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Friday, November 1, 2019

दर्पण ध्यान




प्यारे ओशो,

जब मैं ग्यारह या बारह वर्ष की रही होंगी, मेरे साथ एक विचित्र घटना घटी। स्कूल में एक बार खेल-कूद का पीरियड चल रहा था, मैं यह देखने के लिए कि मैं ठीक-ठाक लग रही हूं या नहीं, बाथरूम में गई। शीशे के सामने मैं खुद को देखने लगी तो अचानक, मैंने पाया कि मैं अपने शरीर और शीशे में अपने प्रतिबिंब दोनों से अलग बीच में खड़ी हूं और देख रही हूं कि मेरा शरीर अपने प्रतिबिंब को शीशे में देख रहा है।


अपने को तीन-तीन रूपों में देखकर मैं हैरान रह गई, और मुझे लगा कि शायद यह कोई तरकीब होगी जिसे मैं सीख सकती हूं। तो उस घटना के बाद, मैंने इस तरकीब को अपनी सहेलियों को दिखाना चाहा, और खुद भी करके देखना चाहा, लेकिन मुझे इसमें सफलता नहीं मिली।
 
उस समय मुझे ऐसा तो नहीं लगा कि मैं साक्षित्व का कोई प्रयोग कर रही थी। मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरे प्राण मेरे शरीर से निकलकर बाहर खड़े हो गए हैं। क्या उस समय जो मुझे हुआ, उसे समझने में अब कोई अर्थ है?


तंत्र के पुराने शास्त्रों में इस विधि का सुझाव दिया गया है। तुम दर्पण के सामने बैठकर या खड़े होकर लगातार उसमें देखते रहो, देखते रहो। इतनी देर तक उसमें देखो कि तुम अपने प्रतिबिंब के साथ पूरी तरह एक हो जाओ। फिर तुम एक कदम पीछे हटाओ। तुम्हारा शरीर नहीं हटेगा, लेकिन तुम्हारे प्राण पीछे हट जाएंगे। फिर तुम तीन शरीरों को देख पाओगे।

वैसे अगर, तुम हर रोज एक घंटा दर्पण के सामने बैठ जाओ और अपनी आंखों में झांकते रहो, तो कुछ दिनों में, कुछ हफ्तों में- यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है- एक दिन अचानक तुम देखोगे कि दर्पण खाली हो गया; तुम उसके सामने खड़े होओगे, लेकिन दर्पण खाली हो गया। वह भी एक बड़ा अनुभव है। जब यह अनुभव तुम्हें होगा, तुम पाओगे कि एक अपार मौन और एक शांति जो तुमने पहले कभी नहीं जानी वह अचानक तुम पर उतर आई। तुम्हें लगेगा कि जैसे तुम हर प्रतिबिंब के पार चले गए। और प्रतिबिंबों के पार जाकर वास्तविकता पर लौट आए।

तुम्हारे साथ जो हुआ, अच्छा ही हुआ। ऐसे अनुभव कई बच्चों को होते हैं। मुझे कई लोगों ने बताया है कि उन्हें इस प्रकार के अनुभव हुए, लेकिन कोई इन अनुभवों के पीछे जाने की कोशिश नहीं करता। तो कभी कभार ऐसे अनुभव होते हैं, और फिर व्यक्ति उनके बारे में भूल जाता है, या वह सोचने लगता है कि उसने केवल उनकी कल्पना ही की थी, शायद यह कोई सपना था या कोई कल्पना थी। लेकिन वास्तव में यह अनुभव यथार्थ होते हैं। तुम सच में ही अपने शरीर से बाहर चली गई थीं, और जो तुमने देखा वह शरीर के बाहर आकर जागरण का एक अनुभव था।

उसी प्रकार का जागरण तुम्हें अपने शरीर के भीतर भी साधना होगा। इन दोनों में गुण का कोई भेद नहीं है। और शरीर के बाहर जाने के इस अनुभव को समझ पाने का सरलतम उपाय है कि तुम बिस्तर पर पीठ के बल लेट जाओ। शरीर को बिल्कुल शिथिल छोड़ दो, और जब तुम्हें लगे कि तुम पूरी तरह से विश्राम में आ गए, तो अनुभव करना शुरू करो कि तुम्हारे शरीर से तुम बाहर निकल गए हो, छत की ओर तैरते हुए बढ़ रहे हो। कुछ दिनों में तुम अपने शरीर के ऊपर उठ आने में सक्षम हो जाओगे। लेकिन यह बात पूरी तरह से निश्चित कर लो कि इस अवस्था में कोई तुम्हें परेशान न करे। क्योंकि यदि बीच में आकर कोई तुम्हें हिलाए-डुलाए, या तुमसे बात करने लगे, तो हो सकता है कि वह जो महीन धागा तुम्हें तुम्हारे शरीर से जोड़े हुए है वह टूट जाए, और तुम्हारी मृत्यु हो जाए।

इस प्रयोग को करते समय मोमबत्ती की हलकी-हलकी रोशनी हो, और किसी अगरबत्ती का प्रयोग भी करो। लेकिन जो भी कुछ तुम करते हो- जो अगरबत्ती जलाते हो, जिस तरह की मोमबत्ती जलाते हो- फिर हमेशा उसी तरह की चीजों का उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि वे तुम्हारे प्रयोग के साथ जुड़ जाएं।

दो या तीन अनुभवों के बाद तुम जैसे ही वह अगरबत्ती जलाओगे और उस तरह की मोमबत्तियां जलाकर शांत लेटोगे, एकदम से तुम शरीर से बाहर निकल पाओगे। लेकिन इस बात का पूरी तरह से ख्याल रखना पड़ेगा कि इस बीच तुम्हें कोई भी किसी भी तरह की बाधा न दे, कोई भी उस समय उस कमरे में अचानक प्रवेश न कर सके, कोई भी उस कमरे के दरवाजे को खटखटाए नहीं। वह घातक हो सकता है। यदि वह धागा टूट जाए तो उसे वापस जोड़ने का कोई उपाय नहीं है।

जब तुम अपने को यह सुझाव दो कि अब मैं अपने शरीर से बाहर निकलूंगा, अब मैं अपने शरीर से बाहर निकलूंगा, तो उस समय तुम यह सुझाव भी अपने आप को दो कि ठीक तीस मिनट बाद खुद ही मैं अपने शरीर में वापस लौट आऊंगा।

इस बात को कभी भी मत भूलना- क्योंकि शरीर में वापस प्रवेश करना कठिन है। और यदि कभी ऐसा होता है...  तो यदि पुरुष ऐसा ध्यान कर रहा है, तो स्त्री को उसके आज्ञा चक्र पर हलके से छूना चाहिए और यदि कोई स्त्री ध्यान कर रही है तो किसी पुरुष को उसके आज्ञा चक्र को हलके से छूना चाहिए। इसलिए यह भी अच्छा होगा कि तुम पहले से अपने दरवाजे पर किसी को बिठा दो, एक तो वह किसी को भीतर आने नहीं देगा, और यदि आधे घंटे के बाद तुम कमरे से बाहर नहीं निकले हो, तो वह आकर तुम्हारे आज्ञा चक्र को छू भी सकेगा। और इस प्रकार आज्ञा चक्र पर छूने भर से ही एकदम तुम अपने शरीर में वापस लौट आते हो।

तंत्र की विधि- दर्पण में देखना

(दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

ओशो

 
 


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