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Monday, July 27, 2015

कुतूहल से आगे जिज्ञासा

कुछ लोग कुतूहल से थोड़ा आगे बढ़ते हैं और जिज्ञासा करते हैं। जिज्ञासा में थोड़ी ज्यादा गहराई है। लेकिन बस थोड़ी ज्यादा। जिज्ञासा भी बहुत गहरी नहीं है, वह भी उथली है, क्योंकि जिज्ञासा है केवल बौद्धिक। और बुद्धि भी ऐसी है, जैसी खाज होती है। खुजलाएं, तो थोड़ा रस आता है। ऐसा बुद्धि को भी खाज होती रहती है ईश्वर है? आत्मा है? मोक्ष है? ध्यान क्या है? करने के लिए नहीं, ईश्वर क्या है, जानने के लिए नहीं—चर्चा के लिए, बातचीत के लिए। एक बौद्धिक मजा है, एक बौद्धिक व्यायाम है!

तो लोग ऊंची बातें करते हैं, लेकिन उन बातों पर कभी भी कोई दाव नहीं लगाते। ईश्वर है या नहीं, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। और ईश्वर हो तो, ईश्वर न हो तो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। यह बड़े मजे की बात है। एक आदमी मानता है कि ईश्वर है और एक आदमी मानता है कि ईश्वर नहीं है, और दोनों की जिंदगी बराबर एक सी! कोई गाली दे तो उसे भी क्रोध आता है जो मानता है कि ईश्वर है और उसे भी क्रोध आता है जो मानता है कि ईश्वर नहीं है! बल्कि कई दफा तो यह देखा जाता है कि जो मानता है ईश्वर है, उसे ज्यादा क्रोध आता है! क्योंकि जो मानता है कि ईश्वर नहीं है, वह ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकता है आपका? गाली दे सकता है, मार सकता है, हत्या कर सकता है! लेकिन जो मानता है ईश्वर है, वह आपको नर्क तक में सड़ा सकता है! उसके पास ज्यादा उपाय हैं क्रोधित होने के।

अगर ईश्वर के मानने और न मानने से कोई भी अंतर जीवन में न पड़ता हो, तो उसका अर्थ है कि यह ईश्वर से कोई संबंध नहीं है, बौद्धिक बातचीत है। ऐसी जिज्ञासा हो तो आदमी दार्शनिक हो जाता है, चिंतन—मनन करने लगता है, शास्त्र अध्ययन करने लगता है, बहुत सिद्धात इकट्ठे कर लेता है, पक्ष में, विपक्ष में सोच लेता है, वाद—विवाद करता है, शास्त्रार्थ करता है, लेकिन जीता कभी नहीं। अगर आप भी सिर्फ जिज्ञासा से भरे हैं, तो यात्रा नहीं होगी। जिज्ञासा से भरे हुए लोग वे हैं, जो मील के पत्थर के पास बैठ जाते हैं और पूछते हैं, मंजिल क्या है? कितनी दूर है? और सदा यही पूछते हैं, लेकिन कभी उठ कर चलते नहीं। जानते तो आप भी कितना हैं! क्या कमी है जानने में! करीब—करीब सभी कुछ जानते हैं। जो बुद्ध ने जाना हो, महावीर ने, कृष्ण ने जाना हो, वह सभी आप भी तो जानते हैं! गीता में पढ़ कर आपको ऐसा नहीं लगता कि ये बातें तो हमें भी मालूम हैं? मालूम आपको भी हैं, पर सिर्फ बुद्धि तक हैं। आपके हृदय तक उनका बीज नहीं पहुंचा है। और बुद्धि पर रखे हुए विचार वैसे ही होते हैं, जैसे पत्थर पर कोई बीज को रख दे। बीज तो होता है, लेकिन पत्थर पर रखा रहता है। अंकुर नहीं फूट सकता। अंकुर फूटना हो तो बीज को पत्थर से गिरना पड़े, जमीन खोजनी पड़े। और जमीन की भी ऊपर की सतह ठीक नहीं है, क्योंकि और गीली जगह चाहिए। तो थोड़ा जमीन के भीतर पहुंचना पड़े, जहां थोड़ी पानी की सुविधा हो, थोड़ा रस बहता हो।

बुद्धि पर पत्थर की तरह बीज रख जाते हैं। हृदय तक जब तक न गिर जाएं, तब तक गीली जगह नहीं मिलती। हृदय में थोड़ा रस बहता है; थोड़ा प्रेम। वहा थोड़ा पानी है। वहा कोई बीज गिरे तो अंकुरित होता है, नहीं तो कभी अंकुरित नहीं होता। जिज्ञासु व्यक्तियों के पास बहुत कुछ होता है, लेकिन पत्थर पर रखे हुए बीजों की भाति। जमीन भी ज्यादा दूर नहीं होती, लेकिन थोड़ी यात्रा भी मुश्किल है। चलना बिलकुल नहीं है, तो पत्थर पर ही बीज रखा रह जाता है। इतनी यात्रा तो करनी ही पड़ेगी कि बीज पत्थर से नीचे गिरे, जमीन पर आए, जमीन में जगह खोजे, थोड़ी गीली भूमि को पाए, थोड़ा छिप जाए अंधेरे में।

ध्यान रहे, जगत में जो ली जन्म पाता है, वह गहन मौन, एकांत, अंधेरे को चाहता है। बुद्धि में तो जितनी चीजें रखी हैं, वे सब खुले प्रकाश में रखी हैं। वहा अंकुर नहीं होते। हृदय आपके भीतर गीली जमीन है, छिपी हुई। वहां कुछ पैदा होता है। इसलिए जो सिर्फ जिज्ञासा से जीते हैं, वे विद्वान बन जाते हैं, पंडित बन जाते हैं, ज्ञानी बन जाते हैं, लेकिन कुछ अंकुरित नहीं होता उनके भीतर, कोई नया जन्म, कोई नया जीवन, कोई नए फूल—कुछ भी नहीं।

ओशो 

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