल इंद्रियों के दबाने में लग जाता है। और उसका परिणाम क्या होगा? उसका परिणाम होगा कि वह दंभी हो जाएगा। वह दिखावा करेगा कि देखो, मैंने संयम साध लिया; देखो, मैंने संयम पा लिया; देखो, मैं तप को उपलब्ध हुआ; देखो, ऐसा हुआ, ऐसा हुआ। वह बाहर से सब दिखावा करेगा और भीतर, भीतर बिलकुल उलटा और विपरीत चलेगा।


गीता दर्शन 

ओशो 

Tuesday, February 16, 2016

अनंत के यात्री

अमरीका का एक बहुत बड़ा मनीषी हुआ जान डैबी। वह कहा करता था, जीवन जीवन में रुचि का नाम है। जिस दिन वह गयी कि जीवन भी चला गया। सत्य की खोज खोज में रुचि है। सत्य में उतना सवाल नहीं है, जितना खोज में है। मजा मंजिल का नहीं है, यात्रा का है। मजा मिलन का कम है, इंतजारी का हैं।


इस जान डैबी से उसकी नब्बेवीं वर्षगांठ पर बातचीत करते समय एक डाक्टर मित्र ने कहा, फिलासफी, दर्शन, दर्शन में रखा क्या है! बताइए, आप ही बताइए, दर्शन में रखा क्या है, उस डाक्टर ने पूछा! डैबी ने शांतिपूर्वक कहा, दर्शन का लाभ है, उसके अध्ययन के बाद पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। डाक्टर ने समझा नहीं। फिर भी उसने कहा, अच्छा, मान लिया; मान लिया, सही कि दर्शन का यही लाभ है कि पहाड़ों पर चढ़ाई संभव हो जाती है। लेकिन पहाड़ों पर चढ़ने से कौन सा लाभ है? डैबी हंसा और बोला, लाभ यह है कि एक पहाड़ पर चढ़ने के बाद दूसरा ऐसा ही पहाड़ दिखायी पड़ना आरंभ हो जाता है कि जिस पर चढ़ना कठिन प्रतीत होता है। उसके पार होने पर तीसरा। उसके पार होने पर चौथा। और जब तक यह क्रम है और चुनौती है, तब तक जीवन है।


जिस दिन चढ़ने को कुछ शेष नहीं, आकर्षण, चुनौती नहीं, उसी दिन मृत्यु घट जाएगी। और मृत्यु नहीं है, जीवन ही है। एक पहाड़ तुम चढ़ते हो, शायद तुम इसी आशा में चढ़ते हो कि अब चढ़ गए, बस आखिरी आ गया, अब इसके पार कुछ नहीं है, अब तो आराम करेंगे, चादर ओढ़कर सो जाएंगे। पहाड़ पर चढ़ते हो, तब पाते हो कि दूसरा पहाड़ सामने प्रतीक्षा कर रहा है। इससे भी बड़ा, इससे भी विराट, इससे भी ज्यादा स्वर्णमयी! अब फिर तुम्हारे भीतर चुनौती उठी। अब फिर तुम चले। सोचोगे कि अब इस पर पड़ाव डाल देंगे। जिस दिन शिखर पर पहुंचोगे शिखर पर पहुंचते ही आगे का दिखायी पड़ता है, उसके पहले दिखायी नहीं पड़ता तब दिखायी पड़ता है और बड़ा पहाड, मणि काचनों से चमकता, रुकना मुश्किल है! ऐसे पहाड़ के बाद पहाड़।


सत्य की खोज अनंत खोज है। यात्रा है और ऐसी यात्रा कि कभी समाप्त नहीं होती। समाप्त नहीं होती, यह शुभ भी है। समाप्त हो जाए तो जीवन समाप्त हो गया। 

हम अनंत के यात्री हैं।

 एस धम्मो सनंतनो।

ओशो 

क्या बुद्ध के पूर्व भी और बुद्ध हुए हैं? और क्या बुद्ध के बाद भी और बुद्ध हुए हैं?


बुद्धत्‍व चेतना की परमदशा का नाम है। इसका व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। जैसे जिनत्व चेतना की अंतिम दशा का नाम है, इससे व्यक्ति का कोई संबंध नहीं है। जिन अवस्था है। वैसे ही बुद्ध अवस्था है।

गौतम बुद्ध हुए, कोई गौतम पर ही बुद्धत्व समाप्त नहीं हो गया। गौतम के पहले और बहुत बुद्ध हुए हैं। खुद गौतम बुद्ध ने उनका उल्लेख किया है। और गौतम बुद्ध के बाद बहुत बुद्ध हुए। स्वभावत:, गौतम बुद्ध उनका तो उल्लेख नहीं कर सकते। बुद्धत्व का अर्थ है जाग्रत। होश को आ गया व्यक्ति। जिसने अपनी मंजिल पा ली। जिसको पाने को अब कुछ शेष न रहा। जिसका पूरा प्राण ज्योतिर्मय हो उठा। अब जो मृण्मय से छूट गया और चिन्मय के साथ एक हो गया।

इस छोटी सी झेन कथा को समझो:


एक दिन सदगुरु पेन ची ने आश्रम में बुहारी दे रहे भिक्षु से पूछा, भिक्षु, क्या कर रहे हो? भिक्षु बोला, जमीन साफ कर रहा हूं भंते। सदगुरु ने तब एक बहुत ही अदभुत बात पूछी झेन फकीर इस तरह की बातें पूछते भी हैं, पूछा यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो, या बुद्ध के पश्चात?


अब यह भी कोई बात है! बुद्ध को हुए हजारों साल हो गए, अब यह सदगुरु जो स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध है, यह बुहारी देते इस भिक्षु से पूछता है कि यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो, या बुद्ध के पश्चात? प्रश्न पागलपन का लगता है। मगर परमहंसों ने कई बार पागलपन की बातें पूछी हैं, उनमें बड़ा अर्थ है।


जीसस से किसी ने पूछा है कि आप अब्राहम के संबंध में क्या कहते हैं?


अब्राहम यहूदियों का परमपिता, वह पहला पैगंबर यहूदियों का। इस बात की बहुत संभावना है कि अब्राहम राम का ही दूसरा नाम है अब राम का। अब सिर्फ आदर सूचक है, जैसे हम श्रीराम कहते हैं, ऐसे अब राम; अब राम से अब्राहम बना, इस बात की बहुत संभावना है। लेकिन अब्राहम पहला प्रोफेट है, पहला पैगंबर, पहला तीर्थंकर है यहूदियों का, मुसलमानों का, ईसाइयों का। उससे तीनों धर्म पैदा हुए।


तो किसी ने जीसस से पूछा कि आप अब्राहम के संबंध में क्या कहते हैं? तो जीसस ने कहा, मैं अब्राहम के भी पहले हूं। हो गयी बात पागलपन की! जीसस कहा हजारों साल बाद हुए हैं, लेकिन कहते हैं, मैं अब्राहम के भी पहले हूं।


इस झेन सदगुरु पेन ची ने इस भिक्षु से पूछा, यह बुहारी देना तुम बुद्ध के पूर्व कर रहे हो या बुद्ध के पश्चात? पर भिक्षु ने जो उत्तर दिया, वह गुरु के प्रश्न से भी गजब का है! भिक्षु ने कहा, दोनों ही बातें हैं, बुद्ध के पूर्व भी और बुद्ध के पश्चात भी। बोथ, बिफोर एंड आफ्टर। गुरु हंसने लगा। उसने पीठ थपथपायी।



इसे हम समझें। बुद्ध को हुए हो गए हजारों वर्ष, वह गौतम सिद्धार्थ बुद्ध हुआ था, पर बुद्ध होना उस पर समाप्त नहीं हो गया है। आगे भी बुद्ध होना जारी रहेगा। इस बुहारी देने वाले भिक्षु को भी अभी बुद्ध होना है। इसलिए प्रत्येक घटना दोनों है बुद्ध के पूर्व भी, बुद्ध के पश्चात भी। बुद्धत्व तो एक सतत धारा है। एस धम्मो सनंतनो। हम सदा बीच में हैं। हमसे पहले बुद्ध हुए हैं, हमसे बाद बुद्ध होंगे, हमको भी तो बुद्ध होना है। गौतम पर ही थोड़े बात चुक गयी।


लेकिन हमारी नजरें अक्सर सीमा पर रुक जाती हैं। हमने देखा गौतम बुद्ध हुआ, दीया जला, हम दीए को पकड़कर बैठ गए ज्योति को देखो, ज्योति तो सदा से है। इस दीए में उतरी, और दीयों में उतरती रही है, और दीयों में उतरती रहेगी। तो जीसस ठीक कहते हैं कि अब्राहम के पहले भी मैं हूं। यह मेरी जो ज्योति है, यह कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है, यह तो शाश्वत है, यह सनातन है, अब्राहम बाद में हुआ, इस ज्योति के बाद हुआ, इस ज्योति के कारण ही हुआ, जिस ज्योति के कारण मैं हुआ हूं। यह परम ज्योति है। यह परम ज्योति शाश्वत है। न इसका कोई आदि है, न इसका कोई अंत है।


बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों के बुद्धों का उल्लेख किया है चौबीस बुद्धों का उल्लेख किया है। एक उल्लेख में कहा है कि उस समय के जो बुद्धपुरुष थे, उनके पास मैं गया। तब गौतम बुद्ध नहीं थे। झुककर बुद्धपुरुष के चरण छुए। उठकर खड़े हुए थे कि बहुत चौंके, क्योंकि बुद्ध ने झुककर उनके चरण छू लिए। तो वे बहुत घबडाए, उन्होंने कहां, मैं आपके चरण छुऊं, यह तो ठीक है; अंधा आंख वाले के सामने झुके, यह ठीक है; लेकिन आपने मेरे चरण छुए, यह कैसा पाप मुझे लगा दिया! अब मैं क्या करूं?


वे बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुझे पता नहीं, देर अबेर तू भी बुद्ध हो जाएगा। हम शाश्वत में रहते हैं, क्षणों की गिनती हम नहीं रखते; मैं आज हुआ बुद्ध, तू कल हो जाएगा, क्या फर्क है? आज और कल तो सपने में हैं। आज और कल के पार जो है शाश्वत मैं वहा से देख रहा हूं।

 
फिर तो जब बुद्ध को स्वयं बुद्धत्व प्राप्त हुआ गौतम को बुद्धत्व प्राप्त हुआ तो पता है उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा कि जिस दिन मुझे बुद्धत्व प्राप्त हुआ, उस दिन मैंने आंख खोली और तब मैं समझा उस पुराने बुद्ध की बात, ठीक ही तो कहा था, जिस दिन मुझे बुद्धत्व उपलब्ध हुआ उस दिन मैंने देखा कि सबको बुद्धत्व की अवस्था ही है उनको पता नहीं है लोगों को, लेकिन है तो अवस्था। अब मेरे पास अंधे लोग आते हैं, लेकिन मैं जानता हूं आंखें बंद किए बैठे हैं। आंखें उनके पास हैं उन्हें पता न हो, उन्होंने इतने दिन तक आंखें बंद रखी हैं कि भूल ही गए हों, कभी शायद खोलीं ही नहीं, शायद बचपन से ही बंद हैं, शायद जन्मों से बंद हैं।


बुद्ध कहते हैं, अब मेरे पास कोई आता है, तो वह सोचता है कि उसे कुछ पाना है; और मैं उसके भीतर देखता हूं कि ज्योति जली ही हुई है, जरा नजर भीतर ले जानी है। जरा अपने को ही तलाशना और अपने को ही खोजना और टटोलना है।

एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 

मैंने सुना है कि अपात्र व्यक्तियों को संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती है। ऐसा क्यों? क्या अपात्र लोग सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?


इस छोटी सी कहानी को समझो 

अंगार ने ऋषि की आहुतियों का घी पीया, और हव्य के रस चाटे। कुछ देर बाद वह ठंडा होकर राख हो गया और कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया। ऋषि ने जब दूसरे दिन नए अंगार पर आहुति अर्पित की तो राख ने पुकारा, क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज! ऋषि की करुणा जाग उठी और उन्होंने पात्र को पोंछकर एक आहुति राख को भी अर्पित की। तीसरे दिन ऋषि जब नए अंगार पर आहुति देने लगे, तो राख ने गुर्राकर कहा, अरे, तू वहा क्या कर रहा है, अपनी आहुतियां यहां क्यों नहीं लाता? ऋषि ने शांत स्वर में उत्तर दिया, ठीक है राख, आज मैं तेरे अपमान का ही पात्र हूं क्योंकि कल मैंने मूर्खतावश तुझ अपात्र में आहुति अर्पित करने का पाप किया था।
 
अपात्र को भी सदगुरु तो देने को तैयार होता है, लेकिन अपात्र लेने को तैयार नहीं। अपात्र का मतलब ही यह होता है कि जो लेने को तैयार नहीं। तो देने से ही थोड़े ही कुछ हल होता है। मैं देने को तैयार हूं अगर तुम लेने को तैयार न हो, तो मेरे देने का क्या सार होगा? तुम जब तक तैयार नहीं हो, तुम्हें कुछ भी नहीं दिया जा सकता। स्थूल चीजें नहीं दी जा सकतीं, तो सूक्ष्म की तो बात ही छोड़ दो। मैं कोई स्थूल चीज तुम्हें भेंट दूं  फूलों का एक हार भेंट दूं और तुम फेंक दो। स्थूल चीज भी नहीं दी जा सकती। तो सूक्ष्म मैं तुम्हें संन्यास दूं? मैं तुम्हें ध्यान दूं? मैं तुम्हें प्रेम दूं  तुम उसे भी फेंक दोगे।
 
अपात्र का अर्थ खयाल रखना। अपात्र का अर्थ यह है, जो लेने को तैयार नहीं। जो पात्र नहीं है अभी। जो अभी पात्र बनने को राजी नहीं है। पात्र का अर्थ होता है, जो खाली है और भरने को तैयार है। अपात्र का अर्थ होता है जो बंद है और भरने से डरा है और खाली ही रहने की जिद्द किए है। फिर अगर अपात्र को दो तो वह फेंकेगा। और अपात्र को अगर दो तो वह दुर्व्यवहार करेगा हीरों के साथ कंकड़ पत्थरों जैसा दुर्व्यवहार करेगा।

और क्या अपात्र सदगुरु की करुणा के हकदार नहीं हैं?’


हकदार शब्द ही गलत है। यह कोई अधिकार नहीं है जिसका तुम दावा करो। यह हकदार शब्द ही अपात्र के मन की दशा की सूचना दे रहा है। संन्यास का कोई हकदार नहीं होता। यह कोई कानूनी हक नहीं है कि इक्कीस साल के हो गए तो वोट देने का हक है। तुम जन्मों जन्मों जी लिए हो, फिर भी हो सकता है संन्यास के हकदार न होओ। यह हक अर्जित करना पड़ता है। यह हक हक कम है और कर्तव्य ज्यादा है। यह तो तुम्हें धीरे धीरे कमाना पड़ता है। यह कोई कानूनी नहीं है कि मैं चाहता हूं संन्यास लेना, तो मुझे संन्यास दिया जाए। यह तो प्रसादरूप मिलता है। 

तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक का दावा नहीं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हाथ जोड़कर तुम चरणों मैं बैठ सकते हो कि मैं तैयार हूं, जब आपकी करुणा मुझ पर बरसे, या आप समझें कि मैं योग्य हूं, तो मुझे भूल मत जाना, मैं अपना पात्र लिए यहां बैठा हूं। तुम प्रार्थना कर सकते हो, हक की बातें नहीं कर सकते। हक की बात भी अपात्रता का हिस्सा है।



एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 


जीवन में जो महत्वपूर्ण है, सुंदर है, सत्य है, उस पर दावे नहीं होते। हम उसके लिए निमंत्रण दे सकते हैं, हम परमात्मा को कह सकते हैं, तुम आओ तो मेरे दरवाजे खुले रहेंगे। तुम पुकारोगे तो मुझे जागा हुआ पाओगे। मैंने घर—द्वार सजाया है, धूप—अगरबत्ती जलायी है, फूल रखे हैं, तुम्हारी सेज—शय्या तैयार की है, पलक—पांवड़े बिछाए मैं प्रतीक्षा करूँगा, तुम आओ तो मैं धन्यभागी, तुम न आओ, तो समझूंगा अभी मैं पात्र नहीं। यह .पात्र का लक्षण है। तुम आओ, तो मैं धन्यभागी! तुम आओ, तो समझूंगा कि प्रसाद है। न आओ, तो समझूंगा अभी पात्र नहीं।

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