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Saturday, July 25, 2015

The real question

क्योंकि मन परस्पर विरोधी चीजों को जोड़ता है इसलिए उसे सदा तनाव में रहना पड़ता है; वह चैन में नहीं हो सकता। मन सदा दृश्य से अदृश्य की ओर, अदृश्य से दृश्य की ओर गति करता रहता है। इसलिए मन प्रत्येक क्षण गहन तनाव में होता है। यह दो ऐसी चीजों को जोड़ता है जो जोड़ी नहीं जा सकतीं। यही तनाव है, यही चिंता है। तुम हर क्षण चिंता में जीते हो।
मैं तुम्हारी आर्थिक चिंता या ऐसी दूसरी चिंताओं की बात नहीं करता; वे परिधि की चिंताएं हैं, बाहरी चिंताएं हैं। वे वास्तविक चिंताएं नहीं हैं। बुद्ध की चिंता वास्तविक चिंता है। तुम भी उस चिंता में हो; लेकिन दैनंदिन चिंताओं से तुम इस कदर लदे हो कि तुम्हें बुनियादी चिंता का पता ही नहीं चलता।
एक बार तुम उस बुनियादी चिंता का सुराग पा लो तो तुम धार्मिक हो जाओगे। इस बुनियादी चिंता की फिक्र ही धर्म है। बुद्ध उसी चिंता से चिंतित हुए थे। वे धन के लिए नहीं चिंतित थे, सुंदर पत्नी के लिए नहीं चिंतित थे; उन्हें किसी चीज की चिंता न थी। सामान्य चिंताएं उनके पास बिलकुल न थीं। वे सुखी—संपन्न थे; बड़े राजा के बेटे थे; अत्यंत सुंदर पत्नी के पति थे; और उनके पास सब कुछ था। चाहने भर से उनकी चाह पूरी हो सकती थी। जो भी संभव था, वह उनके पास था। लेकिन अचानक वे चिंताग्रस्त हो उठे। यह बुनियादी चिंता थी—प्राथमिक चिंता।
उन्होंने एक शव को जाते देखा और उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि इस आदमी को क्या हुआ है? सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया है। मृत्यु के साथ बुद्ध का यह पहला साक्षात्कार था।

 उन्होंने तुरंत दूसरा प्रश्न पूछा : ‘क्या सभी लोग मरते हैं? क्या मैं भी मरूंगा?’
इस प्रश्न को देखो! तुम यह प्रश्न नहीं पूछते। तुम शायद पूछते कि कौन मरा है, और क्यों मरा है? या तुम शायद यह कहते कि युवा नजर आ रहा है; यह मरने की उम्र न थी। लेकिन यह चिंता बुनियादी नहीं है; इसका तुम से कुछ लेना देना नहीं है। हो सकता है, तुम्हें सहानुभूति हुई होती, तुम दुखी भी होते। लेकिन यह चिंता परिधि पर ही रहती, जरा देर बाद तुम उसे भूल जाते।
बुद्ध ने पूरे प्रश्न को अपनी तरफ मोड़ दिया. ‘क्या मैं भी मरूंगा?’ सारथी ने कहा ‘मैं आपसे झूठ कैसे बोलूं सबको मरना है, हरेक को मरना है।’ तब बुद्ध ने कहा ‘रथ वापस ले चलो। जब मुझे मरना ही है तो अब जीवन का कोई अर्थ न रहा। तुमने मेरे भीतर एक गहरी चिंता को जन्म दे दिया है। और जब तक यह चिंता समाप्त नहीं होती, मुझे चैन नहीं है।’
यह चिंता क्या है? यह बुनियादी चिंता है। अगर तुम जीवन की वस्तुस्थिति के प्रति बुनियादी रूप से सजग हो जाओ तो एक सूक्ष्म चिंता तुम्हें घेर लेगी और तुम भीतर ही भीतर उस चिंता से कापते रहोगे। चाहे तुम कुछ करो या न करो, वह चिंता रहेगी, एक संताप बनकर रहेगी।
मन ऐसे दो किनारों को जोड़ता है जिनके बीच अतल खाई है। एक ओर शरीर है जो मृण्मय है, और दूसरी ओर तुम्हारे भीतर कुछ है जो चिन्मय है। ये दो विपरीतताए हैं। यह ऐसा ही है मानो तुम विपरीत दिशाओं में जाने वाली दो नावों पर सवार हो। तब तुम गहरे द्वंद्व में रहोगे ही। वही द्वंद्व मन का द्वंद्व है। मन दो विपरीतताओ के मध्य में है: यह एक बात हुई।
दूसरे, मन एक प्रक्रिया है, वस्तु नहीं। मन कोई वस्तु नहीं है, वरन एक प्रक्रिया है। मन शब्द से एक धोखा होता है। जब हम कहते हैं मन, तो ऐसा लगता है कि तुम्हारे भीतर मन नाम की कोई चीज है। ऐसी कोई चीज नहीं है। मन कोई चीज नहीं है, एक प्रक्रिया है। इसलिए उसे मन न कहकर मनन कहना उचित होगा। संस्कृत में एक शब्द है. चित्त, जिसका अर्थ मनन करना है; मन नहीं, मनन :एक प्रक्रिया।

ओशो 

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