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Wednesday, July 29, 2015

कहंवां से जीव आइल।

लोग न मालूम कैसे—कैसे प्रश्रों में उलझे रहते हैं! क्रासवर्ड, पहेलियां भरते रहते हैं। इस जिंदगी की पहेली उलझी पड़ी है, किसी अखबार में छपी पहेली को सुलझा रहे हैं! अभी भीतर जो पहेली है वह भी सुलझी नहीं। खुद सुलझे नहीं हैं, लोग दूसरों को सुलझाने चल पड़ते हैं। दूसरे को सुलझाने में झंझट नहीं है। अपना क्या बिगड़ता—बनता है! दूसरे को सुलझाने में तुम बाहर ही रहते हो प्रश्रों के।
एक चमत्कार की घटना रोज यहां घट रही है। पश्‍चिम से मनोवैज्ञानिक आ रहे हैं, मनोविश्लेषक आ रहे हैं, मनोचिकित्सक आ रहे हैं— जिन्होंने जिंदगीभर दूसरों को, दूसरों की समस्याएं सुलझाने का काम किया है। जब वे मेरे पास आते हैं तो मैं उनसे पूछता हूं : ” तुम करते क्या रहे। तुम ख्यातिनाम हो। तुमने हजारों मरीजों की मानसिक चिकित्सा की है। ” तब उनकी आंखें झुक जाती हैं। वे कहते हैं : हम दूसरों के प्रश्‍न तो सुलझाते रहे, लेकिन अपना प्रश्‍न उलझा पड़ा है।
मगर यह हो कैसे सकता है कि तुम्हारा प्रश्‍न उलझा पड़ा हो और तुम दूसरे का सुलझाओ। और तुम्हारा सुलझाना किस काम का होगा। तुम्हारे सुलझाने से और बात उलझेगी, और गांठ लग जाएगी, धागे और उलझ जाएंगे। और यही हो रहा है, धागे आदमी के उलझते जा रहे हैं। क्योंकि जिनके खुद नहीं सुलझे हैं, वे दूसरों को सुलझाने चले गए।
लेकिन आदमी दूसरे के प्रश्रों के सुलझाने में इतनी उत्सुकता क्यों लेता है। कारण यही है: दूसरे का प्रश्‍न सुलझाने में अपने प्रश्‍न से बचने की सुविधा है, उपाय है। भूल ही गए अपने प्रश्‍न।
धार्मिक व्यक्ति वही है, जो यह झंझट लेता है। जो इस उपद्रव में उतरता है। जो कहता : पहले मैं अपने प्रश्‍न को सुलझा लूं।
और प्रश्‍न क्या है— कहंवां से जीव आइल। आए तुम कहां से। यह बात ही डराती है। मैं कौन हूं। हमारा मन होता है नाम बता दें— अ ब स। गांव बता दें— पता—ठिकाना बता दें। सस्ता कोई उत्तर दे दें— स्त्री हूं, पुरुष हूं। जवान हूं, बूढा हूं। प्रसिद्ध हूं, अप्रसिद्ध हूं। नाम है, बदनाम है। कुछ… ऐसा कुछ उत्तर देकर हम निपट लेना चाहते हैं।
तुम्हारा नाम तुम हो। तुम्हारा गांव तुम हो। तुम्हारा पता— ठिकाना तुम हो। किसे धोखा दे रहे हो। ये ऊपर से चिपका ली गई बातें हैं। तुम्हारे जीवन की समस्या को हल करेंगी, समाधान देंगी। इनसे समाधि फलेगी। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं, भारतीय हूं, चीनी हूं, जापानी हूं— क्या उत्तर दे रहे हो तुम। इनसे क्या पता चलता है। कुछ भी पता नहीं चलता।
जब बच्चा पैदा होता है, न हिंदू होता है न मुसलमान होता है। कोई बच्चा जनेऊ लेकर तो आता नहीं और न किसी बच्चे का खतना भगवान करता है। बच्चा भारतीय भी नहीं होता, पाकिस्तानी भी नहीं होता। बच्चे के पास कोई भाषा भी नहीं होती— न हिंदी, न अंग्रेजी, न मराठी, न गुजराती। यह कौन है। यह चैतन्य क्या है। यह निर्मल दर्पण क्या है। यह कहां से आ रहा है। यह बिना लिखी किताब क्या है। इस पर अभी कुछ नहीं लिखा गया है। जल्दी ही आइडेंटिटी— कार्ड बनेगा, पासपोर्ट बनेगा। जल्दी नाम—पता— ठिकाना लिख जाएगा। जल्दी इस आदमी को हम एक कोटि में रख देंगे कि यह कौन है। यह डाक्टर हो जाएगा, इंजीनियर हो जाएगा, दुकानदार हो जाएगा, इस राजनीतिक पार्टी में सम्मिलित हो जाएगा, उस राजनीतिक पार्टी में सम्मिलित हो जाएगा। कम्युनिस्ट हो जाएगा, सोशलिस्ट हो जाएगा। यह हजार चीजें हो जाएगा। इस क्लब का मेंबर हो जाएगा, रोटेरियन हो जाएगा, लायन हो जाएगा— और न मालूम क्या— क्या हो जाएगा! और इसके चारों तरफ पर्त—दर— पर्त झूठी बातें जुड़ती चली जाएंगी और उन्हीं में यह खो जाएगा। और कभी यह प्रश्‍न भी नहीं उठेगा इसके भीतर कि आखिर मैं हूं कौन!
ओशो 

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