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Friday, February 19, 2016

गुड्डा-गुड्डी का विवाह

मेरे एक मित्र जापान के एक घर में मेहमान थे। सुबह घर के बच्चों ने उनको आकर खबर दी कि हमारे घर में विवाह हो रहा है, आप शाम सम्मिलित हों। उन्हें थोड़ी हैरानी हुई, क्योंकि बहुत छोटे बच्चे थे। तो उन्होंने सोचा कि कुछ गुड्डा-गुड्डी का विवाह करते होंगे। उन्होंने कहा, मैं जरूर सम्मिलित होऊंगा। लेकिन सांझ के पहले घर के बड़े-बूढ़ों ने भी आकर निमंत्रण दिया कि घर में विवाह है, आप सम्मिलित हों। तब वे समझे कि मुझसे भूल हो गई।

लेकिन जब सांझ को घर के हाल में गए, जहां कि सब बैंड-बाजा सजा था, तो देखा कि वहां दूल्हा तो नहीं है। वहां तो गुड्डा ही रखा है और बारात तैयार हो रही है! गांव के आस-पास के बूढ़े भी इकट्ठे हुए हैं; बारात बाहर निकल आई है। तब उन्होंने एक बूढ़े से पूछा कि यह क्या मामला है? मैं तो सोचता था कि बच्चों के खेल बच्चों के लिए शोभा देते हैं, आप लोग इसमें सब सम्मिलित हैं!

तो उस बूढ़े ने हंसकर कहा कि अब हमें बड़ों के खेल भी बच्चों के खेल ही मालूम पड़ते हैं। बड़ों के खेल भी! अब तो जब असली दूल्हा भी बारात लेकर चलता है, तब भी हम जानते हैं कि खेल ही है। तो इस खेल में गंभीरता से सम्मिलित होने में हमें कोई हर्ज नहीं है। दोनों बराबर हैं।

गांव के बूढ़े भी सम्मिलित हुए हैं। मेरे मित्र तो परेशान ही रहे। सोचा कि सांझ खराब हो गई। मैंने उनसे पूछा कि आप करते क्या सांझ को, अगर खराब न होती तो? रेडियो खोलकर सुनते, सिनेमा देखते, राजनीति की चर्चा करते? सुबह जो अखबार में पढ़ा था, उसकी जुगाली करते? क्या करते? करते क्या? कहा, नहीं, करता तो कुछ नहीं। तो फिर मैंने कहा कि बेकार चली गई, यह खयाल कैसे पैदा हो रहा है? बेकार जरूर चली गई, क्योंकि उस घंटेभर में आपको एक मौका मिला था, जब कि आकांक्षा फल की कोई भी न थी, तब आपको एक खेल में सम्मिलित होने का मौका मिला था, वह आप चूक गए। मैंने कहा, दोबारा जाना। कोई निमंत्रण न भी दे, तो भी सम्मिलित हो जाना। और उस घंटेभर इस बारात को आनंद से जीना, तो शायद एक क्षण में वह दिखाई पड़े, जो कि फलहीन कर्म है।
 
खेल में कभी फलहीन कर्म की थोड़ी-सी झलक मिलती है। लेकिन नहीं मिलती है, हमने खेलों को नष्ट कर दिया है। हमने खेलों को भी काम बना दिया है। उनमें भी हम तनाव से भर जाते हैं। जीतने की आकांक्षा इतनी प्रबल हो जाती है कि खेल का सब मजा ही नष्ट हो जाता है।

नहीं, कभी चौबीस घंटे एक प्रयोग करके देखें, और वह प्रयोग आपकी जिंदगी के लिए कीमती होगा। उस प्रयोग को करने के पहले इस सूत्र को पढ़ें, फिर प्रयोग को करने के बाद इस सूत्र को पढ़ें, तब आपको पता चलेगा कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। और एक काम भी अगर आप फल के बिना करने में समर्थ हो जाएं, तो आपकी पूरी जिंदगी पर फलाकांक्षाहीन कर्मों का विस्तार हो जाएगा। वही विस्तार संन्यास है।

होगा क्या? अगर आप फल की आकांक्षा न करें, तो क्या बनेगा, क्या मिट जाएगा?

नहीं, प्रत्येक को ऐसा लगता है कि सारी पृथ्वी उसी पर ठहरी हुई है! अगर उसने कहीं फल की आकांक्षा न की, तो कहीं ऐसा न हो कि सारा आकाश गिर जाए। छिपकली भी घर में ऐसा ही सोचती है मकान पर टंगी हुई कि सारा मकान उस पर सम्हला हुआ है। अगर वह कहीं जरा हट गई, तो कहीं पूरा मकान न गिर जाए!

हम भी वैसा ही सोचते हैं। हमसे पहले भी इस जमीन पर अरबों लोग रह चुके और इसी तरह सोच-सोचकर मर गए। न उनके कर्मों का कोई पता है, न उनके फलों का आज कोई पता है। न उनकी हार का कोई अर्थ है, न उनकी जीत का कोई प्रयोजन है। सब मिट्टी में खो जाते हैं। लेकिन थोड़ी देर मिट्टी बहुत पागलपन कर लेती है। थोड़ी देर बहुत उछल-कूद; जैसे लहर उठती है सागर में, थोड़ी देर बहुत उछल-कूद; उछल-कूद हो भी नहीं पाती कि गिर जाती है वापस।

ऐसे ही हम हैं।


गीता दर्शन 

ओशो 

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