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Friday, July 31, 2015

कल भी आज भी

ल भी ऐसा था—ऐसा ही दुःख, ऐसी ही पीड़ा, ऐसा ही संताप। वैसा ही आज भी है। और कुछ तुमने न किया तो कल भी ऐसा ही होगा। कल भी अंधविश्वास थे और आदमी उनकी जंजीरों में बंधा था—आज भी बंधा है। और अगर सजग न हुए और जंजीरें तोड़ी नहीं, तो कल भी बंधे रहोगे।
कल भी जो सत्य के मार्ग पर चले उन्हें सूली थी आज भी है। लेकिन धन्यभागी हैं वे, जो सत्य के मार्ग पर चल कर सूली पर चढ़ जाते हैं, क्योंकि उन्हीं का असली सिंहासन है।
जो प्रभु के मार्ग पर मिटना जानते हैं, वही जीवन की वास्तविक संपदा के मालिक हो पाते हैं। जो अपने को बचाते हैं, वे अपने को नष्ट कर लेते हैं। जो अपनी सुरक्षा कर रहा है, वह परमात्मा से दूर और दूर पड़ता चला जाएगा। जो साहस करता है दुस्साहस करता है, छलांग लगाता है, वही परमात्मा के पास पहुंच पाता है।
धर्म कायरों की बात नहीं है। और ऐसा मजा हुआ है कि धर्म कायरों की बात ही हो गया है। मंदिर—मस्जिदों में मिलता कौन है? — कायर और हरे हुए लोग और भयभीत लोग। और धर्म कायर का मामला ही नहीं। वह उसका अभियान है। जो सब दांव पर लगाने को तत्पर है, उसका अभियान है।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामो—गुमा। अंधविश्वासों से कल भी बुद्धि घायल थी। शकों, और संदेहों, अनास्थाओ से, कल भी मनुष्य की आत्मा पर घाव थे। कुश्तए—ईहाम है दुनियाए इसा आज भी। और आज भी अंधविश्वासों से बरबाद है।
तुमने जिसे धर्म समझा है, धर्म नहीं है, सिर्फ अंधविश्वास है। अंधविश्वास का अर्थ होता है— जाना नहीं और मान लिया। देखा नहीं और मान लिया। देखने में श्रम करना पड़ता है। देखने के लिए आंख माजनी पड़ती है। देखने के लिए आंख की धूल झाड़नी पड़ती है। देखने के लिए आंख पर नया काजल चढ़ाना होता है। आंख खोलने की झंझट कौन करे! आंख साफ करने का उपद्रव कौन ले! इसलिए लोग आंख बंद किए—किए ही मान लेते हैं कि प्रकाश है। उनका मानना सिर्फ झंझट से बचाना है। प्रकाश की खोज में कौन जाए? क्योंकि वहां तो कीमत चुकानी पड़ती है।
इसलिए अकसर ऐसे लोगों की बातें, जो कहते हैं—कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस राम— राम जप लो और सब हो जाएगा। कि रोज जाकर मंदिर में सिर झुका लो और सब हो जाएगा। कि सुबह एक प्रार्थना दोहरा लो तोतों की तरह यंत्रवत और सब हो जाएगा। ऐसे लोगों की बातें लोगों को रुच जाती है। मनुष्य के अकर्मण्य स्वभाव से इनका मेल बैठ जाता है।


 
ओशो 

Thursday, July 30, 2015

Function of Master

The function of the Master is to call forth: "Lazarus, come out of the cave! Come out of
your grave! Come out of your death!" The Master cannot give you the truth but he can call forth the truth. He can stir something in you. He can trigger a process in you which will ignite a fire, a flame.just so much dust has gathered around you. The function of the Master is negative: he has to give you a bath, a shower, so the dust disappears. That's exactly the meaning of Christian baptism. That's what John the Baptist was doing in the River Jordan. But people go on misunderstanding. Today also baptism happens in the churches; it is meaningless. John the Baptist was preparing people for an inner bath. When they were ready he would take them symbolically into the River Jordan. That was only symbolic -- just as your orange clothes are symbolic, that bath in the River Jordan was symbolic,symbolic that the Master can give you a bath. He can take the dust, the dust of centuries, away from you. And suddenly all is clear, all is clarity.

That clarity is enlightenment. The great Master Daie says: "All the teachings of the sages, of the saints, of the masters, have expounded no more than this: they are commentaries on your sudden cry, 'Ah, This!'"

When suddenly you are clear and a great joy and rejoicing arises in you, and your whole being, every fiber of your body, mind and soul dances, and you say, "Ah, this! Alleluia!" a great shout of joy arises in your being, that is enlightenment. Suddenly stars come down from the rafters. You become part of the eternal dance of existence.

Ah! This

Osho

Masters do not tell the truth

The present is not part of time. Have you ever thought about it? How long is the present?
The past has a duration, the future has a duration. What is the duration of the present?
How long does it last? Between the past and the future can you measure the present? It is
immeasurable; it is almost not. It is not time at all: it is the penetration of eternity into time.

And Zen lives in the present. The whole teaching is: how to be in the present, how to get
out of the past which is no more and how not to get involved in the future which is not
yet, and just to be rooted, centered, in that which is. The whole approach of Zen is of immediacy, but because of that it can bridge the past and the future. It can bridge many things: it can bridge the past and the future, it can  bridge the East and the West, it can bridge body and soul. It can bridge the unbridgeable
worlds: this world and that, the mundane and the sacred. Before we enter into this small anecdote it will be Good to understand a few things. The first: the Masters do not tell the truth. Even if they want to they cannot; it is  impossible. Then what is their function? What do they go on doing? They cannot tell the truth, but they can call forth the truth which is fast asleep in you. They can provoke it, they can challenge it. They can shake you up, they can wake you up. They cannot give you God, truth, nirvana, because in the first place you already have it all with you.

You are born with it. It is innate, it is intrinsic. It is your very nature. So anybody who pretends to give you the truth is simply exploiting your stupidity, your gullibility. He is cunning , cunning and utterly ignorant too. He knows nothing; not even a glimpse of  truth has happened to him. He is a pseudo Master. Truth cannot be given; it is already in you. It can be called forth, it can be provoked. A context can be created, a certain space can be created in which it rises in you and is no more asleep, becomes awakened. The function of the Master is far more complex than you think. It would have been far easier, simpler, if truth could be conveyed. It cannot be conveyed, hence indirect ways and means have to be devised.

Osho

Zen is Zen

ZEN IS JUST ZEN. There is nothing comparable to it. It is unique, unique in the sense
that it is the most ordinary and yet the most extraordinary phenomenon that has happened
to human consciousness. It is the most ordinary because it does not believe in knowledge,
it does not believe in mind. It is not a philosophy, not a religion either. It is the
acceptance of the ordinary existence with a total heart, with one's total being, not desiring
some other world, supra-mundane, supra-mental. It has no interest in any esoteric
nonsense, no interest in metaphysics at all. It does not hanker for the other shore; this
shore is more than enough. Its acceptance of this shore is so tremendous that through that
very acceptance it transforms this shore -- and this very shore becomes the other shore:


This very body the buddha;
This very earth the lotus paradise.


Hence it is ordinary. It does not want you to create a certain kind of spirituality, a certain
kind of holiness. All that it asks is that you live your life with immediacy, spontaneity.
And then the mundane becomes the sacred.


Ah! This

Osho

तोता रटन

आपने गायत्री— मंत्र और नमोकार मंत्र के तोता — रटन की कहानी सुनायी। इस तोता— रटन को आप बंद करवाना चाहते हो। क्या यही गायत्री मंत्र है। क्या यही नमोकार मंत्र है?

च्युत! ऐसा ही है। जहां सारे मंत्र शांत हो जाते हैं, वहीं असली मंत्र पैदा होता है। जो मंत्र तुम दोहराते हो, उस मंत्र का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी जबान से दोहराया गया, तुम्हारी जबान से ज्यादा मूल्यवान हो नहीं सकता है।
जिस ओंकार को तुम गुनगुनाते हो, तुम्हारा ओंकार तुमसे छोटा होगा। एक और ओंकार है, जो तुम्हारे गुनगुनाने से पैदा नहीं होता— जिसकी गुनगुनाहट से तुम पैदा हुए हो। एक और ओंकार है, जिसका नाद सारे जगत् को घेरे हुए है। जिससे जगत् निर्मित हुआ है। उस ओंकार को सुनने के लिए गुनगुनाने की जरूरत नहीं है। उस ओंकार को सुनने के लिए सब गुनगुनाना बंद हो जाए, वाणी मात्र शांत हो जाए, विचार लीन हो जाएं, मन में कोई तरंग न रहे, तब अचानक तुम चकित होकर सुनोगे — एक संगीत बज रहा है भीतर! सदा से बजता रहा है। मगर तुम अपने शोरगुल से भरे थे और उसे सुन न पाए। और कभी — कभी सांसारिक शोरगुल से छूटते हो तो आध्यात्मिक शोरगुल से भर जाते हो। कोई आदमी बाजार के शोरगुल से भरा था। तेईस घंटे उससे भरा रहता है, फिर मंदिर में बैठ जाता है। वहां जा कर नमोकार पढ़ने लगता है या ओंकार का जाप करने लगता है या राम— राम, राम— राम की धुन लगा देता है। तुम शोरगुल से कब छूटोगे। शोरगुल बदल लिया। पहले सांसारिक शोरगुल था, अब आध्यात्मिक शोरगुल। मगर शोरगुल, शोरगुल है। कोई आध्यात्मिक शोरगुल नहीं होता, कोई सांसारिक शोरगुल नहीं होता। शोरगुल शोरगुल है।
अजपा सीखो। नानक ने कहा, कबीर ने कहा : अजपा सीखो। धरमदास ने कहा : अजपा सीखो। अजपा का अर्थ होता है, जो तुम्हारे जाप से पैदा नहीं होता। लेकिन तुम्हारे जब सब जाप बंद हो जाते हैं, छूट गई हाथ से माला, गिर गए हाथ के फूल, बुझ गई आरती, भूल गई मूर्ति, मंदिर, पूजा, प्रार्थना, शब्‍द खो गए, सब शांत हो गया। उस क्षण अचानक विस्फोट होता है। और ऐसा नहीं कि उस क्षण विस्फोट होता है। संगीत तो भीतर बज ही रहा था।
परमात्मा तुम्हारी वीणा पर खेल ही रहा है। तुम्हारी वीणा के तार छू ही रहा है। नहीं तो तुम जियोगे कैसे। तुम्हारा जीवन क्या है। जिस क्षण उसकी अंगुलियां तुम्हारी वीणा के तारों से अलग हो गईं, उसी क्षण तुम मर जाते हो। उसकी अंगुलियां तुम्हारी वीणा पर खेल रही हैं। वही तो तुम्हारा जीवन है— जीवन — संगीत है।
मगर एक बार सुनायी पड़ जाए, बस फिर अड़चन नहीं आती। फिर जब चाहो — ” जब जरा गरदन झुकाई, दिल के आईने में है तस्वीरे— यार।’’ फिर तो जरा गरदन झुकाई और देख ली। जब मन हुआ, आंख को बंद किया एक क्षण को, और देख ली। बीच बाजार में चलते — चलते एक क्षण को सुनना चाहा, सुन लिया संगीत। फिर तुम कहीं भी रहो, उससे जुड़े हो। अजपा चलता है।

अच्युत! तुम ठीक ही कहते हो। गायत्री मंत्र जब बंद हो जाते हैं, तभी गायत्री मंत्र पैदा होता है। नमोकार जब खो जाता है, तभी नमोकार का जन्म है।

ओशो 

औपचारिकताएं

मेरे पास, यह निरंतर मुझे अनुभव हुआ, कई तरह के लोग आते हैं। कुछ अहंकारी आ जाते हैं। उनका मजा इतना ही है कि वे खास थे। जैसी ही मेरे पास लोग बढ़ जाते हैं, और वस्तुत : वैसे लोग आ जाते हैं जो ध्यान कर रहे हैं, समाधि में जा रहे हैं, प्रार्थना में लगे हैं, जो सच में जीवन — रूपांतरण कर रहे हैं — इन अहंकारियों की प्रतिष्ठा कम होने लगती है। इनके बीच और मेरे बीच उनकी संख्या बढ़ने लगती है, जो ध्यान कर रहे हैं। क्योंकि मैं उनके लिए हूं, जो ध्यान कर रहे हैं। तुम ऐसे ही औपचारिक मिलने आ गए। कुछ लोग हैं, वे कहते हैं: बस ऐसे आए थे, तो सोचा आपसे मिल आएं। मेरे पास वे लोग हैं जो अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं। तुम बस आए थे, सोचा कि मिल आएं, कुशल समाचार पूछ आएं।
मैं कुशल हूं, समाचार क्या। तुम कुशल नहीं हो, समाचार क्या। दोनों बातें जाहिर हैं। न कुछ पूछने को है, न कुछ कहने को है। मैं कुशल हूं— सदा कुशल हूं। और तुम अकुशल हो— और सदा अकुशल हो। अब इसमें क्या पूछना है, क्या तांछना है। समय क्यों खराब करना है?
लेकिन ऐसे लोगों को कष्ट हो जाता है। वे जल्दी से किसी और की तलाश में लग जाते हैं, कि कोई मिल जाए, जहां वे कुशल — समाचार कर सकें, औपचारिकताएं निभा सकें, जहां बैठ कर व्यर्थ की, फिजूल की बातें कर सकें। और जहां वे प्रमुख हो सकें, खास हो सकें।
मेरे पास खास होने का एक ढंग है कि तुम शून्‍य हो जाओ। मेरे पास सिद्ध होने का एक ही ढंग है कि तुम मिट जाओ। तुम मिटो तो हो सको।
लेकिन इस तरह के लोगों को अड़चन होती है। इसलिए मेरे अनुभव में यह आया कि जो लोग अहंकार के कारण आ जाते हैं, वे जल्दी ही मुझसे विदा हो जाते हैं। उनके अहंकार को कोई तृप्ति नहीं मिलती। उनको बड़ी चोट लगती है। वे चाहते थे कि मेरे कंधे पर हाथ रखते, मित्रता का व्यवहार करते, मैं उनसे मित्रता का व्यवहार करता।
मुझे कुछ अड़चन नहीं है। मेरे कंधे पर हाथ रखो, मुझे कुछ अड़चन नहीं है। मगर तुम मेरे कंधे पर जिस दिन हाथ रख लेते हो, उसी दिन मैं तुम्हारे लिए व्यर्थ हो गया। फिर तुम मुझे देख ही न सकोगे। तुम्हारी आंखें अंधी हो जाएंगी। तुम्हारा सारा परिप्रेक्ष्य खो जाएगा। तुम आओ तो मैं पूछ सकता हूं कि तुम्हारी पत्नी कैसी है, बच्चे कैसे हैं, फलां बीमार, ढिकां ठीक…। और तुम बड़े प्रसन्न होओगे। मगर क्या सार है। सार तो इसमें है कि मैं तुमसे कहूं कि तुम बिल्कुल ठीक नहीं हो! और कुछ करने का समय आ गया है, घड़ी आ गई है। और दिन पके जाते हैं, पीछे पछताओगे!

ओशो 

समाधि के दो प्रकार

पतंजलि ने समाधि की दो दशाएं कही हैं। चैतन्य समाधि और जड़ समाधि। जड़ समाधि नाम मात्र को समाधि है। समाधि जैसी प्रतीति होती है, पर समाधि नहीं है। जड़ समाधि में, तुम्हारे पास जो थोड़ी—सी चैतन्य की ऊर्जा है, वह भी खो जाती है। तुम मूर्च्छित होकर गिर जाते हो। एक आध्यात्मिक कोमा! तुम मनुष्य से नीचे उतर जाते हो। जरूर शांति मिलेगी, जैसी गहरी नींद में मिलती है।
इसलिए पतंजलि ने यह भी कहा कि समाधि और गहरी नींद में एक समानता है। खूब गहरी नींद आ जाए, स्वप्न भी न हों, तो एक शांति मिलेगी, दूसरे दिन सुबह ताजगी रहेगी। लेकिन उस प्रगाढ़ निद्रा में क्या हुआ था, इसका तो कुछ पता न रहेगा। कहां गए, कहां पहुंचे, क्या अनुभव हुए, कुछ भी पता न होगा। सुबह तुम इतना ही कह सकोगे कि गहरी नींद आई। वह भी सुबह कह सकोगे; उठ आओगे नींद से, तब कह सकोगे।
ऐसी ही जड़ समाधि है। सुगम है, सरल है, आसानी से हो सकती है। इसी जड़ समाधि के कारण ही तो पश्‍चिम में एल० एस० डी०, मारिजुआना, सिलोसायबिन और इस तरह के मादक द्रव्यों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। इसी जड़ समाधि के कारण इस देश का साधु— संन्यासी सदियों से गांजा, भांग, अफीम लेता रहा है। बड़ी सरलता से मन को मूर्च्छित किया जा सकता है। और जब मन मूर्च्‍छित हो जाता है, तो स्वभावत: सारी चिंता समाप्त हो गई, सारे विचार गए। तुम एक सन्नाटे में छूट गए। लौटकर आओगे। ताजे लगोगे। मगर यह ताजगी महंगी है। यह ताजगी बड़ी कीमत पर तुमने ले ली है। असली समाधि चैतन्य समाधि है। मनुष्य दोनों के मध्य में है।
ऐसा समझो कि मनुष्य पत्थर और परमात्मा के बीच में है, बीच की कड़ी है। पत्थर जड़ है, परमात्‍मा पूर्ण चेतन है मनुष्‍य आधा—आधा——कुछ है कुछ चेतन है। यही मनुष्य की चिंता है, यही उसका संताप है। यही उसकी दुविधा, द्वंद्व, यही उसकी पीड़ा, तनाव। आधा हिस्सा खींचता है कि जड़ हो जाओ, आधा हिस्सा खींचता है कि चैतन्य हो जाओ। आधा हिस्सा कहता है कि डूब जाओ संगीत में, शराब में, सेक्स में। आधा हिस्सा कहता है : उठो — ध्यान में, प्रार्थना में, पूजा में। और इन दोनों में कहीं तालमेल नहीं होता। ये दोनों एक — दूसरे के विपरीत जुड़े हैं। जैसे एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जुड़े हैं।
और स्वभावत :, जो पीछे की तरफ जा रहे हैं बैल, वे ज्यादा शक्‍तिशाली हैं। क्यों। क्योंकि अतीत का इतिहास उनके साथ है। तुम्हारा पूरा अतीत जड़ता का इतिहास है। इसलिए जड़ता का बड़ा वजन है। चैतन्य तो भविष्य है। उसकी तो धीमी— सी किरण उतर रही है अभी। अभी उसका बल बहुत नहीं है। अंधेरे का बल बहुत ज्यादा है।
इसलिए तो ध्यान की कोशिश करो, और विचारों की तरंगें उठती ही चली जाती हैं। विचार अतीत से आते हैं, जड़ता से आते हैं, यांत्रिक हैं। ध्यान भविष्य को लाने का प्रयास है। कठिन है भविष्य को उतार लेना। श्रम चाहिए, सतत श्रम चाहिए। जागरूकता चाहिए। अथक जागरूकता चाहिए!
मनुष्य आसानी से पशु हो सकता है। इसलिए तो जिन— जिन बातों से पशु होने की सुविधा मिलती है, तुम उनमें बड़े उत्सुक हो जाते हो। राजनीति में तुम्हारी उत्सुकता देखते हो! वह पशु होने का उपाय है। नीचे गिरने का उपाय है। भीड़— भाड़ के साथ तुम्हें भी नशा छा जाता है। जब भीड़ जोर — जोर से नारा लगाने लगती है, तो तुम्हारा कंठ भी खुल जाता है। ऐसे अकेले शायद तुम्हारी बोलती बंद हो जाए, लेकिन भीड़ के साथ तुम्हारा कंठ खुल जाता है। जब भीड़ आग लगाने लगे कहीं, तो तुम भी आग लगाने में संलग्न हो जाते हो।
तुमने देखा, क्रोध में कितना बल आ जाता है! जब तुम क्रोध में होते हो, बड़ी चट्टान सरका देते हो। वही चट्टान साधारण, सामान्य दशा में हिलाते तो हिलती न। पशुता प्रबल है। पीछे से खींच रही है। जो नीचे गिर जाता है, उसे भी एक तरह की गणित मिलती है। वही शांति अपराध का रस है। तुम यह मत समझना कि अपराधी सिर्फ धन में उत्सुक है, इसलिए चोरी कर रहा है। अपराध की असली रसवता पशुता है। अपराधी पीछे गिर रहा है। आदमी है उत्तरदायित्व। आदमी है चुनौती। अपराधी पीछे गिर रहा है। वह कहता है : मुझे चुनौती स्वीकार नहीं करनी।



ओशो 

Wednesday, July 29, 2015

कहंवां से जीव आइल।

लोग न मालूम कैसे—कैसे प्रश्रों में उलझे रहते हैं! क्रासवर्ड, पहेलियां भरते रहते हैं। इस जिंदगी की पहेली उलझी पड़ी है, किसी अखबार में छपी पहेली को सुलझा रहे हैं! अभी भीतर जो पहेली है वह भी सुलझी नहीं। खुद सुलझे नहीं हैं, लोग दूसरों को सुलझाने चल पड़ते हैं। दूसरे को सुलझाने में झंझट नहीं है। अपना क्या बिगड़ता—बनता है! दूसरे को सुलझाने में तुम बाहर ही रहते हो प्रश्रों के।
एक चमत्कार की घटना रोज यहां घट रही है। पश्‍चिम से मनोवैज्ञानिक आ रहे हैं, मनोविश्लेषक आ रहे हैं, मनोचिकित्सक आ रहे हैं— जिन्होंने जिंदगीभर दूसरों को, दूसरों की समस्याएं सुलझाने का काम किया है। जब वे मेरे पास आते हैं तो मैं उनसे पूछता हूं : ” तुम करते क्या रहे। तुम ख्यातिनाम हो। तुमने हजारों मरीजों की मानसिक चिकित्सा की है। ” तब उनकी आंखें झुक जाती हैं। वे कहते हैं : हम दूसरों के प्रश्‍न तो सुलझाते रहे, लेकिन अपना प्रश्‍न उलझा पड़ा है।
मगर यह हो कैसे सकता है कि तुम्हारा प्रश्‍न उलझा पड़ा हो और तुम दूसरे का सुलझाओ। और तुम्हारा सुलझाना किस काम का होगा। तुम्हारे सुलझाने से और बात उलझेगी, और गांठ लग जाएगी, धागे और उलझ जाएंगे। और यही हो रहा है, धागे आदमी के उलझते जा रहे हैं। क्योंकि जिनके खुद नहीं सुलझे हैं, वे दूसरों को सुलझाने चले गए।
लेकिन आदमी दूसरे के प्रश्रों के सुलझाने में इतनी उत्सुकता क्यों लेता है। कारण यही है: दूसरे का प्रश्‍न सुलझाने में अपने प्रश्‍न से बचने की सुविधा है, उपाय है। भूल ही गए अपने प्रश्‍न।
धार्मिक व्यक्ति वही है, जो यह झंझट लेता है। जो इस उपद्रव में उतरता है। जो कहता : पहले मैं अपने प्रश्‍न को सुलझा लूं।
और प्रश्‍न क्या है— कहंवां से जीव आइल। आए तुम कहां से। यह बात ही डराती है। मैं कौन हूं। हमारा मन होता है नाम बता दें— अ ब स। गांव बता दें— पता—ठिकाना बता दें। सस्ता कोई उत्तर दे दें— स्त्री हूं, पुरुष हूं। जवान हूं, बूढा हूं। प्रसिद्ध हूं, अप्रसिद्ध हूं। नाम है, बदनाम है। कुछ… ऐसा कुछ उत्तर देकर हम निपट लेना चाहते हैं।
तुम्हारा नाम तुम हो। तुम्हारा गांव तुम हो। तुम्हारा पता— ठिकाना तुम हो। किसे धोखा दे रहे हो। ये ऊपर से चिपका ली गई बातें हैं। तुम्हारे जीवन की समस्या को हल करेंगी, समाधान देंगी। इनसे समाधि फलेगी। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं, भारतीय हूं, चीनी हूं, जापानी हूं— क्या उत्तर दे रहे हो तुम। इनसे क्या पता चलता है। कुछ भी पता नहीं चलता।
जब बच्चा पैदा होता है, न हिंदू होता है न मुसलमान होता है। कोई बच्चा जनेऊ लेकर तो आता नहीं और न किसी बच्चे का खतना भगवान करता है। बच्चा भारतीय भी नहीं होता, पाकिस्तानी भी नहीं होता। बच्चे के पास कोई भाषा भी नहीं होती— न हिंदी, न अंग्रेजी, न मराठी, न गुजराती। यह कौन है। यह चैतन्य क्या है। यह निर्मल दर्पण क्या है। यह कहां से आ रहा है। यह बिना लिखी किताब क्या है। इस पर अभी कुछ नहीं लिखा गया है। जल्दी ही आइडेंटिटी— कार्ड बनेगा, पासपोर्ट बनेगा। जल्दी नाम—पता— ठिकाना लिख जाएगा। जल्दी इस आदमी को हम एक कोटि में रख देंगे कि यह कौन है। यह डाक्टर हो जाएगा, इंजीनियर हो जाएगा, दुकानदार हो जाएगा, इस राजनीतिक पार्टी में सम्मिलित हो जाएगा, उस राजनीतिक पार्टी में सम्मिलित हो जाएगा। कम्युनिस्ट हो जाएगा, सोशलिस्ट हो जाएगा। यह हजार चीजें हो जाएगा। इस क्लब का मेंबर हो जाएगा, रोटेरियन हो जाएगा, लायन हो जाएगा— और न मालूम क्या— क्या हो जाएगा! और इसके चारों तरफ पर्त—दर— पर्त झूठी बातें जुड़ती चली जाएंगी और उन्हीं में यह खो जाएगा। और कभी यह प्रश्‍न भी नहीं उठेगा इसके भीतर कि आखिर मैं हूं कौन!
ओशो 

Monday, July 27, 2015

मुमुक्षा

एक और—जिससे संबंध है हमारा—एक और भी दिशा है खोज की, उसे हम कहते हैं, मुमुक्षा। जानने की फिक्र नहीं है, जीने की फिक्र है। जानने की फिक्र नहीं है, होने की फिक्र है। यह सवाल नहीं है कि ईश्वर है, सवाल यह है कि क्या मैं ईश्वर हो सकता हूं? अगर ईश्वर हो भी और मैं ईश्वर न हो सकूं तो कोई सार नहीं है। सवाल यह नहीं है कि मोक्ष है, सवाल यह है कि क्या मैं भी मुक्त हो सकता हूं? अगर मैं मुक्त हो ही न सकूं और मोक्ष हो भी कहीं, तो क्या अर्थ है? यह बात नहीं है कि आत्मा है भीतर या नहीं, हो या न हो, सवाल असली यह है कि क्या मैं आत्मा हो सकता हूं?

मुमुक्षा है होने की खोज। और जब कोई होना चाहता है, तब दाव पर लगना पडता है। इसलिए कहता हूं, धर्म है जुआरियों का काम। वही कहूंगा जो मैं जानता हूं जो जीया है। अगर आप तैयार हुए दाव पर लगाने को, तो जो मेरा अनुभव है वह आपका अनुभव भी बन सकता है। अनुभव किसी के नहीं होते, जो भी लेने को तैयार हो, उसी के हो जाते हैं। सत्य पर किसी का कोई अधिकार नहीं। जो भी मिटने को राजी है, वही उसका मालिक हो जाता है। सत्य तो उसका है, जो भी उसे मागने की तैयारी दिखलाता है; जो भी अपने हृदय के द्वार खोलता है और उसे पुकारता है।

इस उपनिषद को इसीलिए चुना है। यह उपनिषद अध्यात्म का सीधा साक्षात्कार है। सिद्धात इसमें नहीं हैं, इसमें सिद्धों का अनुभव है। इसमें उस सब की कोई बातचीत नहीं है जो कुतूहल से पैदा होती है, जिज्ञासा से पैदा होती है। नहीं, इसमें तो उनकी तरफ इशारे हैं जो मुमुक्षा से भरे हैं, और उनके इशारे हैं जिन्होंने पा लिया है।
कुछ ऐसे लोग भी हैं कि जिन्होंने नहीं पाया, लेकिन फिर भी मार्ग—दर्शन देने का मजा नहीं छोड़ पाते। मार्ग—दर्शन में बड़ा मजा है। सारी दुनिया में अगर सबसे ज्यादा कोई चीज दी जाती है, तो वह मार्ग—दर्शन है! और सबसे कम अगर कोई चीज ली जाती है, तो वह भी मार्ग—दर्शन है! सभी देते हैं, लेता कोई भी नहीं है! जब भी आपको मौका मिल जाए किसी को सलाह देने का, तो आप चूकते नहीं। जरूरी नहीं है कि आप सलाह देने योग्य हों। जरूरी नहीं है कि आपको कुछ भी पता हो, जो आप कह रहे हैं। लेकिन जब कोई दूसरे को सलाह देनी हो, तो शिक्षक होने का मजा छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है।

शिक्षक होने में मजा क्या है? आप तत्काल ऊपर हो जाते हैं मुफ्त में और दूसरा नीचे हो जाता है। अगर कोई आपसे दान मांगने आए, तो दो पैसे देने में कितना कष्ट होता है! क्योंकि कुछ देना पडता है जो आपके पास है। लेकिन सलाह देने में जरा भी कष्ट नहीं होता; क्योंकि जो आपके पास है ही नहीं, उसको देने में कष्ट क्या! आपका कुछ खो ही नहीं रहा है। बल्कि आपको कुछ मिल रहा है। मजा मिल रहा है। अहंकार मिल रहा है। आप भी सलाह देने की हालत में हैं आज, और दूसरा लेने की हालत में है। आप ऊपर हैं, दूसरा नीचे है। इसलिए कहता हूं कि इस उपनिषद में कोई सलाह, कोई मार्ग—दर्शन देने का मजा नहीं है, बड़ी पीड़ा है। क्योंकि उपनिषद का ऋषि जो दे रहा है, वह जान कर दे रहा है। वह बांट रहा है कुछ—बहुत हार्दिक, बहुत आतरिक। संक्षिप्त इशारे हैं, लेकिन गहरे हैं। बहुत थोड़ी सी चोटें हैं, लेकिन प्राण—घातक हैं। और अगर राजी हों, तो तीर सीधा हृदय में चुभ जाएगा और जान लिए बिना न रहेगा। जान ही ले लेगा।

ओशो 

कुतूहल से आगे जिज्ञासा

कुछ लोग कुतूहल से थोड़ा आगे बढ़ते हैं और जिज्ञासा करते हैं। जिज्ञासा में थोड़ी ज्यादा गहराई है। लेकिन बस थोड़ी ज्यादा। जिज्ञासा भी बहुत गहरी नहीं है, वह भी उथली है, क्योंकि जिज्ञासा है केवल बौद्धिक। और बुद्धि भी ऐसी है, जैसी खाज होती है। खुजलाएं, तो थोड़ा रस आता है। ऐसा बुद्धि को भी खाज होती रहती है ईश्वर है? आत्मा है? मोक्ष है? ध्यान क्या है? करने के लिए नहीं, ईश्वर क्या है, जानने के लिए नहीं—चर्चा के लिए, बातचीत के लिए। एक बौद्धिक मजा है, एक बौद्धिक व्यायाम है!

तो लोग ऊंची बातें करते हैं, लेकिन उन बातों पर कभी भी कोई दाव नहीं लगाते। ईश्वर है या नहीं, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। और ईश्वर हो तो, ईश्वर न हो तो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। यह बड़े मजे की बात है। एक आदमी मानता है कि ईश्वर है और एक आदमी मानता है कि ईश्वर नहीं है, और दोनों की जिंदगी बराबर एक सी! कोई गाली दे तो उसे भी क्रोध आता है जो मानता है कि ईश्वर है और उसे भी क्रोध आता है जो मानता है कि ईश्वर नहीं है! बल्कि कई दफा तो यह देखा जाता है कि जो मानता है ईश्वर है, उसे ज्यादा क्रोध आता है! क्योंकि जो मानता है कि ईश्वर नहीं है, वह ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकता है आपका? गाली दे सकता है, मार सकता है, हत्या कर सकता है! लेकिन जो मानता है ईश्वर है, वह आपको नर्क तक में सड़ा सकता है! उसके पास ज्यादा उपाय हैं क्रोधित होने के।

अगर ईश्वर के मानने और न मानने से कोई भी अंतर जीवन में न पड़ता हो, तो उसका अर्थ है कि यह ईश्वर से कोई संबंध नहीं है, बौद्धिक बातचीत है। ऐसी जिज्ञासा हो तो आदमी दार्शनिक हो जाता है, चिंतन—मनन करने लगता है, शास्त्र अध्ययन करने लगता है, बहुत सिद्धात इकट्ठे कर लेता है, पक्ष में, विपक्ष में सोच लेता है, वाद—विवाद करता है, शास्त्रार्थ करता है, लेकिन जीता कभी नहीं। अगर आप भी सिर्फ जिज्ञासा से भरे हैं, तो यात्रा नहीं होगी। जिज्ञासा से भरे हुए लोग वे हैं, जो मील के पत्थर के पास बैठ जाते हैं और पूछते हैं, मंजिल क्या है? कितनी दूर है? और सदा यही पूछते हैं, लेकिन कभी उठ कर चलते नहीं। जानते तो आप भी कितना हैं! क्या कमी है जानने में! करीब—करीब सभी कुछ जानते हैं। जो बुद्ध ने जाना हो, महावीर ने, कृष्ण ने जाना हो, वह सभी आप भी तो जानते हैं! गीता में पढ़ कर आपको ऐसा नहीं लगता कि ये बातें तो हमें भी मालूम हैं? मालूम आपको भी हैं, पर सिर्फ बुद्धि तक हैं। आपके हृदय तक उनका बीज नहीं पहुंचा है। और बुद्धि पर रखे हुए विचार वैसे ही होते हैं, जैसे पत्थर पर कोई बीज को रख दे। बीज तो होता है, लेकिन पत्थर पर रखा रहता है। अंकुर नहीं फूट सकता। अंकुर फूटना हो तो बीज को पत्थर से गिरना पड़े, जमीन खोजनी पड़े। और जमीन की भी ऊपर की सतह ठीक नहीं है, क्योंकि और गीली जगह चाहिए। तो थोड़ा जमीन के भीतर पहुंचना पड़े, जहां थोड़ी पानी की सुविधा हो, थोड़ा रस बहता हो।

बुद्धि पर पत्थर की तरह बीज रख जाते हैं। हृदय तक जब तक न गिर जाएं, तब तक गीली जगह नहीं मिलती। हृदय में थोड़ा रस बहता है; थोड़ा प्रेम। वहा थोड़ा पानी है। वहा कोई बीज गिरे तो अंकुरित होता है, नहीं तो कभी अंकुरित नहीं होता। जिज्ञासु व्यक्तियों के पास बहुत कुछ होता है, लेकिन पत्थर पर रखे हुए बीजों की भाति। जमीन भी ज्यादा दूर नहीं होती, लेकिन थोड़ी यात्रा भी मुश्किल है। चलना बिलकुल नहीं है, तो पत्थर पर ही बीज रखा रह जाता है। इतनी यात्रा तो करनी ही पड़ेगी कि बीज पत्थर से नीचे गिरे, जमीन पर आए, जमीन में जगह खोजे, थोड़ी गीली भूमि को पाए, थोड़ा छिप जाए अंधेरे में।

ध्यान रहे, जगत में जो ली जन्म पाता है, वह गहन मौन, एकांत, अंधेरे को चाहता है। बुद्धि में तो जितनी चीजें रखी हैं, वे सब खुले प्रकाश में रखी हैं। वहा अंकुर नहीं होते। हृदय आपके भीतर गीली जमीन है, छिपी हुई। वहां कुछ पैदा होता है। इसलिए जो सिर्फ जिज्ञासा से जीते हैं, वे विद्वान बन जाते हैं, पंडित बन जाते हैं, ज्ञानी बन जाते हैं, लेकिन कुछ अंकुरित नहीं होता उनके भीतर, कोई नया जन्म, कोई नया जीवन, कोई नए फूल—कुछ भी नहीं।

ओशो 

कुतूहल से सत्य का संबंध

आप कुछ नए नहीं हैं।
 इस पृथ्वी पर कुछ भी नया नहीं है, सभी बहुत पुराने हैं। आप बुद्ध के चरणों में भी बैठ कर सुने हैं, आपने कृष्ण को भी देखा है, आप जीसस के पास भी उठे —बैठे हैं, लेकिन फिर भी वंचित रह गए हैं! क्योंकि कभी भी आपका हृदय तैयार नहीं था। आपके पास से बुद्ध की सरिता बहती निकल गई है, महावीर की सरिता बहती निकल गई है, आप प्यासे रह गए हैं।

आनंद रो रहा था, जिस दिन बुद्ध के प्राण छूटने को थे, और छाती पीट रहा था। और बुद्ध ने उससे कहा कि तू रोता क्यों है? जरूरत से ज्यादा मैं तेरे पास था, चालीस वर्ष! और अगर चालीस वर्ष में भी नहीं हो पाई वह घटना, तो अब रोने से क्या होगा! मेरे मिटने से इतना परेशान क्यों हो रहा है? तो आनंद ने कहा है, इसलिए परेशान हो रहा हूं कि आप मौजूद थे और मैं न मिट पाया। अगर मैं मिट जाता तो आपको मेरे भीतर प्रवेश मिल जाता। चालीस साल नदी मेरे पास बहती थी और मैं प्यासा रह गया हूं। और अब मैं रोता हूं क्योंकि जरूरी नहीं है कि यह नदी कब, किस जन्म में दुबारा मुझे मिलेगी।

आप कुछ नए नहीं हैं। आपने बुद्धों को दफनाया, महावीरों को दफनाया, जीसस, कृष्ण, क्राइस्ट, सबको आप दफना कर जी रहे हैं। वे हार गए आपसे, आप काफी पुराने हैं। जब से जीवन है, तब से आप हैं। अनंत—अनंत यात्रा है।
कहां हो जाती होगी चूक?

बस यहीं हो जाती है कि आप खुले ही नहीं हैं, बंद हैं।

मैं तो आपसे वही कहूंगा, जो मैंने जाना है। अगर आप भी अपने को एक खुलापन बना सकें, तो आप भी उसे जान लेंगे। और ऐसा नहीं है कि कोई कठिनाई है बहुत! एक ही कठिनाई है और वह आप हैं। कुछ लोग कुतूहल से चलते हैं। जैसे राह चलते बच्चे पूछ लेते हैं, इस वृक्ष का नाम क्या है? और अगर आप उत्तर न दें, तो तत्थण भूल जाते हैं कि उन्होंने पूछा भी था! वे दूसरी बात पूछने लगते हैं कि यह पत्थर यहां क्यों पड़ा है? पूछने के लिए पूछते हैं, जानने के लिए नहीं पूछते। बिना पूछे नहीं रह सकते हैं, इसलिए पूछते हैं; जानने के लिए नहीं पूछते।
जो लोग कुतूहल से जी रहे हैं, वे अभी भी बचकाने हैं। अगर आप ऐसे ही पूछ लेते हैं कि ईश्वर क्या है, जैसे कि कोई बच्चा राह चलते दुकान देख कर पूछ लेता हो कि यह खिलौना क्या है, तो आप अभी बच्चे हैं। और बच्चा तो माफ किया जा सकता है, आप माफ नहीं किए जा सकते। कुतूहल नहीं चलेगा। धर्म कोई खिलवाड़ नहीं है बच्चों का। और फिर उत्तर भी मिल जाए तो उससे कोई प्रयोजन नहीं है। बच्चे का मजा पूछने में है। उसने पूछा, यही उसका मजा है। आप उत्तर देंगे भी, तो उस उत्तर में उसे कोई बहुत रस नहीं है। क्या बात है?

मनसविद कहते हैं कि बच्चे नया—नया बोलना सीखते हैं, तो अपने बोलने का अभ्यास करते हैं पूछ—पूछ कर। जैसे बच्चा नया—नया चलना सीखता है, तो बार —बार उठ कर चलने की कोशिश करता है। बोलना सीखता है, तो बार—बार बोलने की कोशिश करता है। इसलिए बच्चे एक ही बात को कई दफा कहते हैं। इसीलिए कई दफा कहते हैं, क्योंकि उन्हें बोलने का एक नया अनुभव, एक नया आयाम मिला है। उस नए आयाम में वे तैर कर अभ्यास कर रहे हैं। इसलिए कुछ भी पूछते हैं, कुछ भी बोलते हैं।

अगर आप भी धर्म की दुनिया में कुछ भी पूछ रहे हैं, कुछ भी बोल रहे हैं, कुछ भी सोच रहे हैं—और कोई गहरी जिज्ञासा नहीं है, बस कुतूहल है—तो अभी आप और कुछ बुद्धों को दफनाके! अभी और न मालूम कितने बुद्धों को आपके साथ मेहनत करनी पडेगी!

कुतूहल से सत्य का कोई संबंध नहीं है।

ओशो 

ज्ञान बहुत सस्ता है

मैं वही कहूंगा जो मैं जानता हूं; वही कहूंगा जो आप भी जान सकते हैं। लेकिन जानने से मेरा अर्थ है, जीना। जाना बिना जीए भी जा सकता है। तब ज्ञान होता है एक बोझ। उससे कोई डूब तो सकता है, उबरता नहीं। जानना जीवंत भी हो सकता है। तब जो हम जानते हैं, वह हमें करता है निर्भार, हलका, कि हम उड़ सकें आकाश में। जीवन ही जब जानना बन जाता है, तभी पंख लगते हैं, तभी जंजीरें टूटती हैं, और तभी द्वार खुलते हैं अनंत के।
लेकिन जानना कठिन है, ज्ञान इकट्ठा कर लेना बहुत आसान। और इसलिए मन आसान को चुन लेता है और कठिन से बचता है। लेकिन जो कठिन से बचता है वह धर्म से भी वंचित रह जाएगा। कठिन ही नहीं, जो असंभव से भी बचना चाहता है, वह कभी भी धर्म के पास नहीं पहुंच पाएगा। धर्म तो है ही उनके लिए, जो असंभव में उतरने की तैयारी रखते हैं। धर्म है जुआरियों के लिए, दुकानदारों के लिए नहीं। धर्म कोई सौदा नहीं है। धर्म कोई समझौता भी नहीं है। धर्म तो है दांव। जुआरी लगाता है धन को दांव पर, धार्मिक लगा देता है स्वयं को। वही परम धन है। और जो अपने को ही दांव पर लगाने को तैयार नहीं, वह जीवन के गुह्य रहस्यों को कभी भी जान नहीं पाएगा।
सस्ते नहीं मिलते हैं वे रहस्य, ज्ञान तो बहुत सस्ता मिल जाता है। ज्ञान तो मिल जाता है किताब में, शास्त्र में, शिक्षा में, शिक्षक के पास। ज्ञान तो मिल जाता है करीब—करीब मुफ्त, कुछ चुकाना नहीं पडता। धर्म में तो बहुत कुछ चुकाना पडता है। बहुत कुछ कहना ठीक नहीं, सभी कुछ दाव पर लगा दे कोई, तो ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को जो दाव पर लगा दे उसके लिए ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को दाव पर लगा देना ही उस जीवन के द्वार की कुंजी है।

लेकिन ज्ञान बहुत सस्ता है। इसलिए मन सस्ते रास्ते को चुन लेता है; सुगम को। सीख लेते हैं हम बातें, शब्द, सिद्धात, और सोचते हैं जान लिया। अज्ञान बेहतर है ऐसे शान से। अज्ञानी को कम से कम इतना तो पता है कि मुझे पता नहीं है। इतना सत्य तो कम से कम उसके पास है।जिन्हें हम ज्ञानी कहते हैं, उनसे ज्यादा असत्य आदमी खोजने मुश्किल हैं। उन्हें यह भी पता नहीं है कि उन्हें पता नहीं है। सुना हुआ, याद किया हुआ, कंठस्थ हो गया धोखा देता है। ऐसा लगता है, मैंने भी जान लिया।

मैं आपसे वही कहूंगा जो मैं जानता हूं। क्योंकि उसके कहने का ही कुछ मूल्य है। क्योंकि जिसे मैं जानता हूं, अगर आप तैयार हों, तो उसकी जीवंत चोट आपके हृदय के तारों को भी हिला सकती है। जिसे मैं ही नहीं जानता हूं जो मेरे कंठ तक ही हो, वह आपके कानों से ज्यादा गहरा नहीं जा सकता। जो मेरे हृदय तक हो, उसकी ही संभावना बनती है, अगर आप साथ दें तो वह आपके हृदय तक जा सकता है।

ओशो 

Sunday, July 26, 2015

स्थिर ज्ञान

स्थिर ज्ञान–नॉन–वेवरिंग नॉलिज क्या है? यह एक गहरे से गहरा रहस्य है, इसलिए इसे समझने के लिए हमें मन की जो बनावट है, उसकी गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा।
तो हम शुरू करें मन से। मन में कई प्रकार के विचार होते हैं। प्रत्येक विचार एक कंपन है प्रत्येक विचार एक लहर है। जब कोई भी विचार न हो, तभी मन निश्‍चल होगा। एक भी विचार उठा और आप कंप गए। एक विचार आया और आप स्थिर नहीं रहे। और एक विचार भी केवल एक विचार ही नहीं है, वह एक बड़ी जटिल घटना है। एक अकेला विचार भी कई तरंगों से बनता है। एक शब्द भी अनेक तरंगों से निर्मित होता है। अतः एक शब्द भी तब बनता है, जब मन में अनेक तरंगें उठ रही हों, और एक अकेले विचार में ऐसे कितने ही शब्द होते हैं।
हजारों-हजारों तरंगों से कहीं एक विचार निर्मित होता है। विचार सब से अधिक बाह्य वस्तु है, परन्तु तरंगें उसके भी पहले हैं। उन्हें आप तभी जान पाते हैं, जब तरंगें विचारों में परिवर्तित हो गई होती हैं, क्योंकि आपकी सजगता बहुत स्थूल है। हम तब सजग नहीं होते, जब तरंगें शुद्ध तरंगें हों, और वे विचार बनने की प्रक्रिया में हों। जितने अधिक आप सजग होंगे, उतना ही अधिक आप अनुभव करेंगे कि विचार की बहुत सी परतें होती हैं। विचार अंतिम परत है। विचार के पहले बीज-तरंगें होती हैं, जो कि विचार को पैदा करती हैं, और बीज-तरंगों के पूर्व उनसे भी ज्यादा गहरी जड़ें होती हैं जो कि बीजों को उपजाती हैं।
बीज विचारों की रचना करते हैं। कम से कम तीन परतें बहुत आसानी से दिखलाई पड़ती है किसी भी जागरूक चित्त के लिए। परन्तु हम सीधे जागरूक नहीं हो जाते, अतः हम तभी सजग होते हैं, जब तरंगें सर्वाधिक स्थूल रूप ले सकती हैं–विचार बन जाती है। जहां तक हम जानते हैं, विचार सब से अधिक सूक्ष्म चीज है। किंतु वह है नहीं। विचार, वास्तव में, एक वस्तु बन गया है। जब शुद्ध तरंगें होती हैं, तब आप उन्हें नहीं पहचान सकते कि क्या होने वाला है, कौन सा विचार आप में पैदा होने वाला है। अतः हम तभी जान पाते हैं जब कि तरंगें विचार बन चुकती हैं। एक अकेले विचार का मतलब होता है हजारों-हजारों तरंगें।

कितना हम कंप रहे हैं! हम निरंतर विचारों से घिरे हैं। एक भी क्षण ऐसा नहीं होता जब हमारे भीतर कोई विचार न चल रहा हो। एक विचार के पीछे दूसरा विचार लगातार आता चला जाता है, बिना किसी अंतराल के। इसलिए हम वस्तुतः एक अस्थिर, कांपते हुए विचार-चक्र हैं। सोरेन किकगार्ड ने कहा है कि आदमी सिर्फ एक कंपन है–एक कंपन–और ज्यादा कुछ नहीं। और वह एक तरह से सही है। जहां तक हमारा संबंध है, मनुष्य एक कंपन ही है, पर एक बुद्ध वैसे नहीं हैं, क्योंकि बुद्ध एक आदमी नहीं हैं। यह विचार की प्रक्रिया कंपन की प्रक्रिया है। अतः स्थिर का अर्थ हैः एक निर्विचार मन की स्थिति।

सूत्र कहता है, निश्‍चल जानना। मन की भी बात नहीं की गई। इसलिए मन की तीन परतों को ठीक से समझ लेना चाहिए। प्रथम है चेतन मन, और एक प्रकार के विचार चेतन मन से संबंधित हैं। ये विचार सब से कम महत्वपूर्ण होते हैं। ये विचार प्रतिपल हो रही बाह्य प्रतिक्रियाओं से बनते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं, एक सांप गुजरता है, और आप कूद जाते हैं, सांप एक उत्तेजक विषय बन जाता है और आप प्रतिक्रिया करते हैं।
अतः एक इस तरह का विचार होता हैः एक बाह्य विषय टकराया और एक प्रतिक्रिया बाहरी परिधि पर घट गई। सचमुच आप कुछ सोचते नहीं, आप सिर्फ सक्रिय होते हैं। सांप वहां है और आप कुछ करते हैं। आप सजग होते हैं और आप कर्म करते हैं। आप भीतर प्रवेश नहीं करते और पूछते नहीं कि क्या करना चाहिए।
घर में आग लगी है और आप भागते हैं। यह बाहरी परिधि पर हो रही प्रतिक्रिया है। अतः एक ऐसा विचार जो क्षणानुक्षणिक है, रिफ्रलेक्स टाइप का है। एक बुद्ध भी ऐसे ही प्रतिक्रिया करेंगे। यह नैसर्गिक है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यदि आप क्षण-क्षण प्रतिक्रिया करें, तो कुछ भी गलत नहीं है। परन्तु यही एक परत तो नहीं है।
एक दूसरी परत भी है। यह दूसरी परत अर्धचेतन की है। धर्म उसे अतः करण, कॉन्सिएन्स कहते हैं। वास्तव में, यह दूसरी परत समाज द्वारा नि£मत की गई होती है। यह भी आपके भीतर घुस गया समाज ही है। समाज प्रत्येक के भीतर घुस जाता है, क्योंकि जब तक समाज भीतर प्रवेश नहीं करता, वह आपको नियंत्रित नहीं कर सकता।

इसलिए वह आपका एक अंग बन जाता है। आपका लालन-पालन, आपकी शिक्षा, आपके माता-पिता, शिक्षक आदि: ये सब क्या कर रहे हैं, वे एक ही बात कर रहे हैं–वे एक अर्धचेतन मन निर्मित कर रहे हैं। वे सब आपको विचार, ढांचे, आदर्श, मूल्य आदि दे रहे हैं। ये सारे विचार दूसरी परत से संबंधित हैं। वे सहायक हैं, उनकी उपादेयता है, किंतु वे हानिप्रद भी हैं। वे समाज में सुगमता से विचारने के लिए साधन हैं। परन्तु वे बाधाएं भी हैं।
यह दूसरी परत ठीक से ध्यान में रख लेनी चाहिए। यह दूसरी परत भीतर विचार व पक्की धारणाओं आदि से बनती है। इसलिए जब कभी आपका उपरी चेतन मन क्षण-क्षण काम कर रहा हो, तब वह शुद्ध नहीं होता।

ओशो 

मृत्यु से भय

कोई भी पशु मृत्यु से भयभीत नहीं है, क्योंकि किसी भी पशु की भविष्य के लिए कोई योजना नहीं होती। इसके अलावा कोई भी दूसरा कारण नहीं है–भविष्य के लिए कोई योजना नहीं। भविष्य नहीं है, अतः मृत्यु नहीं है। मृत्यु से क्यों भयभीत हों, यदि भविष्य के लिए कोई योजना नहीं है? मृत्यु से कुछ भी छिन्‍न-भिन्‍न नहीं होगा। जितनी बड़ी योजनाएं होती हैं, उतना ही अधिक भय होता है। मृत्यु, वास्तव में, इस बात का भय नहीं है कि आप मर जाएंगे बल्कि इस बात का भय है कि आप अपरिपूर्ण ही मर जाएंगे और यह संभव नहीं है कि इच्छाओं को परिपूर्णता तक ले जाया जा सके और मृत्यु कभी भी आ सकती है।
यदि मैं अपरिपूर्ण ही मरता हूं, तो सचमुच भय है। मैं अभी तक अपरिपूर्ण हूं। मैंने एक क्षण भी परिपूर्णता का नहीं जाना, और मृत्यु आ सकती है। अंत मैं निरर्थक ही जीया। जिंदगी बेकार गई, बिना किसी शिखर के, बिना एक भी क्षण सत्य, शांति, सौंदर्य, मौन के जाने। मैं सिर्फ एक अर्थहीन निष्प्रयोजनता में जीया, और मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। तब मृत्यु एक भय बन जाती है। यदि मैं परिपूर्ण हूं, यदि मैंने वह जाना है जो कि जीवन किसी को अवगत करा सकता है, यदि मैंने वह जाना है जो कि वस्तुतः जीवंत है, यदि मैंने एक भी क्षण सौंदर्य का, प्रेम का, परिपूर्णता का जाना है तो फिर मृत्यु का भय कहां है? कहां है भय? मृत्यु आ सकती है वह कुछ भी छिन्‍न-भिन्‍न नहीं कर सकती। वह कुछ भी नहीं कर सकती। मृत्यु सिर्फ भविष्य को गड़बड़ कर सकती है। मेरे लिए अब भविष्य नहीं है। मैं इसी क्षण भरा हुआ हूं। तब मृत्यु कुछ नहीं कर सकती। मैं उसे स्वीकार कर सकता हूं। यहां तक कि वह आनंद भी साबित हो सकती है। इसलिए वह, जो कि मृत्यु के लिए खुला है, परमात्मा के लिए, भी खुला हो सकता है। खुला होने का मतलब होता है अभय। निर्दोषता आपको खुलापन, निर्भयता, एक जीते न जा सकने की स्थिति बिना किसी भी सुरक्षा के प्रबंध के दे देती है। वही आवाहन है।
और यदि आप ऐसे क्षण में हैं तब कि मृत्यु भी यदि आए तो आप उसका स्वागत कर सकते हैं, उसे गले लगा सकते हैं, उसका आतिथ्य कर सकते हैं तो फिर आपने परमात्मा का आवाहन किया है। अब मृत्यु कभी भी नहीं आ सकती: केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा ही आ सकता है–मृत्यु में भी केवल परमात्मा होगा। मृत्यु अब वहां नहीं होगी, केवल परमात्मा ही होगा।

मारपा

मारपा–एक तिब्बती रहस्यवादी मर रहा है। हर एक रो रहा है और मारपा चिल्लाता है, रुको! ऐसे शुभ अवसर पर तुम क्यों रो रहे हो? मैं परमात्मा से मिलने जा रहा हूं। वह अभी और यहां है। और वह हंसता है, और मुस्कुराता है और अंतिम गीत गाता है, और हर एक रोता जा रहा है क्योंकि परमात्मा वहां किसी को भी दिखलाई नहीं पड़ता है।
मारपा कहता है–परमात्मा यहां और अभी है और तुम क्यों रो रहे हो? इतना आनंदोत्साह मनाने का अवसर!
इतना शुभ अवसर! गाओ और नाचो और खुशियां मनाओ! मारपा अपने मित्र से मिलने जा रहा है। परमात्मा बस अभी और यहीं है। मैंने लंबी प्रतीक्षा की है और अब वह क्षण आया है। तुम क्यों रो रहे हो? मारपा को समझ में नहीं आता कि क्यों रो रहे हैं। वे भी नहीं समझ पाते कि मारपा गीत क्यों गा रहा है? क्या वह पागल हो गया है? हां, सचमुच, वह हमारे लेखे पागल ही हो गया है। मृत्यु वहां खड़ी है और ऐसा लगता है कि वह पागल हो गया है। मारपा कुछ और देख रहा है। मारपा वस्तुतः मनुष्य जाति में एक सर्वाधिक खिला हुआ व्यक्ति था।
जब मारपा अपने गुरु के पास आता है। गुरु कहता है, श्रद्धा ही कुंजी है। तब मारपा कहता है–तो फिर मुझे मेरी श्रद्धा की परीक्षा का उपाय बताओ। यदि श्रद्धा ही कुंजी है तो मेरी श्रद्धा की परीक्षा का कोई उपाय बताओ। वे एक पहाड़ी पर बैठे थे और गुरु ने कहा, कूद जाओ। और मारपा कूद जाता है। यहां तक कि गुरु भी सोचता है कि वह मर जाएगा। कई अनुयायी वहां मौजूद हैं और वे भी सोचते हैं कि वह पागल हो गया है और उन्हें उसकी एक ही का पता नहीं चलेगा।

वे सब दौड़ कर नीचे जाते हैं और मारपा वहां पर बैठा हुआ है और गाना गा रहा है और नाच रहा है। अतः गुरु पूछता है कि क्या हुआ? ऐसा लगता है कि वह एक घटना संयोग था। गुरु भी अपने मन में चुपचाप सोचता है कि वह कोई घटना संयोग था: ऐसा असंभव है। ऐसा कैसे हो सकता है? यह एक संयोग की बात है। मुझे किसी दूसरी तरह से इसकी परीक्षा लेनी पड़ेगी? गुरु ने कितने ही ढंग से उसकी परीक्षा ली। गुरु उसे एक जलते हुए मकान में जाने के लिए कहता है। वह भीतर चला जाता है और वह बाहर निकल आता है बिना लपटों में झुलसे हुए। उसे समुद्र में कूदने के लिए कहा जाता है और वह कूद जाता है।
कितनी ही परीक्षाएं ली जाती हैं और अब गुरु नहीं कह सकता कि यह मात्र घटना संयोग है। इसलिए वह मारपा से पूछता है–तुम्हारा गुप्त रहस्य क्या है? मारपा कहता है–मेरा गुप्त रहस्य। आपने कहा था कि श्रद्धा ही कुंजी है और मैंने आपकी बात मान ली।
गुरु कहता है, अब रुक जाओ, क्योंकि डर है, कुछ भी हो सकता है। अतः मारपा कहता है, अब कुछ भी हो सकता है, क्योंकि मैंने मात्र आपका शब्द पकड़ लिया था। अब मैं आपका शब्द नहीं पकड़ सकता, यदि आप स्वयं ही निश्‍चित नहीं हैं। मैंने सोचा था कि श्रद्धा ही कुंजी है, परन्तु अब यह काम न पड़ेगी, इसलिए कृपया दुबारा मुझे कोई आज्ञा न दें। अगली बार मैं मर जाउंगा, इसलिए फिर से मुझे कोई आज्ञा न दें! यही शुद्धता है, बच्चों जैसी पवित्रता तिब्बत में, मारपा को वफादार मारपा के नाम से जाना जाता है। यह एक बच्चों जैसी श्रद्धा है।
अतः कहानी कहती है कि मारपा अपने गुरु का भी गुरु बन गया। उसका गुरु उसके सामने झुका और बोला–अब वह श्रद्धा की कुंजी मुझे दो, क्योंकि मुझमें कोई श्रद्धा नहीं है। मैं तो सिर्फ बात कर रहा था। मैंने केवल सुना है कि श्रद्धा ही कुंजी है, इसलिए मैं तो सिर्फ बात कर रहा था। अब वह तुम मुझे दो। अतः मारपा अपने गुरु का भी गुरु हो गया।


मारपा का मन शुद्ध, निर्दोष व हिसाब न लगाने वाला है। एक भी क्षण गणना करने का या चालाकी करने का नहीं है। उसे इतना भी नहीं देखना है कि खाई कितनी गहरी है। वह गुरु से इतना भी नहीं पूछता है–क्या मैं आपकी बात को शब्दों में लूं अथवा यह मात्र एक प्रतीकात्मक है अथवा आप कोई रहस्य की भाषा में कुछ कह रहे हैं? क्या मैं कूद ही जाउं वास्तव में, या आप किसी आंतरिक छलांग की बात कर रहे हैं? बिना किसी हिसाब के, चालाकी के वह कूद जाता है। गुरु कहता है, कूद जाओ और वह कूद जाता है। दोनों के बीच अंतराल नहीं है। एक क्षण का भी अंतराल पड़ा और आपने हिसाब लगाया।

ऐसी ही अंतराल-रहित शुद्धता आपको खोलती है। आप एक खुला द्वार हो जाते हैं। वही आवाहन है।

ओशो 

मन की शुद्धता

मन की शुद्धता का अर्थ होता है पाने की इच्छा का बिलकुल अभाव–मात्र देना। वही प्रौढ़ चित्त है। एक बच्चा, एक अप्रौढ़ चित्त सदैव पाने में रहता है। एक बुद्ध, एक जीसस सदैव देने में होते हैं। वह दूसरा छोर है–दे रहे हैं। कुछ भी पाने को नहीं, परन्तु फिर भी दे रहे है क्योंकि देना एक खेल है, एक आनंद है अपने में। जब मैं कहता हूं इच्छा को समझो, तो मेरा आशय है–पाने की समझो और देने को समझो। समझो कि तुम्हारी जो स्थिति है वह है पाने की, पाने की और पाने की, और कभी भी तुम भरे-पूरे नहीं हो पाओगे, क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है।
इसे समझे–क्या मिला तुम्हें इस सतत शाश्‍वत पाने से? क्या पाया आपने? आप जितने गरीब कभी पहले थे वैसे ही आज है। उतने ही भिखारी हैं, जितने पहले कभी थे, बल्कि ज्यादा ही। जितना अधिक तुम्हें मिलता है, उतने ही बड़े भिखारी तुम हो जाते हो और उतनी ही अधिक पाने की आकांक्षा बढ़ जाती है। अतः आप पाने से सिर्फ और अधिक पाना ही सीखते हो। कहां पहुंचे आप? क्या पाया आपने? इस विक्षिप्त व सतत पाने की क्या उपलब्धि हुई? कुछ भी तो नहीं? यदि आप इसे समझ जाएं, तो इसकी समझ ही रूपांतरण हो जाता है। पाना गिर जाता है, और उसके गिरने के साथ, एक नया आयाम खुलता है और आप देना प्रारंभ करते हैं। और यही विरोध है सबसे बड़ा–कि आपने तब पाने से कुछ भी नहीं पाया: परन्तु जब आप देते हैं, तो निरंतर पाते हैं, परन्तु वह पाना आपके पाने से संबंधित नहीं है जरा भी। देना ही अपने में एक भारी उपलब्धि है, एक गहरी परिपूर्णता है।

ओशो 

समय वर्तमान है

एक युवा आदमी वर्तमान में है। इसलिए एक युवा आदमी बच्चों को नहीं समझ पाता और वह एक बूढ़े आदमी को भी नहीं समझ पाता। वे दोनों ही उसे मूर्ख दिखते हैं। बच्चे उसे मूर्ख दिखते हैं क्योंकि वे व्यर्थ ही अपना समय नष्ट कर रहे हैं खिलौनों से खेलते हुए। एक बूढ़ा आदमी मृतवत दिखलाई पड़ता है, व्यर्थ की चिंताओं के कारण। एक युवा आदमी यथार्थतः नहीं समझ पाता: क्योंकि वह देख ही नहीं पाता कि बूढ़े को क्या हो गया है–कि अब वह केवल एक अतीत है। ऐसा होता है।
वे सब दूसरे को मूर्ख समझते हैं। बच्चे युवा एवं वृद्धों को नहीं समझ सकते। युवा बच्चों और वृद्धों को नहीं समझ सकते। और वृद्ध युवकों और बच्चों को नहीं समझ सकते। क्यों? क्योंकि उनकी समय की समझ भिन्‍न है–इसलिए उनकी भाषा भी।
परन्तु प्रत्येक युवा बूढ़ा होगा, और प्रत्येक बच्चा युवा होगा और हर एक बूढ़ा कभी जवान था और एकबच्चा था, और मन चलता है, चलता चला जाता है इसी तरह। बच्चों में उसका एक बड़ा वस्तुतः स्थान होता है, जिसमें कि वह चल सकता है, बूढ़े मन के पास कोई स्थान नहीं होता, जिसमें कि वह चल सके। परन्तु यह एक मन की गति है, न कि समय की।
हम सोचते हैं कि समय चलता है। वस्तुतः हम चल रहे हैं। हम मात्र चलते चले जाते हैं। समय बिलकुल ही नहीं चलता। समय वर्तमान है। समय सदैव यहीं और अभी है वह तो हमेशा ही यही और अभी था। वह सदैव ही यही और अभी होगा। हम चलते चले जाते हैं हम अतीत से भविष्य में यात्रा करते हैं और हमारे लिए समय मात्र एक सेतु की तरह है–अतीत से भविष्य में जान के लिए, एक इच्छा से दूसरी इच्छा में जाने के लिए। समय मात्र एक पथ है हमारे लिए। समय केवल मार्ग है एक इच्छा से दूसरी में जाने के लिए। यदि इच्छाएं समाप्त हो जाएं, तो आपकी गति रुक जाएगी और यदि आपकी गति रुक जाती है, तो आप समय से भेंट करेंगे, अभी और यही, और वह भेंट ही द्वार है। वह मुलाकात ही द्वार है, वह मिलन ही आवाहन है।

धर्म

धर्म कोई कर्म-कांड नहीं है, कोई शास्त्र-विधि नहीं है। वास्तव में, जब कोई धर्म मृत हो जाता है, वह कर्म-कांड हो जाता है। धर्म का मृत शरीर ही कर्म-कांड हो जाता है, परन्तु सब जगह कर्म-कांड ही पाया जाता है। यदि आप धर्म को खोजने जाएं, तो आप कर्म-कांड ही पाएंगे। ये सारे नाम–हिंदू, मुसलमान, ईसाई–ये धर्मों के नाम नहीं हैं। ये विशेष कर्म-कांडो के नाम हैं। कर्म-कांड से मेरा तात्पर्य है कि कुछ बाहर की ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह विश्‍वास, कि कोई बाह्य क्रिया आंतरिक क्रांति उत्पन्‍न कर सकती है, कर्म-कांडो को जन्म देता है। यह विश्‍वास क्यों पैदा होता है? यह इसलिए पैदा होता है, क्योंकि यह एक बिलकुल प्राकृतिक घटना है। जब कभी आंतरिक क्रांति होती है, जब कभी अंतस में परिवर्तन होता है, जब कभी भीतर रूपांतरण होता है, तो
उसके पीछे-पीछे बहुत सी बाह्य बातें व चिन्ह प्रकट होते हैं। ये बाहरी चिन्ह अपरिहार्य हैं क्योंकि अंतस में जो होता है, वह बाहर से जुड़ा होता है। भीतर ऐसा कुछ भी घटित नहीं हो सकता, जो कि बाह्य को प्रभावित न करे। उसका प्रभाव होगा, परिणाम होंगे, परछाइयाँ बनेंगी, बाह्य व्यवहार पर भी। यदि आप भीतर क्रोध अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर विशेष भाव-भंगिमा बनाने लगता है। यदि आप भीतर शांति का अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर दूसरी भाव-भंगिमा बनाने लगता है। जब भीतर शांति होती है, तो शरीर इस शांति को, उस आंतरिक शांति, को व स्थिरता को कई प्रकार से प्रदर्शित करता है। परन्तु यह सदैव द्वितीय बात है, प्राथमिक नहीं बाह्य परिणामस्वरूप है, यह कारण नहीं हैं।
यदि बुद्ध अभी यहां हों, तो हम यह नहीं देख सकते कि उनके भीतर क्या हो रहा है। परन्तु हम यह देख सकते हैं और देखेंगे कि उनके बाहर क्या हो रहा है। बुद्ध के स्वयं के लिए भीतर जो है कारण है और बाह्य है परिणाम। हमारे लिए, बाह्य पहले होगा देखने को और तब अंतस के बारे में अनुमान लगाया जाएगा। इसलिए दर्शकों के लिए बाह्य, द्वितीय आधारभूत बन जाता है, प्राथमिक बन जाता है। हम कैसे जान सकते हैं कि बुद्ध की अंतश्‍चेतना में क्या हो रहा है? हम उनके शरीर को देख सकते हैं उनके चलने-फिरने को, उनके हाव-भावों को। वे सब अंतस से संबंधित हैं। वे कुछ दर्शाते हैं, परन्तु वे कारण की तरह नहीं, वरन परिणाम स्वरूप हैं।
यदि आंतरिक है, तो बाह्य भी पीछे-पीछे आएगा। इसका उल्टा ठीक नहीं है। यदि बाह्य है तो अनिवार्य नहीं है कि उसका अनुगमन करेगा। कोई जरूरी नहीं! उदाहरण के लिए यदि मैं क्रोध में हूं, तो मेरा शरीर क्रोध प्रकट करेगा, परन्तु मैं अपने शरीर में क्रोध दिखला सकता हूं बिना भीतर बिलकुल भी क्रोधित हुए। एक अभिनेता यही कर रहा है। वह अपनी आंखों से क्रोध प्रकट कर रहा है, हाथों से क्रोध प्रकट कर रहा है। वह प्रेम व्यक्त कर रहा है। भीतर बिना जरा भी प्रेम अनुभव किए। वह भय प्रकट कर रहा है, उसका सारा शरीर कांप रहा है, हिल रहा है, परन्तु भीतर कोई भय नहीं। बाह्य हो सकता है बिना आंतरिक के। हम उसे आरोपित कर सकते हैं। कोई कारण, आधार, आवश्‍यकता अथवा अनिवार्यता नहीं है कि अंतस बाह्य का अनुगमन करे। बाह्य हमेशा अंतस का अनुगमन करता है, परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता। कर्म-कांड इसी भ्रम के कारण पैदा होता है।

ओशो 

भगवान, बुद्ध और महावीर जो कि समकालीन थे, फिर वे कभी भी क्यों नहीं मिले? शारीरिक रीति से भी नहीं मिले?


वे नहीं मिल सकते। वे कभी नहीं मिल सकते, शारीरिक रीति से भी नहीं। वे कई बार मिलने के बहुत करीब भी आ गए। एक बार वे दोनों एक ही सराय में ठहरे हुए थे–एक हिस्से में महावीर और दूसरे हिस्से में बुद्ध, परन्तु कोई मिलना नहीं होता, मुलाकात नहीं होती। वे उन्हीं गांवों से कई बार गूजरें अपनी जिंदगी में। वे बिहार, जो कि बहुत छोटा सा प्रांत है, उसमें रहे। वे उन्हीं गांवों में गए भी। वे उन्हीं गांवों में रहे भी। उन्होंने उन्हीं लोगों से बात भी की। उनके अनुयायी बुद्ध से महावीर और महावीर से बुद्ध के बीच आते जाते रहे। बहुत विरोध भी रहा, बहुत बार लोगों का धर्म परिवर्तन भी हुआ, परन्तु वे कभी न मिले। वे मिल ही नहीं सकते। उनके अपने मूल स्वरूप ही अब कुछ ऐसे शिखर हैं कि उनका मिलना अब संभव नहीं है। यहां तक कि यदि वे एक-दूसरे के आस-पास में भी बैठे हों, तो भी मिलना नहीं हो सकता। यहां तक कि हमें वे मिलते हुए भी नजर आए और छाती से छाती लगाए हुए दिखलाई पड़े, तो भी वे नहीं मिल सकते। उनकी मीटिंग असंभव हो गई है। वे इतने अपूर्व हैं, वे इतने शिखर की तरह हैं, कि आंतरिक मिल संभव नहीं हैं। इसलिए फिर बाह्य मिलन का क्या अर्थ है? वह बेकार है, वह अर्थहीन है।

यह बात हमें समझ में नहीं आती। हम सोचते हैं कि दो अच्छे आदमी आपस में मिलने ही चाहिए। हमारे लिए यह जो न मिलने वाला रुख है, यह ठीक नहीं है। वास्तव में, कोई न मिलने, का भाव अभाव रुख नहीं है बस वह असंभव है। ऐसा नहीं है कि बुद्ध महावीर से मिलना न चाहेंगे। ऐसा नहीं है कि महावीर मना करेंगे। बस वह सिर्फ असंभव है। बस, वह हो नहीं सकता। कोई रुख नहीं है वैसा। इसलिए वास्तव में यह आश्‍चर्यजनक बात है। एक ही गांव में रहे, वे एक ही सराय में ठहरे, परन्तु न तो बौद्धों के साहित्य में और न जैनों के शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख है कि किसी ने कहा हो कि वे मिले–एक भी उल्लेख नहीं है! यहां तक कि ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं है कि किसी ने सुझाव दिया हो कि यह अच्छा होगा यदि वे दोनों मिलें। यह वाकई आश्‍चर्यजनक बात है। दोनों में से किसी ने भी मना नहीं किया है। न तो बुद्ध ने, न महावीर ने कभी ऐसा कहा है कि मैं नहीं मिलूंगा। फिर वे क्यों नहीं मिले? क्योंकि वह एक असंभावना है वह संभव ही नहीं है। हमारे लिए, जो कि पृथ्वी पर खड़े हैं, बड़ा अजीब लगता है, परन्तु यदि आप शिखर पर खड़े हों, तो कुछ अजीब नहीं लगेगा। क्यों नहीं हिमालय के एक शिखर से कहते कि दूसरे शिखर से मिले? वे इतने निकट हैं–इतने पास हैं। वे क्यों नहीं मिल सकते! उनके मूल स्वरूप, उनका अपना शिखर स्वरूप ही यह असंभावना उत्पन्‍न करता है। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि वे कभी न मिले हों, बल्कि वे मिल ही नहीं सकते। वे कभी न मिलेंगे। वह द्वार ही बंद हो गया। और फिर भी मैं कहता हूं कि वे एक हैं। कितने भी शिखर एक दूसरे से भिन्‍न हों, अपनी जड़ों में वे सदैव एक हैं। वे दोनों पृथ्वी के एक ही हिस्से से जुडे हैं, लेकिन केवल जड़ों में ही वे एक हैं।

यहां पर एक बात और सोचने जैसी है। चूंकि वे जड़ में एक ही हैं, इसलिए कोई ऐसी आवश्‍यकता नहीं है कि वे मिलें। केवल वे ही, जो कि जड़ों में एक नहीं हैं मिलने का प्रयत्न करेंगे, क्योंकि आधारित वे जानते हैं कि कोई मिलने नहीं है। मुझसे कई लोगों ने पूछा कि मैं क्यों सभी धर्मों का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं करता? गाँधीजी ने किया है, कई थियोसाफी के लोगों ने किया है–उन्होंने सभी धर्मों का महान समन्वय करने का प्रयत्न किया है। मैं कहता हूं कि यदि आप प्रयत्न करते हैं, तो आप यह बतलाते हैं कि कोई समन्वय नहीं है ऐसा प्रयत्न नहीं बतलाता है कि कहीं पर सभी धर्म विभाजित हैं। मैं ऐसा बिलकुल भी अनुभव नहीं करता। अपने मूल में, जड़ों में वे सब एक हैं। शिखर पर, चोटी पर वे बंटे हुए हैं, और वे बंटे हुए होने चाहिए। प्रत्येक शिखर की अपनी सुंदरता है। उसे क्यों नष्ट करें? क्यों एक असत्य बात खड़ी करें, जो कि नहीं है! एक शिखर एक शिखर ही रहे–अकेला, अविभाज्य। पृथ्वी पर वे एक हैं। इसलिए कुरान को केवल कुरान ही होना चाहिए। कुछ भी गीता अथवा रामायण में से उस पर आरोपित नहीं करना चाहिए—कुछ भी अंतर-प्रवेश नहीं, कोई मिश्रण नहीं होना चाहिए। कुरान अपनी पूरी शुद्धता में कुरान ही है। वह एक शिखर है, एक अनुपम शिखर, क्यों उसे नष्ट करें?
यह आरोपण न करना तभी संभव है, जबकि आप जड़ों में, पृथ्वी में उनकी गहरी एकता से अवगत हैं। सभी धर्म अपनी मूल जड़ों में एक ही हैं, परन्तु अपनी अभिव्यक्ति में कभी भी नहीं और वे होने भी नहीं चाहिए। और इस तरह संसार और अधिक विकास करता है। जैसे-जैसे मनुष्य चेतना ज्यादा चेतन होती है, वह ज्यादा अखंड होती है। तब और अधिक धर्म होंगे, न कि कम। अंततः यदि प्रत्येक मनुष्य एक शिखर हो जाए, तो उतने ही धर्म होंगे, जितने कि मनुष्य होंगे। क्या जरूरत है किसी को मोहम्मद का अनुगमन करने की, यदि वह स्वयं ही एक शिखर हो सकता हो? क्या आवश्‍यकता है किसी को कृष्ण का अनुकरण करने की, यदि वह स्वयं ही एक शिखर हो सके? यह बड़ा दुर्भाग्य है कि किसी को भी किसी अन्य का अनुकरण करना पड़ता है।

यह एक अनिवार्य बुराई है। यदि आप शिखर नहीं हो सकते, तो आपको अनुकरण करना पड़ेगा, परन्तु अनुकरण इस प्रकार करें कि जितनी जल्दी हो सके आप स्वयं ही एक शिखर हो जाएं, वही अच्छा है। हमारे पास एक सुंदर संसार होगा, एक बहत्तर जगत और अधिक मानवता के साथ, यदि प्रत्येक एक अपूर्व शिखर हो जाए। परन्तु वह शिखर केवल अविभाज्यता के द्वारा ही आ सकता है अहंकार को व झूठे व्यक्तित्व को गला कर अपने सच्चे स्वभाव में केंद्रित होने से अपने सच्चे शुद्ध स्वरूप में स्थित होने से ही वह उपलब्ध हो सकता है। तब आप एक घाटी की भांति हो जाते हैं, और तब प्रति ध्वनियां होती हैं।


ओशो

प्रेम व मृत्यु

एक सड़क के किनारे बैठ जाऐं, और लोगों की घूमती हुई आंखों की ओर देखें। तब तुम्हें मालूम होता है कि हर एक मनुष्य अपने में बंद है। उसे बिलकुल ही होश नहीं है कि उसके चारों तरफ क्या हो रहा है। कोई अपने से बात कर रहा है, कोई अपने हाथ हिला रहा है, शक्लें बना रहा है, जैसे वह किसी सपने में। हो सकता है। होंठ हिल रहे हैं प्रत्येक अपने भीतर बात कर रहा है। किसी को भी होश नहीं कि बाहर उसके चारों तरफ क्या हो रहा है। सब लोग यंत्रवत चले जा रहे हैं। वे अपने घरों को लौट रहे हैं। उन्हें यह स्मरण रखने की आवश्‍यकता नहीं कि उनके घर कहां हैं। वे यंत्रवत चलते हैं। उनकी टांगें चलती हैं उनके हाथ कार के पहिए को घुमाते हैं, वे अपने घर पहुंच जाते हैं, परन्तु यह सारी प्रक्रिया सोते में हो रही है—एक यांत्रिक क्रिया है रोज की। रास्ते बने हैं और उन रास्तों पर वे चढ़े चले जाते हैं। इसीलिए हम सदैव नये से घबड़ाते हैं, क्योंकि तब हमें नए रास्ते बनाने पड़ते हैं। हम नए से डरते हैं, क्योंकि नए के साथ रोजमर्रा की बात नहीं चलेगी और कुछ समय के लिए हमें सावधान होना पड़ेगा। हम हमेशा ही अपने मृत दैनिक कार्यों में गड़े हुए रहते हैं और एक तरफ से मरे हुए होते हैं। एक सोया हुआ आदमी, वास्तव में, मृत होता है, उसे जीवित नहीं कह सकते।
पूरे जीवन में मात्र कुछ ही क्षणों के लिए हम जागते हैं और वे क्षण गहरे प्रेम के क्षण होते हैं जो कि बहुत ही मुश्‍किल से होता है। यह केवल कुछ ही लोगों को होता है–बहुत ही कम लोगों को। और जब यह होता है, प्रत्येक यह समझेगा कि वह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि वह इतना भिन्‍न हो गया होता है—क्योंकि उसने वस्तुओं को दूसरे रंग में देखीं होती हैं, एक भिन्‍न ही संगीत में, एक अलग ही रोशनी में। वह अपने चारों ओर देखता है और एक भिन्‍न ही दुनिया को देखता है। सचमुच ही वह व्यक्ति हमारे लिए पागल हो गया है, इसलिए हम उसे क्षमा कर सकते हैं, क्योंकि वह पागल है। वह एक स्वप्न में है!
वास्तव में, ठीक इसके विपरीत, मामला उल्टा ही है। हम सोए हुए हैं, और एक क्षण के लिए वह एक गहरी वास्तविकता के प्रति जाग गया है। परन्तु वह अकेला है और वह जागरूकता लगातार नहीं रह सकती: क्योंकि वह एक आकस्मिक घटना है। वह उसके प्रयत्न से नहीं हुआ जो कुछ उसने पाया। वह एक अकस्मात घटना है। वह फिर सो जाएगा, और जब वह सो जाएगा, तब वह अनुभव करेगा कि उसे अपने प्रेमी या प्रेयसी द्वारा धोखा हुआ है क्योंकि वह जादू अब वहां नहीं है। वह जादू आया, क्योंकि वह एक नए ही संसार के प्रति जागा। इस संसार में कितने ही संसार हैं। वह अवगत हुआ, और अब फिर से सो गया, इसलिए वह अनुभव करता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। हर एक प्रेम करने वाला यह सोचता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। किसी ने उसे धोखा नहीं दिया है। केवल एक अचानक जागरण में उसने एक अलग ही संसार के दर्शन कर लिए, एक अलग ही सौंदर्य से भरे, अलग-अलग ध्वनियों से भरे, और अब वह फिर से सौ गया है। वह झलक खो गई और अब ऐसा अनुभव करता है कि उसे धोखा दिया गया। किसी ने उसे धोखा नहीं दिया है। केवल इतना ही हुआ कि अचानक वह जाग गया था।
कोई या तो प्रेम में, अथवा मृत्यु में सजग हो पाता है। आप मृत्यु की मुट्टी में आ गए हैं, तो आप जाग जाएंगे। आकस्मिक दुर्घटनाओं में–कार काबू से बाहर पहाड़ी के नीचे आ रही है–आप जाग जाएंगे क्योंकि अब कोई भविष्य नहीं है और अतीत समाप्त हो गया है। केवल यह वर्तमान क्षण, यह पहाड़ी से नीचे गिरने का क्षण ही सब कुछ है। अब एक अलग ही समय का आयाम खुलता है। आप यहां और अभी में है, पहली बार, क्योंकि कोई भविष्य नहीं है। आप भविष्य के बार में नहीं सोच सकते, अतीत समाप्त हो ही रहा है। इन दोनों के बीच, एक क्षण के लिए, इस संकट में, आप सजग हो गए हैं। इसलिए प्रेम व मृत्यु ही ऐसे क्षण हैं, जब कि हम जागरूक होते हैं, लेकिन वे हमारे हाथ में नहीं हैं।

ओशो 

उसका सतत स्मरण ही ध्यान है।

उसका सतत स्मरण ही ध्यान है। यदि आप उसे सतत स्मरण कर सकें, तो फिर आप ध्यान में हैं। जब आप वस्तुओं के साथ हो, उसे स्मरण रखें जब आप लोगों के साथ हों, उसे स्मरण रखें। जहां भी आप हों उसे सदैव स्मरण रखें। हम कभी सीमित को सीमित की भांति नहीं देखते सदैव गहरे देखें और उस असीम को अनुभव करें। कभी आकृति को आकृति तरह न देखें सदैव आकृति के नीचे गहरे जो आकृतिहीन है उसे देखें। कभी वस्तुओं को वस्तुओं की तरह न देखें, गहरे जाए, उन्हें अनुभव करें, और वह–दैट प्रकट हो जाएगा। कभी किसी व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व में कैद न देखें। उसके भीतर गहरे में प्रवेश कर जाएं और उसका अनुभव करें जो कि पार चला जाता है, वह जो भीतर है उसके भी पार चला जाता है। उसका सतत स्मरण ही ध्यान है। कोई विधि, कोई पद्धति, कोई तरीका नहीं है–बस, केवल सतत स्मरण। परन्तु यह बहुत कठिन है।
उसका सतत स्मरण रखना है–बिना किसी अंतराल के, बिना क्रम टूटे, बिना एक क्षण के लिए भूले। सतत स्मरण हो–लगातार बिना किसी भी अंतराल के। यह जो निरंतर स्मरण है, बहुत ही कठिन है। हम कुछ लोगों के लिए लगातार स्मरण नहीं कर सकते। जरा अपनी श्‍वासों को गिनना शुरू करो, और याद रखो कि लगातार स्मरण के आप कितनी श्‍वासें गिन पाते हैं, श्‍वास की क्रिया को, आती-जाती श्‍वास को खयाल में रखना कितने श्‍वास गिन पाते हैं। स्मरण रखें और गिनें। आप तीन या चार गिन पाएंगे और फिर चूक जाएंगे। कुछ बीच में आ गया और आप भूल गए। और तब आपको याद आता है कि ओह, मैं तो गिन रहा था और मैंने तीन गिने और चूक गया।
स्मरण सबसे कठिन बात है, क्योंकि हम सोए हुए लोग हैं। हम गहरी नींद में सोए हुए हैं। हम नींद में चल रहे हैं, नींद में बात कर रहे हैं, गति कर रहे हैं, जी रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं! हम सब कुछ नींद में ही कर रहे हैं, एक गहरी निद्रा में, एक गहरे प्राकृतिक सम्मोहन में। इसीलिए इतनी गड़बड़ है, इतना संघर्ष है। इतनी हिंसा है और इतनी लड़ाई है। यह में कैसे जीवित रही! और अभी भी हम किसी तरह चला रहे हैं। परन्तु हम सोए हुए हैं। हमारा व्यवहार ऐसा व्यवहार नहीं कि उसे जागा हुआ, सावधानी पूर्ण या सचेतन कहा जा सके। हम जागे हुए नहीं हैं। एक मिनिट के लिए भी हम अपने प्रति सजग नहीं रह सकते। इसका थोड़ा प्रयत्न करें और तब आपको पता चलेगा कि आप कितने सोए हुए हैं। यदि मैं अपने आपको एक मिनट के–साठ सेकेंड के लिए भी लगातार स्मरण नहीं रख सकता, तो कितनी गहरी नींद में मैं सोया हूं! दो या तीन सेकेंड और फिर नींद आ जाती है, और मैं वहां नहीं होता–मैं कहीं चला गया। सजगता चली गई और मूच्र्छा उसकी जगह आ गई। एक गहरा अंधकार हो जाता है और फिर मुझे खयाल आता है कि मैं अपने प्रति सजग हो रहा था।

ओशो 

ओम् 2

ओम् एक गुप्त कुंजी भी है। जब मैं कहता हूं कि गुप्त कुंजी, तो मेरा अर्थ है कि वह अंतिम ध्वनि से मिलती-जुलती है। यदि आप उसका उपयोग कर सकें और उसके साथ-साथ धीरे-धीरे भीतर गहरे में जा सकें, तो आप अंतिम द्वार तक पहुंच जाएंगे, क्योंकि वह मिलता-जुलता है और वह और भी अधिक मिलेगा, यदि आप कुछ बातें और करें। जैसे, यदि आप ओम् का उच्चारण करें, तो आपको अपने होंठ काम में लेने पड़ते हैं–आपका शरीर-यंत्र भी काम में लेना पड़ता है और तब बहुत कम सादृश्‍यता होगी। एक बहुत ही मोटी यांत्रिकता काम में लेनी पड़ती है और वह उसे विकृत कर देती है। ओम् एक मोटी वस्तु में बदल जाता है। अपने होंठ काम में मत लें केवल अपने भीतर अपने मन की सहायता से ओम् की ध्वनि उत्पन्‍न करें। अपने शरीर को भी काम में मत लें, तब वह और भी मिलती-जुलती होगी: क्योंकि तब आप एक और अधिक सूक्ष्म माध्यम का उपयोग करेंगे। वह और भी अच्छी फोटो पेश करेगा।
मन का भी उपयोग न करें। प्रथम, उपरी शरीर को काम में लें, फिर उसे छोड़ दें। फिर मन को काम में ले। बस भीतर ओम् शब्द की ध्वनि उत्पन्‍न करें। तब उसे भी बंद कर दें और ध्वनि को प्रतिध्वनित होने दें। कोई भी प्रयास न करें, यह अपने से आता है तब यह वह जप बन जाता है। तब आप उसे उत्पन्‍न नहीं कर रहे, आप तो मात्र उसके प्रवाह में हैं। तब वह और भी गहरा चला जाता है, और वह और भी अधिक वास्तविक हो जाता है। आप उसे एक कुंजी की भांति काम में ले सकते हैं। जब वह बिना प्रयत्न के होने लगे, जब वह आपके शरीर के बिना होने लगे बिना मन के होने लगे–और जब केवल ध्वनि ही आपके भीतर प्रवाहित होने लगे, तो आप उसके बहुत समीप हैं।
अब केवल एक चीज और गिरा देनी है–उसे जो कि ओम् की ध्वनि को अनुभव कर रहा है–वह मैं ईगो, वह अहं जो कि अनुभव कर रहा है कि ओम् की ध्वनि मेरे चारों तरफ ओर गूंज रही है। यदि आप इसे भी गिरा दें, तब कोई बाधा नहीं रहती और फोटो की नकल असली फोटो में बदल जाती है। इसलिए यह गुप्त कुंजी है।
यह ओम् बहुत अदभुत है। यह रहस्यविदों के लिए उतना ही आधार भूत है, जितना कि आइंस्टीन का सापेक्षता का नियम भौतिक शास्त्र के लिए। उस र्फामूला में भी तीन बातें हैं–एक चिन्ह, एक संकेत व एक गुप्त कुंजी। इस ओम् में भी तीन बातें हैं, परन्तु आधारभूत में यह एक गुप्त कुंजी है। जब आप उससे द्वार न खोलें, तब तक इसके बारे में सोचना बिलकुल व्यर्थ है समय, जीवन व शक्ति सब व्यर्थ नष्ट करना है। जब तक कि आप द्वार खोलने के लिए तैयार नहीं हों, क्या लाभ होगा खाली कुंजी की बात करने से! यहां तक कि आप इसके सारे दार्शनिक रहस्य भी जाने लें तो भी वह बेकार है। इसलिए इसे सदैव प्रारंभ में रखते हैं–ओम्। यह चाबी है। यदि आप एक घर में घुसें, तो पहली वस्तु जो काम में ली जाएगी, वह है चाबी। इसलिए घुसें, कुंजी को काम में लें परन्तु यदि आप मात्र चाबी के बारे में सोचने में लगे रहे और बराबर द्वार पर ही बैठे रहे, तो यह चाबी फिर आपके लिए एक चाबी नहीं है, बल्कि एक बाधा है। तब उसे फेंक दें, क्योंकि वह कुछ खोल तो रही नहीं, बल्कि वह बंद कर रही है। और चाबी के कारण, आप लगातार सोचते चले जाते हैं। कोई चाबी के बारे में मनन करता रह सकता है, बिना उसका
उपयोग किए।
बहुत से लोग हैं जिन्होंने कि ओम के विषय में सोचा है, चिंतन किया है कि क्या अर्थ है ओम का। उन्होंने ढांचे खड़े किए बड़े-बड़े ढांचे, परन्तु उन्होंने कभी चाबी का उपयोग नहीं किया: वे कभी उस महल के भीतर नहीं घूसे। यह एक चिन्ह है एक संकेत है, परन्तु आधारतः यह एक गुप्त कुंजी है। इसे ब्रह्म में प्रवेश के लिए एक विधि की तरह काम में लिया जा सकता है–उस सागर रूप में घुसने के लिए विधि की तरह इसका उपयोग किया जा सकता है। जितना सूक्ष्म यह होता जाता है, उतना ही वास्तविक के पास होता जाता है और जितना स्थूल होता है, उतना कम पास होता है।

ओशो 

ओम्

जब कोई अस्तित्व में गहरे जाता है जड़ों तक, बहुत गहरे, तो वहां विचार नहीं होते। विचार करने वाला भी वहां नहीं होता। विषय-बोध भी वहां नहीं होता, और न कर्ता का बोध ही होता है, परन्तु फिर भी, सब कुछ होता है। उस विचारशून्य, कर्ताशून्य क्षण में, एक ध्वनि सुनाई पड़ती है, वह ध्वनि ओम की ध्वनि से मिलती है–मात्र मिलती है। वह ओम नहीं है इसीलिए वह मात्र एक संकेत है। हम उसे फिर से उत्पन्‍न नहीं कर सकते। वह करीब-करीब मिलती-जुलती ध्वनि है। इसलिए वह कितनी ही ध्वनियों का समस्वर है, परन्तु सदैव ही ओम के सबसे अधिक पास है।
मुसलमानों व ईसाइयों ने उसे आमीन की तरह पहचाना है। वह ध्वनि जो कि सुनाई देती है, जब कि सब कुछ खो जाता है और केवल ध्वनि गूंजती रह जाती है ओम् से मिलती-जुलती होती है वह आमीन से भी मिल सकती है। अंग्रेजी में बहुत से शब्द हैं–ओम्निप्रजेंट, ओम्निशियन्ट, ओम्निपोटेंट–यह ओम्नि मात्र ध्वनि है। वास्तव में ओम्निशियन्ट का अर्थ होता हैः वह जिसने कि ओम् को देखा हो, और ओम् सब के लिए ही संकेत है। ओम्निपोटेंट का अर्थ होता है वह जो कि ओम् के साथ एक हो गया है, क्योंकि वही सब से बड़ी संभावना है सारे ब्रह्म की ध्वनि में भी मौजूद है। और वह ध्वनि सब को चारों तरफ से घेरे है, सर्व के उपर से बह रही है। ओमनिशियेन्ट, ओम्निप्रजेंट व ओम्निपोटेंट में जो ओम्नि है वह ओम् है। आमीन भी ओम् है। अलग-अलग साधक, अलग-अलग लोग भिन्‍न-भिन्‍न पहचान को पहुंचे हैं। परन्तु वे सब किसी भी प्रकार से ओम् से मिलते-जुलते हैं।

ओशो 

ओशो

अंतिम बात, मैं न तो हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, और न ही ईसाई हूं। मैं एक बेघरबार घुमक्कड़ हूं। मैं उपनिषदों की परंपरा से बाह्य रूप से जुड़ा हुआ नहीं हूं, इसलिए मेरा उपनिषदों में कुछ लगाया हुआ, व्यस्त स्वार्थ नहीं है। जब कोई हिंदू आलोचना करता है अथवा जब भी कोई हिंदू उपनिषदों के बारे में सोचता है, तब उसका उसमें कुछ इनवेस्टमेंट होता है, लगाया हुआ होता है। जब एक मुसलमान उपनिषदों के लिए लिखता है, तो उसके विरोध में उसका कुछ लगाया हुआ होता है। वे दोनों ही सही व प्रामाणिक नहीं हो सकते। यदि कोई हिंदू है, तो वह उपनिषदों के बाबत सच्चा नहीं हो सकता: यदि कोई मुसलमान है, तो वह भी उपनिषदों के बार में सच्चा नहीं हो सकता। वह झूठा होगा ही। परन्तु यह धोखा इतना सूक्ष्म होता है कि इसका हमें पता ही नहीं चलता।

ओशो 

शब्दों का उपयोग

आदमी अकेला ऐसा प्राणी है जो कि अपने से ही झूठ बोल सकता है और धोखों में जी सकता है। यदि आप हिंदू हैं और उपनिषदों के बारे में सोच रहे हैं, या आप मुसलमान हैं और कुरान के बारे में सोच रहे हैं, अथवा ईसाई हैं और बाइबिल के बारे में सोच रहे हैं, तो आपको कभी पता ही नहीं चलेगा कि आप कभी सच्चे नहीं हो सकते। किसी को किसी का न होना पड़े, केवल तभी प्रतिसंवेदन सच्चा हो सकता है। जुड़ा होना गड़गड़ी करता है और मस्तिष्क को विकृत कर देता है और ऐसी बातें दिखलाता है, जो कि हैं ही नहीं अथवा मना कर देता है उन्हें जो कि हैं। इसलिए मेरे लिए वह मुसीबत नहीं है। आपके लिए भी मेरा सुझाव है कि जब भी आप कुरान पढ़ रहे हों, या उपनिषद सुन रहें हों, अथवा बाइबिल–तो हिंदू न हों, ईसाई न हों
या मुसलमान बिलकुल न हों। मात्र होना पर्याप्त है। आप गहरे में उतरने में समर्थ हो सकेंगे। मतों के साथ, सिद्धांतों के साथ, आप कभी खुले नहीं रह सकते। और एक बंद दिमाग समझ के धोखे कर सकता है, लेकिन कभी कुछ समझ नहीं सकता। इसलिए मैं किसी का भी नहीं हूं। और यदि मैं इस उपनिषद के प्रति प्रतिसंवेदन करता हूं। वह केवल इसलिए कि मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं। यह जो सब से छोटा उपनिषद है आत्म-पूजा, यह एक बहुत ही अपूर्व घटना है। इसलिए थोड़ा इस अनोखे उपनिषद के बारे में–कि मैंने क्यों इसको विषय रूप में बोलने के लिए चुना है?
प्रथम–यह सब से छोटा है यह बिलकुल बीज की तरह है–प्रबल, विशेष–जिसमें सब कुछ भरा हो। प्रत्येक शब्द एक बीज है, जिसमें कि अनंत संभावनाएं हैं। इसलिए आप अनंतकाल के लिए ध्वनि व प्रतिध्वनि पैदा कर सकते हैं, और जितना आप इसके बारे में सोचते हैं उतना ही आप इसे गहरे में जाने देने में मदद करते हैं, व नए-नए अर्थ इसमें से प्रकट होते हैं। ये जो बीज की तरह शब्द हैं, ये गहरे मौन में पाए जाते हैं। सच ही यह बड़ा अजीब लगता है, परन्तु यह एक तथ्य है। यदि आपके पास बहुत कम कहने के लिए हो, तो ही आप ज्यादा कहेंगे। और यदि आपके पास वास्तव में ही कुछ कहने के लिए है, तो आप उसे कुछ ही पंक्तियों में, कुछ ही शब्दों में–यहां तक कि एक ही शब्द में कह सकते हैं। जितना कम आपको कहना हो, उतने ही अधिक शब्दों का उपयोग आपको करना पड़ेगा। जितना अधिक आपको कहना है, उतने ही कम शब्दों का आपको उपयोग करना होता है।

ओशो 

असली धन

तुम अपने को प्रेम करते हो–ठीक, स्वाभाविक है। इस प्रेम के कारण तुम ऐसी चीजों को प्रेम करते हो जो तुम्हारे स्वभाव के विपरीत हैं उनसे तुम दुख पाते हो। चाहते सुख हो, मिलता दुख है। आकांक्षा में भूल नहीं है। आकांक्षा को प्रयोग में लाने में तुम ठीक-ठीक समझदारी का प्रयोग नहीं कर रहे हो।
बुद्ध भी स्वार्थी हैं, कबीर भी, कृष्ण भी–लेकिन वे परम स्वार्थी हैं। वे भी अपना साथ रहे हैं आनंद, लेकिन इस ढंग से साथ रहे हैं कि मिलता है। तुम इस ढंग से साथ रहे हो कि मिलता कभी नहीं, साधते सदा हो, मिलता कभी नहीं।
तुम कुछ ऐसी चीजों से चीजों से अनुराग करने लगते हो जो कि तुम्हारे स्वभाव के विपरीत है, जैसे समझो, तुम धन को प्रेम करने लगे, तो तुम अपने स्वभाव के विपरीत जा रहे हो। क्योंकि धन है जड़, तुम हो चैतन्य। चैतन्य को प्रेम करो, जड़ को मत करो, अन्यथा जड़ता बढ़ेगी। और चैतन्य अगर जड़ता में फंसने लगे तो कैसे सुखी होगी ,     धन का उपयोग करो, प्रेम मत करो। प्रेम तो चैतन्य से करो।
तुम पद की पूजा करते हो। पद तो बाहर है। तुम पद के आकांक्षी हो। लेकिन पद तो बाहर है, तुम भीतर हो, तो तुम में और तुम्हारे पद में कभी तालमेल न हो पाएगा, तुम भीतर रहोगे। पद बाहर रहेगा। कोई उपाय नहीं है, भीतर तो तुम दीनहीन ही बने रहोगे। कितना ही धन इकट्ठा कर लो अपने चारों तरफ, कितने ही बड़े पद पर बैठ जाओ, कितना ही बड़ा सिंहासन बना लो–तुम्हारे भीतर सिंहासन न जा सकेगा, न धन जा सकेगा, न पद जा सकेगा। वहां तो तुम जैसे पहले थे वैसे ही अब भी रहोगे।
भिखारी को राजसिंहासन पर बिठा दो, क्या फर्क पड़ेगा! बाहर धन होगा, शायद भूल भी जाए बाहर के धन में कि भीतर अभी भी निर्धन हूं, तो यह तो और आत्मघाती हुआ। यह स्वार्थ न हुआ, यह तो कता हुई। असली धन खोजो–असली धन भीतर है।

ओशो 

पूजा का अर्थ

पूजा का अर्थ है: आकार में आमंत्रण निराकार को।
और अगर तुमने कभी पूजा की है तो तुम जानोगे, तुम्हारे बुलाने के पहले गतइr साधारण पत्थर का टुकड़ा है।
रामकृष्ण पूजा करते थे। अनेक दिन बीत गये। वे रोज रोते, घंटों पूजा करते, फिर एक दिन गुस्से में आ गये। तलवार टंगी थी काली के मंदिर में मूर्ति के सामने, तलवार उतार ली, और कहा, बहुत हो गया! इतने दिन से बुलाता हूं! अगर तू प्रगट नहीं होती तो मैं अप्रगट हुआ जाता हूं। या तो तू दिखायी दे, तू हो, या मैं मिटता हूं। तलवार खींच ली। एक क्षण और, और गर्दन पर मारे लेते थे, कि सब कुछ बदल गया। मूर्ति जीवंत हो उठी! वहां काली न थी। मातृत्व साकार हो उठा! ओंठ जो बंद थे, पत्थर के थे, मुस्कराये! आक्षें जो पत्थर की थीं, और जिनसे कुछ दिखायी न पड़ता था, उन्होंने रामकृष्ण में झांका। तलवार झनकार के साथ फर्श पर गिर गयी।
रामकृष्ण छह दिन बेहोश रहे। भक्त घबड़ा गये। मित्र परेशान हुए। हर तो पहले ही था कि यह आदमी थोड़ा पागल-सा है, यह अब और क्या हो गया! छह दिन की बेहोशी के बाद जब बेहोशी में भेजती है? इतने दिन होश में रखा छह दिन–अब, क्‍यों बेहोशयी में भेजती है? फिर से बुला ले! जा मत! रुक! “
इतना विराट था, इतना प्रगाढ़ था अनुभव कि अपने को संभाल न सके। डगमगा गये! बूंद में जब सागर उतरे तो ऐसा होगा ही। तुम्हारे आगन में जब पूरा आकाश उतर आये तो तुम्हारे आगन की दीवारलें कहां तक संभली रहेंगी, गिर जाएंगी
उन छ: दिनों रामकृष्ण ने चिन्मय का जलवा देखा। वे छ: दिन सतत परमात्मा के साक्षसत्कार के दिन थे। वह उनकी पहली समाधि थी।
लेकिन पूजा का अर्थ यही है: पहले परमात्मा को आमंत्रित करो, फिर अपने को उसके चरणों में चढ़ा दो रामक्रष्ण जैसे, कि कह दो कि तू ही है, अब मैं नहीं!
तुम जितनी दूर तक परमात्‍मा को बुलाते हो, जितनी गहराई तक बुलाते हो, उतनी दूर तक, उतनी गहराई तक वह आता है। तुम जब अपने को मिटाने को भी तत्पर हो जाते हो तो तुम्हारे अंतरतम को छू लेता है। तुम्हारी बिना आकाश के वह तुम में प्रवेश न करेगा। वह तुम्हारा सम्मान करता है। वह कभी भी किसी की सीमा में आक्रमण नहीं करता। बिन बुलाया मेहमान परमात्मा कभी नहीं होता। तुम बुलाते हो, मनाते हो, समझाते-बुझाते हो, तो मुश्किल से आता है।
भक्ति खो गयी है जगत से, क्योंकि भक्ति की कला बड़ी कठिन है–सब कुछ दांव पर लगाने की कला है, जुआ है। बड़ी हिम्मत चाहिए। आंख के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए।

ओशो 

मूर्ति-भंजक

कहते हैं कि मजनूं जब बिलकुल पागल हो गया लैला के लिए, तो उस देश के सम्राट ने उसे बुलवाया। उसे भी दया आने लगी, द्वार-द्वार, गली-गली, कूचे-कूचे वह पागल “लैला-लैला “ चिल्लाता फिरता है! गावभार के हृदय पसीज गये। लोग उसके आसुओ के साथ रोने लगे। सम्राट नेउसु बुलाया और कहा, “तू मत रो। “ उसने अपने महल से बारह सुदरिया बुलवाई और उसने कहा, “इस पूरे देश में भी तू खोजेगा, तो ऐसी सुंदर स्त्रियां तुझे न मिलेंगी। कोई भी तू चुन ले। “
मजनूं ने आंख खोली। आंसू थमे। एक-एक स्त्री को गौर से देखा, फिर आंसू बहने लगे और उसने कहा कि लैला तो नहीं है। सम्राट ने कहा, “पागल! तेरी लैला मैंने देखी है, साधारण- सी स्त्री है। तू नाहक ही बावला हुआ जा रहा है। “
कहते हैं, मजनूं हंसने लगा। उसने कहा, “आप ठीक कहते होंगे, लेकिन लैला को देखना हो तो मजनूं की आंख चाहिए। आपने देखी नहीं। आप देख ही नहीं सकते, क्योंकि देखने का एक ही ढंग है लैला को–वह मजनूं की आंख है। वह आपके पास नहीं है। “
भगवान को देखने का एक ही ढंग है, वह भक्त की आंख है। “
तो कोई अगर मंदिर में पूजा करता हो तो नाहक हंसना मत।
मूर्ति-भंजक होना बहुत आसपन है, क्योंकि उसके लिए कोई संवेदनशील तो नहीं चाहिए। मूर्तियों को तोड़ देनपा बहुत आसान है। क्योंकि उसके लिए कोई हृदय की गहराई तो नहीं चाहिए।
मूर्ति में अमूर्त को देखना बड़ा कठिन है! वह इस जगत की सबसे बड़ी कला है। आकार में निराकार को झांक लेना, शब्द में शुन्‍य को सुन लेना, दृश्य में अदृश्य की पेड़ लेना–उससे बड़ी और कोई कला नहीं है।

भक्त की आंखें

“शोरे-नाकूसे-बरहमन हो कि बागे-हरम
छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं।
“जो जानते हैं, वह कहते हैं: यह मंदिर के पुजारी के घंटों की आवाज हो कि मस्जिद के मुल्ला की, सुबह की बांग हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
“छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं। “ हर आवाज में, हर ढंग में, हर व्यवस्था में, खोजनेवाला तो वही चैतन्य है; वही प्राण है– प्यासे, प्रेम के लिए आतुर!
“अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते हैं। “
“पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है। “ पूजा का अर्थ होता है: परमात्मा को प्रतिस्थापित करना; एक पत्थर की मूर्ति है या मिट्टी की मूर्ति है, परमात्मा को उसमें आमंत्रित करना; परमात्मा को कहना कि “इसमें आओ और विराजो–क्योंकि तुम हो निराकार: कहां तुम्हारी आरती उतारुं? हाथ मेरे छोटे हैं, तुम छोटे बनो! तुम हो विराट: कहां धूप-दीप जलाऊ? मैं छोटा हूं, सीमित हूं, तुम मेरी सीमा के भीतर आओ! तुम्हारा ओर-छोर नहीं: कहां नाचूं? किसके सामने गीत गाऊं? तुम इस मूर्ति में बैठो! “
पूजा का अर्थ है: परमात्मा की प्रतिस्थापना सीमा में, आमंत्रण–इसलिए पूजा का प्रारंभ  उसके बुलाने से है।
अंगरेजी में शब्‍द है “गाड “ भगवान के लिए। वह शब्‍द बड़ा अनूठा है। उसका मूल अर्थ है—जिस मूल धातू से वह पैदा हूआ है, भाषा शास्त्री कहते हैं, उस मूल धातु का अर्थ है— “जिसको बुलाया जाता है। “ बस इतना ही अर्थ है जिसको बुलाया जाता है, जिसको पुकारा जाता है—वही भगवान।
दूसरा, जिसने कभी पूजा का रहस्य नहीं जाना, देखेगा तुम्हें बैठे पत् थर की गतइr के सामने, समझेगा :”नासमझ हो! क्या कर रहे हो, “ उसे पता नहीं कि पत् थर की मूर्ति अब पत्थर की नहीं—मृण्मय चिन्मय हो गया है! क्योंकि भक्त ने पुकारा है! भक्त ने अपनी विशिता जाहिर कर दी है। उसने कह दिया है कि “मैं मजबूर हूं। तुम जैसा विराट मैं न हो सकूंगा, तुम कृपा करो, तुम तो हो सकते हो मेरे जैसे छोटे! मेरी अड़चनें हैं। मेरी शक्‍ति नहीं इतनी बड़ी के तुम जैसा विराट हो सकूं। दया करो! तुम ही मुझ जैसे छोटे हो जाओ ताकि थोड़ा संवाद हो सके, थोड़ी गुफ्तगू हो सके, दो बातें हो सकें। मैं फूल चढ़ा सकूं, आरती उतार सकूं, नाच लूं तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा। सभी रूप तुम्हारे हैं, यह एक और रूप तुम्हारा सही! मुझे बहुत कुछ मिल जाएगा, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं।
“भक्त की आंख से देखना मूर्ति को, नहीं तो तुम मूर्ति को न देख पाओगे, तुम्हें पत्थर दिखायी पड़ेगा, मिट्टी दिखायी पड़ेगी। भक्त ने वहां भगवान को आरोपित कर लिया है। और जब परिपूर्ण हृदय से पुकारा जाता है, तो मिट्टी भी उसी की है। मिट्टी उससे खाली तो नहीं। पत्थर उसके बाहर तो नहीं। वह वहां छिपा ही पड़ा है। जब कोई हृदय से पुकारता है तो उसका आविर्भाव हो जाता है।
इसलिए भक्त जो देखता है मूर्ति में, तुम जल्दी मत करना, तुम नहीं देख सकते। देखने के लिए भक्त की आंखें चाहिए।

ओशो 

विराट का अनुभव

विराट का अनुभव—मुश्किल! पर अनुभव से भी ज्यादा मुश्किल है अभिव्यक्ति। जान लेना बहुत मुश्किल—जान देना और भी ज्यादा मुश्किल! क्योंकि व्यक्ति मिट सकता है… बूंद खो सकती है सागर में, और अनु भव कर ले सकती है सागर का, लेकिन दूसरी बूंदों को कैसे कहें, जिन्होंने मिटना नहीं जाना, जो अभी अपनी पुरानी सीमाओं में आबद्ध हैं… उनको कैसे कहें!
एक पक्षी उड़ सकता है खुले आकाश में अपने पिंजरे में बंद हैं, गहरे में उसकी अनुभूति होती है—लेकिन अनुभव में कैसे उसे कोई बांधै!
शब्‍दों में बैंधते ही आकाश-आकाश नहीं रह जाता। शब्‍दों में बंधते ही विराट नहीं रह जाता। इधर शब्‍द में बांधा कि उधर अनुभव झूठा हुआ।
इसलिए बहुत हैं जो जानकर चुप रह गये हैं। बहुत हैं जो जानकर गूंगे हो गये हैं। गूंगे थे नहीं, जानने ने गूंगा बना दिया। बहुत थोड़े- से लोगों नेहिम्मत की है—दूर की खबर तुम तक पहुंचाने की। वह हिम्मत दाद देने के योग्य हैं। क्योंकि असंभव है चेष्टा। माध्यम इतने अलग हैं।
समझें जैसे देखा सौंदर्य आंख से, और फिर किसी को बताना हो और वह अंधा हो, तो क्या करियेगा, फिर कोई और माध्यम चुनना पड़ेगा, आंख क माध्यम तो काम न देगा। तुमने तो आंख से देखा था सौंदर्य सुबह का, या रात का तारों से भरे आकाश का, अंधे को समझाना है, आंख का माध्यम तो काम नहीं देगा, तो सितार पर गीत बजाओ! धुन बजाओ! नाचो! पैरों में पूंघर बांधो! लेकिन माध्यम अलग हो गया : जो देखा था, वह सुनाना पड़ रहा है।
तो जो देखा था, वह कैसे सुनाया जा सकता है, जो आंख ने जाना, वह कानर कैसे जानेगा, इससे भी ज्यादा कठिन है बात सत्यस के अनुभव की। क्योंकि अनुभव होता है विर्धिचार में और अभिव्यक्ति देनी पड़ती है विचार में। विचार सब झूठा कर देते हैं।
फिर भी हिम्मतवर लोगों ने चेष्टा की है : करुणा के कारण, शायद किसी के मन में थोड़ी भनक पड़ जाए, न सही पूरी बात, न सही पूरा आकाश, थोड़ी-सी मुक्ति की सुगबुगाहट आ जाए, थोड़ी-सी पुलक पैदा हो जाए, न सही पूरा दृश्य स्पष्ट हो, प्यास ही जग जाए, सत्य न बताया जा सके न सही, लेकिन सत्य की तरफ जाने के लिए इशारा, इंगित किया जा सके–उतना भी क्या कम है।

ओशो 

मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है।


कोई भी वृत्ति उठती है राह पर तुम खड़े हो, एक सुंदर कार निकली। क्या हुआ तुम्हारे मन में? एक छाप पड़ी। एक काली कार निकली, एक प्रतिबिंब गंजा। कार के निकलने से वासना पैदा नहीं होती-अगर तुम देखते रहो और तुम्हारा देखना ऐसा ही तटस्थ हो जैसे कैमरे की आख होती है। कैमरे के सामने से भी कार निकल जाए, वह फोटो भी उतार देगा, तो भी कार खरीदने नहीं जाएगा। और न सोचेगा कि कार खरीदनी है। अगर तुम वहां खड़े हो और कैमरे जैसी तुम्हारी आख है–तुमने सिर्फ देखा, काली कार गुजर गयी। चित्र बना, गया। एक छाया आयी, गयी-कुछ भी कठिनाई नहीं है।

लेकिन जब यह काली छाया कार की तुम्हारे भीतर से निकल रही है, तब तुम्हारे मन में एक कामना जगी-ऐसी कार मेरे पास हो! मन में एक विकार उठा। एक लहर उठी-जैसे पानी में किसी ने कंकड़ फेंका और लहर उठी। कार तो जा चुकी, अब लहर तुम्हारे साथ है। अब यह लहर तुम्हें चलाएगी।

तुम धन कमाने में लगोगे, या तुम चोरी करने में लगोगे, या किसी की जेब काटोगे। अब तुम कुछ करोगे। अब वृत्ति ने तुम्हें पकड़ा। अब वृत्ति तुम्हारी कभी क्रोध करवाएगी, अगर कोई बाधा डालेगा। अगर कोई मार्ग में आएगा तो तुम हिंसा करने को उतारू हो जाओगे, मरने-मारने को उतारू हो जाओगे। अगर कोई सहारा देगा तो तुम मित्र हो जाओगे, कोई बाधा देगा तो शत्रु हो जाओगे। अब तुम्हारी रातें इसी सपने से भर जाएंगी। बस यह कार तुम्हारे आसपास घूमने लगेगी। जब तक यह न हो जाए, तुम्हें चैन न मिलेगा।
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और मजा यह है कि वर्षों की मेहनत के बाद जिस दिन यह तुम्हारी हो जाएगी, तुम अचानक पाओगे, कार तो अपनी हो गयी, लेकिन अब? इन वर्षों की बेचैनी का अभ्यास हो गया। अब बेचैनी नहीं छोड़ती। कार तो अपनी हो गयी, लेकिन बेचैनी नहीं जाती, क्योंकि बेचैनी का अभ्यास हो गया।

अब तुम इस बेचैनी के लिए नया कोई यात्रा-पथ खोजोगे। बड़ा मकान बनाना है! हीरे-जवाहरात खरीदने हैं! अब तुम कुछ और करोगे, क्योंकि अब बेचैनी तुम्हारी आदत हो गयी। और अब इस बेचैनी का तुम क्या करोगे? सालों तक बेचैनी को सम्हाला, कार तो मिल गयी; लेकिन अब कार का मिलना न मिलना बराबर है। अब यह बेचैनी पकड़ गयी।

इसीलिए तो धनी बहुत लोग हो जाते हैं और धनी नही हो पाते। क्योंकि जब वे धनी होते हैं, तब तक बेचैनी का अभ्यास हो गया उनका। जब तक धनी हुए तब तक चैन से न रह सके, सोचा कि जब धनी हो जाएंगे तब चैन से रह लेंगे। लेकिन चैन कोई इतनी आसान बात है। अगर बेचैनी का अभ्यास घना हो गया, तो धनी तो तुम हो जाओगे, बेचैनी कहां जाएगी? तब और धनी होने की दौड़ लगती है। और मन कहता है और धनी हो जाएं, फिर..?। लेकिन सारा जाल मन का है।

ओशो 

प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय

जब तुम यात्रा पर निकलोगे तभी परीक्षा होती है तुम्हारे नक्‍शो की। उसके बिना कोई परीक्षा नहीं। जो भी यात्रा पर गए, उन्होंने शास्त्र को सदा कम पाया। जो भी यात्रा पर गए, उन्होंने गुरुओं को कम पाया। जो भी यात्रा पर गए, उन्हें एक बात अनिवायरूपेण पता चली कि प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं ही खोजना पड़ता है। दूसरे से सहारा मिल जाए, बहुत। पर कोई दूसरा तुम्हें मार्ग नहीं दे सकता। क्योंकि दूसरा जिस मार्ग पर चला था, तुम उस पर कभी भी न चलोगे। वह उसके लिए था। वह उसका था। वह उसके स्वभाव में अनुकूल बैठता था।
और प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है।
बुद्ध ने यह घोषणा की कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। इसलिए एक ही राजपथ पर सभी नहीं जा सकते, सबकी अपनी पगडंडी होगी। इसीलिए सदगुरु तुम्हें रास्ता नहीं देता, केवल रास्ते को समझने की परख देता है। सदगुरु तुम्हें विस्तार के नक्शो नहीं देता, केवल रोशनी देता है, ताकि तुम खुद विस्तार देख सको, नक्शो तय कर सको। क्योंकि नक्शो रोज बदल रहे हैं।
जिंदगी कोई घिर बात नहीं है, जड़ नहीं है। जिंदगी प्रवाह है। जो कल था वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं होगा।
सदगुरु तुम्हें प्रकाश देता है, रोशनी देता है, दीया देता है हाथ में कि यह दीया ले लो, अब तुम खुद खोजो और निकल जाओ। और ध्यान रखना, खुद खोजने से जो मिलता है, वही मिलता है। जो दूसरा दे-दे, वह मिला हुआ है ही नहीं। दूसरे का दिया छीना जा सकता है। खुद का खोजा भर नहीं छीना जा सकता। और जो छिन जाए वह कोई अध्यात्म है? जो छीना न जा सके, वही।

ओशो 

नकली शिष्य

जिब्रान की कहानी है कि एक आदमी गांव-गाव कहता फिरता था कि मुझे स्वर्ग का पता है, जिनको आना हो मेरे साथ आ जाओ। कोई आता नहीं था, क्योंकि लोगों को हजार दूसरे काम हैं, कोई स्वर्ग जाने की इतनी जल्दी वैसे भी किसी को नहीं है। लोग स्वर्गीय तो मजबूरी में होते हैं। जब हाथ-पैर ही नहीं चलते और लोग मरघट पर पहुंचा आते हैं, तब स्वर्गीय होते हैं। कोई स्वर्गीय होने को राजी नहीं था। लोग कहते, आपकी बात सुनते हैं, जंचती है; जब जरूरत होगी तब उपयोग करेंगे, मगर अभी कृपा करें, अभी…अभी हमें जाना नहीं।

एक गांव में ऐसा हुआ.. उस आदमी का खूब धंधा चलता था। क्योंकि जिनको स्वर्ग नहीं जाना, उनको बचने के लिए भी गुरु को कुछ गुरु-दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह आ जाए गांव में और समझाए, तो उसकी कुछ सेवा भी करनी पड़ती, पैर भी पड़ने पड़ते। वे कहते, तुम बिलकुल ठीक हो, मगर अभी हम साधारणजन, अभी संसार में उलझे हैं; जब कभी सुलझेंगे, जरूर आपकी बात का खयाल करेंगे। रख लेते हैं सम्हालकर हृदय में। तो गुरु का धंधा भी चलता था। न कभी कोई झंझट आयी थी, न कुछ!

एक गांव में उपद्रव हो गया। एक असली शिष्य मिल गया। उसने कहा, अच्छा, तुम्हें पता है! पक्का पता है? बिलकुल पक्का पता है। क्योंकि अभी तक कोई झंझट आयी नहीं थी। उसने कहा, अच्छा, मैं चलता हूं। कितने दिन लगेंगे पहुंचने में? तब जरा गुरु घबड़ाया कि यह जरा उपद्रवी मालूम पड़ता है। पैर छुओ, बात ठीक है। साथ चलने की बात! मगर अब सबके सामने मना भी नहीं कर सका। उसने कहा, देखेंगे, भटकाके साल दो साल, भाग जाएगा अपने आप। छह साल बीत’ गए। वह उनके पीछे ही पड़ा है। वह कहता है कि कब आएगा? अभी तक आया नहीं। एक दिन उस गुरु ने कहा, तेरे हाथ जोड़ता हूं भैया! तू जब तक न मिला था हमको भी पता था, अब तेरे कारण हमारा भी! असली शिष्य मिल जाए, तो फिर गुरु अपने आप।

दुनिया में नकली गुरु हैं, क्योंकि नकली शिष्यों की बड़ी संख्या है। नकली गुरु तो बाइप्राडक्ट हैं। वे सीधे पैदा नहीं होते। नकली शिष्य उन्हें पैदा कर लेता है।


ओशो 

स्वर्ग और नर्क

एक दुकान पर एक शिकारी कुछ सामान खरीद रहा था। अफ्रीका जा रहा था शिकार करने। कहीं जंगल में भटक न जाए, इसलिए उसने एक यंत्र खरीदा : दिशासूचक यंत्र, कॅम्पास। और तो सब ठीक था, उसने खोलकर देखा, लेकिन कॅम्पास में पीछे एक आईना भी लगा था। यह उसकी समझ में न आया। क्योंकि यह कोई कॅम्पास है या किसी स्त्री का साज-श्रृंगार का सामान? इसमें आईना किसलिए लगा है? यह दिशासूचक यंत्र है, इसमें आईने की क्या जरूरत? उसने दुकानदार से पूछा कि और सब तो ठीक है, लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें आईना क्यों लगा है? दुकानदार ने कहा, यह इसलिए कि जब तुम भटक जाओ, तो कॅम्पास तो बताएगा स्थान, आईने में तुम देख लेना ताकि पता चल जाए-कौन भटक गया है? कहा भटक गए हो यह तो कॅम्पास से पता चल जाएगा; लेकिन कौन भटक गया है!

अपना पता नहीं है, स्वर्ग के नक्शा बना दिए हैं! विवाद चल रहे हैं लोगों के-कितने नर्क होते हैं? हिंदू कहते हैं, तीन। जैन कहते हैं, सात। बुद्ध ने बड़ी मजाक की है, उन्होंने कहा, सात सौ। यह मजाक की है, क्योंकि बुद्ध को जरा भी उत्सुकता नहीं है इस तरह की मूढ़ताओं में। लेकिन मजाक भी -नहीं समझ पाते लोग। बुद्ध के मानने वाले हैं जो कहते हैं कि नहीं, सात सौ ही होते हैं, इसीलिए कहे। मैं तुमसे कहता हूं सात हजार।
आदमी सत्य से भी झूठ खोज लेता है। इसलिए आदमी भटकता है।

ओशो 

Saturday, July 25, 2015

The real question

क्योंकि मन परस्पर विरोधी चीजों को जोड़ता है इसलिए उसे सदा तनाव में रहना पड़ता है; वह चैन में नहीं हो सकता। मन सदा दृश्य से अदृश्य की ओर, अदृश्य से दृश्य की ओर गति करता रहता है। इसलिए मन प्रत्येक क्षण गहन तनाव में होता है। यह दो ऐसी चीजों को जोड़ता है जो जोड़ी नहीं जा सकतीं। यही तनाव है, यही चिंता है। तुम हर क्षण चिंता में जीते हो।
मैं तुम्हारी आर्थिक चिंता या ऐसी दूसरी चिंताओं की बात नहीं करता; वे परिधि की चिंताएं हैं, बाहरी चिंताएं हैं। वे वास्तविक चिंताएं नहीं हैं। बुद्ध की चिंता वास्तविक चिंता है। तुम भी उस चिंता में हो; लेकिन दैनंदिन चिंताओं से तुम इस कदर लदे हो कि तुम्हें बुनियादी चिंता का पता ही नहीं चलता।
एक बार तुम उस बुनियादी चिंता का सुराग पा लो तो तुम धार्मिक हो जाओगे। इस बुनियादी चिंता की फिक्र ही धर्म है। बुद्ध उसी चिंता से चिंतित हुए थे। वे धन के लिए नहीं चिंतित थे, सुंदर पत्नी के लिए नहीं चिंतित थे; उन्हें किसी चीज की चिंता न थी। सामान्य चिंताएं उनके पास बिलकुल न थीं। वे सुखी—संपन्न थे; बड़े राजा के बेटे थे; अत्यंत सुंदर पत्नी के पति थे; और उनके पास सब कुछ था। चाहने भर से उनकी चाह पूरी हो सकती थी। जो भी संभव था, वह उनके पास था। लेकिन अचानक वे चिंताग्रस्त हो उठे। यह बुनियादी चिंता थी—प्राथमिक चिंता।
उन्होंने एक शव को जाते देखा और उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि इस आदमी को क्या हुआ है? सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया है। मृत्यु के साथ बुद्ध का यह पहला साक्षात्कार था।

 उन्होंने तुरंत दूसरा प्रश्न पूछा : ‘क्या सभी लोग मरते हैं? क्या मैं भी मरूंगा?’
इस प्रश्न को देखो! तुम यह प्रश्न नहीं पूछते। तुम शायद पूछते कि कौन मरा है, और क्यों मरा है? या तुम शायद यह कहते कि युवा नजर आ रहा है; यह मरने की उम्र न थी। लेकिन यह चिंता बुनियादी नहीं है; इसका तुम से कुछ लेना देना नहीं है। हो सकता है, तुम्हें सहानुभूति हुई होती, तुम दुखी भी होते। लेकिन यह चिंता परिधि पर ही रहती, जरा देर बाद तुम उसे भूल जाते।
बुद्ध ने पूरे प्रश्न को अपनी तरफ मोड़ दिया. ‘क्या मैं भी मरूंगा?’ सारथी ने कहा ‘मैं आपसे झूठ कैसे बोलूं सबको मरना है, हरेक को मरना है।’ तब बुद्ध ने कहा ‘रथ वापस ले चलो। जब मुझे मरना ही है तो अब जीवन का कोई अर्थ न रहा। तुमने मेरे भीतर एक गहरी चिंता को जन्म दे दिया है। और जब तक यह चिंता समाप्त नहीं होती, मुझे चैन नहीं है।’
यह चिंता क्या है? यह बुनियादी चिंता है। अगर तुम जीवन की वस्तुस्थिति के प्रति बुनियादी रूप से सजग हो जाओ तो एक सूक्ष्म चिंता तुम्हें घेर लेगी और तुम भीतर ही भीतर उस चिंता से कापते रहोगे। चाहे तुम कुछ करो या न करो, वह चिंता रहेगी, एक संताप बनकर रहेगी।
मन ऐसे दो किनारों को जोड़ता है जिनके बीच अतल खाई है। एक ओर शरीर है जो मृण्मय है, और दूसरी ओर तुम्हारे भीतर कुछ है जो चिन्मय है। ये दो विपरीतताए हैं। यह ऐसा ही है मानो तुम विपरीत दिशाओं में जाने वाली दो नावों पर सवार हो। तब तुम गहरे द्वंद्व में रहोगे ही। वही द्वंद्व मन का द्वंद्व है। मन दो विपरीतताओ के मध्य में है: यह एक बात हुई।
दूसरे, मन एक प्रक्रिया है, वस्तु नहीं। मन कोई वस्तु नहीं है, वरन एक प्रक्रिया है। मन शब्द से एक धोखा होता है। जब हम कहते हैं मन, तो ऐसा लगता है कि तुम्हारे भीतर मन नाम की कोई चीज है। ऐसी कोई चीज नहीं है। मन कोई चीज नहीं है, एक प्रक्रिया है। इसलिए उसे मन न कहकर मनन कहना उचित होगा। संस्कृत में एक शब्द है. चित्त, जिसका अर्थ मनन करना है; मन नहीं, मनन :एक प्रक्रिया।

ओशो 

Friday, July 24, 2015

अनुभव पर आशा की सदा जीत

सुना है मैंने कि एक गांव में एक आदमी की तीसरी पत्नी मरी और उसने फिर चौथी शादी की। तो गांव के लोग उसे कुछ भेंट करना चाहते थे, लेकिन भेंट करते-करते थक गये थे। तीन दफा शादी कर चुका था। हर बार भेंट कम होती चली गई थी। जब उसने चौथी शादी की तो उम्र भी बहुत हो गई थी और गांव के लोग भी परेशान हो गये थे कि अब क्या भेंट करें। तो गांव के लोगों ने एक तख्ती उसे भेंट की जिस पर लिखा था–अनुभव के ऊपर आशा की विजय। तीन पत्नियों का अनुभव भी उसको चौथी पत्नी से न रोक पाया। पूरा गांव जानता था कि जब तक पत्नी जिंदा रहती है, तब तक वह गांव में पत्नी के जिंदा होने के लिए रोता है। और जब पत्नी मर जाती है तो पत्नी के मरने के लिए रोता है।
अनुभव पर आशा सदा जीत जाती है। परिग्रही का चित्त जो है वह आशा से बंधा हुआ चलता है। अपरिग्रह की दृष्टि तो तभी आयेगी जब आशा पर अनुभव जीते। आपका अतीत, आपका अनुभव पर्याप्त है कहने को कि सब पाकर भी कुछ पाया नहीं गया है। और वे जो राष्ट्रपति के पदों पर पहुंच जाते हैं, वे कुर्सियों पर बैठ कर अचानक पाते हैं कि कुर्सी पर बैठ गये, पाया कुछ भी नहीं गया है।
असल में जहां पाना है वह है दिशा बीइंग की, और जो हम पा रहे हैं वह है दिशा हैविंग की। जो हम पा रहे हैं वे हैं चीजें, और जो हमें पाना है वह है आत्मा। ये चीजें कभी भी आत्मा नहीं बन सकतीं। यह भ्रांत-दौड़ एक जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी चलती है। असल में हम अपने पुराने अनुभवों को भुलाते चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि पिछले जन्म के अनुभव हमारे भूल गये हैं, हमने भुला दिये हैं। हम इसी जन्म के अनुभवों को भुलाते, उपेक्षा करते चले जाते हैं। हम सदा ही अनुभव को इंकार करते चले जाते हैं और हम सोचते हैं कि जो अब तक हुआ उससे भिन्न आगे हो सकता है। अनेक जन्मों का अनुभव भी हमें इस बात से नहीं रोक पाता है कि हम वस्तु को आत्मा न बना सकेंगे। हैविंग, बीइंग नहीं बन सकता है। वह असंभावना है।
ओशो

मालिक

पति मालिक है पत्नी का। पति शब्द का अर्थ ही मालिक होता है, द ओनर। पति को हम स्वामी कहते हैं। स्वामी का मतलब होता है, मालिक। परिग्रह का अर्थ है–स्वामित्व की आकांक्षा। पिता बेटे का मालिक हो सकता है, गुरु शिष्य का मालिक हो सकता है। जहां भी मालकियत है वहां परिग्रह है, और जहां भी परिग्रह है वहां संबंध हिंसात्मक हो जाते हैं। क्योंकि बिना किसी के साथ हिंसा किये मालिक नहीं हुआ जा सकता; और बिना किसी को गुलाम बनाये मालिक नहीं हुआ जा सकता। और बिना परतंत्रता थोपे पजेसिव होना असंभव है।
लेकिन क्यों है मनुष्य के मन में इतनी आकांक्षा कि वह मालिक बने? क्यों दूसरे का मालिक बनने की आकांक्षा है? दूसरे के मालिक बनने में इतना रस क्यों है?
बहुत मजे की बात है: चूंकि हम अपने मालिक नहीं हैं, इसलिए। जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, उसकी मालकियत की धारणा खो जाती है। लेकिन हम अपने मालिक नहीं हैं और उसकी कमी हम जिंदगी भर दूसरों के मालिक होकर पूरी करते रहते हैं।
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लेकिन कोई चाहे सारी पृथ्वी का मालिक हो जाये तो भी कमी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि अपने मालिक होने का मजा और है, और दूसरे के मालिक होने में सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं। अपना मालिक होना एक आनंद है, दूसरे का मालिक होना सदा दुख है। इसलिए जितनी बड़ी मालकियत होती है, उतना बड़ा दुख पैदा हो जाता है। जिंदगी भर हम कोशिश करते हैं कि वह जो एक चीज चूक गई है, कि हम अपने मालिक नहीं हैं, सम्राट नहीं हैं अपने, वह हम दूसरों के मालिक बन कर पूरा करने की कोशिश करते हैं।
ओशो

एक बुंद से साहेब मदिल बनावल हो

एक बुंद से साहेब मदिल बनावल हो।
बिना नेव के मदिल बहु कल लागल हो।।


इसके दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है, बूंद का अर्थ होता है : वीर्य  बिंदु। परमात्मा ने चमत्कार किया है, एक छोटे से वीर्य  बिंदु से… सच तो यह है पूरे बिंदु से भी नहीं, क्योंकि एक वीर्य के बिंदु में करोड़ों जीवाणु होते हैं, करोड़ों कोष्ठ होते हैं, सैल होते हैं। एक सैल से ही जीवन निर्मित होता है, पूरे बिंदु से नहीं। एक बार के सं भोग में करीब एक करोड़ सैल होते हैं। एक करोड़ व्यक्ति पैदा हो सकते थे, उनमें से एक, वह भी हमे श नहीं, कभी कभार पैदा होता है। जो कोष्ठ जीवन बनता है, वह आंख से, नंगी आंख से तो देखा ही नहीं जा सकता; उसके लिए खुर्दबीन चाहिए।
बड़ा चमत्कार किया है! एक अदृशय  छोटे से कण से सारा जीवन निर्मित हुआ है। देह, मन, तन सब उससे फैले हैं। यह तो एक अर्थ है। एक बूंद से साहेब मदिल बनावल हो। यह जीवन का मंदिर बनाया है। एक छोटी  सी ईंट है, उस पर सारा मंदिर खड़ा है।


बिना नेव के मदिल, बहु कल लागल हो।

बड़ा चमत्कार मालूम होता है, बड़ा विस्मय मालूम होता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है उस दूसरे चमत्कार के मुकाबले। क्योंकि गुरु ध्यान की एक ही छोटी बूंद से, फिर एक मंदिर बनाता है। वही मंदिर परमात्मा का आवास बनता है। एक छोटी सी बूंद.. .अदृश्य बूंद ध्यान की, गुरु से शिष्य में गिर जाती है। जो झुका है, उसमें गिर जाती है। बस उसी बूंद के आसपास मंदिर बनना शुरू हो जाता है।
इसलिए श्रद्धा को इतना प्रशंसित किया गया है, इतना गुण गाया गया है श्रद्धा का। क्योंकि श्रद्धा के ही किसी क्षण में बूंद सरक सकती है गुरु से शिष्य में। अगर शिष्य जरा भी संघर्षशील है, विवादी है, जरा भी संदेह से भरा है, संभ्रम में है, तो अपनी सुरक्षा करेगा, बूंद प्रवेश नहीं कर पाएगी।
जैसे स्त्री पुरुष के बीच संभोग घटता है, उस संभोग में पुरुष से जीवन ऊर्जा स्त्री में प्रवेश करती है ,ठीक वैसा ही संभोग गुरु और शिष्य के बीच बड़े आत्मिक तल पर घटता है। श्रद्धा हो परिपूर्ण, शिष्य बिल्कुल झुका हो, जरा भी संदेह न हो, भरोसा पूरा हो, तो ही वह परम संभोग घट सकता है। उसके घटते ही मंदिर बनना शुरू हो जाता है। कब बूंद सरकती है, इसका तो पता भी नहीं चलता, क्योंकि अदृश्य है। जब मंदिर बन जाता है तभी पता चलता है। तभी लौट कर शिष्य देखता है कि जरूर कभी बूंद प्रवेश कर गयी होगी। कब पहली ईंट रखी गयी, पता नहीं-और बिना नींव के मंदिर बन जाता है! एक चमत्कार है।

ओशो
 

गुरु

गुरु कठोर भी होगा। गुरु चोट भी करेगा, तो ही तो जगा सकता है। इसलिए जो गुरु सिर्फ सांत्वना देता हो, बचना, सावधान रहना! वहां से तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटनेवाली नहीं है। जो गुरु तुम्हें सांत्वना देता हो, वह तुम्हें लोरी का गीत सुना रहा है। उससे तुम्हारी नींद और गहरी हो जाएगी। जो गुरु तुम्हें जगाना चाहता है, कठोर होगा, झकझोरेगा।

सुबह देखते हो न, तीन बजे रात उठना है, अलार्म बजता है, कैसा क्रोध आता है! अपनी ही घड़ी को पटक देते हैं लोग उठाकर! खुद ही अलार्म भर कर रात सोए थे, अलार्म दुश्मन जैसा मालूम पड़ता है। तुम्हीं जाकर गुरु से प्रार्थना करते हो मुझे जगाओ! लेकिन जब वह जगाएगा तो जन्मों जन्मों की नींद टूटेगी, बड़ी पीड़ा होगी, बड़े कष्ट होंगे। अगर अपने प्रण की याद रखी तो ही जग पाओगे, अन्यथा भाग जाओगे। करोड़ों में एक-आध गुरु के पास पहुंचता है। फिर जो पहुंचते हैं गुरु के पास, सब टिक नहीं पाते; उनमें से बहुसंख्यक भाग जाते हैं।

पुरानी तिब्बत में कहावत है : हजार बुलाए जाते हैं तो दस पहुंचते हैं; जो दस पहुंचते हैं, उनमें से नौ भाग जाते हैं, एक ही बचता है। मगर जो बच जाए, वह धन्यभागी है। वही ब्राह्मण हो पाता है।

ओशो 

कुत्ता और हड्डी

तुम्हारी हालत कुत्ते जैसी हो गयी है। कुत्ते को देखा है? सूखी हड्डियां  चूसता है, जिनमें कुछ रस नहीं है। कुत्ते सूखी हड्डियों  के पीछे दीवाने होते हैं। एक कुत्ते को सूखी हड्डी मिल जाए तो सारे मुहल्ले के कुत्ते उससे लड़ने को तैयार हो जाते हैं। बड़ी राजनीति फैल जाती है। बड़ा विवाद मच जाता है। बड़ी पार्टियां खड़ी हो जाती हैं। कुत्तों को इतनी सूखी हड्डी में रस क्या है? रस तो उसमें है ही नहीं। फिर यह रस कैसा? हड्डी को तो निचोडो भी, मशीनों से, तो भी कुछ निकलने वाला नहीं है सूखी हड्डी है। फिर होता क्या है?


एक बड़े मजे की घटना घटती है। कुत्ता जब सूखी हड्डी को चूसता है तो उसके मसूढे, उसकी जीभ, उसका तालू सूखी हड्डी की चोट से टूट जाता है जगह जगह, उससे खून बहने लगता है। वह उसी खून को चूसता है और सोचता है हड्डी से आ रहा है। और कुत्ते का तर्क भी ठीक है, क्योंकि कुत्ते को और इससे ज्यादा पता भी क्या चले! खून गले के भीतर जाता हुआ मालूम पड़ता है ,प्रमाण हो गया कि हड्डी से ही आता होगा।



तुम जरा गौर करोगे तो तुमने जिंदगी में जिन बातों को सुख कहा है, वे सब ऐसी ही हैं। हड्डी से सिर्फ तुम्हारा ही खून तुम्हारे गले में उतर रहा है। हड्डी से कुछ नहीं आ रहा है, सिर्फ घाव बन रहे हैं। मगर तुम सोच रहे हो कि बड़ा रस आ रहा है। और जिस हड्डी से रस आ रहा है, उसको छोड़ोगे कैसे? अगर कोई छुड़ाना चाहे तो तुम मरने—मारने को तैयार हो जाओगे। कुत्ते जैसी दशा है आदमी की।


तुम सोचते हो धन के मिलने से सुख आता है? तो तुम उसी गलती में हो, जिसमें कुत्ते हैं। धन से सुख नहीं आता, लेकिन आता तो लगता है। तो जरूर कहीं बात होगी। आता तो लगता है, गले से उतरता तो लगता है। क्योंकि धनी आदमी प्रसन्न दिखता है, प्रफुल्लित दिखता है; उसकी चाल  में गति आ जाती है। देखा! पैसे पड़े हों खीसे में तो गर्मी रहती है। सर्दी में भी गरमी रहती है!


ओशो 

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